प्रकरण-50
केतकी को लगा कि खूब जोर से चिल्लाना चाहिए..इतनी जोर से कि धरती कांप जाए। अपने ही बाल नोचें जाएं। इतनी जोर से कि सारे बाले उखड़कर हाथों में आ जाएं और सिर खूनाखून हो जाए। कम से कम नाखून ही इतने लंबे होते कि अपनी ही चमड़ी उधेड़ सकती। उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि मां आखिर इतना सहन क्यों करती है? किसके लिए? किन पापों की सजा भुगत रही है वह? ऐसे राक्षस को वह क्यों बचाना चाहती है और कब तक ? मां की सहनशीलता का अंत होता क्यों नहीं? उसे हंसने की इच्छा नहीं होती होगी क्या? सुख से जीने की उसकी इच्छा मर गयी क्या? मां के चेहरे पर क्या खुशी-संतोष और मुस्कराहट मैं कभी देख पाऊंगी? केतकी को महसूस होता था कि उसका जन्म, उसकी शिक्षा और उसकी सफलता...सब बेकार है..उसका जीवन निरर्थक है, निरुपयोगी है। वह क्या करे और कहां जाए?
“तुम अभी तुरंत घऱ से निकल जाओ।” रणछोड़ दास चिल्लाया। शांति बहन और जयश्री ने रात को पुलिस बुलाने की उसकी बात को नमक-मिर्च लगा कर रणछोड़ दास को बतायी थी, यह उसी का परिणाम था। “तेरे कारण भिखाभा हार गए। मेरी नाक कट गई। और तू मुझे पुलिस को सौंपने चली थी? पनौती है तू पनौती। तेरी जगह कोई और होती तो मेरे पैर धोकर पीती...मेरे पैर... पर तू मेरा खून है कहां? तू तो मेरा खून पीने के लिए आई है, खून पीने..तुझे घर में रखा, खाने-पीने दिया, पढ़ाया...लेकिन किसी के उपकार मानने का संस्कार ही कहां है तेरे खून में?”
केतकी ने चुप रहने की बहुत कोशिश की, लेकिन रणछोड़ दास के वाग्बाणों से वह घायल हो गई।“मेरे खून और मेरे संस्कारों के कारण ही मेरी मां अब तक तुम्हारे अत्याचार सहन कर रह है और मैं चुपचाप खड़ी हूं...दूसरा कोई होता तो तुम्हें बहुत पहले ही जेल में भिजवा चुका होता। घर के सभी लोग सींखचों के पीछे होते। ”
इतना सुनते ही किनारे पड़ी हुई लकड़ी उठा कर रणछोड़ दास केतकी को मारने दौड़ा, लेकिन अचानक दरवाजे के पीछे खड़ी यशोदा केतकी के सामने आकर खड़ी हो गई। रणछोड़ दास की ओर देख कर उसने हाथ जोड़ लिए। उसकी आंखों में आंसू आ गए। निरीह चेहरे से दया की भीख मांगती हुई वह बोली, “मुझे सजा दीजिए...पीट डालिए, मार डालिए, लेकिन केतकी को छोड़ दीजिए। उसको माफ कर दीजिए। वह बेचारी कहां जाएगी? उसको माफ कर दीजिए... ” इतना कहते-कहते यशोदा नीचे गिर पड़ी। गिरते-गिरते उसने एक हाथ रणछोड़ दास के पैरों की ओर बढ़ाया, छूने के लिए।
केतकी को लग रहा था कि धरती फट जाए और वह उसमें समा जाए। लेकिन ये इच्छापूर्ति कहां थी उसके नसीब में? वह घर से बाहर भागी। उसके पीछे-पीछे भावना भी दौड़ पड़ी। केतकी स्कूटी चालू करती उसके पहले ही भावना पीछे जा बैठी। “कहां जाना है?” उसको उत्तर देने की बजाय केतकी गाड़ी भगाने लगी। गति बढ़ा दी। बाकी समय में स्पीड बढ़ाने के लिए कहने वाली भावना को इस समय इस स्पीड से डर लग रहा था। केतकी पागलों की तरह स्कूटी चलाती रही। अनजान रास्तों पर भागती रही। अचानक भावना जोर से चिल्लाई। उसे सुन कर केतकी ने जोर से ब्रेक दबाया। स्कूटी गिरते-गिरते बची। केतकी घबराई और उसने पीछे मुड़ कर देखा।
भावना ने एकदम निरीह चेहरा बना कर उसका हाथ पकड़ा और उसे थोड़ा पीछे ले गई। वहां कुल्फी वाला खड़ा था। उसकी ओर इशारा किया। पहले तो केतकी को बहुत गुस्सा आया। उसके बाद भावना का हाथ पकड़ कर उसे खींचते हुए कुल्फी वाले के पास ले गई, “इसको कुल्फी दीजिए।” कुल्फी वाले ने एक कुल्फी दी। भावना ने मुंह बिचकाया। “तुम यदि खाओगी तो ही मैं भी खाऊंगी नही तो नहीं।” केतकी चिढ़ कर बोली, “दीजिए, मुझे भी एक...”
भावना हंसते हुए कुल्फी खाने लगी। चौथी कुल्फी के समय केतकी ने भावना का हाथ पकड़ कर हंसने लगी। दोनों कुल्फी खाते-खाते मन भर कर हंसने लगीं। अब कुल्फी वाला घबरा गया, “ये दोनों बहनें पागल लगती हैं... इतनी सारी कुल्फियों के मेरे पैसे देंगी भी या नहीं...?” यह प्रश्न उसके मन में उठने लगा। और मानो उसका प्रश्न केतकी ने सुन लिया हो, उसने सौ रुपए की नोट निकाल कर उसके सामने रख दी।
“दीदी, साठ रुपए हुए। छुट्टे हों तो दीजिए।” भावना हंस कर बोली, “भाई सारे पैसे रख लीजिए। सौ के सौ... कुल्फी के सौ तो ठीक पर मेरी दीदी की हंसी के हजारों दूं तो भी मुझे कम ही मालूम पड़ेंगे...” पैसे तो मिल गए, लेकिन कुल्फी वाले को अपनी आशंका सही मालूम हुई। दोनों पागल हैं। पूरी तरह से। वे दोनों कुछ और बोलतीं इसके पहले ही वह वहां से आगे बढ़ गया।
अगले दिन सुबह से ही भिखाभा को तबीयत ठीक नहीं लग रही थी। उनको यह कहने की किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी, लेकिन उन्होंने रणछोड़ दास के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया, इसका एहसास उन्हें खुद ही हो रहा था। अब यदि वह सही में वापस नहीं आया तो?अरे, उसके बिना काम कैसे चलेगा? वह जबसे इस शहर में आया है, तब ही से रणछोड़ उसके साथ है। वह यदि नहीं आया तो किसी को भेज कर बुलाया जाएगा। सुबह की चाय उसके साथ पीकर ही तो उसके दिन की शुरुआत होती थी। और दिनों में तो अब तक रणछोड़ आ जाता था। आज तो उसे मैं खुद उसका हाथ पकड़ कर लाऊंगा। तभी दरवाजे के बाहर किसी के छींकने की आवाज आई। भिखाभाई ने जाकर देखा तो रणछोड़ सिर नीचे किये हुये वहां खड़ा था। “अरे, तुझे कोई लाज-शर्म है कि नहीं? सुबह से तेरा ये भिखाभा चाय पीने के लिए तेरी राह देख रहा है और तू यहां खड़ा है?चल मेरे साथ, नहीं तो दूंगा एक रख कर।”
ररणछोड़ दास ने टेबल पर रखे हुई केतली से एक कप चाय बना कर भिखाभा के हाथ में कप दे दिया। भिकाभा ने दूसरा कप भर कर रणछोड़ के हाथ में दिया। भिखाभा ने इतने सालों में किसी को भी इस तरह चाय का कप ले जाकर नहीं दिया होगा। उसके बाद वह बैठे और उन्होंने रणछोड़ कर चाय पीने का आदेश दिया। “कल मैं जरा चिढ़ गया था...कौन सा ऐसा नेता है जो चुनाव नहीं हारता? इंदिरा गांधी भी हारी थीं...लेकिन मुझसे गलती हो गई...तुम पर गुस्सा किया..मुझे जिसने हराया उस पर मुझे गुस्सा करना था न?”
“हां साहब, एकदम सही...”
“तुम्हारी वो बेटी ...क्या नाम है उसका...?”
“साहब, वह मेरी बेटी नहीं है ...नहीं तो ऐसा हुआ ही नहीं होता...केतकी नाम है उस पनौती का...”
“हां...सका कुछ न कुछ करेंगे...मैं ही करूंगा...अरे हां, बीच में तुम उसके शादी की बात कर रहे थे न? क्यों नहीं की? उसके प्रति तुम्हारे मन में ममता वमता तो नहीं जाग गई?”
“साहब, मेरे बस में होता न तो मैं उसे कचरे के ढेर पर फेंक आता...जिंदा गाड़ दिया होता..बीच में आप भी कह रहे थे न...बीच में तो आप भी देखने वाले थे न उसके लिए रिश्ता....लेकिन इन चुनावों के कारण वह काम रह ही गया...”
“चलो, अब विचार करते हैं...कि तेरी इच्छा कैसे पूरी की जाए...” फिर दोनों काफी देर तक चर्चा करते बैठे रहे। बहुत दिनों बाद दोनों ने एकसाथ खाना खाया। घर लौटते समय रणछोड़ दास के चेहरे पर खुशी और पैरों में जोर आ गया था।
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इसके बाद रणछोड़ दास, शांति बहन और जयश्री ने यशोदा को परेशान करने का एक भी अवसर छोड़ा नहीं। नई-नई गलतियां खोजी जाती थीं। आते-जाते ताने मारे जाते, वह भी जानबूझकर केतकी के सामने और उसे सुनाई दे इस तरह।
यशोदा की हालत दिनोंदिन खराब होती जा रही थी। खुद को होने वाली तकलीफ से ज्यादा दुःख उसे इस बात का था कि उसे यह परेशानी केतकी के सामने हो रही है। नहीं कही जाने वाली बातें भी केतकी के सामने कही जाती थीं। मानसिक रूप से केतकी पूरी तरह कमजोर हो चुकी थी।
भावना ने एक दिन उससे कहा, “चलो हम तारिका दीदी से मिलने जाते हैं। उनसे मिल कर गप्पें मारेंगे।” लेकिन केतकी का मन तैयार नहीं था। अचानक उसे उपाध्याय मैडम की याद आई। वह भावना को लेकर उपाध्याय मैडम के घर पहुंच गई। केतकी की प्रगति के बारे में जान कर उन्हें गर्व हो रहा था। केतकी की कहानी सुन कर उन्होंने संक्षेप में उत्तर दिया, “देखो, मुझे तो एक ही रास्ता दिखाई दे रहा है। तुम शादी करो और यह घर छोड़ दो। शायद वे लोग भी यही चाहते हों। वैसे भी अब तुम्हारी शादी की उम्र हो चली है, तो उस बारे में विचार करने में कोई बुराई नहीं है।”
भावना तुरंत बोली, “पिताजी तो कबसे ही सब लोगों से कह रहे हैं, लेकिन संयोग ही नहीं बन रहा है। केतकी दीदी का भाग्य इतना खराब क्यों है?”
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह