चाय पर चर्चा - 5 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चाय पर चर्चा - 5

कुछ देर की खामोशी के बाद रामू काका ने मौन तोड़ते हुए कहा, "कलुआ ! इ तो बहुतै बुरा हुआ निरंजन के साथ। बेचारा बहुत भला आदमी था। लेकिन हमरी समझ में ई बात नहीं आ रही है कि उ बैंक का हिसाब काहें नाहीं भर पाया ? फसल भी तो उसकी अच्छी हुई थी इस बार ! हमारे खेत के बगलवाला खेत उसका ही है इसीलिए हम जानते हैं।"
कलुआ को शायद निरंजन के बारे में अधिक जानकारी नहीं थी सो वह खामोश ही रहना चाहता था कि तभी हरीश बोल पड़ा, " काका ! आप भी कैसी बातें कर रहे हैं ? फसल होती तो जरूर है, लेकिन उस फसल का सही दाम हम किसानों को मिलता है क्या ? हाँ, अलबत्ता महँगाई के नाम पर अब खेती में लागत जरूर दुगुना हो गया है और सरकारी खरीद का भाव और कम ! अब तो हालत ई है कि जो एक बार कर्जा में दब गया सो दब गया। निकलने का कउनो चांस अब नाहीं। अगर खेती से ही सब जरूरत पूरी हो जाती तो हम भी काहें दिल्ली जाते कमाने ?"
उससे सहमति जताते हुए रामू काका बोले, "सही बोल रहे हो हरीश ! अब सच में जो एक बार दब गया सो हमेशा के लिए दब गया, लेकिन उ निरंजन को कहाँ पता था कि आगे ऐसा भी वखत आनेवाला है जब सबको भोजन देनेवाले किसान को खुद ही जरूरत की चीजों के लिए तरसना पड़ेगा। सुना है निरंजन के दो बेटे भी हैं जो शायद दिल्ली में ही रहते थेमेहनत मजूरी करके कुछ कमाने के चक्कर में लेकिन लगता है तुम्हारी ही तरह उ सब भी मालिक से पैसा उधार लेकर घर पर वापस आ गए हैं।"
"काका, अगर वो दिल्ली में रहते थे तब तो हो सकता है कि उनके साथ भी वही हुआ होगा जो हमारे साथ हुआ है। आखिर वहाँ शहर में रहकर करेंगे भी क्या जब कउनो रोजगार ही नहीं रहेगा। ऊपर से वहाँ पर खर्चा भी तो बहुत अधिक होता है काहेंकि पानी तक भी खरीद कर पीना पड़ता है, मुफ्त में तो वही साँस मिलती है जो हम नाक से लेते हैं, वह भी गंदगी से भरपूर प्रदूषण युक्त ! हियां अपने गाँव में कम से कम साँस तो स्वच्छ हवा में ले पाएँगे !" हरीश ने स्थिति को और स्पष्ट किया था।
रामू काका उठ खड़े हुए और बोले, "हरीश, कलुआ, इदरीश ..अरे वो सामने ही तो निरंजन का गाँव दिख रहा है। आओ चलें, हम सब एक बार उसके घर पर हो आते हैं, उसके घरवालों को अच्छा लगेगा और अपने मन में भी संतोष रहेगा कि हम सब जाकर उसके घर वालों को दिलासा देकर तो आए। बाकी भगवान की मर्जी के आगे किसका बस चलता है, यह तो सब ही जानते हैं।"
हरीश और इदरीश उठ खड़े हुए रामू काका के साथ जाने के लिए लेकिन कलुआ वहीं बैठा रहा और बोला, "काका ! आप हो आओ, निरंजन के घर से ! आज हमारी तबियत कुछ ठीक नहीं है और वापसी में घर आकर नहाना तो पड़ेगा ही.. तो और तबियत बिगड़ जाएगी सो हम तो कल सबेरे उनके घर जाएँगे।"
"चलो, ये भी सही कह रहे हो ! उहाँ जाकर आने के बाद नहाना तो जरूरी है ही और जब तबियत खराब हो तो यह नुकसान दे सकता है। अपनी फिक्र आप ही करना बहुत सही है आज के जमाने में। चलो, हम तो हो आते हैं, का पता कल जा पाएं या नहीं! जिसको चलना है आ जाओ मेरे साथ !" कहते हुए रामू काका ने दुकानवाले को कुछ इशारा किया और चल दिए उस तरफ जिस तरफ पेड़ों के झुरमुट से कुछ घर झाँक रहे थे। वही कुछ घरों का समूह निरंजन का गाँव था।
गाँव में घुसते ही एक घर के बाद दूसरा ही घर निरंजन का था। पूरे इलाके में असामान्य मौत की यह खबर आग की तरह फैल गई थी सो काफी भीड़ जुट गई थी ग्रामीणों की। भीड़ में ग्रामीणों की खुसरफुसर शुरू थी तो कुछ नजदीकी लोग गमगीन और रुआँसे से होकर भी निरंजन के दोनों बेटों को ढाढस बंधा रहे थे, हौसला दे रहे थे, ईश्वर की मर्जी समझकर सब्र रखने की नसीहत दे रहे थे। महिलाओं की भीड़ निरंजन की पत्नी को किसी तरह काबू किए हुए थी जिसका रो रो कर बुरा हाल हो गया था। दहाड़ें मार कर रोते रोते वह अचानक ही बेहोश होकर लुढ़क पड़ती जमीन पर, और फिर महिलाएँ उसे होश में लाने के लिए हर संभव प्रयास करतीं, पानी पिलाती और फिर उसका सिर गोद में रखकर उसे हौसला देतीं, समझातीं।
ऐसा लग रहा था अभी अभी निरंजन के घर पुलिस पहुँची थी। उसके घर के सामने पुलिस की जीप खड़ी थी और कुछ सिपाहियों के संग एक दरोगा दालान में एक रस्सी के फंदे से लटके निरंजन के शव का मुआयना कर रहे थे। सावधानी वश सिपाहियों ने पहले ही एक रस्सी के सहारे शव से पर्याप्त दूरी रखते हुए एक घेरा बना दिया था ताकि जाँच बाधित न हो। पुलिस के फोटोग्राफर शव की उसी स्थिति में कई कोणों से फोटो ले रहे थे। स्थानीय पत्रकार के तौर पर अजय भी वहाँ मौजूद था और वह भी अलग अलग स्थानों से फोटो क्लिक कर रहा था। कुछ देर मुआयना करने के बाद दरोगा ने सिपाहियों को सावधानी से शव को नीचे उतारने का आदेश दिया और अस्पताल से एम्बुलेंस मँगवाने के लिए कहा। सिपाही अपने काम में जुट गए। गाँव के कुछ रसूखदार लोग दरोगा के पास पहुँचे और उनसे जानना चाहा कि अब पुलिस क्या करनेवाली है। दरोगा ने बताया, "चूँकि यह आत्महत्या का मामला है जिसके पीछे बताए जा रहे कारण के अलावा कोई और कारण भी हो सकता है, या हत्या करके साजिशन उसे आत्महत्या का रूप दिया गया हो सकता है इसलिए शव का पोस्टमॉर्टम करना अति आवश्यक है।"
यह सुनते ही ग्रामीणों में आक्रोश की लहर फैल गई। एक दबंग सा दिखनेवाला ग्रामीण बोल पड़ा, "साहब ! आप तो आँख रहते हुए भी अंधा बनने का नाटक कर रहे हैं। एक गरीब किसान की आत्महत्या में आपको हत्या की साजिश नजर आ रही है ? कौन करेगा उसकी हत्या ? ये जो दहाड़ें मारकर रो रही उसकी विधवा ?...या उसके दोनों बेटे ? जो उसके लिए अपनी जान छिड़कते थे, निरंजन की सेवा करते नहीं अघाते थे। साहब, आपसे विनती है कि अब जो हुआ सो हुआ, आप हमें हमारे हाल पर छोड़ दें और वापस चले जाएं। चैन से तो जी न सका बेचारा निरंजन , अब मरने के बाद हम उसके शव की दुर्गति नहीं होने देंगे।"
उसके चुप होते ही कुछ और गाँव वालों का समवेत स्वर गूँजा, "हाँ.. हाँ हम तुम लोगों को अपनी मनमानी नहीं करने देंगे।"
गाँव वालों के आक्रोश को देखते हुए दरोगा को अपना फैसला बदलना पड़ा। अब तक निरंजन का शव ससम्मान उतारा जा चुका था। एक कागज पर कुछ लिखकर दरोगा ने पाँच गाँववालों के हस्ताक्षर करा लिए और कानूनी खानापूर्ति कर वह दलबल सहित वहाँ से रवाना हो गया।
कुछ सेवाभावी ग्रामीण निरंजन की अंत्येष्टि की तैयारी में लग गए। रामू काका निरंजन के बच्चों से बात कर उन्हें दिलासा देते हुए खुद ही फफक कर रो पड़े थे। हरीश और इदरीश की भी आँखें नम हो गई थीं। कुछ देर बाद बुजुर्ग रामू काका भीड़ से परे हटकर बैठ गए और अपनी भावनाओं पर काबू पाने का प्रयास करते रहे।
सारे रीतिरिवाजों व विधानों के अनुसार तैयारी करके निरंजन की अंतिम यात्रा शुरू हुई जो नजदीक ही गाँव के दक्षिण में बने एक स्मशान पर जाकर समाप्त हुई। उसकी अंत्येष्टि के बाद सभी ग्रामीणों की तरह रामू काका, हरीश व इदरीश भी अपने अपने घरों की तरफ लौट पड़े।

क्रमशः