प्रकरण-52
भिखाभा चुनाव में हुए ख्रर्च पर नजर दौड़ा रहे थे, “ये पोस्टर और पुस्तक छापने वाले को आधे पैसे ही देने हैं...छपाई अच्छी नहीं थी, इस बात का रोना रोना है। झूठ बोलना है कि जितना माल कहा था, उतना मिला नहीं।” इसी बीच एक फोन बजा। रणछोड़ ने उठाया। “हैलो...” फिर रिसीवर हाथ में रख कर उसने धीरे से बताया, “मीना बहन से कह दूं कि आप निकल गए हैं...?” भिखाभा ने एक पल विचार किया और फिर हंस कर बोले, “अरे पगले, उसके पास शायद तुम्हारी समस्या का इलाज होगा...लाओ फोन दो, मैं बात करता हूं उससे...” रणछोड़ ने रिसीवर भिखाभा के हाथ में देते ही वह मीठी आवाज में बोलने लगे, “अरे वाह, आज तो मेरी किस्मत चमक गई...बहन का फोन आया है... क्या?.. अरे...ऐसा हो ही नहीं सकता....लेकिन चुनाव की भागदौड़ में आखिर दिमाग कहां ठिकाने पर रहता है...जाने दो...कैसे हो तुम सब लोग...हां हां हां...बेटा क्या कर रहा है...और बेटी..? अरे ये तो मेरा कर्तव्य है...कहने की बात ही नहीं... एक काम करो दीदी...कल आप सब लोग खाना खाने के लिए आएं...कल दोपहर को...ठीक है....ठीक है...फोन रखता हूं।”
रणछोड़ को आश्चर्य हुआ। बाकी दिनों में तो इस चचेरी बहन से चार हाथ दूर रहने वाले भिखाभा के मन में आज उसके लिए इतना प्रेम कहां से आ गया? भिखाभा ने उसकी परेशानी को और बढ़ाते हुए कहा, “कल दोपहर को सामने के होटल से पांच-छह लोगों के लिए बढ़िया खाना मंगवा कर रखना। और तुम भी कल हमारे साथ यहीं भोजन करना। समझ में आया...?”
रणछोड़ सिर खुजाने लगा। भिखाभा अपनी अक्लमंदी पर खुश होते हुए मूंछों पर ताव देने लगे।
मीना....मीना बहन...कितना पुराना संबंध है? हैं नहीं...थे कहना पड़ेगा। कुछ तो समय का प्रवाह कहें और कुछ स्वार्थ, जिसके कारण ये रिश्ता-नाता खत्म सा हो गया था। भिखाभा को इसकी चिंता भी नहीं थी। लेकिन, मीना बहन को भिखाभा से बड़ी नाराजगी थी। और उसके लिए कारण भी मजबूत था। मीना बहन के स्वर्गवासी पति मनुभाई, भिखाभा को गांव से शहर लेकर आए थे। उस समय भिखाभा की कोई हैसियत नहीं थी। उसे अपने घर में रख कर सगे भाई की तरह उसका पालन-पोषण किया। उसे नौकरी लगवा दी। धंधा करने के लिए उधार लेकर पैसे दिलवाए। अभी भिखाभा जिस जगह पर रह रहा था, वह जगह मनुभाई की थी। उन दोनों के बीच कैसा सौदा हुआ, क्या व्यवहार था-मीना बहन को इसकी जानकारी मिली ही नहीं, और जब मनुभाई गुजर गए तो एक दिन मीना बहन को मालूम हुआ कि वह जमीन तो बहुत पहले भिखाभा के नाम से हो गई है। कैसे, ये या तो मनुभाई जानते थे या ईश्वर। इसके अलावा, भिखाभा के लिए मनुभाई ने जो कर्ज लिया था, उसे चुकाने के लिए मीना बहन ने अपने गहने बेच दिए थे और जो कुछ बचत थी, वह भी खत्म हो गई थी।
मनुभाई की मौत के बाद प्रार्थना सभा में भिखाभा ने रोने का नाटक किया। और बड़े मीठे शब्दों में मनुभाई के परिवार की देखभाल करने की इतनी बड़ी-बड़ी बातें कीं कि वहां मौजूद सभी लोग भिखाभा की तारीफ करते थक नहीं रहे थे। सब कहने लगे, ये दोस्त तो सगे भाई से भी बड़ा निकला। परंतु, प्रार्थना सभा समाप्त होते ही भिखाभा, मीना बहन, उसके बच्चे और उनको दिए गए वचन-सब भूल गए।
मीना बहन छोटे-मोटे काम करके जैसे-तैसे अपना घर चला रही थी। अपने दोनों बेटों-जीतेश और कल्पेश को पढ़ाया। जीतू जैसे-तैसे बारहवीं पास हुआ। और उसके बाद इधर-उधर बताते फिरता था कि उत्तर प्रदेश की किसी यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएशन किया है। एक तो उसकी नौकरी मिलती नहीं थी, मिल भी जाए तो टिकती नहीं थी। इस लिए लोगों से कहता था कि मेरा अपना बड़ा धंधा है। कल्पु बारहवीं में पढ़ रहा है। कुछ दिन पहले घर की साफ-सफाई करते समय मीना बहन के हाथ डायरी लगी जिसमें साफ-साफ लिखा था कि मनुभाई ने अपनी पचास हजार रुपयों की एफडी तोड़कर भिखाभा को चुनाव लड़ने के लिए कर्ज दिया था। उस पहले ही चुनाव में भिखाभा जीत कर नगरसेवक बने थे। लेकिन वह कर्ज भिखाभा ने चुकाया नहीं था। उसके बाद मीना बहन ने उन्हें कितनी ही बार फोन किया। हर बार भिखाभा के आदमी झूठ कह देते थे कि वह अभी-अभी बाहर निकले हैं। या फिर मीटिंग में हैं, नहा रहे हैं, लौटे नहीं, दूसरे शहर गए हैं। मीना बहन कई बार दुखी होकर कई-कई बार संदेश छोड़ा कि उन्हें फोन करने के लिए कहें...लेकिन भिखाभा अत्यंत नीच आदमी था, ऊपर से नेता। उसी भिखाभा का मीना बहन के प्रति अचानक ह्रदय परिवर्तन देख कर रणछोड़ को आश्चर्य हुआ और मीना बहन को भी। पति की मृत्यु के बाद उन्हें अनेक लोगों का असली स्वभाव अनुभव करने का मौका मिला। इस संसार में कोई भी किसी के लिए मुफ्त में कुछ नहीं करता, कोई खुलेआम अपना स्वार्थ दिखाता है तो किसी का स्वार्थ छुपा होता है, ये बात मीना बहन को अच्छे से समझ में आ चुकी थी। उस पर से ये भिखाभा...गिरगिट की तरह रंग बदलने वाला आदमी। अचानक इतने प्रेम से बात करने लगा? उसे, उसकी भाषा में ही जवाब देना होगा। वह इतने प्रेम से, इतना मीठा क्यों बोल रहा है, उसका क्या स्वार्थ है-यह जान लेना होगा।
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उस दिन केतकी को बहुत बुखार था। उससे उठा भी नहीं जा रहा था। और केतकी की शाला में मीटिंग थी इस कारण उसे घर लौटने में देर होने वाली थी, यह तय था। मीटिंग के बाद तारिका ने अपने टिफिन से इडली निकाली और केतकी से खाने का आग्रह किया। केतकी इडली का टुकड़ा चटनी में डुबो कर मुंह में रखने ही जा रही थी कि सामने से प्रसन्न आता दिखा। केतकी ने तारिका को इशारा किया। तारिका हंस कर बोली, “वह भूखा मर जाएगा, पर साउथ इंडियन डिश को हाथ नहीं लगाएगा। उसे बिलकुल भी पसंद नहीं है।” केतकी का ग्रास गले में अटक गया। यानी कि दख्खन सेंट में वह उसे जानबूझकर लेकर गया था? भावना से यह मालूम कर लिया कि मुझे साउथ इंडियन डिश पसंद हैं और फिर जानबूझकर मुझे वहां ले गया, इसका क्या अर्थ निकाला जाए?
लेकिन केतकी के पास इन सब बातों का इस समय विचार करने का समय नहीं था। फटाफट एक और इडली खाकर वह स्कूटी लेकर भागी। बहुत देर हो चुकी थी। घर पहुंचते-पहुंचते रात के आठ बज गए। यशोदा अपने कमरे से कराहती हुई पड़ी थी। उसकी किसी को जानकारी नहीं थी, किसी को उसकी चिंता भी नहीं थी। शांति बहन और जयश्री अपने-अपने कमरों में थीं। भावना भी क्लास से लौटी नहीं थी। उसी समय रणछोड़ दास का आगमन हुआ। भीषण गर्मी, ट्रैफिक की परेशानी और तेज भूख..इस पर से उसे मालूम हुआ कि अभी तो भोजन का अता-पता नहीं है, तो उसने सारा घर सिर पर उठा लिया।
“आज तो इस यशोदा को छोडूंगा नहीं...”इतना कहकर वह आगे बढ़ा। केतकी बीच में आकर खड़ी हो गई। “मां को हाथ लगाना तो दूर, आज मैं आपको उससे बात भी नहीं करने दूंगी।”
“कौन रोकेगा मुझे, तू...?”
“हां, मैं...मैं उसकी बेटी हूं...मेरी मां बुखार में तप रही है। दिन भर से किसी ने उसकी तरफ देखा भी नहीं...”
“तो क्या हुआ, बुखार से कोई मर नहीं जाता... यह तो भैंस की तरह पड़ी हुई है....”
“वैसे तो एकाध दिन दादी या जयश्री खाना बना लें तो भी कुछ बिगड़ता नहीं है...”
“इस सबके लिए तू ही जवाबदार है।”
“बेकार में चीख-पुकार मत मचाएं। इतनी जल्दी होगी तो मैं बाहरसे खाना मंगवा देती हूं...”
“तू...मुझे...मुझे...पैसे का रुतबा दिखा रही है...? कमा रही है इस लिए पंख निकल आए हैं....पर तेरे ये पंख न काट डाले तो मेरा नाम भी रणछोड़ नहीं...”
मौका देख कर शांति बहन ने भी एक ताना मार दिया, “शाला तो साढ़े पांच बजे छूट जाती है। हाथ में स्कूटर रहती है.. फिर घर लौटने में भला इतना समय क्यों लगता है? लेकिन इसको तो रोज ही देर होती है...उसकी मां कुछ कहती नहीं...और मेरी बात भला कौन मानता है?”
रणछोड़ दास गुस्से से भर उठा... “कल के कल नौकरी छोड़ दें...घर के कामकाज में ध्यान दें...नहीं तो शादी हो जाने के बाद हम लोगों को ही सुनना पड़ेगा कि कुछ सिखाया नहीं...” इतना कह कर रणछोड़ दास उठ गया।
केतकी बोली, “जाने से पहले सुन लीजिए...नौकरी कल तो क्या मैं कभी भी नहीं छोड़ने वाली। आपसे जो करते बने, कर लें..”
रणछोड़ दास गुस्से में चीखा, “ए कुलच्छिनी...अब तुझे मैं नहीं छोड़ूंगा...”
वह उसकी तरफ दौड़ा, इसी बीच दरवाजे के पास आकर खड़ी हुई यशोदा ने जोर से क्रंदन किया और धराशायी हो गई। यशोदा को बेहोश देख कर केतकी की आंखों में आंसू आ गये। वह गुस्से से रणछोड़ दास, जयश्री और शांति बहन की तरफ देखने लगी।
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह