प्रकरण 23-
“एक किलो पपीता दो जल्दी से” लखीमां यशोदा के लिए फल खरीदने के लिए अस्पताल के बाहर निकली थीं। लेकिन आसपास कोई फलवाला नहीं होने के कारण उन्हें थोड़ा दूर जाना पड़ा। न जाने क्यों, उन्हें थोड़ी बेचैनी हो रही थी। पपीते वाले को पैसे देकर वह और थोड़ा आगे बढ़ीं और वहां से दो दर्जन केले खरीदे। मन ही मन रामनाम का जाप करते हुए जल्दी-जल्दी अस्पताल की ओर वापस होने लगीं। उनके पैरों की गति से ज्यादा तेज उनके विचारों की गति थी। “आठवें महीने में प्रसूति वह भी ऑपरेशन से...बेचारी कितनी स्वस्थ हो पाएगी? उस पर से छोटे बच्चे को संभालना है...समधन और दामाद जी के पैर पड़ने तो भी चलेगा लेकिन यशोदा को दो महीने के लिए मायके लाना ही होगा। थोड़ी ताकत आ जाए, फिर ससुराल भेजा जाएगा।”
इन्हीं विचारों में खोए-खोए ही वह अस्पताल पहुंच गईं। यशोदा के कमरे में जाकर देखा तो यशोदा और उसका बच्चा-कोई नहीं था। कहीं गलत कमरे में तो नहीं आ गईं, उन्हें ऐसा लगने लगा। उन्होंने आजू-बाजू के कमरों में भी जाकर देखा लेकिन यशोदा कहीं भी दिखाई नहीं दी, न ही उसका बच्चा।
लखीमां घबरा गईं। सिर से पैर तक पसीने से नहा गईं। धड़ से जमीन पर बैठ गईं। दो-एक सप्ताह पहले ही अस्पताल से दो-तीन बच्चों के अपहरण होने की खबर उन्होंने पढ़ी थी। “बच्चे के साथ मेरी यशोदा भी तो....” माथे पर हाथ रखकर वह विचार करने लगीं। उनकी बेचैन नजरें यशोदा को खोज रही थीं। तभी सामने से नर्स आती दिखाई दी। उसे देखकर वह उठीं और उससे पूछने के लिए आगे बढीं, “बहन इस कमरे में मेरी यशोदा और उसकी बेटी थी...” नर्स ने जल्दी में थी, वह इतना ही बोली पाई, “किसी टेस्ट के लिए या फिर स्पंजिंग के लिए लेकर गए होंगे....आ जाएंगी थोड़ी देर में..”
सिर से मनों वजन कम हुआ सा लगा लखीमां को। “मैं भी कितनी मूर्ख हूं...भोलेनाथ, मुझे भी कुछ अकल दी होती...” बाद में वह अपने आप पर हंसने लगीं। और उनके चेहरे पर भी स्वस्थता का भाव पसर गया। वह मन ही मन भगवान का नाम लेने लगीं। उसी समय उन्हें एक दिन पहले का प्रसंग याद हो आया। कल केतकी ने अपने अच्छे-अच्छे कपड़े, खेलने चुनकर अपनी छोटी बहन के लिए अलग रख दिए थे। “इन चीजों को कोई हाथ भी मत लगाना। मैं भी नहीं। मैंने अपनी सहेलियों से भी कहकर रखा है कि अब मैं कुछ दिन तुम लोगों के साथ खेलने के लिए नहीं आऊंगी, मेरी छोटी बहन घर में आने वाली है।”
प्रभुदास दूर से केतकी की तरफ देख रहे थे, “भोलेनाथ, मेरी इस भोली भाली चिड़िया की भावनाओं के साथ खिलवाड़ न होने पाए, इस बात की चिंता करना भगवान....” घड़ी की ओर नजर पड़ते ही प्रभुदास बापू ने लखीमां से कहा, “थाली लगाइए, केतकी को भूख लग गई होगी न? कितने बज गए देखिए तो...”
घड़ी की ओर देखने की बात याद आते ही अस्पताल में बैठे-बैठे अपने विचारों में गुम लखीमां सावधान हुईं। “डेढ़-दो घंटे हो गए, अब तक यशोदा आई कैसे नहीं? वह फिर से कमरे में आईं, वहां पर दूसरा पेशेंट आ गया था। वहां पर, यशोदा को एक दिन पहले भोजन की थाली देकर जाने वाला वार्ड बॉय दिखाई दिया। लखीमां ने उससे हाथ जोड़कर पूछा, “भाई, मेरी यशोदा और उसकी बेटी इस कमरे में थे...अब उनको किसी और कमरे में ले गए हैं क्या?”
उसने अपने मुंह में भरे हुए गुटके को संभालते हुए कहा, “नीचे पूछिए...ऑफिस में...” यशोदा उससे आगे कुछ पूछतीं इससे पहले ही वह सुपरमैन की गति से निकल गया।
ऑफिस में नए पेशेंट फॉर्म भरकर जा रहे थे..पुराने पेशेंट के बिल लिए जा रहे थे। डॉक्टरों के बारे में पूछताछ चल रही थी। इस सब भागदौड़ में होशियार और ताकतवर लोग भीड़ में घुसकर अपना काम करके निकल रहे थे। लखीमां का नंबर लग ही नहीं पा रहा था। उनका टेंशन बढ़ता जा रहा था। आंखों के सामने यशोदा और उसका बच्चा दिखाई दे रहा था। उनकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। वह ... “यशोदा...” कहकर गला फाड़ते हुए नीचे गिर पड़ीं। करीब दस मिनट बाद लखीमां ने आंखें खोलीं। उनके आसपास लोगों की भीड़ जमा हो गई थी। उनमें सबसे आगे था जयसुख। लखीमां ने अपने चेहरे पर पड़ा हुआ पानी आंचल से पोंछा। जयसुख भाई ने उन्हें ग्लूकोज का पानी दिया, “भाभी ये पी लो...” लखीमां की आंखों में पानी आ गया। “अपनी यशोदा और उसका बच्चा...” जयसुख ने अपनी मां समान भाभी का हाथ पकड़कर कर कहा, “पहले ये पी लो...दोनों ही स्वस्थ और सुरक्षित होंगी...चिंता मत करो..मैं ढूंढ़ निकालूंगा उनको...”
वह पानी पीकर लखीमां को अच्छा लगा। एक युवती पेपर से उनको हवा झलने लगी। लखीमां ने उसे रोक दिया, “जरूरत नहीं है बेटा।” जयसुख ने उस युवती से निवेदन किया, “यदि आप मेरी भाभी के पास कुछ देर रुक जाएंगी तो मैं जरा तलाश करके आता हूं। ” युवती ने हां कहा।
कुछ ही देर में जयसुख वापस लौटा, “भाभी बिलकुल भी चिंता न करें....यशोदा तो बहुत पहले अपने घर जा चुकी है। शांति बहन खुद उसे लेकर गई हैं..”
“क्या कह रह हैं? यशोदा भी कमाल की है, मुझे कुछ बताए बिना ही ऐसे-कैसे निकल गई?”
“भाभी, वह सब बाद में देखेंगे। अब निश्चिंत हो जाइए कि दोनों सुरक्षित हैं और अपने घर में पहुंच गई हैं। आपको ठीक लगते ही हम लोग उसके घर जाकर दोनों से मिल लेंगे...आपको भी अच्छा लगेगा।”
लखीमां को जबर्दस्ती थोड़ी चाय और दो-चार बिस्किट खिलाकर उसके बाद जयसुख उनको रिक्शे में बिठाकर घर ले गया।
यशोदा के घर पहुंचकर उन्होंने देखा कि यशोदा झाड़ू लेकर बाहर का कमरा बुहार रही थी। यह देखकर लखीमां का कलेजा घायल हो गया। उन दोनों को देखकर यशोदा अंदर चली गई। अंदर से शांति बहन और रणछोड़ दास बाहर आए। शांति बहन का चेहरा गंभीर था और रणछोड़ का कठोर। जयसुख ने ‘जयश्रीकृष्ण’ कहकर वातावरण को हल्का करने का प्रयास करते हुए कहा, “भाभी फल लेने के लिए गई थीं, वापस आने पर यशोदा और उसकी बेटी दिखाई नहीं दी तो वह घबरा गई। बाद में पता चला कि बहन को आप घर ले गई हैं...”
रणछोड़ दास तेज आवाज में बोला, “लेकर नहीं आएंगे तो क्या करेंगे? आप फिर से हमारा अपमान करें, इसकी राह देखते रहते क्या?”
“आपको कोई गलतफहमी हुई है, हम तो सपने में भी ऐसा नहीं सोच सकते...”
“तो फिर हमसे पूछे बिना बिल क्यों भर दिया आपने..आप क्या हमको भिखारी समझते हैं?”
“अरे...वह तो हमारा कर्तव्य समझ कर हमने किया...”
“मेहरबानी करके हमें हमारा कर्तव्य निभाने दें? मैं मेरी पत्नी और बेटी के साथ सुख से रह सकूं यदि आपको ऐसा लगता है तो अब अपना मुंह भी न दिखाएं मुझे।” इतना कहकर रणछोड़ दास ने अपने दोनों हाथ इतनी जोर से पटककर जोड़े कि लखीमां की आंखों में आंसू आ गए और उनके हाथों से फलों की थैलियां छूटकर नीचे गिर गईं।
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह