लेखक: प्रफुल शाह
प्रकरण-103
होटल से मंगवाया हुआ नाश्ता खत्म होने पर यशोदा उठी, ‘तुम दोनों खाने में क्या लोगी, बताओ तो उस हिसाब से मैं तैयारी करूं...’
केतकी यशोदा की ओर देखते हुए बोली, ‘देखो मां, तुम्हारा पति और सास घर में नहीं हैं। मुझे खूब पता है कि तुम्हें ऑर्डर लेने की आदत हो गयी है। उन दोनों के घर वापस लौटते तक हम दोनों तुम्हें ऑर्डर दिया करेंगे, ठीक है...?’
यशोदा को हंसी आ गयी। ‘ठीक है...बोलो...तुम्हारा ऑर्डर क्या है...?’
‘ऑर्डर नंबर एक, तुम कोई भी काम मत करो। ऑर्डर नंबर दो, हम जो कुछ कहेंगी वो तुम्हें मानना पड़ेगा...ओके?’
‘सुन रही हूं...कहती रहो....’
‘जिसको नहाना वहाना हो, वो नहा-धो ले, तैयार हो जाए। हम तीनों बाहर जाने वाले हैं अब।’
‘लेकिन,जाएंगे कहां?’
‘ऑर्डर नंबर तीन-सवाल पूछना नहीं है।’
फिर केतकी और भावना ने मिल कर यशोदा को तैयार किया।
केतकी की जिद थी कि आज दिन भर तीनों घूमेंगी-फिरेंगी। मौज-मस्ती करेंगी। यशोदा ने सलाह दी कि दोपहर का भोजन घर पर किया जाए और फिर बाहर निकला जाये। लेकिन केतकी के साथ भावना भी शामिल हो गयी थी। उन दोनों के सामने यशोदा की एक न चली। केतकी सबसे पहले दोनों को शहर के सबसे बड़े मॉल में लेकर गयी। वहां बढ़िया सा एक की-चेन खरीदी गयी। उसके पेंडेंट में घर की आकृति बनी हुई थी और कोने में ‘माय स्वीट होम’ लिखा हुआ था। केतकी बड़ी देर तक उस की चेन को देखती रही। उसने अपनी पर्स में से दो चाबियां निकालीं और उस की-चेन में फंसा दीं। उसके बाद उस चेन को यशोदा के हाथों में देते हुए कहा, ‘ये तुम्हारा बर्थ-डे गिफ्ट है। आज से मेरा घर तुम्हारा है।’
भावना देखती ही रह गयी। उसने खुशी खुशी केतकी का हाथ पकड़ा, ‘घर की चाबी कब मिली, तुमने तो बताया ही नहीं?’ वह थोड़ा सा रूठी। केतकी ने हंस कर कहा, ‘दो दिन से लंबी यात्रा पर जाने की तैयारी में थी, इसलिए भूल ही गयी थी...सॉरी...’
‘ठीक है...ठीक है...बड़ी आयी यात्रा पर जाने वाली...इसके बाद यात्रा छोटी हो या बड़ी, मुझे साथ लेकर जाने वाली होगी तो ही माफ करूंगी...बोलो कबूल है...?’
‘कबूल...कबूल...कबूल मेरी दादी....’
भावना अपने शरीर पर निगाह दौड़ाते हुए बोली, ‘मां, मैं किस ऐंगल से शांतिबहन की तरह दिखाई देती हूं भला?’ तीनों हंसने लगीं। यशोदा ने चाबियां वापस केतकी को सौंपते हुए कहा, ‘इन्हें संभाल कर रखो, इनमें तुम्हारा भविष्य समाया है।’
‘केतकी बहन...चलो न...अभी घर देखने के लिए चलें....’
‘बाद में...उसके पहले मेरा एक जरूरी काम है....’
‘ऐसा कौन सा बड़ा काम है?’ केतकी ने भावना के कान में कुछ कहा। उसे सुन कर केतकी को ताली देने के लिए उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया। दोनों एक ब्यूटी पार्लर में गईं। यशोदा को लगा कि ये दोनों अब यहां पर बहुत समय बिताएंगी तब तक वह आराम से बैठ सकेगी। केतकी ने अंदर जाकर कुछ कहा। थोड़ी ही देर में एक लड़की यशोदा के पास आयी और उसने उसे गाउन देते हुए कहा, ‘प्लीज, आप कपड़े बदल लें।’ यशोदा ने भावना और केतकी की तरफ देखा। ‘इसे कुछ गलतफहमी हो गयी है ऐसा लगता है...’ केतकी ने बड़ी गंभीरता से जवाब दिया, ‘कोई गलतफहमी नहीं, यहां हम तुम्हारे लिए ही आए हैं।’
‘अरे, पर मैंने पहले कभी ऐसा कुछ करवाया नहीं....और उसकी कोई जरूरत भी नहीं है। ’
‘जरूरत है। मन की खुशी के साथ-साथ शरीर भी रिलैक्स हो जाए तो आनंद दूना हो जाता है...दो घंटे लगेंगे...तब तक हम लोग बाहर घूम कर आती हैं....’ यशोदा ने जीवन में पहली बार पार्लर में पैर धरा था। फेशियल, वैक्सिंग, ब्लीचिंग, मेनीक्योर, पैडिक्योर, आयब्रो, हेयर स्पा, बॉडी स्पा और मसाज और न जाने क्या-क्या करवा लिया। पराये लोगों के सामने कपड़े बदलना और अनजान लोगों द्वारा अपने शरीर को इस तरीके से हाथ लगाना, इन बातों का यशोदा को अनुभव नहीं था, इसलिए उसे थोड़ा अटपटा लग रहा था। लेकिन मन के किसी कोने में उसे यह सब अच्छा भी लग रहा था। करीब तीन घंटे बाद वह बाहर आयी, तो उसने देखा कि केतकी और भावना बातें करती हुई बैठी थीं। यशोदा उन दोनों के सामने जाकर खड़ी हो गयी, लेकिन दोनों में से किसी ने भी उसकी तरफ नहीं देखा। अचानक भावना का ध्यान उसकी तरफ गया। ‘केतकी बहन देखो तो जरा, ये दीदी अपनी मां की ही तरह दिखती हैं न?’ केतकी ने उसकी ओर देखा, उसे हंसी आ गयी, ‘मेरी मां की तरह दूसरी कोई और हो ही नहीं सकती। ये मेरी ही मां है। चलो अब भूख लग गयी होगी न...?’
यशोदा और भावना ने अलग-अलग डिशेज मंगवायीं। दोनों ने पेट भर कर खाना खाया। केतकी ने दो ग्लास गन्ने का रस पीया। भावना जम्हाई लेने लगी तो केतकी ने उसे डांट लगाई, ‘ऐ आलसी...अभी तो सिनेमा देखने जाना है मां के साथ।’ यशोदा उठ खड़ी हुई, ‘सिनेमा की कोई जरूरत नहीं। कितने पैसे उड़ाओगी आज? चलो, अब सीधे घर चलते हैं।’
केतकी ने मां का हाथ पकड़ लिया, ‘प्लीज, आज किसी भी बात के लिए मना मत करो। जीवन में पहली बार तुम्हारे लिए कुछ कर रहे हैं हम। मेरे हाथ में होता तो मैं भूतकाल मे जाकर तुम्हारा जीवन नये सिरे से शुरू कर देती। ’
‘पागल हो...’
‘केतकी बहन टाइम-मशीन मिलती है क्या देखें? यदि मिल गयी न तो जनार्दन पापा को हमेशा के लिए यहीं रोक लेंगे। सारी समस्याएं अपने आप दूर हो जाएंगी...ठीक है न...?’
केतकी हंसी, ‘काश, ऐसा होता तो... लेकिन तब एक समस्या होती...’ भावना को समझ में नहीं आया, उसने आंखों के इशारे से पूछा।
‘अरे जनार्दन पापा होते, तो तुम कहां होतीं?’
‘क्य...तुम दोनों एक बात ध्यान में रखो, टाइम मशीन हो या न हो...मैं तो तुम लोगों के साथ हर जगह पर रहूंगी...केतकी बहन की बहन बन कर जन्म लिया होता...कहीं भी होती तो भगवान भी मुझको रोक नहीं पाता...’
‘लड़कियों, तुम्हारा ये पागलपन मेरी समझ से परे है...’
तीनों ने मिल कर ‘सदमा’ फिल्म देखी। उसे देखते समय भावना रो रही थी। केतकी अपने विचारों में खोयी हुई थी। उसके बाद तीनों ने डिनर लिया। कांकरिया तालाब के पास चक्कर लगाये। थोड़ी देर तालाब के पास बैठीं। दूर-दूर तक पानी पर पसरे हुए अंधेरे में आज तीनों को प्रकाश ही दिखायी दे रहा था। खुशी, आनंद और संतोष का प्रकाश।
लेकिन, ये खुशी मृगतृष्णा है, इसकी कल्पना तीनों में से किसी को भी नहीं थी। नियति एक नया संकट लेकर खड़ी थी।
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह
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