चाय पर चर्चा - 1 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चाय पर चर्चा - 1

नुक्कड़ व चौराहों पर चल रही राजनीतिक चर्चाओं को शब्द रूप देने का प्रयास करती 2017 में लिखी हुई एक धारावाहिक रचना !
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एक देहाती बाजार में नुक्कड़ पर एक चाय की दूकान पर रामू, कलुआ और इदरीश बैठे चाय प़ी रहे थे। सामने से हरीश आता दिखा। उसे देखकर रामू कलुआ से बोला, ”अरे कलुआ ! ये हरीश तो दिल्ली रहता था ना ?”

कलुआ बोला, "जी काका ! दिल्ली में ही रहता था यह तो !"

इतने में हरीश नजदीक आ जाता है। रामू पर नजर पड़ते ही उनका अभिवादन किया, ”राम राम काका ! कैसे हो ?"

“हम तो भले चंगे हैं। इ बताओ तुम कब आये दिल्ली से ?”

” हमको तो गाँव आये हुए तीन दिन हो गए ! ”

".. और दिखाई आज पड़ रहे हो ?"

”हाँ काका ! बात ही कुछ ऐसी है।”

"अरे का हुआ ? का बात है ? सब ठीक तो है ?"

”अब हम का बताएँ काका ? बस इ समझ लो हमारी किस्मत ही ख़राब है।”

"अरे अब कुछ बताएगा भी की पहेलियाँ ही बुझायेगा ?”

”काका ! आप तो जानते ही हैं हम पिछले दस साल से दिल्ली में कमाने जाते हैं। हर बार जब भी दिल्ली से आते थे अपने परिवार की सभी जरूरत पूरी कर देते थे। हमारे पास बहुत तो नहीं पर अपने काम भर का पैसा रहता ही था।अबकी पहली बार ऐसा हुआ है कि हम अपने मालिक से किराया का पैसा उधIर लेकर आया हूँ।”

उन दोनों की बात को ध्यान से सुन रहे कलुआ से रहा न गया सो बोल पड़ा, " दो साल पर तो तू घर आया है। इतने दिन कमा के क्या किया ? दारु वारू तो नहीं प़ी गया !”

दोनों हाथों से अपने कान पकड़ते हुए हरीश बोला, ” छि ..छि ! काका कैसी बात कर रहे हो ? हमको कभी देखे हो का दारू पीते ? दारू को तो हम हराम समझता हूँ !”

कुछ न समझने के अंदाज में कलुआ बोल पड़ा, ”तो तू ही बता दे, दो साल कमाके क्या किया जो तुझे खाली हाथ घर आना पड़ा ?”

मुँह लटकाए हुए बुझे स्वर में हरीश बोला, " का बताएं काका ? इस बार जब हम दिल्ली गए तब बड़े खुश थे और सोच रहे थे कि अब सरकार बदल गई है। अपने मोदीजी प्रधान मंत्री बन गए हैं सो अब हम जैसे दिहाड़ी मजदूरों का भला हो जायेगा। ...लेकिन कुछ भी सही ना हुआ। अबकी कुछ दिन तक तो हमको रोज काम मिला लेकिन दुसरे तीसरे महीने से ही बीच बीच में छुट्टी होने लगी। धीरे धीरे इ छुट्टी बढ़ते गई। अब किसी महीने पाँच तो किसी महीने सात आठ दिन काम मिल प़ाता था। पैसे बचते नहीं थे फिर भी हमारा गुजर बसर तो हो ही जाता था। एक दिन मालिक ने सब मजदूरों को बुलाकर कह दिया की अब तुम सब लोग अपने अपने गाँव चले जाओ। जब कोई नया काम चालू होगा हम तुम सबको बुला लूँगा।"

उसकी भावनाओं को समझते हुए कलुआ बोला, "ओह ! इ तो बड़ा बुरा हुआ। यहाँ गाँव में भी यही हाल है। कभी सुखा तो कभी बाढ़ ! खेतीहर किसान खुद ही परेशान हैं। खेतों में मजदूरी मिलती नहीं। बाहर जाकर कमानेवाले भी परेशान हाल लग रहे हैं। अपने सुजीत पांडे रमेश ठाकुर और वो बिशुन के पुरवा के माताप्रसाद जैसे कई लोगों के घर का काम
अधुरा पड़ा हुआ है। अगर यही लोग काम आगे बढ़ाते तो हम जैसे गाँव में रहनेवाले मजदूरों को कुछ रोजगार मिल जाता।... और तो और ऊपर से म न रे गा का भी पैसा नहीं मिल रहा है। परधानजी कह रहे हैं कि अभी ऊपर से पैसा नहीं आया है।” कहते कहते कलुआ खासा उत्तेजित हो गया था।

अब रामू काका कैसे चुप रहते ? फट ही पड़े, ”अरे कलुआ ! अब हम का बताएँ ? हमरी भी हालत कुछ ऐसी ही है। सारी जिंदगी मेहनत मजदूरी करके अपने तीनों बेटों को पाला पोसा। सोचा था बड़े हो जायेंगे तो हमरा दुःख दूर हो जायेगा। लेकिन का खाक दूर हो जायेगा ? जब बेटों को कोई काम मिलेगा, दो पैसा कमाएंगे तभी तो हम लोग खुश रह पाएँगे। मोदीजी को तो हम इहै सोच के वोट दिए थे कि कुछ करेंगे जिससे हमरे बेटों को कुछ रोजगार मिल जायेगा। वादा भी तो किए थे न कि हम हर साल दो करोड़ नौकरी देंगे, लेकिन हमको बड़ा अफ़सोस हो रहा है कि हम बुडबक बन गए। सारी जिंदगी हम कभी ठगे नहीं गए थे, अबकी अपना आपको ठगा हुआ मान रहे हैं।”

गाँव के ही एक पत्रकार महोदय अजय अकेला जी वहाँ मौजूद थे और चाय पीते हुए खामोशी से इनकी बातें सुन रहे थे। इन्हें समझाने की गरज से वह रामू से मुखातिब हुए, ” राम राम रामू काका ? बड़े गुस्से में लग रहे हो।”

रामू काका बोले, ”सदा सुखी रहो बेटा ! गुस्सा करके हम का कर लेंगे मगर हाँ.. इ तो दिल की भड़ास थी जो हरीश और कलुआ की रामकहानी सुनकर जबान पर आ गई।”

मुस्कुराते हुए अजय बोला, ”अच्छा ! तो आप लोग मोदीजी से नाराज हैं, लेकिन काका, आपको समझना चाहिए कि पिछली भ्रष्ट सरकार ने 70 साल तक देश को लुटा है। अब 70 साल के खड्ड़े को भरने के लिए थोडा समय तो लगेगा ही न ?”

अब तो रामू काका बिफर ही पड़े, "खड्डा..!..कैसा खड्डा ? हमको तो पहले का कहीं कौनो खड्डा नजर नहीं आता। आजादी से अब तक देश में तमाम काम हुए। सड़कें बनीं गाँव गाँव तक, हाईवे बने, नयी नयी किसिम किसिम की गाड़ियाँ देश में बन रही थीं, कल कारखाने लगाये गए। लोगों को रोजगार भी थोडा बहुत तो मिल ही रहा था... और बेटा अपने बाप से पूछ लेना किउन्होंने अपने दिन कैसे बिताये थे ?... न सर पर छत थी ना पेट में दाना। इसी पिछली सरकार के राज में तुम्हारे बाप ने तुमको पाल पोस कर बड़ा किया, पढाया लिखाया, तुमको पत्रकार बनाया और अब उसी सरकार की बुराई कर रहे हो ?... हमको खड्डा दिखा रहे हो ? बाँध, नहरें, किसानों के लिए योजनायें, गरीबों के लिए अनाज की योजनाएँ बनीं और उनपर काम हुआ। म न रे गा से गाँव के लोगों को रोजगार मिला, और हमारे मोदीजी म न रे गा का पैसा भी दबा कर बैठ गए ? इ कलुआ का सात महीने से म न रे गा का बकाया मजदूरी नहीं मिला है। अब बताओ इसका बीबी बच्चा कैसे जिन्दा रहेगा ?” रामूकाका आवेश में हाँफने लगे थे।

उनकी खराब हालत को देख कलुआ बीच में ही टपक पड़ा, "अरे रामू काका ! संभालो अपने आपको। इ अजयवा का का लिए हो ? थोडा पढ़ लिख गया है तो खुद को समझदार समझने लगा है और हम देहाती लोग को बेवक़ूफ़ !
मोदीजी इन पैसावालों के लिए तो बुलेट ट्रेन चलवा रहे हैं और गरीब लोग का जुना पुराना गाड़ी सब बंद करवा रहे हैं। अब बताओ जिसके पास पैसा कम हो वो गाड़ी पर नहीं चढ़ेगा का ?"

अब अजय से रहा नहीं गया सो बोला, " काका..आप तो व्यर्थ ही नाराज हो रहे हैं। मोदीजी को थोडा समय तो दीजिये। बहुत बढ़िया आदमी हैं। बहुत अच्छा कर रहे हैं। देखो सभी गरीबों का मुफ्त में खाता खुलवा दिए।”

इतना सुनना ही था की रामू काका फिर बिफर पड़े, "अरे बेटा ! रहते शहर में हो न ? गाँव की हालत तुमको का मालूम ? सौ सौ रुपये में एक फारम हम ख़रीदा हूँ। इसमें भी बुडबक बन गया। परचार के टाइम मोदीजी का भाषण हम अपने टी वी में देखा था। कहे थे विदेश में जितना काला धन है हमारे देश का हम सब लाकर देश के सब लोगन के खाते में 15 से 20 लाख रूपया डलवा दूँगा। पैसा पाने के लिए खाता होना जरूरी है यही सोच कर हम अपना अपने तीनों लड़कों और किशोरवा की माँ का भी खाता खुलवा दिए। पाँच फारम का पाँच सौ रुपैया नगद दिया हूँ खाता खोलने के लिए और मोदीजी परचार करते हैं कि मुफ्त में खाता खुलवाए हैं। बताओ कितना बड़ा झूठ है ? दो साल होने को आये और मिला कुछ भी नहीं।"

पत्रकार भी कहाँ हार मानने वाला था, बोला, "अरे काका ! ये जो आपसे फॉर्म के पैसे लिए गए न यही तो भ्रष्टाचार है और मोदीजी भ्रष्टाचार ही को तो हटाने की बात करते है …!"

क्रमशः