अग्निजा - 40 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अग्निजा - 40

प्रकरण 40

........और भावविहीन चेहरे के साथ यशोदान ने चंदा का वह फोटो रणछोड़ दास को जाकर दे दिया, फिर चार कदम दूर उसके चेहरे के भावों को देखने के लिए खड़ी हो गई। रणछोड़ ने फोटो को देखा, पलट कर देखा और फिर एक-एक कदम धीमी गति से उठाते हुए उसकी तरफ आया.. और सटाक...यशोदा के चेहरे पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। उस थप्पड़ की आवाज सुनकर कमरे के भीतर केतकी स्तब्ध हो गई। “मां ने इतनी हिम्मत दिखाई, आखिर उसकी वेदना व्यक्त हो ही गई।” लेकिन बाहर आकर जब उसने दृश्य देखा तो तो खड़ी की खड़ी रह गई। थप्पड़ मां ने नहीं मारा, उसको पड़ा था। रणछोड़ इस तरह से गुस्से से यशोदा की ओर देख रहा था मानो उसने कोई महापाप कर दिया हो। यशोदा अपने दोनों गालों पर हाथ रखकर दूसरे थप्पड़ से खुद को बचाने की तैयारी में खड़ी थी।

“साली...कमीनी, तू अब मेरी जेब की तलाशी भी लेने लगी क्या... पर्स खोज कर निकाल लिया...दया करके तुझे और तेरी बेटी को रहने के लिए जगह दे दी...दो वक्त का खाना दिया...उससे संतोष नहीं है...” यशोदा के बाल पकड़ कर रणछोड़ दास ने उसका सिर दीवार से टकराया, “दूसरा कोई होता न तो....तो उस हरामी लड़की को कब का घर से बाहर निकाल दिया होता...नहीं तो बेच खाया होता...और तुझको भी मैं यहां रहने दे रहा हूं तो मेरी जासूसी करने लगी हो....”

“लेकिन....लेकिन मैंने आपके न तो पर्स को न ही जेब को हाथ लगाया...”

“तो फिर यह फोटो क्या तेरा बाप नरक से देकर गया? या तेरा पहला पति आया था?”

रणछोड़ ने यशोदा को नीचे पटका और उसको लात मारने जा ही रहा था कि पीछे से आवाज आई, “बस, अब बहुत हुआ...” उस आवाज में दम था। रणछोड़ ने आश्चर्य से पीछे मुड़ कर देखा, तो दरवाजे पर केतकी खड़ी थी और उसका चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था... “बस करिए...शरम नहीं आती...शरम करने की बजाय उस पर हाथ उठा रहे हैं...?”

“तू...तू...हरामी मुझसे ये बात कह रही है? हे भगवान, ये हो क्या रहा है...मेरे सामने खड़ी होकर यह मुंह चलाने लगी है...देखो तो..”

“हां, मुंह चलाने लगी हूं...तीन बातें कान खोल कर सुन लें...मेरे पिताजी स्वर्ग में ही होंगे क्योंकि उन्होंने कभी कोई गलत काम नहीं किया...और मेरे नाना को तो नर्क में खुद भगवान भी नहीं डाल सकते. समझ में आया न? और तीसरी बात....ये फोटो मैंने मां को दिया था...मैंने...”

यशोदा को यह सब सुन कर डर लगने लगा, वह बोली, “चुप रहो केतकी...नहीं, नहीं...ये फोटो उसने मुझे नहीं दिया....मुझे वह...मुझे न वह...”

“मां, बहुत हुआ अब...बाहर से लौट कर आने के बाद आपने टेबल पर अपना पर्स, कागजात और सब टेबल पर रख दिया था। दादी ने पंखा चलाया...इस वजह से आपके पापों का यह सबूत उड़कर टेबल के नीचे गिर गया था...मैंने उसे उठा कर मां के पास दिया...”

रणछोड़ को बहुत गुस्सा आया। उसकी दया पर, उसके फेंके हुए टुकड़ों पर पलने वाली ये हरामी लड़की मेरे साथ इस तरह बात कर रही है? और मुझे पलट कर जवाब देती है? ये बित्ते भर की लड़की रणछोड़ दास को चुनौती दे रही है? गुस्से में रणछोड़ उसकी तरफ दौड़ा, लेकिन केतकी बिना डरे उसकी आंखों में आंखें मिलाकर गुस्से से देख रही थी। यह देख कर  रणछोड़ को आश्चर्य हुआ। उसको अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था। उसने आंखें मल कर देखा। केतकी हंस कर बोली, “नहीं, सपना नहीं हे ये...मैं कई सालों की नींद से जागी हूं...आप ज्यादा से ज्यादा क्या कर सकते हैं? मार डालेंगे? तो मार ही डालिए ..रोज-रोज मरने से मुक्ति तो मिलेगी...”

“साली ...कमजात...बदजात...मुझे उत्तर देती है? ...मुंह चलाती है? आज तुझको छोड़ूंगा नहीं...ठहर...”

“हाथ उठाया तो याद रखिए...”

“मुझे धमकी देती है...?”

“क्यो...आप हैं कौन? सिकंदर या कलंदर?”

“मेरे उपकार मानना छोड़ कर तू मुझे धमकी दे रही है? ये तेरा गंदा खून बोल रहा है...गंदा खून...”

“ये खून गंदा नहीं है...बहुत अच्छे आदमी का है। इसी लिए आज तक चुपचाप बैठी रही और सहन करती रही। और, आपका उपकार किस बात का मानूं मैं? दो वक्त खाने का या छह फुट की जगह सोने के लिए दे दी है, उसके लिए, उसके बदले कितने काम करवा लेते हैं? बचपन से आज तक जानवरों की तरह काम करते आ रही हूं इस घर में...मार खाती आ रही हूं...ताने सुनती आ रही हूं...मैं ये सब अपनी मां के लिए सहन कर रही थी...और अपने लिए भी...पर अब बहुत हुआ...बस...”

“ऐसा....? नहीं तो तू क्या कर लेगी वह भी आज बता ही डाल...?” इतना कह कर रणछोड़ थोड़ा और आगे बढ़ा ही था कि एक तरफ से यशोदा और दूसरी तरफ से शांति बहन दौड़ीं। सही कहें तो शांति बहन बहुत देर से घर के भीतर से ही यह तमाशा देख रही थीं और सब कुछ सुन भी रही थी। उन्हें केतकी के आज के रूप से डर लगा। फिर, उन्हें केतकी का गुस्सा तो मालूम ही था। बात हाथ से निकल जाए इसके पहले ही वह बीच में पड़ गईं। उन्होंने अपने बेटे का हाथ पकड़ा, “रणछोड़ अपने गुस्से को काबू करो...दिमाग ठंडा रखो।” फिर यशोदा की तरफ तिरस्कार से देख कर बिना कुछ कहे केतकी की ओर नजरें घुमाईं। वह उसकी तरफ देखती ही रहीं। “गला फाड़ फाड़ कर और दिमाग को जोर देकर थक गई होगी। शरबत लाकर दूं क्या तुझे?”

रणछोड़ दास और अधिक गुस्से से थरथराते हुए बोला, “मां, मुझे मत रोको...” शांति बहन जोरदार आवाज में बोलीं, “चुप...एकदम चुप हो जाओ... जाओ थोड़ी देर बाहर घूम कर आओ...दिमाग शांत हो जाए तब घर वापस आना...”

रणछोड़ दास ने यशोदा की ओर घूर कर देखा। उसके बाद केतकी की तरफ गुस्से से नजर दौड़ाई। उल्टे पांव दरवाजे तक पहुंचा और फिर पैर पटकते हुए बाहर निकल गया। और फिर शांति बहन यशोदा के पास गईं, “इतनी शातिर होगी तुम ऐसा सोचा नहीं था। ये तो छोटी है...उसके भीतर जवानी का जोश है...लड़ने के लिए उसको सामने कर दिया? लेकिन तुमको कुछ समझ में आता भी है या नहीं, उसने गुस्से में तुमको घर के बाहर निकाल दिया तो कहां जाओगी? मां-बाप तो मर गए...और चाचा-चाची को तो अभी जान ही नहीं पाई? तुम्हारा तो ठीक...लेकिन इस लड़की का क्या होगा, कहां रहेगी, और तुम लोग करोगी क्या...? लेकिन कलंक तो मेरे माथे ही लगेगा न...सास खराब थी...उसने परेशान किया होगा इसलिए मां-बेटी ने कुएं में कूदकर जान दे दी...”

यशोदा ने आह भरी, “ऐसा मत कहिए..” “तो फिर कहां जाकर मरोगी, रेलवे पटरी पर? कुछ भी करोगी तो बदनामी तो मेरी ही होगी न? मुझसे ही गलती हुई जो बिना बाप की बेटी को इतने दिनों तक संभाला...और काम करती हूं...काम करती हूं...ये क्यों सुनाती हो...अपना घर समझा होता तो ऐसी न बोलती...घर में सबको काम करना ही पड़ता है...और यदि अपना घर नहीं समझती हो तो दूसरे के घर में तो ज्यादा ही काम करने पड़ते हैं...ये क्या धर्मशाला है?” इतना कह कर शांति बहन गुस्से से दोनों की तरफ देखते हुए अंदर चली गईं।

यशोदा केतकी के पास गई। उसका हाथ थामने का प्रयास किया लेकिन केतकी एकदम हट गई और बोली, “मुझे हाथ मत लगाओ। ” “पर मेरी बात तो सुनो...”

“पहले मुझे यह बताओ, वह आदमी तुमको छोड कर कहीं और मौज कर रहा है...उससे सवाल पूछने के बजाय तुम उससे मार खा रही हो? तुम किस मिट्टी की बनी हो? तुमको कैसे कुछ नहीं लगता?”

“खूब लगता है, इतना लगता है कि पूछो मत...पर मुझे तुम्हाली और भावना की चिंता सताती है...तुम लोगों का क्या होगा? बस, इस प्रश्न के उत्तर मिलने की प्रतीक्षा कर रही हूं...और फिर स्त्री धर्म भी तो कुछ होता है न...?”

“धर्म? तुम निभाती रहो...मुझे उसमें कोई रुचि नहीं है...” केतकी अंदर के कमरे में चली गई। कमरे में अब सिर्फ पंखे की घरघर सुनाई पड़ रही थी। बाकी सब कुछ शांत हो गया था। एकदम शांत। लेकिन यह शांति तूफान के पहले की थी।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह