अग्निजा - 62 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अग्निजा - 62

प्रकरण-62

केतकी का विवाह तय हो गया है यह बात शाला में खासतौर पर सभी शिक्षकों के बीच हवा की गति से पसर गई। तारिका झूठमूठ गुस्सा होते हुई बोली, “वाह...छुपी रुस्तम...मालूम ही नहीं पड़ने दिया...बहुत बहुत शुभकामनाएं...”प्रसन्न शर्मा ने भी बधाई दी, लेकिन केतकी को महसूस हुआ कि उसका मूड ठीक नहीं था। केतकी ने पूछा भी, तो “कल दिन भर सहगल, मुकेश रफी के दर्द भरे नगमे सुनता रहा, उसी का परिणाम है। मुझे कुछ नहीं हुआ। आई एम टोटली फाइन।” इतना कह कर प्रसन्न वहां से निकल गया। लेकिन केतकी के मन में भी एक हूक उठी, इसका कारण वह खुद भी समझ नहीं पाई।

केतकी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उसे सपनों का राजकुमार मिलेगा और उसका विवाहित जीवन सुख से बितेगा। सच कहें तो उसके जीवन के लिए कोई सपने देखे ही नहीं थे। परंतु साहित्य पठन-पाठन के परिणामस्वरूप उसके व्यथा और वेदना भरे जीवन में कही अनजाने ही कहीं मन के किसी कोने में सपने, इच्छाएं, महत्वाकांक्षाओं का नाजुक पौधे उग ही गए थे। वे सभी पौधे केतकी से प्रश्न पूछते थे, “क्या तुमने ऐसे जीवन साथी की कल्पना की थी? ”

प्रश्न भले ही नाजुक पौधे कर रहे थे लेकिन वे केतकी के मन के भीतर छुरी की तरह उतर रहे थे।

“इच्छा यानी क्या और महत्वाकांक्षा यानी क्या? मुझे कोई भी इच्छा पालने का हक नहीं है।”

“ये तुम्हारा अहंकार बोल रहा है। तुम्हारा अज्ञान बोल रहा है। हम बड़े कष्टों के साथ तुम्हारे मन में पैदा हुए हैं। इसलिए वहां इच्छा तो होगी ही। सच बताओ... ”

“खाली, उजाड़ किसी अटारी के कोने पर कहीं दो-चार घास की डंठलें उग जाती हैं कभी-कभी। उनकी परवाह कौन करता है। वे कभी भी सूख जाएंगी या फिर कुचली जाएंगी।”

“वो जब होगा, तब होगा, लेकिन अभी तो हमारा अस्तित्व है न।”

“इस लिए तुम हमें उत्तर देने के लिए बाध्य हो। बोलो... ”

“कोई भी इच्छा करना यानी मौज करना है, मेरे लिए ये संभव नहीं। मुझे भ्रमजाल में मत फंसाओ.. ”

“तो क्या हमारे अस्तित्व की कोई कीमत नहीं..?”

“मुझे हंसी आती है। जहां मेरे ही अस्तित्व की कोई कीमत नहीं ...कोई अर्थ नहीं...वहां मृगमरीचिका की तरह या फिर क्षण भर की ओस बूंद की तरह भ्रामक इच्छाओं की क्या कीमत होगी भला और उनका अर्थ भी क्या?”

“केतकी तुम खुद को धोखा दे रही हो। दूसरों की खुशी के लिए, उनकी इच्छाओं के लिए और इस घर से छुटकारा पाने के लिए ही तुमने जीतू के लिए हामी भरी है। लेकिन क्या वह तुमको दिल से पसंद है? तुम उसे दिल से प्यार कर सकोगी क्या?”

“प्रेम, पसंद-नापसंद ये सब सुखी और अमीर लोगों के चोचले हैं। मेरे लिए तो जीवित रहना ही प्रेम है, सुख और लक्ष्य है। ”

“ये तो शब्दों की बाजीगरी हुई। तुम सांस ले रही हो इसका मतलब है कि तुम्हारे पास दिल है। और जहां दिल है वहां पर छोटा सा सपना भी होता ही है... तुम उसे क्यों छिपा रही हो...बोलो..”

“सपना? है कि नहीं मुझे ही पता नहीं...केवल इस बात की आशा है कि मैं जीतू को समझ पाऊंगी। उसको जीत पाऊंगी और अभी तक जिस तरह का जीवन जिया है, निश्चित ही उससे कुछ बेहतर जी पाऊंगी।”

“ये तुम्हारी आशा नहीं, इच्छा है...इच्छा। सपना होता तो उसे साकार करने के लिए अकेले ही संघर्ष करना पड़ता है। इस इच्छा को पूरा करने के लिए तो जीतू का भी साथ जरूरी होगा...क्या वह तुमको समझना चाहेगा? तुम्हारा साथ देगा?”

“हां, मैं उसका साथ पाकर ही रहूंगी। मेरे पास दूसरा विकल्प भी कहां है?  उसके लिए जो भी करना पड़े, वो करूंगी...”

“यानी चुप रहोगी...उसकी सारी बातें चुपचाप मानती जाओगी...ठीक है न?”

“तो उसमें गलत क्या है?”

“इसका मतलब है तुम भी अपनी मां की ही तरह करोगी न?”

“नहीं...नहीं...”

“नहीं, नहीं क्या...? तुम भले ही न मानो पर जो तुम कह रही हो उसका एक ही अरथ है कि तुम दूसरी यशोदा बनने की राह पर चल पड़ी हो...”

“नही, नहीं...कभी नहीं...मैं ..मैं केतकी हूं...हां, हां...केतकी जानी।”

“बेटी, मां की ही प्रतिकृति होती है। तुम अपनी मां की तरह बन गई तो वह स्वाभाविक ही होगा।”

“शट अप...मैं केतकी हूं...केतकी बन कर रहूंगी...केतकी बन कर ही जीऊँगी।”

“मुझे बड़ी हंसी आ रही है, पर तुम्हारा अपमान करने का इरादा नहीं है। तुम खुद को तटस्थ रह कर देखो और विचार करो कि तुमने जिस सुंदर सलोने और सुखी भविष्य का सपना देखा था, वह अब यशोदा बनने की राह पर चल नहीं पड़ा है? ”

केतकी का सिर भनभनाने लगा। उसका विरोध समाप्त हुआ। भावनाएं आंसुओं के रूप में बहने लगीं। वह अन्यमनस्क होकर रह गई। इसी स्थिति में उसे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला।

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कोई भी साफ-साफ मुंह पर नहीं बोल रहा था, लेकिन कीर्ति चंदाराणा, प्रसन्न शर्मा, तारिका और उपाध्याय मैडम इस पहेली को बूझ नहीं पा रहे थे कि केतकी ने जीतू में ऐसा क्या देखा? कीर्ति चंदाराणा और उपाध्याय मैडम को लग रहा था कि यह उसका व्यक्तिगत मामला है और वह अपना भला-बुरा सोच सके, इतनी तो समझदार है ही। तारिका को चिंता की जगह गुस्सा आ रहा था कि केतकी ने यह बात उससे तक नहीं कही। प्रसन्न शर्मा को खुद पर गुस्सा आ रहा था। उसके भीतर क्या चल रहा था, ये उसे खुद को भी समझ में नहीं आ रहा था। वह एक विचित्र मनःस्थिति में फंस गया था।

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भिखाभा ने रणछोड़ से सीधा प्रश्न पूछा, “अब शादी कब करनी है?”

“ परसों होती हो तो कल...और कल होती हो तो आज... मैं तो इसी दिन की कबसे राह देख रहा हूं।”

“ठीक है, तो मैं मीना बहन से बात कर लेता हूं।”

“हां साहब, इतना काम आप कर दें तो गंगा नहाए...सच कहता हूं आप देवता हैं...”

“ठीक है, ठीक है...लेकिन लड़की पर ध्यान रखना, नहीं तो जमा-जमाया खेल बिगाड़ देगी।”

“खेल?”

“अरे, शादी यानी दो लोगों के बीच खेल नहीं है क्या?”

“लेकिन साहब, मीना बहन इतनी जल्दी शादी करने के लिए राजी हो जाएंगी?”

“तुम क्यों चिंता करते हो? मेरे ऊपर छोड़ दो सब। उसको चुटकी बजाते तैयार नहीं किया तो अपना नाम ही बदल डालूंगा मैं। लेकिन तुम्हारे घर में सब ठीकठाक चल रहा है न?  ”

“हां साहब, फिलहाल तो शांति है। इसी लिए लगता है कि लड़की अपने घर गई कि हम लोगों को छुटकारा मिल जाएगा।

...............................

और फिर कुछ ज्यादा ही अपनापन और नजदीकी दिखाने के लिए भिखाभा मीना बहन के घर पहुंच गए। चाय-नाश्ते और बड़ी देर तक मीठी-मीठी बातें करने के बाद भिखाभा ने अपना पत्ता फेंका, “मीना बहन, शादी का विचार किया या नहीं?”

“उसी विचार से तो मेरी नींद उड़ गई है इन दिनों। सब कुछ ठीकठाक निपट जाए तो मुझे छुटकारा मिले।”

“इसमें इतनी चिंता करने जैसी कौन सी बात है? मैं बैठा हूं न ... वो जिम्मेदारी मेरे सिर पर। बोलिए कब का मुहूर्त निकलवाऊं?”

“मुहूर्त? अरे पहले लड़का तो मिलने दें...”

भिखाभा हंसे, “मीना बहन ...मीना बहन...अभी तो हम जीतू की शादी के बारे में बात कर रहे हैं न?”

“भिखाभा लगता है आप भूल रहे हैं, मैंने आपको उस दिन बताया था कि जब तक कल्पु की शादी नहीं हो जाती, तब तक मुझे जीतू की शादी नहीं करनी है। पहले बेटी को ससुराल भेजूंगी, उसके बाद बहू लाऊंगी।”

“अरे पर रातों रात कैसे...”

“भिखाभा, एक दो लड़के नजरों में हैं। चारेक लाख की व्यवस्था हो जाए तो तुरंत तय हो जाएगा। इन्होंने आपको जो पैसे दिए थे, वो वापस कर दीजिए तो मेरा काम बन जाएगा।”

“लेकिन उसके पहले जीतू...”

“मैं ही नहीं, जीतू भी यही चाहता है।”

“लेकिन जीतू की शादी हो जाए तो चारेक महीने बाद कल्पु की करेंगे...ऐसा नहीं हो सकता क्या...?”

“नहीं, ऐसा नहीं हो सकता..अब सब आपके हाथों में है..ठीक है न? मैं तो राजी हूं। आप बोलिए...तो फिर हम आगे की बातचीत पक्की करेंगे।”

भिखाभा की स्थिति ऐसी हो गयी कि कहां तो उन्हें लग रहा था कि वह बहुमत से जीतेंगे और नौबत जमानत जब्त होने की आ गई।

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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