साम दाम दंड भेद - भाग ३    Ratna Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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साम दाम दंड भेद - भाग ३   

उधर दीनदयाल के बेटे तरुण के विवाह की तारीख भी नज़दीक आती जा रही थी। चिंतातुर होते हुए एक दिन पूनम ने दीनदयाल से कहा, "दीनू हम कितने बेवकूफ हैं जो हमने इतने वर्षों तक रामा भैया को अपने घर में रहने दिया वो भी किराया बढ़ाये बिना ही। अगर दो-तीन साल में ही खाली करवा लिया होता तो आज हमें अपने ही मकान के लिए ना तो उसकी खुशामद करनी पड़ती और ना ही इस तरह कोर्ट कचहरी के धक्के खाने पड़ते। अब ऐड़ियाँ घिस जाएंगी पर फैसला तो आने से रहा। अब तो यह समझ लो कि रामा हमारी छाती पर मूंग दलेगा और हम देखते रहेंगे।" 

निराश दीनदयाल ने पूनम की बातें सुन तो लीं पर कुछ कह ना सका, आख़िर कहता भी क्या। वो कहते हैं ना ज़्यादा मिठास हो तो कीड़े पड़ ही जाते हैं। इन दोनों परिवारों का भी इस समय यही हाल था। एक दूसरे के बिना सुबह की चाय जिनके गले के नीचे नहीं उतरती थी; आज वही एक दूसरे की तरफ देखना भी पसंद नहीं कर रहे थे। 

रात का समय था लगभग बारह बज रहे थे, तभी रामा के कमरे के दरवाज़े पर दस्तक हुई । रामा आवाज़ लगाते हुए अपने बिस्तर से उठकर आ रहा था "कौन है इतनी रात को?”, कहते हुए उसने जैसे ही दरवाज़ा खोला, बाहर बड़ी सी दो-दो पेटियाँ लिए अपने माता पिता को देखकर वह हैरान रह गया।

"अरे माँ बाबूजी आप लोग? अचानक? क्या हुआ? इतना सारा समान लेकर," कहते हुए रामा ने अपनी पत्नी गीता को आवाज़ लगाई, "गीता जल्दी आ देख माँ और बाबूजी आए हैं।"

रामा अपने पिता के पास से पेटियाँ लेकर अंदर आया। गीता ने भी दोनों के पैर छुए। रामा के पिता महादेव ने कहा, "बहू बहुत थक गए हैं हम लोग, जाओ जल्दी से चाय बना कर लाओ और हाँ साथ में बिस्किट भी ले आना, शाम से कुछ नहीं खाया है।"  

"हाँ बाबूजी अभी बना लाती हूँ। अम्मा आओ ना हाथ मुँह धो लो।" 

अम्मा बोलीं, "हाँ-हाँ बिटिया आती हूँ, पहले जरा चाय पी लेने दे।"

चाय पीने के समय रामा ने पूछा, "बाबूजी क्या हुआ? आप अचानक बिना बताए कैसे आ गए? मुझे बताया होता तो मैं लेने आ जाता।" 

"रामा हमारे पास इतना समय नहीं था। अभी सो जाते हैं सुबह बात करेंगे।" 

रात को रामा चैन से सो नहीं पाया। क्या हुआ होगा? बाबूजी काफी परेशान लग रहे थे। उसने अपनी पत्नी से कहा, "मुझे लगता है कुछ तो बात है, बाबूजी ने बताया भी नहीं। सुबह बताऊँगा कह दिया, इसका मतलब तो यही होता है ना की कुछ बात तो है।" 

"हाँ अम्मा भी काफी उदास लग रही थीं। मैंने भी उनसे पूछने की कोशिश की थी पर उन्होंने कहा सुबह होने दो तुम्हारे बाबूजी ही बता पाएँगे।"

दूसरे दिन सुबह होते ही रामा ने अपने पिता के पास आकर पूछा, "बाबूजी मुझे रात भर नींद नहीं आई। बेचैनी में पूरी रात बीत गई, करवटें बदलता रहा। चिंता हो रही है कि आख़िर बात क्या है? बाबूजी अब तो बता दो?" 

"रामा हमारे साथ बहुत बड़ा धोखा हो गया है, " कहते हुए उसके बाबूजी रो पड़े।

"बाबूजी आप रो क्यों रहे हैं? धोखा... कैसा धोखा?"

"तेरे चाचा ने तो मेरी पीठ पर छूरा घोंप दिया रामा, उसने हमारा खेत और मकान सब हड़प लिया।"

"बाबूजी यह क्या कह रहे हो?"

"हाँ मैं ठीक कह रहा हूँ।"

"पर ऐसा कैसे हो गया बाबूजी?"

"यह मेरे प्यार और विश्वास का नतीजा है रामा जो मैंने उस पर किया था। एक दिन वह मुझसे कुछ काग़ज़ों पर दस्तखत करवाने आया। मैं तो कभी सपने में भी नहीं सोच सकता था कि यह हमारी जायदाद के काग़ज़ होंगे। मैंने अपने छोटे भाई पर विश्वास करके बिना पढ़े यूँ समझो कि आँखें बंद करके दस्तखत कर दिए बेटा। उसने तो दिन दहाड़े हमें लूट लिया। वह इतना स्वार्थी, धोखेबाज निकलेगा, मुझे अब भी विश्वास नहीं होता। हमारे परिवार का खून इतना मैला? उसने उसके मन में चल रहे इस पाप की भनक तक मुझे नहीं लगने दी। दिन भर भैया-भैया कहते-कहते ही उसने मुझे यह ज़हर दे दिया रामा।"

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक 

क्रमशः