लेखक: प्रफुल शाह
प्रकरण-106
‘केतकी बन, जाओ...मैं तुम्हें आज से एक वर देती हूं...’ भावना की बातें सुनकर यशोदा और केतकी, दोनों को आश्चर्य हुआ। यशोदा बोली, ‘क्या बोल रही हो तुम? वर तो भगवा देते हैं...कोई महान व्यक्ति दे सकता है...’
‘मां, तुम नहीं समझ पाओगी...केतकी बहन, आज से तुम मेरी आकी और मैं तुम्हारी जिन्न..’
यशोदा ने अपना सिर खुजाने लगी। केतकी हंसकर बोली, ‘अरे मां, आका मतलब मालिक। इसने आका को आकी बना दिया...’
‘देखा...कितनी होशियार आकी मिली है मुझे...तो आकी, मेरी एक बात सुनो...आज से तुम इस घर की मालिक और मैं तुम्हारी नौकर।’
केतकी ने अपनी हंसी जैसे-तैसे रोकी, ‘तब तो मेरी और इस घर की खैर नहीं...चलो तो अब बताओ अब मुझे इसमें क्या करना है?’
‘बहुत बड़ा का करना है तुमको। वास्तव में करना कुछ भी नहीं है। तुम जो कहोगी, मैं वह करूंगी और मुझे जो समझ में आएगा, वह करूंगी...तुम सिर्फ इस घर पर राज करो, आराम करो...इसकी शुरुआत आज और अभी से करनी है..मैं और मां बाजार जाकर सामान लेकर आती हैं।’
‘लेकिन यदि मैं तुम्हारे साथ चलूं तो क्या बुराई है?’
‘हम जिन्न लोग अपने काम में कोई बंटवारा नहीं करते हैं...चलो मां... ’
यशोदा और भावना के निकल जाने के बाद केतकी लेट गयी। सोचने लगी। उसे वह घर कभी भी अपना मायका नहीं लगता था...लेकिन उसे इन हालात में उस घर को छोड़ना पड़ेगा, ऐसा कभी नहीं लगा था। मां के जन्मदिन के दिन उसका पुनर्जन्म हुआ। जीवन एक नयी दिशा की ओर बढ़ने लगा, लेकिन उसकी वजह से मां को घर छोड़ना पड़ा, क्या यह ठीक हुआ? एक तरह से तो ठीक ही हुआ। उस नर्क से उसकी मुक्ति हुई। लेकिन भावना का क्या? उसकी पढ़ाई, उसका भविष्य? भावना माने विधाता द्वारा उसे दी गयी अनमोल भेंट है। मैं उसे किसी बात की कमी नहीं होने दूंगी। बस, अब इन्हीं दोनों के लिए जीवन जीना है। कोई भी कदम उठाने से पहले इन दोनों का विचार करना होगा। लेकिन, इतना सब कुछ हो जाने के बाद रणछोड़ दास चुपचाप बैठा रहेगा, क्या कर सकता है वह?
इधर, रणछोड़ बड़ी देर से विचारमग्न था कि अब क्या किया जाये? भिखाभा तो मेरी हंसी उड़ाएंगे ही, मेरा मजाक बनाएंगे, कि पत्नी हो या बेटी...तुम किसी को भी संभाल नहीं पाए...सौतेली तो जाने ही दो...सगी बेटी भी तुम्हारी बात नहीं मानती। उसके सिर में दर्द होने लगा। उसने आवाज लगायी, ‘यशोदा, जरा चाय तो बनाना...’
रसोई घर से शांति बहन बाहर निकल कर आयीं। वह चिढ़कर बोलीं, ‘यहां खाना बनाते-बनाते हमारी कमर टूट गयी...और तुम्हारी जुबान अभी भी यशोदा का नाम जप रही है।’
‘अरे मां, इतने सालों का आदत जो बन गयी है...इसलिए...’
‘तो फिर उसे घर से बाहर निकालने का शौक क्यों चर्राया तुझे...?’
‘ये सब उस कुलच्छिनी के कारण हुआ...’
‘तो भी, अपने गुस्से पर काबू करना था न...सोच-समझ कर बोलना था.. इस सबके कारण अपना तो नुकसान हुआ ही, घर की इज्जत भी गयी।’
‘इसमें इज्जत जाने जैसी कौन-सी बात है?’
‘जितने मुंह उतनी बातें तो होंगी ही न? न अपनी पत्नी को संभाल पाया, न सौतेली बेटी को...न सगी बेटी को...तीनों घर छोड़कर चली गयीं तो इसके लिए लोग तो तुझे ही दोष देंगे...मुझे भी इस उम्र में सिर नीचे करके रहना पड़ेगा।’
उसी समय जयश्री अंदर से बाहर आयी। वह कहीं बाहर जाने के लिए तैयार होकर आयी थी। लेकिन उसके चेहरे पर खुशी नहीं थी। उसे जम्हाइयां आ रही थीं, ‘मैं बाहर जा रही हूं, रात को बाहर से खाकर आऊंगी।’
रणछोड़ दास ने उसे टोका, ‘अरे, घर पर मां अकेली है, और तुम बाहर कहां जा रही हो? घर में बैठो, कहीं नहीं जाना है...’
‘प्लीज, मेरे साथ ऐसा बर्ताव न करें...दादी तो हमेशा ही अकेली रहने वाली है, इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं घर में बैठी रहूं। एक तो दोपहर का खाना अच्छा नहीं था...खाना पकाने की जल्दी ही कोई न कोई व्यवस्था कीजिए...मुझे रात में देर हो सकती है...सिनेमा देखने का कार्यक्रम बनाया है हम लोगों ने...’ रणछोड़ और शांति बहन, दोनों को मुंह खुला का खुला रह गया और जयश्री बाहर निकल गयी।
रणछोड़ दांत भींचते हुए बोला, ‘ऐसा लगता है कि एक जोरदार थप्पड़ लगा दूं...’
‘हां, वैसा ही करो...फिर ये बेटी भी घर छोड़कर चली जाएगी...तब हम और तुम इस घर में रहेंगे भूतों की तरह। अपनी जुबान को कैंची की तरह चलाना बंद करो अब...दिमाग में भरे हुए गुस्से को बाहर फेंको और दूसरे कामों में अपना मन लगाओ...कुछ विचार भी करो...यदि कर सको तो...’
‘किस बात का विचार करूं, तुम ही बताओ अब?’
‘जयश्री के नखरे तो तुम्हें पता ही हैं...ये अपने ही लाड़-प्यार का परिणाम है...मेरी तबीयत भी अब ठीक नहीं रहती है..कुछ भी करो और यशोदा को वापस लेकर आओ...नहीं तो ये घर बिखर जाएगा....मैं तो घर के काम करते-करते मर ही जाऊंगी...’
‘लेकिन मां, मैं उसे लेने जाऊं? मुझसे नहीं हो पायेगा ये सब...’
‘ये नहीं हो पायेगा? चार आदमियों को तो जमा कर सकते हो न?’
‘लेकिन चार आदमियों की क्या जरूरत?’
‘मेरी अर्थी उठाने के लिए...घर के ये काम करते-करते मैं मर ही जाऊंगी...अधिक दिन जी नहीं पाऊंगी...’
तभी घंटी बजी। रणछोड़ दास ने दरवाजा खोला तो उसे आश्चर्य हुआ। वह दरवाजे पर कुछ पल खड़ा रह गया। बाद में उसे होश आया तो बोला,,, ‘आइए, आइए जीतू कुमार।’
मन ही मन बड़बड़ाया, इस नमूने को भी अभी ही आना था? लेकिन चेहरे के भाव छुपाते हुए हंसकर बोला, ‘बैठिए, बैठिए...बड़े दिनों बाद आना हुआ...?’
‘हां, इधर जरा कामकाज की दौड़भाग चल रही है।’
‘अच्छा है..काम तो करते ही रहना चाहिए...घर में सब मजे में है न?’
‘हां, सब मजे में हैं। घर में कोई दिखायी नहीं दे रहा है?’
‘केतकी ने आपको बताया नहीं? वह कह रही थी कि उसका फ्लैट तैयार हो गया है न इसलिए बीच-बीच में वहां आते-जाते रहना पड़ेगा...खाली घर देखकर किसी ने कब्जा कर लिया तो क्या करेंगे?’
‘हां ऐसा तो हो सकता है। तो सभी लोग वहीं गये हैं?’
‘हां, मुझे भी जाना था, लेकिन इधर मेरे पैर ही कहां साथ देते हैं? मेरे कारण रणछोड़ को भी घर में ही रुकना पड़ा। चलिए कहिए चाय बनाऊं या कुछ ठंडा लेंगे?’
‘नहीं...नहीं...अभी कुछ भी खाने-पीने की इच्छा नहीं है...और इच्छा हो ही गयी तो नया घर है न...वहीं पर कुछ मंगवा लूंगा...आप बैठिए...मैं चलता हूं...’ शांति बहन के पैर छूने का नाटक करते हुए जीतू वहां से निकल गया। रणछोड़ को यह समझ में नहीं आ रहा था कि अच्छा हुआ या बुरा। लेकिन आज नहीं तो कल, सच तो लोगों के सामने आ ही जाएगा। परंतु जीतू के रूप में वह केतकी की तरफ मुसीबत का बादल भेज रहा है, इसकी उसे उस समय कल्पना भी नहीं थी।
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह
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