प्रकरण-83
“क्या? गर्भपात?” केतकी चिल्लाई। उसे अपने कानों पर भरोसा ही नहीं हुआ। लेकिन जीतू पर उसका कोई असर नहीं हुआ।
“देखो, मुझे तुम्हारे त्रियाचरित्र की पूरी जानकारी है...लंबे बाल खुले रखना, गॉगल्स पहनना, चलते समय इधर-उधर लोगों को देखना, उस उपाध्याय मैडम जैसी औरतों से दोस्ती रखना....और बिना बाहों के ब्लाउज पहनना...और कल तुमको इतने फोन लगाये, एक भी नहीं उठाया। उसके बाद भी मिस कॉल देख कर तुमने मुझे फोन नहीं लगाया...आज मुझे लंगड़ाता हुआ देख कर भी छुट्टी ली? नहीं? अरे, कम से कम शाम को समय पर आई क्या? नहीं।” बोलते-बोलते ही जीतू ने गुस्से में केतकी का हाथ जोर से पकड़कर मरोड़ दया। केतकी की आंखों में आंसू आ गये। “रिक्शा रोकिए।” केतक जोर से चिल्लाई। ड्राइवर ने रिक्शा रोका। जीतू ने रिक्शे वाले को गंदी गाली दी, “मैं जब तक न कहूं, रिक्शा मत रोकना। तुम चलाते रहो, वरना दूंगा एक रखके।”
लेकिन केतकी की प्रतिक्रिया से जीतू थोड़ा नरम पड़ गया। उसे मां की सलाह याद आ गई कि कुछ दिनों बाद उसकी पढ़ाई-लिखाई और फ्लैट अपने ही काम आने वाला है। तब तक उसको संभाल लो। पव्या भी होशियारी भरी सलाह दे रहा था, “उसको अच्छे से रास्ते पर लाओ, पर एकदम तोड़ मत डालना। फ्लैट पूरा होने को है। अपने कब्जे में आते ही तुरंत उससे शादी करके फ्लैट अपने नाम से कर लेना। तब तब केवल फन काढ़ना है, काटना नहीं है।” बहुत प्रयासपूर्वक जीतू ने अपने गुस्से को काबू किया, “ये देखो, मुझे जो बातें पसंद नहीं हैं, वे सब तुम बंद कर दो। तुमसे मिलता नहीं हूं तो मुझे चैन नहीं पड़ता। तुमसे मिलने के लिए बेचैन रहता हूं। गांधीनगर में मुझसे बिना पूछे क्यों गई?मैंने तुम्हारे घर पर फोन किया तो तुम्हारी दादी और जयश्री को भी कुछ मालून नहीं था। मुझे कितनी चिंता होती है मालूम है? उस पर से तुम किसी और मर्द के साथ दिखाई दी, तो मेरा दिमाग खराब नहीं होगा?” इतना कह कर जीतू जानबूझकर रुक गया। लेकिन केतकी कुछ भी नहीं बोली। जीतू को मन ही मन बहुत गुस्सा आया लेकिन उसने यथासंभव शांतिपूर्वक पूछा, “तुम्हारे साथ कौन था?” केतकी ने जीतू की तरफ देखा। उसे तो ऐसा लग रहा था कि उत्तर ही न दिया जाए, लेकिन बेकार में बात न बढ़ जाये इस डर से बोली, “हमारे स्कूल के संगीत शिक्षक हैं, प्रसन्न शर्मा।”
“प्रसन्न था क्या वह...कितने पैसे दिये उस आदमी ने स्कूल को?”
“हमें केवल अपनी स्कूल के कुछ उपक्रम उन्हें समझाने थे। बाकी की बातें ट्रस्टी करेंगे।”
“ठीक है, ठीक है, लेकिन तुम्हें केवल पढ़ाई का काम ही देखना है इस सब पचड़ों में पड़ने की जरूरत नहीं है, समझ में आया?”
उसे झूठ बोलना पड़ा, इस बात का केतकी को बहुत बुरा लगा। फिर उसने अपने मन को समझाया कि यह झूठ जरूरी था। एक पवित्र और जीवनभर का रिश्ता जुड़ने जा रहा है यदि उसकी नींव ही झूठ पर आधारित होगी तो वह रिश्ता कैसे टिक पाएगा? केतकी ने तय किया कि इसके बाद झूठ नहीं बोलना है। परिणाम की चिंता किए बिना सच ही बोलना है। इस विचार के साथ जब उसने अपने आप को आईने में देखा तो खुद से नजरें नहीं मिला पा रही थी। उसे अपने भूतकाल की एक बात याद हो आयी। तब वह बहुत छोटी थी। सात-आठ साल की रही होगी। कोई गलती न होते हुए भी शांति बहन और रणछोड़ दास उसको आते-जाते डांटते रहते थे और हाथ भी उठा देते थे उस पर। ऐसे समय केतकी कुछ बोलती नहीं थी, रोती नहीं थी और अपना बचाव भी नहीं करती थी। चुपचाप मार खा लेती और मारने वाले की तरफ देखती रहती। शायद वह अपनी आंखों से ही बोलती थी, या शैतानी करती थी। लेकिन एक बात तो निश्चित थी कि दोनों भी उसकी एकटक नजरों को झेल नहीं पाते थे। एक बार तो रणछोड़ दास ने उसको एक जोरदार थप्पड़ मार कर कहा, “खबरदार, जो इस तरह आंखें दिखाईं तो। अपनी आंखें नीचे करो।” उस दिन उसे आंखों में आंखें डाल कर देखने की जबर्दस्त सजा मिली थी। लेकिन, अभी भी, उसे परेशान करने वाले लोगों की तरफ अटल नजरों से देखने की आदत गयी नहीं थी। उसे लगा कि झूठ बोल कर उसने अपने आप को ही दुःख दिया है। इसी लिए वह अपने आप से नजरें नहीं मिला पा रही है। इस झूठ पर केतकी को मन ही मन पश्चाताप हो रहा था। जीतू को भी उसकी बात पर विश्वास नहीं था। उसने डॉ. मंगल के दवाखाने वाली इमारत के चक्कर लगाना शुरू कर दिया। चौकीदार, दरबान और सामने पान वाले से इस बात की आश्वस्ति ले ली कि वहां कोई बड़ा उद्योगपति नहीं रहता। लगभग सभी नौकरी वाले ही वहां रहते थे। उस पर भी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी। इमारत में रहने वाले लोगों के नाम की पट्टिका देख कर उसे पूरा भरोसा हो गया कि केतकी झूठ बोल रही थी। वह दवाखाने में गया। वहां, वही लड़का बैठा हुआ था। जीतू ने उसके समाने सौ रुपए की नोट रखी और अपनी जेब से केतकी का फोटो निकाल कर दिखाया और पूछा, “इसको देखा है क्या?” लड़का सौ की नोट की तरफ देखता रहा। जीतू ने वह नोट उसके हाथ में रखते हुए पूछा, “इसको यहां देखा है क्या कभी?”
“हां, कल ही आई थीं।”
“अकेली?”
“नहीं उनके साथ कोई एक और था।”
“किस लिए?”
“दवाखाना है तो दवाई लेने ही आएगी न?”
“काहे की दवाई?”
“ये तो डॉक्टर ही जानें।”
“क्या बीमारी है, इसकी तुमको जानकारी नहीं है क्या?”
“नहीं, वो मुझे नहीं समझ में आता।”
“हम्मम...डॉक्टर से मुलाकात हो सकती है क्या?”
“बाहर गए हैं। लेकिन उनकी दवा बहुत महंगी होती है, बहुत महंगी।”
“कितनी महंगी?”
“एक हफ्ते की दवा के दस हजार रुपए।”
जीतू ने और अधिक कुछ नहीं पूछा और बाहर निकल गया। उसके दिमाग में विचारचक्र चालू हो गया। केतकी झूठ बोली? क्या छुपा रही है? क्या छुपा रही है, कैसे मालूम होगा?
केतकी से झगड़ा करके सच्चाई उगलवायी जा सकती है, लेकिन इसका भरोसा नहीं था उसे। ज्यादा कड़ाई बरती तो कौन जाने केतकी, फ्लैट और पढ़ी-लिखी कमाई करने वाली बीवी गंवानी पड़ जाये। जीतू ने बहुत विचार किया। फिर वह केतकी की अनुपस्थिति में उसके घर गया। शांति बहन और जयश्री के साथ इधर-उधर की खूब बातें कीं। भावना से बात करते समय बार-बार पूछता रहा कि केतकी का कामकाज कैसा चल रहा है, वह बीमार दिखती है, उसकी तबीयत तो ठीक है न? लेकिन, केतकी ने उसको कोई भनक नहीं लगने दी पर यह सोचने लगी कि यह आदमी आज इतनी पूछताछ क्यों कर रहा है? ये केतकी के प्रति उसका प्रेम या चिंता नहीं है। इसके मन में क्या है?
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह
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