माफ़ कीजिए श्रीमान- सुभाष चन्दर राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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माफ़ कीजिए श्रीमान- सुभाष चन्दर

व्यंग्य..साहित्य की एक ऐसी विधा है जिसमें आमतौर पर सरकार या समाज के उन ग़लत कृत्यों को इस प्रकार से इंगित किया जाता है की वह उस कृत्य के लिए ज़िम्मेदार व्यक्ति के मस्तिष्क से ले कर अंतर्मन में एक शूल की भांति चुभे मगर ऊपरी तौर पर वो मनमसोस कर रह जाए..उफ़्फ़ तक ना कर सके।

दोस्तों..आज व्यंग्य से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं जिस व्यंग्य संकलन की बात करने जा रहा हूँ..उसे 'माफ़ कीजिए श्रीमान' के नाम से हमारे समय के सशक्त व्यंग्यकार सुभाष चन्दर जी ने लिखा है। अनेक पुरस्कारों से सम्मानित सुभाष चन्दर जी की अब तक 47 से ज़्यादा व्यंग्य पुस्तकें आ चुकी हैं। इनके अलावा वे टीवी/रेडियो के लिए 100 से अधिक धारावाहिकों का लेखन कर वे इस क्षेत्र में भी ख़ासे सक्रिय हैं।

आम तौर पर अखबारी कॉलमों में छपने वाले तथाकथित व्यंग्यों में जहाँ एक तरफ़ बात में से बात या फिर विषय से भटकते हुए बिना बात के कहीं और की बात खामख्वाह निकलती दिखाई देती है। वहीं सुभाष चन्दर जी की व्यंग्य रचनाएँ एक ही विषय से चिपक कर चलती हैं और उसे अंत तक सफ़लता से निभाती भी हैं।

इसी संकलन की किसी व्यंग्य रचना में औरत के अपने पाँव की जूती समझने वाले दबंग व्यक्ति की दबंगई भी बुढ़ापे में उस वक्त चुकती नज़र आती है जब उसकी कम उम्र की चौथी बीवी उसकी ही आँखों के सामने अपनी मनमानी करती दिखाई देती है। तो वहीं किसी अन्य व्यंग्य में विचारधारा के मामले में बेपैंदे के लौटे बने उन व्यक्तियों पर कटाक्ष किया जाता नज़र आता है जो वक्त ज़रूरत के हिसाब से अपनी राजनैतिक विचारधारा को बदलते नज़र आते हैं।

इसी संकलन का एक अन्य व्यंग्य में नकचढ़ी बीवी की ज़िद से त्रस्त सरकारी दफ़्तर का बड़ा अफ़सर अपने मातहतों को प्रमोशन का लालच दे..उनके ज़रिए दफ़्तर में लगे शीशम के सरकारी पेड़ को कटवाने की जुगत भिड़ाता नज़र आता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी अन्य व्यंग्य में कीचड़ और गन्दगी में ही अपना भविष्य खोजने वालों पर मज़ेदार ढंग से कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है।

इसी संकलन का एक अन्य झकझोरने वाला व्यंग्य हर धर्म में मौजूद अंधभक्तों पर गहरा तंज कसता नज़र आता है जिसमें हर धर्म को एक समान मानने वाला यासीन ना घर का और ना ही घाट का रह पाता है और अंततः दो धर्मों की नफ़रत की बीच पिस.. मार दिया जाता है।

इसी संकलन के अन्य व्यंग्य में जहाँ लेखक युद्धग्रस्त देशों को हथियार बेचने वाले अमीर देशों की मंशा पर तंज कसते दिखाई देते हैं कि किस तरह हथियार बनाने वाले देश अन्य देशों को भड़का कर अपना भारी मुनाफ़े का उल्लू सीधा करते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य व्यंग्य में लेखक एक अमीर आदमी के द्वारा सड़कछाप..आवारा कुत्ते की तरफ़ फैंके गए माँस के टुकड़े का संबंध अमीर आदमी बनाम ग़रीब आदमी से जोड़ते नज़र आते हैं।

इसी संकलन के किसी व्यंग्य में जहाँ एक तरफ़ लेखक कोरोना से ग्रस्त होने पर टोने टोटके और व्हाट्सएप ज्ञान को डॉक्टरी इलाज से ज़्यादा तरजीह देते और फिर उसका परिणाम भुगतते नज़र आते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य व्यंग्य में लेखक गुरु, चेले और मेंढक के माध्यम से साहित्यिक जगत में हो रही पुरस्कारों की बंदरबाँट पर प्रकाश डालते नज़र आते हैं।

इसी किताब में कहीं फेसबुक और व्हाट्सएप जैसी सोशल मीडिया की तथाकथित स्वयंभू यूनिवर्सिटियों द्वारा विपरीत धर्मों की आड़ ले आपस में नफ़रत की आग बढ़ाई जाती दिखाई देती है। तो वहीं किसी अन्य व्यंग्य के ज़रिए देश के विभिन्न त्योहारों को बाज़ार में बदलने वाले बिज़नस माइंडेड व्यापारियों की सोच और मंशा पर गहरा कटाक्ष होता दिखाई देता है।

इसी संकलन के अन्य व्यंग्य में 'बुरा ना मानो..होली है' की तर्ज़ पर हम लोगों की उस मनोवृत्ति पर कटाक्ष किया जाता नज़र आता है कि हम लोग हर अन्याय अपने दब्बूपन की वजह से चुपचाप सह लेते हैं और उसका बुरा तक नहीं मानते। एक अन्य व्यंग्य में सोशल मीडिया के ज़रिए तुरत फुरत में होने..पनपने वाले प्रेम संबंधों पर हल्का फुल्का कटाक्ष होता दिखाई देता है।

इसी संकलन में संकलित कुछ कोरोना कथाओं में से रौंगटे खड़े करती एक रचना में शहर से परिवार समेत पैदल अपने घर..अपने गाँव जा रहा व्यक्ति एक ही समय पर दुखी और खुश है। दुखी इसलिए कि रास्ते की थकान और तकलीफ से घर जा रहा उसके परिवार का एक सदस्य गुज़र चुका है और खुश इसलिए कि अब बचा खाना कम लोगों में बँटेगा।

कहीं किसी कोरोना कथा में कोई नेता अपने वोट बैंक के हिसाब से सगा-पराया देख मदद करता दिखाई देता है। तो कहीं पुलिस वालों को इस चीज़ की खुन्दक है कि कोरोना के दौरान आम आदमी अपने अपने घरों में आराम कर रहे हैं जबकि उनको बाहर सड़कों पर ड्यूटी बजानी पड़ रही है।

इसी किताब में कहीं कविताओं के ज़रिए कोरोना का इलाज होता दिखाई देता है तो कहीं थोक के भाव पुरस्कार बँटते नज़र आते हैं। कहीं किसी रचना में कोई अशक्त बूढ़ा थानेदार से एक्सीडेंट के असली मुजरिम के बजाय उसे मुजरिम मान गिरफ्तार करने का सौदा कर रहा है। मगर क्या तमाम स्वीकारोक्ति के बाद अंततः उसके हाथ कुछ लगेगा भी या नहीं?

कहीं किसी व्यंग्य में कोई इसलिए परेशान है कि वो अपनी किताब किसे समर्पित करे? तो कहीं किसी रचना में कोई कलयुगी बहु अपने सास ससुर के आपस में मिलने..हँसने.. बोलने..बतियाने तक पर इस हद तक रोक लगा कर रखती है कि उन्हें छुप- छुप कर घर से बाहर.. पार्क इत्यादि में मिलने को मजबूर होना पड़ता है।

इस संकलन के किसी व्यंग्य में चुनावों की कढ़ाही में वोटों के पकौड़े तले जाते दिखाई देते हैं तो कहीं कोई आलोचना का तंबू तानता दिखाई देता है। कहीं नए ज़माने की लड़कियों की बातें होती दिखाई देती हैं। इसी संकलन के किसी व्यंग्य में कहीं सपने भी बिकते दिखाई देते हैं

इस संकलन के कुछ व्यंग्य मुझे बेहद पसन्द आए। उनके नाम इस प्रकार हैं..

1. मर्द की नाक
2. मेम साहब की ड्रेसिंग टेबल
3. यासीन कमीना मर गया
4. अमीर आदमी और पट्टे वाला कुत्ता
5. करोना के साथ मेरे कुछ प्रयोग
6. हिंदू मुसलमान वार्ता उर्फ़ तेरी ऐसी की तैसी
7. कुछ करो ना कथाएं
8. सौदा ईमानदारी का
9. लड़की नए ज़माने की


133 पृष्ठीय इस व्यंग्य संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 195/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।