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अग्निजा - 94

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-94

भावना गुस्से में कहा, “यानी मेरी बहन का अपमान करने के लिए ही यह खेल आयोजित किया गया था। मुझे पूरा भरोसा है कि यहां मौजूद सभी लड़कियों को इतने पुराने गाने याद हों. ऐसा संभव ही नहीं। वह एक लड़की के सामने जाकर खड़ी हो गयी। “बालों पर कोई और गाना याद है क्या..बताओ? ” वह रुंआसी हो गयी। “हम सभी लोगों को तारिका ने एक-एक काना मैसेज करके बताया था। कार्यक्रम में यही गाना गाना है, उसने यह भी बताया था। मजा आएगा, ऐसा भी उसने कहा था।”

भावना सभी लड़कियों के सामने जा कर खड़ी हो गयी। किसी ने हां में सिर हिलाया तो कोई सिर नीचे करके खड़ी हो गयी। फिर भावना ने केतकी का हाथ पकड़ा और उसे तारिका की तरफ ले जाते हुए कहा, “मेरी बहन ने तो सिर्फ बाल ही गंवाये हैं, लेकिन तुम...तुमने तो इंसानियत ही गंवा दी..इंसानियत। तुम किस बात का बदला ले रही हो? वाइस प्रिंसिपल नहीं बन पायी उसका?या सभी विद्यार्थी, शिक्षक और ट्रस्टी भी केतकी बहन का बड़ा आद करते हैं, उसे मानते हैं इस बात का? धिक्कार है तुमको? अब एक मिनट भी मैं इस औरत के सामने खड़ी नहीं रह सकती।” इतना कह कर भावना, केतकी को लगभग खींचते हुए वहां से ले गयी। बाकी की लड़कियां भी एक के पीछे एक निकल गयीं। नाश्ता और कोल्ड ड्रिंक्स वहीं पड़े रह गये।

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सिर पर स्टेरायड इंजेक्शन लेने का अत्यंत कष्टप्रद उपचार केतकी ने तीन-चार महीने चालू रखा। उससे बाल आ गये, लेकिन झड़ भी रहे थे। फिर जीवन भर स्टेरॉयड के वेदनादायक इंजेक्शन लेने का कोई मतलब भी नहीं था। केतकी ने यह उपचार भी बंद कर दिया।

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केतकी के हाथ में एक किताब थी। वह जैन बंधु त्रिपाठी में से एक बंधु पूज्य मुनिचंद्रजी महाराज उर्फ कवी आनंद का काव्य संग्रह था-सात समंदर मारी अंदर। उसकी एक पंक्ति की ओर केतकी का ध्यान गया, “एक दिन ऐसा आता है कि लगता है मैं किसी में भी नहीं, तो कोई दिन ऐसा उगता है जब लगता है कि सब कुछ मेरे ही अंदर है।”

हां, अब ऐसा लग रहा था कि केतकी संसार की तरफ खुलने वाले सभी दरवाजों को बंद करना चाहती है, हमेशा के लिए। अपनी वेदना के साथ एकांत के अंधकारमय और डरावने महल में अकेली ही रहना चाहती है। अब वह भले ही सबके बीच रहती हो, लेकिन मन से कहीं दूर रहती थी। घर में भावना के सिवाय कोई नहीं था। वह रसोई घर में जाकर दो कप चाय बना कर लायी। “पहले मैं मेरा कप खत्म करूंगी फिर अपनी केतकी बहन का।” केतकी कुछ नहीं बोली। उसने हंसने का विफल प्रयास किया। भावना ने उसके हाथ में रिमोट दे दिया। “केतकी बहन, कोई बढ़िया सा सिनेमा या फिर अच्छा सा सीरियल लगाओ न, दोनों मिल कर देखेंगे। ”

रिमोट हाथ में पकड़ते ही केतकी के मन में भूतकाल का सीरियल चालू हो गया। बचपन का एक समय ऐसा था कि जब वह घर के सारे काम करती रहती थी और बाकी सब लोग टीवी देखते बैठे रहते थे। सात-आठ साल की छोटी सी केतकी को हर रविवार को आना वाला फिल्मी गीतों का कार्यक्रम रंगोली देखने की बड़ी इच्छा होती थी। इस लिए वह रविवार के बहुत सारे काम शनिवार रात को ही निपटा लेती थी। उसको लगता था कि कम से कम आज तो रंगोली देखने को मिलेगी। लेकिन हर रविवार को वही होता था। रंगोली शुरू होते ही उसे कोई न कोई सौंप दिया जाता। काम न हो तो भी कोई काम खोज कर निकाला जाता और उसे टीवी के कमरे से बाहर निकाल दिया जाता था। फिर भी बेचारी शनिवार-रविवार रंगोली के लिए कोशिश करती रहती थी और हर बार पिछले सप्ताह की पुनरावृत्ति होती थी। टीवी सीरियल की तरह ही उसे एक सिनेमा की भी याद आयी। मंगलागौरी व्रत का जागरण था। सभी लोग रात को सिनेमा देखने जाने का विचार कर रहे थे। केतकी को बहुत खुशी हो रही थी। उसने अपना काम फटाफट निपटा रही थी और साथ-साथ विचार कर रही थी कि सिनेमा देखने जाते समय आज कौन से कपड़े पहनूं? लेकिन इस प्रश्न का उत्तर खोजने की उसे जरूरत ही नहीं पड़ी। रात को पूरा परिवार सिनेमा देखने के लिए गया, आठ साल की केतकी को घर में अकेला छोड़ कर। उसे बहुत बुरा लगा। गुस्सा आया। लेकिन रोने के अलावा उसके हाथ में और कुछ भी नहीं था। उसे लगता था कि जिस तरह सिंड्रेला को लेने के लिए गाड़ी आयी थी, उसे लेने के लिए भी आए और वह थिएटर में पहुंच जाए। लेकिन उसकी कथा परी कथा नहीं थी..पीड़ा कथा थी। उसने रोते-रोते सबके बिस्तर बिछाये थे। और रोते-रोते ही सो गयी थी। केतकी कोई सिंड्रेला तो थी नहीं कि उसके लिए कोई परी आती। उसकी आंखों में आज वही पुराने आंसू आ खड़े हुए थे। भावना ने पूछा, “अब क्या हुआ? क्या याद आ गया?”

“क्या याद आएगा? मेरी व्यथा और मेरे आंसुओं के सिवाय और क्या? नरक से भी बदतर जीवन जीते रही...नहीं...अब भी जी रही हूं...” इतना कह कर केतकी उठी और अपने कमरे में चली गयी। उसने अपने कमरे का दरवाजा धड़ाक से बंद कर दिया। भावना उठी। दरवाजे के पास जाकर सोचने लगी कि क्या करूं। तभी उसके मोबाइल फोन पर मैसेज आया, “प्लीज़ लीव मी अलोन।”

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स्कार्फ बांधने के बाद भी केतकी की हालत किसी से छिपी नहीं थी। कोई दया दिखाता, कोई हंसी उड़ाता, कोई टालने लगा था। सभी उससे दूर ही रहने लगे थे। गली के एक उत्साही व्यक्ति सामने से आये, “देखिए, मेरी दवाओं की दुकान है। आपको कैंसर की दवाओं पर दस प्रतिशत छूट दूंगा...”

दो-तीन चुगलखोर पड़ोसनें “किसी से कहना मत...” कहते हुए उसके बारे में गॉसिप करती थीं, “ये उसके पुराने पाप होंगे, वरना ऐसे किसी के बाल जाते हैं भला?”

एक दादी ने तो उसको बुला कर बताया, “बहुत बुरा हुआ बेटा। मैं तो घर के बाहर ही न निकलती, लेकिन तुम्हारा पति तुम्हारे पास वापस कैसे आ गया?”

केतकी को इन सब बातों की अब आदत हो गयी थी। उसका मन मजबूत हो गया था, इन तानों के लिए। लेकिन भावना वैसी नहीं थी। “अब केतकी अधिक दिन जीने वाली नहीं”, किसी के कहे हुए इस वाक्य से उसके पैरों तले जमीन ही खिसक गयीI

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