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शत्रुघ्न - अध्याय 1

एक दिन देवश्रवा यमुना के पार समीप के जंगलों में आखेट(शिकार) के लिए जाता है। आखेट में मग्न देवश्रवा को सहसा ही अनुमान होता है कि वह जंगल में बहुत अंदर तक आ गया है और दिन भी अपनी समाप्ति की ओर बढ़ चला है। अतः इस जंगल में अधिक रुकना जीवन के विरुद्ध ही होगा। तथैव अपने कदमों की लंबाई बढ़ाते हुए वह जंगल से बाहर निकलने लगता है। किंतु कुछ समय चलने के पश्चात् भी दूर-दूर तक जंगल की सीमा समाप्त होते ही नहीं पड़ रही थी। देवश्रवा को अनुमान हो जाता है कि वह इस घने जंगल में भटक गये हैं। इस चिंता में उनका मुख श्वेत होने लगता है कि तभी कुछ दूरी पर सहसा ही छन-छन की आवाज सुनाई पड़ती है।

देवश्रवा आवाज की ओर बढ़े और देखा कि कुछ कदम की दूरी पर एक परम रूपवती युवती खड़ी है। देवश्रवा की नजरें उन नीले नयनों में कुछ पलों के लिए इस प्रकार डूब गयी मानो कोई जीवित मानव किसी विशाल सागर में जलमग्न हो गया हो। होंठ किसी नव पल्लवित गुलाब की पंखुड़ियों के समान महीन मानो कोई हाथ से छू भी ले तो उसी पल बिखर जाए। वक्षस्थल के उभार का इतना सटीक व उत्तम माप कि हर कोई इस देह के निर्माता की गणित की प्रसंशा करता ना थके। कमर का तीक्ष्ण वक्र किसी गतिमान सर्प के समान आकार लिये अत्यंत विषैला दिखाई पड़ता था जिसका नेत्रों से किये एक विषपान से ही बड़े से बड़ा वीर पुरुष भी मूर्छा खा कर गिर पड़े। ऐसी सुंदरता का अनुभव देवश्रवा को कदाचित अपने जीवन में पहली बार ही हुआ था।

देवश्रवा युवती के पास जाता है और कहता है "इस घनघोर जंगल में ईश्वर की ऐसी सुंदर बनावट। हे देवी! आप कौन हैं?
"मैं निषादपुत्री रेणुका। समीप की निषाद बस्ती से जंगल में धनुर्विद्या का अभ्यास करने आयी थी।" युवती अपना परिचय देती है।
"आप निषादकन्या! देवांगनायें भी आपके रूप सौंदर्य को देख कर ईर्ष्या करती होंगी। विधि ने आपके अंग जाने किस तूलिका से अंकित किये हैं।"
"आपका परिचय?" निषादकन्या ने लजाते हुए पूछा।
"मैं शूरसेनपुत्र देवश्रवा हूँ। यमुना पार कर के इस जंगल मे आखेट हेतु आया था। किंतु बाहर जाने का मार्ग न मिलने का कारण बड़े समय से इसी वन में इधर-उधर भटक रहा हूँ। आप कोई सहायता कर दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी।"
"हे राजन्! मार्ग तो बता सकती हूँ यमुना तक का किंतु इतनी रात्रि को तो कोई नाविक भी नहीं मिलेगा यमुना पार कराने के लिए।"
"राजन्! वैसे भी इतनी रात्रि को यमुना पार करना उचित नहीं होगा। अतः आप समीप की निषाद बस्ती में चल लीजिए। रात्रि विश्राम करके प्रातः अपने नगर को लौट जाना।" निषादकन्या ने देवश्रवा को प्रस्ताव देते हुए कहा।
"आपका बहुत आभार देवी!" देवश्रवा ने विनम्रतापूर्वक कहा।
तत्पचात् निषादकन्या राजा देवश्रवा के साथ निषाद बस्ती के लिए प्रस्थान करते हैं।
【निषाद बस्ती का वर्णन】 देवश्रवा निषादकन्या के घर पहुँचते हैं। 【घर का वर्णन】 अंदर से एक वृद्ध निषाद(रेणुका के पिता) निकल कर आते हैं और अपनी पुत्री रेणुका से पूछते हैं "हे पुत्री! ये पुरूष कौन है?"
"ये शूरसेनपुत्र देवश्रवा हैं।" रेणुका अपने पिता को परिचय देती है।
"राजन्! कोई विशिष्ट प्रयोजन?" पिता आश्चर्यभाव से पूछते हैं।
"नहीं। आखेट खेलते हुए जंगल में राह भटक गये थे और फिर रात्रि भी हो गयी थी तो मैंने इन्हें आज रात्रि हमारी बस्ती में ही रुकने का प्रस्ताव दिया।" रेणुका ने उत्तर दिया।
"चलो अच्छा है। कुमार को भोजन दे दो और तत्पश्चात् शयन हेतु आसान लगा देना। मैं थोड़ा बस्ती का चक्कर लगाकर आता हूँ।" निषाद अपनी पुत्री को आदेश देकर निकल जाता है।

देवश्रवा रात्रि भोजन करके अपने शयनासन पर लेटता है और जैसे ही सोने के लिए अपने नयन चक्षुओं को बंद करता है तो उसके सम्मुख बारंबार वही स्वरूप नजर आने लगता है। 【देवश्रवा का स्वप्न वर्णन】

रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन देवश्रवा निषादकन्या के पिता चक्रधर के समक्ष उनकी पुत्री के साथ विवाह का प्रस्ताव रखते हैं।
चक्रधर आश्चर्यपूर्वक कहते हैं "राजन्! ये आप क्या कह रहें हैं? शूरसेनपुत्र एक निषादपुत्री के साथ विवाह करने के इच्छुक हैं?"

शौरीपुर के राज्यमहल में एक दिन देवश्रवा दाऊ वसुदेव के साथ अपने राज्य के आर्थिक एवं राजनैतिक उद्देश्यों पर वार्तालाप कर रहें होते है तभी एक सैनिक आता है "महारज की जय हो! महाराज रानीमहल से एक संदेश आया है।"
"कहो क्या संदेश है?" वसुदेव आज्ञा देते हैं।
"महाराज! राजा देवश्रवा को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है। रानी रेणुका ने एक पुत्र को जन्म दिया है।"
"बड़ा अच्छा संदेश है। देवश्रवा! तुम शीघ्र रानी महल जाओ मैं भी कुछ समय में राजकार्य निपटा कर पहुँचता हूँ।" वसुदेव देवश्रवा को आज्ञा देते हैं।
"जैसी आज्ञा दाऊ वसुदेव!" देवश्रवा वसुदेव को प्रणाम करके रानीमहल को प्रस्थान करते हैं।

【रानी रेणुका और रानी महल का वर्णन】
रानी रेणुका के समीप रानी देवकी अपने गोद में नवजात शिशु को खिला रही हैं तथा आस-पास खड़ी अन्य स्त्रियाँ शिशु की प्रसंशा करते हुए उसकी मुखाकृति व नैन-नक्श का कभी माता कभी पिता तो कभी परिवार के अन्य सदस्यों के साथ मेल कर रहीं हैं।
तभी महल में राजा देवश्रवा प्रवेश करते हैं और रानी देवकी की ओर नतमस्तक होते हैं "प्रणाम भावज!" (भाभी)
"हाँ राजन्! मिल गया समय राजकार्यों से। बड़े जल्दी आ गए अपने पुत्र के लिए। अपने दाऊ को भी ले आते। क्या उनके पास भी अपने भ्रातृज (भतीजा) के लिए समय नहीं हैं?" देवकी ने व्यंग्यपूर्वक प्रश्न किया।
"जी भावज! कुछ समय मे राजकार्य निपटा कर आते ही होंगे।"
देवश्रवा ने उत्तर दिया।
"उचित। चलो पुत्र बहुत खेल लिए हमारी गोद में। चलो अब पिता की गोद में खेलो।" देवकी शिशु से नाट्य करते हुए उसे देवश्रवा की गोद में दे देती हैं।
पुत्र के गोद में आते ही देवश्रवा की आँखों से आँसू छलक पड़ते हैं। साथ ही चेहरे पर एक मुस्कान दौड़ जाती है। वह एक निगाह में पुत्र को देखते हैं तो दूसरी में रेणुका को।

तभी वसुदेव भी महल में आते हैं।
"प्रणाम दाऊ!" रेणुका वसुदेव का अभिवादन करती हैं।
"पुत्र व माता को आशीर्वाद।" वसुदेव उत्तर देते हैं।
"अरे! प्रणाम-आशीर्वाद ही खेलते रहोगे या पुत्र के नामकरण हेतु कुछ तय करोगे?" देवकी व्यंग्यपूर्वक कहती हैं।
"यह भी ठीक है। किसी शुभ दिवस पर राजपुरोहितों व ज्योतिषियों को बुलाकर पुत्र की कुंडली भी देख ली जाए तथा नामकरण भी रख लिया जाए।" वसुदेव सभी के समक्ष सुझाव देते हुए कहते हैं।
"जैसा आप कहे दाऊ वसुदेव!" देवश्रवा विनीतभाव से उत्तर देते हैं।

तत्पश्चात् एक शुभ दिवस पर राजपुरोहितों व ज्योतिषियों को महल में बुलाया जाता है और उनका आदर सत्कार किया जाता है।
सभी ब्राह्मणों को भोजन करवाने के पश्चात् नामकरण की विधि प्रारंभ की जाती है।
राजपुरोहित ग्रह एवं नक्षत्रों का अध्ययन करके कहते हैं "राजन्! बालक के ग्रह एवं नक्षत्रों के अनुसार बालक का नाम 'श' अक्षर से प्रारंभ होता है।"
यह सुनकर देवश्रवा वसुदेव को कहते हैं "दाऊ! आप ही दीजिए कोई नाम अपने भ्रातृज को।"
वसुदेव बालक को अपनी गोद में लेते हुए कहते हैं "शत्रुओं का विनाश करने वाला। शत्रुघ्न! आज से तुम्हारा नाम शत्रुघ्न ही होगा पुत्र!"
नामकरण के पश्चात् ज्योतिष शिशु शत्रुघ्न की कुंडली पढ़ते हैं "राजन्! इस बालक के गृह इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि ये बालक असाधारण है। जीवनचक्र में इस प्रकार का जन्म अद्भूत् एवं देवमयी माना जाता है। ब्रह्मांड में वैभव व शौर्य अर्जित कर यह बालक बहुत बड़ा योद्धा बनेगा। अपने पराक्रम से ये अपनी नियति स्वयं लिखेगा और इतिहास रचेगा। परन्तु..."
"परन्तु क्या गुरुदेव?" देवश्रवा बड़े चिंतित स्वर में पूछते हैं।
"परन्तु यह बालक भविष्य में अपने ही कुल का शत्रु बनेगा। यह बालक अपने ही कुल की यादव सेना तथा यादव वीरों का सबसे बड़ा संहारक (मारने वाला) बनेगा और अंत में अपने ही कुलवंशी के हाथों मृत्यु को प्राप्त होगा।"
"यह आप क्या कह रहें हैं गुरुदेव! यह कैसे संभव है? शत्रुघ्न अपने परिवार के विरुद्ध क्यूँ होगा? और क्यूँ कोई उसके ही परिवार वाला उसे मारेगा?" देवश्रवा बड़े दुःखी स्वर में कहते हैं।
"यह तो विधि का लेख है राजन्! इस विधि के विधान को भला कौन बदल सकता है?"
इतना सुनते ही रानी रेणुका की आँखों से अश्रुधारा फुट पड़ती है और वह अपने पुत्र शत्रुघ्न को गोद में लिये दौड़कर अपने कक्ष की ओर चली जाती हैं।
सभी महलवासी मौन व स्तब्ध हो जाते हैं और पूरे महल में एक सन्नाटा फैल जाता है।

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