प्रकरण 34
जयसुख घर आकर कुछ बोला नहीं, पर उसका मूड बदला हुआ था। वह चिंतित है या गुस्से में-रमा को समझ में ही नहीं आ रहा था। लेकिन उसके मन में एक गांठ तो पक्की हो गई थी कि इसकी वजह केतकी ही है। लेकिन रमा को इस बात का अंदाज नहीं था कि वह जिस तरह से केतकी के साथ व्यवहार कर रही है, उसकी जानकारी गांव-भर को मिल गयी है।
कानजी चाचा ने इस मौके का फायदा उठाने का विचार किया। वो साला गोवर्धनदास मुझे हराकर अपने आपको बड़ा होशियार समझ रहा है क्या....? अब मेरी बारी है, अब देखता हूं उसको। कानजी चाचा ने शुभचिंतक बनने का नाटक करते हुए इन बातों में नमक-मिर्च लगाकर यशोदा को बताया। उसी समय यह बात भी गांव भर में फैलाई कि रमा ससुराल के घर से अपना मायका भर रही है। ये सभी बातें बढ़ती चली गईं और रमा को गुस्सा आ गया। अब वह खुल्लमखुल्ला बोलने लगी, “उस लड़की को मैंने तो पैदा नहीं किया है, जो मैं उसकी जीवन भर सेवा-चाकरी करूं। मैं घरवाली बनकर आई हूं या कामवाली? उसके नाना-नानी ने जैसा लाड़-दुलार किया वैसा मैं नहीं कर सकती। घर में रहना और खाना-पीना होगा तो चार काम भी करने होंगे उसे...मेरा घर कोई धर्मशाला नहीं है...”
जयसुख बेचैन हो उठा। उसकी जान सांसत में आ गई। एक तरफ भाभी को दिया हुआ वचन और दूसरी ओर केतकी के प्रति उसकी ममता। क्या किया जाए, उसे समझ में ही नहीं आ रहा था। उसका दोनों तरफ से मरण था। उसी समय यशोदा भावना को लेकर मायके आई। उन चार दिनों के लिए। रमा के मायके में सभी लोग धार्मिक, पारंपरिक और पुराने विचारों वाले थे। ससुराल में रह रही बेटी भला कभी उन चार दिनों के लिए मायके आती है क्या? वहां छुआछूत होती है... फिर हमारे घर में क्यों नहीं माना जाता? यशोदा के आते ही उसने उसकी व्यवस्था एक कोने में कर दी। उसे वहीं पर एक थाली, कटोरी और गिलास दे दिया। भावना को हंसते-हंसते बताया, “बेटा, तुम और केतकी अपनी मां को मत छूना...ठीक है न...”
भावना और केतकी, यशोदा के पास ही रहीं इसलिए अब घर का सारा काम रमा को ही करना पड़ा। वह काम करते-करते बड़बड़ाने लगी, बरतन पटकने लगी। जयसुख को घर वापस आते-आते ही यह मालूम हो गया था कि यशोदा मायके आई हुई है। इस खबर से उसके तप्त मन को जरा शांति मिली। वह उत्साह से भर कर घर में आया, लेकिन उसे यशोदा कहीं दिखाई ही नहीं पड़ी। उसने रमा से धीमी आवाज में पूछा, “यशोदा बहन कहीं बाहर गई हैं क्या?”
“नहीं, ऐसे समय में बाहर कैसे जाएंगी? मेरे सिर पर बैठी हैं...आपकी बहना रानी कमरे में आराम फरमा रही होंगी।” ये कड़वे बोल सुनकर जयसुख कमरे की ओर मुड़ा। तभी रमा ने वाग्बाण छोड़ा, “उनको छूना होगा, तो आप भी वहीं रहें।”
“तुम ये क्या बोल रही हो, इस घर में ऐसा कुछ नहीं....?”
“क्यों? ये घर का दुनिया से अलग है, समाज के नियम-कायदे पालने ही चाहिए न?” कल मुझे बच्चे होंगे। उन्हें इसी समाज में रहना है।”
“अरे, थोड़ा तो विचार करो...?”
“विचार करने की आवश्यकता आपको है...आपकी बहन को है...ऐसे चार दिनों में उन्हें यहां आते हुए शर्म नहीं आती....?”
“अरे...लेकिन?”
“लेकिन, वेकिन रहने दें....इस बात तो ठीकहै...लेकिन इससे आगे मैं इस तरह की सेवा-चाकरी नहीं करने वाली।” हर वाक्य के साथ रमा अपनी आवाज जानबूझकर तेज करती जा रही थी। “एक तो यह लड़की मां-बाप के होते हुए भी मेरे सिर पर है...वह कम था तो हर महीने उसकी मां चार दिनों के लिए यहां आराम करने के लिए आएगी क्या? ऐसा तो मैने कहीं देखा-सुना नहीं है जी...”
अचानक यशोदा कमरे से बाहर निकली। एक हाथ में अपनी कपड़े की थैली और दूसरे हाथ से भावना। आंसू भरी आंखों से उसने जयसुख चाचा की ओर देखा और दोनों हाथ जोड़ कर बाहर निकल गई। जयसुख को सदमा लगा था। यह देख कर केतकी रोने लगी।
रमा को और जोर चढ़ा। “हां, हां...मैं बुरी हूं...तो फिर इस बुरी औरत की एक बात और सुन लो...इससे आगे मैं इस लड़की की देखभाल नहीं करने वाली। या तो इसकी कहीं और व्यवस्था करें या फिर मुझे ही मायके भेज दें...यदि वह यहां हमेशा के लिए रहने वाली होगी, तो मुझे भूल जाएं।”
जयसुख को लगा जैसे सारा घर घूम रहा हो। वह कुछ बोलने जा रहा था, पर बोल ही नहीं पाया। उसका सारा शरीर पसीना-पसीना हो गया। जयसुख संवदेनशील इंसान है...उसके लिए यशोदा का इस तरह घर से निकल जाना, केतकी को घर से बाहर निकालने की बातकरना और रमा के मायके जाने की धमकी ...इन सब बातों ने उसकी भावनाओं पर कुठाराघात किया।
जयसुख जैसे-तैसे उठा और उसके आगे दोनों हाथ जोड़ कर कुछ कहने का प्रयास करने लगा, लेकिन रमा रसोई घर में चली गई। रसोई घर से वह पानी भरा लोटा लेकर आई और यशोदा जिस कमरे में ठहरी थी, वहां पानी छिड़कर उस स्थान को शुद्ध किया। साथ ही भगवान से क्षमा भी मांग ली। इसके बाद वह जयसुख के सामने दोनों हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई, “देखिए, मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है। आप तो भोलेभाले हैं, सज्जन हैं...आपकी अच्छाई का लोग फायदा उठा रहे हैं...अब आप अकेले नहीं हैं...अपने बारे में भी थोड़ा विचार करना पड़ता है...इसलिए ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहती...हाथ जोड़ कर कहती हूं कि केतकी की कहीं और व्यवस्था करें या फिर मुझे मायके जाने दें, हमेशा के लिए...”
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यशोदा और भावना को अचानक वापस आया देख कर रणछोड़ दास को आश्चर्य हुआ। शांति बहन ने चौंकने का नाटक किया। हां, नाटक ही, क्योंकि कानजी भाई ने उन्हें पहले ही सारी खबर दे दी थी। साथ ही, इस परिस्थिति में अपनी अच्छाई जताने का मौका कैसे साधा जाए और इसका फायदा किस तरह उठाया जाए, इसके बारे में भी चार बातें समझा दी थीं उन्होंने।
रणछोड़ ने चिंता या फिर प्रेम जताने के बजाय तुच्छता से पूछा, “क्यों इतनी जल्दी कैसे वापस आ गई?” यशोदा जैसे-तैसे बोल पाई, “ अब मेरा वहां का हिस्सा खत्म हो गया है। केतकी को भी यहां लाना पड़ेगा।”
“फिर से उस अभागिन का नाम लिया? कितनी बार तुम्हें टोका है फिर भी...”
“अब वह वहां नहीं रह पाएगी...मेरी बात सुनिए...”
“मुझे कुछ नहीं सुनना है...समझ में आया न...”
शांति बहन ने रणछोड़ दास के कंधे पर हाथ रखते हुए उसे चुप रहने का इशारा किया। उसके बाद यशोदा की तरफ तिरस्कार से देखते हुए बोली, “पहले तुम अपनी पुरानी कोठरी में जाकर बैठो..मैं समझाती हूं रणछोड़ को। ”
यशोदा भावना को लेकर भीतर गई। रणछोड़ दास ने मां की तरफ आश्चर्य से देखा, “जरा ठंडे दिमाग से विचार करो...अब केतकी बड़ी हो गयी है...बचा-खुचा खाकर रह जाएगी इस घर में। और फिर गांव भर में लोग हमारे बारे में अच्छा बोलने लगेंगे कि बिना बाप की बेटी को आसरा दिया...उसके आ जाने से मुझे, जयश्री को और अपनी भावना को भी थोड़ा आराम मिल जाएगा...”
रणछोड़ को अपनी मां के इस स्पष्टीकरण में कोई रुचि नहीं थी। लेकिन वह मां की किसी भी बात को आज तक टाल नहीं पाया था।
“ठीक है मां, तुमको जैसा ठीक लगे...लेकिन लड़की मेरी आंखों के सामने नहीं पड़नी चाहिए।
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह