अधेड़ उम्र की यमुना के घर के बाहर आँगन में एक विशाल वृक्ष था। उस वृक्ष पर कई पक्षी अपना घोंसला बनाकर रहते थे। यमुना हर सुबह पक्षियों को दाना डालती और पक्षी भी रोज़ दाना चुगने नीचे आते थे।
आज यमुना के छोटे बेटे राघव का विवाह था। यमुना बहुत ख़ुश थी लेकिन राघव का चेहरा उदास था। उसे अपने बड़े भाई की कमी बहुत खल रही थी। रिश्तेदारों ने यह पूछ-पूछ कर कि बड़ा बेटा और बहू विवाह में क्यों नहीं आए, यमुना की नाक में दम कर दिया था।
सच्चा कारण तो यमुना किसी को बता नहीं सकती थी। उसने बात को टालते हुए कहा, "बच्चे की परीक्षा का समय है इसीलिए वे लोग नहीं आ पाए। उसकी परीक्षा ख़त्म होते ही आ जाएँगे।"
लेकिन लोगों को चैन कहाँ था, कानाफूसी चल ही रही थी, पंचायत करने के लिए सभी आतुर हो रहे थे। कोई कहता बनती नहीं होगी बहू से इसीलिए नहीं आई। कोई कहता यमुना स्वभाव से कितनी तेज तर्रार है, झगड़ा हो गया होगा। देखना कुछ ही दिनों में छोटी भी चली जाएगी।
धूमधाम के साथ राघव का विवाह संपन्न हो गया। अपने भाई-भाभी की कमी को महसूस करता हुआ राघव अपने साथ अपनी पत्नी को ब्याह कर घर ले आया। राघव घर की हर बात जानता था। छोटी से छोटी बात पर अपनी माँ और भाभी के बीच होने वाली तू-तू, मैं-मैं, कैसे बड़े झगड़े का रूप ले लेती थी, उसे सब याद था। बात कभी बड़ी नहीं होती, उसे बड़ा बना दिया जाता था। इस तरह लगभग हर रोज़ ही घर में महासंग्राम छिड़ जाया करता था।
राघव चिंतित था, वह सोच रहा था माँ को तो वह बदल नहीं सकता पिताजी हैं नहीं वरना वह माँ को समझाते। उसकी पत्नी श्वेता का स्वभाव समझदारी, विनम्रता और सहनशीलता वाला होना चाहिए। वह श्वेता को जानता ही कितना था। कोई प्रेम विवाह तो था नहीं, जो पहले से जाना पहचाना स्वभाव हो। सब कुछ भगवान भरोसे ही था। उसने सोचा कि वह श्वेता को पहले ही सब कुछ समझा देगा कि माँ की बातों को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दे। उनकी बोली बातों पर ज़्यादा ध्यान ना दे।
रात को राघव ने अपनी पत्नी से कहा, "श्वेता अब तुम्हें ही इस घर को संभालना है।"
श्वेता ने बीच में ही प्रश्न कर दिया, "भैया भाभी क्यों नहीं आए राघव?"
राघव ने बिना छिपाए श्वेता को सब सच-सच बता दिया, "श्वेता माँ और भाभी की आपस में बिल्कुल नहीं बनती। छोटी-छोटी बातों में बड़े-बड़े झगड़े हो जाते थे। किंतु एक दिन तो माँ ने सारी हद पार कर दी। भाभी की ग़लती इतनी ही थी कि वह बिना नहाए ही रसोई में आ गई थीं। माँ का पारा चढ़ गया और तू-तू, मैं-मैं, से बात इतनी बढ़ गई कि माँ ने वह कह दिया जो उन्हें हरगिज़ नहीं कहना चाहिए था।"
"ऐसा क्या कह दिया था माँ ने?"
"माँ ने कहा निकल जाओ मेरे घर से और मेरे मरते वक़्त तक मुझे अपनी शक्ल मत दिखाना। भैया भी घर पर ही थे उन्होंने माँ के पास आकर कहा माँ आप यह क्या कह रही हो? अभी आप गुस्से में हो, शांत हो जाओ। माँ ने भैया को भी कह दिया, जोरू का गुलाम बना फिरता है, तू भी चला जा। भाभी रो रही थीं, भैया भी रोने लगे लेकिन माँ का गुस्सा कम नहीं हुआ। बस उसके बाद भैया-भाभी ने अलग रहना ही उचित समझा। रोज़-रोज़ की कलह से वे दोनों भी उकता चुके थे। एक ही शहर में अलग होकर रहने से अच्छा, भैया ने अपना तबादला ही करवा लिया। वह भी भाभी की तकलीफ़ कब तक यूँ ही देखते। थोड़ी ग़लती भाभी की भी थी, उन्हें वह काम नहीं करना चाहिए था जो माँ को पसंद नहीं। किंतु वह भी अपनी ही चलाती थीं। सहनशीलता की उन में भी कमी थी।"
श्वेता ने बीच में कहा, "हाँ राघव तुम सही कह रहे हो। ताली हमेशा दोनों हाथों से ही बजती है।"
"श्वेता, माँ के वो ज़हरीले शब्द भैया-भाभी को शूल की तरह चुभ गए और उन्होंने घर छोड़ दिया। पता नहीं उन शब्दों के लिए आज तक भी माँ को पछतावा है या नहीं। श्वेता कटु वचन तो तीर की तरह होते हैं। एक बार जीभ से निकल गए तो निकल गए, फिर वापस नहीं आते। जिसके दिल पर जाकर वह कटु वचन लगते हैं, उसे ऐसा आघात पहुँचाते हैं कि उनका वह घाव नासूर बनकर ताउम्र उन्हें परेशान करता रहता है। भैया-भाभी के साथ भी यही हुआ है। श्वेता मैं तुमसे यह उम्मीद लगा रहा हूँ कि तुम सब संभाल लोगी। भैया-भाभी तो चले गए किंतु हम माँ को अकेला छोड़कर कहीं नहीं जा सकते। हमें हमेशा यहीं रहना होगा माँ के पास। क्या तुम माँ के गुस्से को अपने प्यार और सहनशीलता से काबू में रख सकोगी?"
"राघव तुम चिंता मत करो मैं पूरी कोशिश करुँगी कि सब कुछ संभाल सकूँ। राघव क्या माँ को अब भी इस बात का एहसास नहीं कि उन्हें इस तरह के शब्द नहीं कहने चाहिए थे।"
"पता नहीं श्वेता उनके दिल में क्या चल रहा है, किसी को कुछ बताती भी तो नहीं। मैंने कितनी बार उन्हें समझाया कि भैया-भाभी को फ़ोन करके बुला लो लेकिन वह अपनी ज़िद पर ही अड़ी हुई हैं।"
राघव और श्वेता की सुहाग रात की शुरुआत इन्हीं बातों से हुई। उसके बाद सब कुछ भूल कर वह दोनों एक दूसरे की बाँहों में खो गए।
दूसरे दिन सुबह उठकर श्वेता ने कहा, "राघव अच्छा हुआ तुमने मुझे सब कुछ सच-सच बता दिया। अब मुझे माँ के साथ सामंजस्य बिठाना शायद थोड़ा आसान हो जाएगा। मैं वैसा ही सब करुँगी जैसा वह चाहती हैं।"
"थैंक यू श्वेता, आई लव यू। मुझे तुमसे ऐसे ही जवाब की उम्मीद थी।"
दूसरे दिन सुबह से ही श्वेता की संघर्षों से भरी ज़िंदगी की शुरुआत हो गई। उसने राघव को तो दिलासा दे दिया कि वह सब कुछ संभाल लेगी किंतु उसके मन में तूफ़ान उठा था। कई सवाल उठ रहे थे। वह सोच रही थी कि हे भगवान यदि माँ का स्वभाव इतना तेज है तो कैसे निभाएगी वह?
हफ्ते पंद्रह दिन तक अपनी बहू पर प्यार बरसाने वाली यमुना धीरे-धीरे अपने स्वभाव के असली रंग दिखाने लगी। बात-बात पर टोकना, श्वेता के हर काम में कमी निकालना, उसके हाथों से बने भोजन का अपमान करना, सब शुरू हो गया।
राघव की बात को ध्यान में रखते हुए श्वेता ने इस तरह की बातों पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। इसी तरह चलता रहा। यमुना की हर तीखी बात को हँस कर सुन लेने वाली श्वेता अकेले में आँसू बहा लेती थी। सबके सामने फिर वही हँसता चेहरा लेकर आ जाती थी।
धीरे-धीरे समय बीतता गया। इतने अच्छे स्वभाव वाली बहू पाकर भी यमुना का स्वभाव नहीं बदला। उसमें एक बेटे-बहू को खो देने के उपरांत भी कोई परिवर्तन नहीं आया। यमुना का व्यवहार दिन-प्रति दिन बिगड़ता ही जा रहा था। जिसके कारण श्वेता के धैर्य का बाँध अब टूट रहा था।
राघव पहले की तरह अब भी सब कुछ जानता था जबकि श्वेता कभी भी उससे किसी तरह की कोई शिकायत नहीं करती। श्वेता के चेहरे की झूठी मुस्कुराहट ही राघव के समक्ष सारे राज़ खोल देती थी। कभी-कभी श्वेता की आँखों में डबडबाये आँसू चोरी छिपे राघव को दिख जाते थे। तब राघव का मन बैठ जाता, क्या करूँ? कैसे परिस्थिति को सुधारूँ? बेचारा समझ नहीं पाता।
यमुना हर रोज़ की तरह आज भी पक्षियों को दाना डालने आँगन में गई। पतझड़ का मौसम कुछ दिन पूर्व ही दस्तक दे चुका था। रात को काफ़ी तेज़ हवा के साथ आँधी ने अपना रौद्र रूप दिखाया था। यमुना के बाहर आने से पहले शांताबाई आँगन की सफाई कर पत्ते बाहर फेंक चुकी थी।
यमुना ने दाने डाले लेकिन वृक्ष से कोई भी पक्षी नीचे दाना चुगने नहीं आया। तब यमुना ने अपने वृक्ष की तरफ़ नज़र उठा कर ऊपर देखा तो आज उसका हरा-भरा लहलहाता वृक्ष सूना दिखाई दे रहा था। धीरे-धीरे पत्ते उसका साथ छोड़ गए थे। यह दृश्य देखकर यमुना दुःखी हो गई। उस पर घोंसला बनाकर रहने वाले पक्षी आँधी का रौद्र रूप देखकर अपना घोंसला छोड़कर कहीं दूर जा चुके थे।
यमुना सोच रही थी कि उसका हरा-भरा वृक्ष कैसे सूखी टहनी की तरह हो गया। बिल्कुल खाली, बिल्कुल सूना। पक्षियों को आराम नहीं, पत्तों का साथ नहीं इसलिए वह भी यहाँ से चले गए, किसी और घने वृक्ष पर अपना नया घोंसला बनाने। जहाँ उन्हें सुकून मिलेगा, उनका मन आनंदित होगा, उनकी सुबह रंगीन होगी, शाम आराम से शांति प्रिय वातावरण में उन्हें सोने देगी। यही सब तो चाहिए होता है।
इतना सोचते हुए उसने अपने आँगन के साथ ही साथ अपने घर के अंदर भी नज़र डाली, जो उसे आज इस सूने खाली वृक्ष की तरह ही नज़र आ रहा था। जिस पर से कुछ पंछी सुख शांति की तलाश में कहीं दूर जा चुके थे। एक छोटा-सा घोंसला जिसमें उसका बड़ा बेटा-बहू और चिंटू रहा करते थे। वह भी...इतना सोचते-सोचते ही वह उठ कर खड़ी हो गई। उसने फिर सोचा यदि उसका छोटा बेटा और बहू भी...नहीं-नहीं उसे अपने घर को हरा-भरा रखना है। इस वृक्ष की तरह सूना नहीं करना है। आज पहली बार उसे अपने बड़े बेटे और बहू की कमी खल रही थी। उनकी याद सता रही थी, वह बेचैन हो रही थी।
अपनी ग़लतियों का एहसास होते ही उसके बोझ तले यमुना का दम घुट रहा था। किस तरह अपनी बड़ी बहू को वह ताना मारा करती थी। बात-बात पर अपमान करती थी। उसके हर काम में कमी निकालती थी। कभी उसे चैन से जीने ही नहीं दिया। आज वह यही सब अपनी छोटी बहू के साथ भी कर रही है। वह सोच रही थी आख़िर क्यों? आख़िर क्यों उसने ऐसा व्यवहार किया? क्यों बहुओं को बेटी जैसा प्यार ना दे पाई। पश्चाताप के आँसू उसकी आँखों से नीचे टपक रहे थे। उन्हें पोंछने के लिए आज तो उसके पास एक बेटा-बहू हैं। लेकिन यदि वे भी उसके गुस्से की आँधी के रौद्र रूप से घबरा कर अपना घोंसला कहीं और बना लेंगे तो वह क्या करेगी? इस पतझड़ के मौसम में अपने पत्तों से बिछड़े सूने वृक्ष ने, यमुना को उनकी ग़लतियों का एहसास करा दिया।
आज दोपहर को जब वे सब खाना खाने बैठे तो आज पहली बार खाने का पहला कौर खाते ही यमुना ने कहा, "वाह बेटा सब्जी कितनी स्वादिष्ट बनी है। बहुत ही अच्छा खाना है।"
राघव और श्वेता एक दूसरे की तरफ़ अचरज भरी नज़रों से देखने लगे। यमुना के मुँह से ऐसे बेशकीमती शब्द सुनकर श्वेता फूली नहीं समा रही थी। उसे अपने कानों पर मानो विश्वास ही नहीं हो रहा था। यमुना के मुँह से यह सुनकर उसे ऐसा लग रहा था शायद आज सब्जी बहुत ही ज़्यादा अच्छी बनी है, माँ कोई कमी निकाल ही नहीं पाई।
बहू-बहू कहकर श्वेता को आवाज़ लगाने वाली यमुना आज दोपहर के बाद से उसे बेटा कह कर पुकार रही थी। अपनी माँ के अंदर आया यह परिवर्तन देखकर श्वेता बहुत ख़ुश थी। आज दिन भर घर में किसी तरह की टोका-टाकी नहीं हुई। घर का माहौल एकदम ख़ुशनुमा था, सुकून था, शांति थी, आनंद था। ऐसा माहौल देखकर यमुना भी बेहद ख़ुश थी। उसके मन में भी आज कोई तनाव नहीं था क्योंकि वह आज अपनी श्वेता के काम में कमियाँ ढूँढने के बदले उसके काम की अच्छाइयाँ देख रही थी और ऐसा करके उसे बहुत ही ख़ुशी महसूस हो रही थी।
श्वेता के हर काम में यमुना मदद भी करने लगी। उससे अच्छी-अच्छी बातें करने लगी। राघव अब हर रोज़ श्वेता को ख़ुश देखता और ख़ुद भी ख़ुश होता। यह ख़बर बड़े बेटे और बहू तक भी पहुँच गई।
राघव ने यमुना से कहा, "माँ भैया का फ़ोन आया था। मिलने बुलाया है, सोच रहा हूँ तीन-चार दिनों के लिए जाकर मिल आते हैं।"
यमुना ने कहा, "रुक जाओ," और जाकर सीधे फ़ोन उठाया। आज अपना अहं छोड़कर, अपना स्वाभिमान छोड़कर, उन्होंने अपनी बड़ी बहू को फ़ोन लगा दिया और कहा, "हैलो"
उधर से अंजलि ने फ़ोन उठाकर कहा, "हैलो"
कुछ पलों के लिए फिर सन्नाटा-सा छा गया। यमुना कुछ कह नहीं पा रही थी लेकिन हैलो शब्द सुनकर अंजलि माँ की आवाज़ पहचान गई थी। उसी ने पहल करते हुए कहा, "माँ"
यमुना फूट-फूट कर रोने लगी। उससे कुछ कहा नहीं जा रहा था। तब तक श्वेता भी वहाँ आ गई। अपने आप को संभालते हुए यमुना ने कहा, "अंजलि…अंजलि बेटा मुझे माफ़ कर दो।"
फ़ोन स्पीकर पर था, यमुना का बड़ा बेटा माधव भी वहीं पर था, वह भी सुनने लगा।
अंजलि ने कहा, "माँ आप ऐसा क्यों कह रही हो?"
"नहीं बेटा इस शादी में तुम्हारी तीनों की बहुत कमी लगी। मैं अपने गुस्से में बोले हुए शब्द वापस लेती हूँ। मैं तुम्हारा इंतज़ार करुँगी यदि तुम मुझे माफ़ कर सको तो...पता नहीं मैंने ऐसा क्यों किया? मैं जानती हूँ ज़्यादातर ग़लती मेरी ही थी। तुम्हारे जाने के बाद भी मुझे यह एहसास नहीं हुआ। लेकिन अब मुझे अपनी ग़लतियों का पश्चाताप करने का एक मौका दे दो।"
"नहीं माँ आप ऐसा मत कहो और प्लीज़ माँ आप रोना बंद कर दो। ग़लती तो हमारी भी है। हमें भी आपकी गुस्से में बोली बात के कारण घर नहीं छोड़ना चाहिए था पर जो हो गया सो हो गया। अब आगे हम सब जितना भी अच्छा कर सकते हैं ज़रूर करेंगे। हम आ रहे हैं माँ आप सबसे मिलने।"
अंजलि के फ़ोन रखने के बाद उसने जैसे ही माधव की तरफ़ देखा उसकी आँखों में आँसू छलक रहे थे। अंजलि ने कहा, "प्लीज़ माधव रोओ मत।"
माधव ने उसे गले लगाते हुए कहा, "अंजलि इतने दिनों से मुझे इन्हीं लम्हों का इंतज़ार था।"
कुछ दिनों पूर्व श्वेता के चेहरे पर छाई उदासी देखकर राघव के मन में भी कभी-कभी दूर चले जाने का ख़्याल आ जाता था। लेकिन अब वह ख़्याल उसके दिमाग़ से गायब हो चुका था। अब तो हर रात श्वेता के चेहरे की ख़ुशी देखकर ही वह सोता था चैन से, सुकून से, बेफिक्र होकर।
राघव सोच रहा था कि माँ के स्वभाव में यदि बदलाव ना आता तो...इस अच्छे बदलाव के कारण ही उसका घर, सूना आँगन बनने से बच गया। इसी बीच श्वेता प्रेगनेंट हो गई। ख़ुशियाँ कई गुना बढ़ गईं। बड़े बेटे-बहू का आना-जाना भी चालू हो गया। वह तो पास के ही शहर में थे तो हर रविवार घर चले आते थे। सब साथ में सुख और शांति से समय व्यतीत करते। इस तरह एक घर बिखरते-बिखरते संभल गया।
यमुना सोच रही थी पतझड़ के बाद नई कोपलें फूट जाती हैं। वृक्ष तो फिर से हरा भरा हो जाता है। घोंसले भी बन जाते हैं, पक्षी भी चहचहाते हैं लेकिन घर से यदि कोई जोड़ा अलग चला जाए तब तो उसका वापस आना लगभग असंभव ही होता है। वह आँगन फिर से वैसा ही हरा भरा कभी नहीं हो पाता। वक़्त रहते वह संभल गई इसलिए छोटा बेटा-बहू उसके साथ हैं, वरना उसके घर पर ऐसा पतझड़ आता कि वह फिर जीवन भर हरा भरा नहीं हो पाता।
आँगन में बैठी यमुना आज अपने वृक्ष को निहार रही थी जो फिर से हरा-भरा हो गया था। नई कोपलें फूट चुकी थीं, पत्तियाँ बड़ी होकर शोर मचाना शुरू कर चुकी थीं। पक्षी घोंसला बना रहे थे।
श्वेता ने भी एक बिटिया को जन्म दिया। घर में भी किलकारियाँ गूँजने लगीं।
यमुना चिड़िया को चोंच में दाना लेकर जाती देख रही थी कि वह कैसे अपने बच्चे को खिलाती है। देखते-देखते वह सोच रही थी कि कितने प्यार से हम अपने बच्चों को बड़ा करते हैं। हर दुःख भी हँसते-हँसते सह लेते हैं लेकिन बेटे के विवाह के बाद क्यों हमारा मन इतना छोटा हो जाता है। यह एक ऐसा प्रश्न था जिसका जवाब वह ख़ुद भी नहीं ढूँढ पा रही थी।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक