कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया - 2 Santosh Srivastav द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया - 2

भाग 2

अंतरिक्ष में न जाने कितने ब्लैक होल हैं। दिखलाई कहाँ देते हैं। नहीं दिखलाई दिया मंगल के मन का ब्लैक होल। जिसमें वह धीरे-धीरे धंसता जा रहा है। शून्य जैसी स्थिति। 

हिप्पियों के अड्डे पर अफरा-तफरी मची थी। कुछ हिप्पी गोवा जा रहे थे, कुछ वाराणसी, कुछ उज्जैन। वह उज्जैन जाने वाले दल में शामिल हो गया। पवन ने उसकी जेब में कुछ नोट रख दिए। दो पैकेट सिगरेट, थोड़ी सी चरस भी-

" संभाल कर जाना। चरस रखना गुनाह है। 5 साल की सजा 50 हज़ार जुर्माना। समझे भोलेनाथ। " पवन नहीं जानता था कि संभालने के लिए अब कुछ रह ही नहीं गया है। वह तो निकल आया है उस मोह से। एक झटके ने उसकी दुनिया बदल दी। वह बेघर हो गया। न कोई पूछने वाला, न कोई संभालने वाला। उसका दिल किर्च किर्च होकर बिखरा। कितने कमजोर निकले प्रेम के धागे। जिन्हें वह लोहे से भी मजबूत समझ रहा था वह तो एक ही

झटके में कच्चे सूत से टूट गए। दीपा एक अंधड़ की तरह उसके मन को, भावनाओं को मथती रही। वह अकबकाया सा हिप्पी दल के साथ था भी, नहीं भी था। 

उज्जैन में महाकाल के मंदिर में हिप्पियों का दल जो घुसा तो घंटों बाहर नहीं निकला लेकिन उसे जल्दी दर्शन करने मिल गए। दर्शन के बाद वह मंदिर के बाहर चहल कदमी कर रहा था कि दो सिपाही उसके नजदीक आए -

"आप मंगल सिंह है न, लीजिए सर से बात कर लीजिए। "

वॉकी टॉकी पर कीरत भैया की आवाज थी-" तुम बिना कुछ कहे सुने क्यों चले गए। उज्जैन का कुंभ देखना था तो कह कर जाते। "

वह निःशब्द था। कीरत भैया की रोबदार आवाज़ के आगे जैसे उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। 

" मेला घूमने, रहने, खाने के रुपए सिपाही अर्जुन से ले लो और जल्दी लौट आओ। "

उन्होंने वॉकी टॉकी को कट कर दिया और वह कहते कहते रह गया कि वह लौटने के लिए नहीं आया है। उसे तो इस संसार की तह तक जाना है। उसे पता करना है मोह क्यों होता है ?प्यार क्यों होता है? क्या है समर्पण के मायने ? क्यों रिश्ते नाते उसे बोझ लग रहे हैं? मन क्यों नहीं लग रहा ?

लेकिन कीरत भैया के हाथ बड़े लंबे निकले। सिपाहियों ने पल भर में उसे ढूंढ लिया। पवन से ही हिप्पी दल के साथ जाने की बात पता लगी होगी और हिप्पियों को ढूंढना कौन सा कठिन काम है। कीरत भैया को भले ही उसका पता लग गया है। पर वह लौटेगा तो हरगिज़ नहीं। 

" चलिए चाय पीते हैं। " सिपाही अर्जुन ने नोटों का बंडल उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा। मंगल ने नोट तो नहीं लिए। पर चाय अलबत्ता पी ली। तभी जैक ने उसे आवाज़ दी-" चलो मंगल हम क्षिप्रा तट पर टेंट में रहेंगे। सारे मंदिरों, गुफाओं आदि के दर्शन करेंगे। चलो। "

उसने सिपाहियों से विदा ली लेकिन कीरत भैया की आँखें उसका पीछा करती नजर आ रही थीं। 

**

टैंट में हिप्पियों ने अपने संग लाई दरिया बिछाईं और नशे में डूब गए। अमेरिका और इंग्लैंड से आयातित संस्कृति है ही मौज मस्ती के लिए। इनके लिए न समाज के नियम कानून हैं, न बन्धन। सामाजिक परंपराओं का विरोध करने वाले हिप्पी मंगल को शुरू में तो काफी आकर्षित करते रहे। पर धीरे-धीरे जब वह उनमें घुलने मिलने लगा तो उसे वे मनोरोगी नजर आए। टेंट में उत्तेजक रॉक धुनों, संगीत के बीच अब उसका जी घबराने लगा था। उन्मुक्त यौन संबंध इनके लिए यौन क्रांति कहलाती थी। जैक यामा को गोद में बैठाए हुए ही मंगल को आमंत्रित कर रहा था -" आओ मंगल जिंदगी का मजा लो। आनंद ही आनंद है जिंदगी में। समझो इसे। "

वह यामा को चूमने लगा। उसके बदन की गोलाईयों पर हाथ फिराने लगा। सेक्स का यह आनंद चरस, एलएसडी, मारिजुआना के नशे का घिनौना रूप लगा उसे। भले ही आज हिप्पी विश्व के अन्य देशों में विभिन्न स्वरूपों में विकसित हुए हैं पर उसके मूल में तो यही धारणाएं हैं। 

जैक और यामा पूर्ण नग्न थे। टैंट के अन्य हिप्पी भी लगभग ऐसे ही अपने में मगन। उन्हें एक दूसरे के साथ एक ही टेंट में रहने में और अपने में खोये रहने में एक दूसरे से कोई आपत्ति नहीं थी। वह उचाट मन लिए टैंट से बाहर आ गया। दूर नागाओं के अखाड़ों में रोशनी टिमटिमा रही थी। क्षिप्रा का जल काला सा प्रतीत हो रहा था जिस पर आसमान ने झिलमिल सितारे टांक दिए थे। वह तट पर बैठ गया। वह अपने अंदर उतरने लगा। दीपा अब भी वहाँ थी। पर उसका सौंदर्य फीका नजर आ रहा था। फिर अम्मा याद आईं। उसकी चिंता में घुली जातीं और बाबूजी..... दिखाई नहीं देता उनका प्यार। पर मंगल जानता है वे उसके भविष्य को लेकर कितने चिंतित रहते हैं। और रोली..... निश्चय ही उसके लिए रोज थाली परोसती होगी। भूल जाती होगी कि उसका पागल भाई भगोड़ा निकला। नहीं कर पाया सच्चाई का सामना। रात भर वह बिसूरता रहा पर हल कुछ न निकला। 

सुबह वह सबसे पहले नजदीक के पोस्ट ऑफिस गया। अंतर्देशीय खरीदकर अम्मा को पत्र लिखा। 

" मेरे लिए शोक मत करना अम्मा। मैं सत्य की तलाश में निकल पड़ा हूँ। मेरे लिए बहुत जरूरी है सब कुछ खोजना। मंजिल नहीं मिली तो लौटूंगा न माँ तेरे चरणों में। और मुझे यह भी पता है कि तू हमेशा रहती है मेरे आस-पास। तेरे संग संग ही खोजूंगा जीवन का सत्य। बाबूजी को समझा देना और कीरत भैया से कहना मैं कोई गुमा थोड़ी हूँ जो मेरी तलाश में सिपाही भेज दिए। "

पत्र पोस्ट कर उसे राहत सी महसूस हुई। मगर यह अम्मा बाबूजी के प्रति कर्तव्यों की इतिश्री नहीं है। एक अर्धविराम है ताकि वह पूर्णविराम होने तक सहज चल सके। 

सारा दिन वह नागाओं के अखाड़ों के आसपास ही घूमता रहा। मन में ढेर सारी जिज्ञासा और प्रश्न लिए। हिप्पियों के टेंट की ओर जाने का मन नहीं कर रहा था। क्षिप्रा के किनारे किनारे चलता रहा। कुंभ में आए यात्रियों की भीड़, भक्ति का जैसे रस सा छलका पड़ रहा था। विंध्याचल पर्वत से निकली क्षिप्रा के पश्चिमी तट पर डूबते सूरज ने अपना नारंगी रंग बिखेरना शुरू कर दिया। ऐसी ही नारंगी सिंदूरी हथेलियाँ दीवार पर बनाकर अम्मा बाबूजी कुल देवी शारदा माँ की पूजा करते थे। उनका मंदिर भी तो विंध्याचल पर्वत पर है। विंध्य और कैमूर पर्वत की गोद में अठखेलियाँ करती तमसा नदी के तट पर स्थित है मैहर देवी माँ शारदा का मंदिर। 

तट से 590 फुट की ऊँचाई पर। गिनी थी उसने पूरी एक हजार सीढ़ियाँ। बचपन में एक बार गया था वहाँ। तब मेला लगा था और बाबूजी ने उसे गुड़ की लैया और ताजा खोवा दोने में

भरकर खिलाया था। कंचे भी खरीद कर दिए थे। उन कंचों से खेलते हुए दीपा, रोली और भैया के साथ उसने जाने कितनी शामें गुजारी थीं। हमेशा कीरत भैया जीत जाते और दीपा अपनी काली कजरारी आँखों में ढेर सा उपहास भर कर कहती-" हरन्टू, कीरत से जीतना आसान है क्या?"

वह जीत भी नहीं पाया उनसे कभी। उनका जीवन सधा हुआ सन्तुलित ही रहा हमेशा। वही रहा बिखरा बिखरा। मगर इस बिखराव में भी वह हमेशा दीपा से जुड़ा रहा। उसे दीपा के आगे संसार की किसी भी लड़की ने कभी आकर्षित नहीं किया। एक दैवी खिंचाव था उसमें। बारह वर्ष की उम्र से वह दीपा से जो बंधा तो आज 25 वर्ष की उम्र में भी नहीं छूट पाया। कंचे खेलते खेलते कई मौसम बदले। बहारें आईं, गईं लेकिन मंगल ने खुद को वहीं खड़े पाया जहाँ दीपा यह कहकर मुड़ी थी कि "आज मेरे पापा तुम्हारे पिताजी के पास मेरे लिए कीरत का हाथ माँगने आने वाले हैं। "

वह वहीं का वहीं बर्फ सा जम गया था। उसे लगा उसके कानों ने सुनने की शक्ति खो दी है। पैर उठ ही नहीं रहे हैं कि घर लौटे। वह देर तक दीपा को जाता देखता रहा। इकतरफा प्यार के अंजाम से वह वाकिफ था लेकिन उसका प्यार इस रूप में जिंदगी भर के लिए उसके घर आ रहा है उसने सोचा न था। कई बार वह खुद को कोसता। काश, दीपा से मन की बात कह पाता तो आज यह नौबत नहीं आती। ज़िंदगी में प्यार नहीं होना और प्यार करके जता न पाना दोनों ही स्थितियाँ पीड़ादायी हैं। 

" जानते हो भैया दीपा क्या कह रही थी कि रोली तेरा छोटा भैया अजीब स्वभाव का है। एकदम खामोश और अपने में गुम। "

"अब रहने दो रोली। सब एक जैसे थोड़ी होते हैं। अब हम पैदा ही ऐसे हुए तो क्या करें ?"

जिस दिन शादी तय हुई उस रात उसे तेज़ बुखार आ गया। बुखार में वह बर्राता रहा ....."वो तुम्हें लेने आ रहे हैं। मुझसे छीनने आ रहे हैं। तुम जाना मत उनके साथ। तुम मेरी हो। "

अम्मा उसके माथे पर भीगी पट्टियाँ बदलती रहीं और उसके तलवे सहलाती रोली से पूछती रहीं-" यह किसके लिए ऐसा कह रहा है ?"

रोली अनभिज्ञता में हाथ घुमाती रही जबकि वह जानती थी उसकी इस हालत का जिम्मेदार कौन है। दूसरे दिन मंगल की हालत और बिगड़ गई। उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। रोली उसके सिरहाने बैठी उसके बाल सहलाती रही। शाम तक थोड़ी तबीयत संभली तो रोली ने अपनी कसम दी। 

"भैया तुम्हारा दर्द मैं जानती हूँ । उसे भूल जाओ। इसी में सबकी भलाई है। "

वह रोली के गले लग देर तक रोता रहा। 

**

रात घिरने लगी थी। तट पर संध्या वंदन आदि के लिए भक्तों की भीड़ बढ़ रही थी। मंगल मेले में देर तक भटकता रहा। उसके मन के अंदर हो रहे मंथन ने उसे उद्विग्न कर दिया था। पल भर को यह भी खयाल आता कि अम्मा, बाबूजी, रोली पर उसके पत्र का क्या

प्रभाव पड़ेगा। अम्मा ने तो बड़ा आम सा सपना उसके लिए पाला था। मंगल की शादी हो जाए, बहू घर आ जाए। रोली तो अभी पढ़ रही है। पढ़ाई समाप्त होने तक उसकी शादी की बात नहीं। मगर अम्मा को चैन कहाँ । 

"रोली की हमउम्र दीपा की शादी हो गई और रोली कुंवारी!"

अम्मा न महत्वाकांक्षी थीं न उनके सपने बड़े बड़े थे। अपने घर परिवार को लेकर एक सुलझा हुआ भविष्य चाहती थीं। बस कीरत भैया उनकी कसौटी में खरे उतरे। मंगल तो.........

जैक और यामा फोटोग्राफी करते हुए उसके पास आए-" ओ मंगल, आगे क्या प्लान है तुम्हारा ?दिल्ली वापस? हम तो गोवा जाएंगे। "

मंगल ने मुस्कुराते हुए कहा-" फिलहाल तो टैंट में जाकर आराम करेंगे। "

"ओके ओके "कहते हुए वे आगे निकल गए। लेकिन वह टैंट में नहीं आया। उसे नागा अखाड़े आकर्षित कर रहे थे। वह अखाड़े के नजदीक गया तो देखा नागा साधु धूनी रमाए चिलम पी रहे थे। वह उन्हें प्रणाम करके खड़ा रहा। उनमें से एक ने कहा-" बैठो, चिलम पियोगे ?"

जिसने चिलम उसकी ओर बढ़ाई वह उसी की उम्र का दिखाई दे रहा था। युवा मगर आंखें सपनीली नहीं। किसी एक बिंदु पर ठहर गई सी लगती थीं। मंगल भी वैसा ही बिंदु पाना चाहता था लेकिन बिंदु पाने को जब भी आँखें मूंदता उसका छूट गया परिवार उसकी आँखों के आगे तैरने लगता। चिलम खत्म कर नागा साधु विश्राम के लिए चले गए। 

मंगल अखाड़े से निकलकर क्षिप्रा के तट पर बैठा देर तक चिंतन करता रहा। उसे लगा वह ध्यान की ऐसी अवस्था में पहुँच गया है जहाँ उसकी डोर सीधे ईश्वर से जुड़ गई है। वह उनसे तादात्म्य कर रहा है। यह कैसे संभव हुआ !अभी थोड़ी देर पहले तो मन विचलित था और अब एकाग्र, भव्य, विस्तृत, मनमोहक। कितना अद्भुत है ईश्वर से जुड़ाव। यह सब नागाओं के संपर्क में आने से संभव हुआ क्या? वह अपने मन में टकराते प्रश्नों से जूझता रहा। बार-बार दृष्टि नागा अखाड़े की ओर जाकर रुक जाती। रात के अंतिम प्रहर वह टेंट में लौटा। सारे हिप्पी गहरी नींद में थे। पर उसे नींद नहीं आई। 

सुबह धूप निकलने पर वह क्षिप्रा में स्नान कर सीधा मेले में लगे स्टाल पर जलेबी, कचौड़ी का कलेवा करने आ गया। रात को खाया नहीं था। भूख जोरों की लगी थी। कलेवा कर चाय का कुल्हड़ लिए वह स्टॉल से थोड़ी दूर खड़ा चाय पीने लगा। बार-बार नजर नागाओं के अखाड़े की ओर जाकर अटक जाती। जिसने कल रात चिलम पिलाई थी वह नागा साधु तट पर पालथी मारे ध्यान मग्न बैठा था। चाय पीकर वह उसके नजदीक जाकर खड़ा हो गया। 

" मुझे पता था तुम आओगे। कब तक हो यहाँ ?"नागा साधु ने उसे अपने पास बैठा लिया। 

"मेला समाप्ति तक बाबा। "

"साथ में और कौन है?"

"ईश्वर। "

नागा साधु ने गहरी दृष्टि से उसे देखा-" अकेले हो ?माता पिता भाई बंधु। "

"सब है बाबा। पर हम किसी के नहीं। यह दुनिया रास नहीं आ रही। सब भ्रमजाल सा लगता है। छलावा लगता है। "

नागा साधु चिलम सुलगाने लगा। 

"हूँss गहरी चोट खाए लगते हो। चलो तुम्हें दुनिया दिखाते हैं। "

नँग-धड़ंग, भस्म, रुद्राक्ष, जटाएं, गले में गेंदे के फूलों की माला, हाथ में त्रिशूल और डमरू। मुँह से फूटते बम बम भोले के स्वर सुन विदेशी पर्यटक उन्हें आश्चर्य से देखते। पर

नागाओं का झुंड बेखबर इन बातों से, सब अपनी धुन में मगन। नागा साधु उसे तट पर चहलकदमी करा रहा था और यह दृश्य पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र था। मंगल के साथ नागा साधु का होना, विचरण करना। 

गुलाबी चोंच के सफेद परिंदे झुंड में मंडरा रहे थे-

"वह देखो, भोले भंडारी की महिमा। सब खिंचे चले आ रहे हैं। देश-विदेश से कितने यात्री और इधर इन यात्रियों की जेब खाली करते ये व्यापारी। कितना माल बिक रहा है। यही है दुनिया। खरीदी- बिक्री का केंद्र। तुम सही मार्ग पर हो। ईश्वर का मार्ग सच्चा। जाओ मेला घूम लो। "

और नागा साधु अखाड़े की ओर मुड़ गया। मंगल नागा साधु की कही बातों को समझने की कोशिश करने लगा। बात सहज थी पर गहन अर्थ की ओर इंगित कर रही थी। 

रात्रि जागरण से मंगल का सिर भारी हो रहा था। वह टेंट में आ गया। पूरे टेंट में हिप्पियों का सामान बिखरा पड़ा था। एक अधेड़ उम्र का हिप्पी कोने में बैठा किताब पढ़ रहा था। उसने अपने लेटने की जगह बनाई और आँखें मूंदकर सोने की कोशिश करने लगा। बार बार नागा साधु आँख के सामने आकर खड़ा हो जाता। 

ध्यान से देखो तो काफी हैंडसम है नागा साधु। गोरे बदन पर मली भस्म भी गोरी गोरी लगती है। मगर आँखें जब भी देखीं लाल ही देखीं। लाल आँखों में क्रोध नहीं बल्कि शांति और संतुष्टि देखी। क्या वह भी इसी तरह शांति और संतुष्टि पा सकता है। 

तेज हवाएं चलने लगीं। लग रहा था टेंट उखड़ कर ही दम लेगा। थोड़ी देर में बारिश होने लगी। हिप्पी दल दौड़ता हुआ टेंट में आ गया। 

" ओले गिर रहे हैं देखो। "

उनमें से एक ने मुट्ठी में दबे ओले दिखाए और फिर उन्हें मुंह में भर कर चूसने लगा। क्या ये हिप्पी भी शांत और संतुष्ट हैं? नहीं ये भटके हुए हैं। इन्हें राह नहीं मिली अब तक। ये तो युवाओं का आंदोलन है। जो अमेरिका इंग्लैंड में तेजी से उभरा और सारी दुनिया में छा गया। बीटनिकों यानी परंपराओं का विरोध करना। इनकी विचारधारा में बीट पीढ़ी के सांस्कृतिक विरोधी मूल्य शामिल हैं। उन्मुक्त यौन संबंध है। अपने मन की करना है। अपने ढंग से जीना है जबकि नागा सनातन परंपरा की स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने की। ये धर्मावलंबी होते हैं। इनके विभिन्न अखाड़े हैं। ये युद्ध कला में भी माहिर होते हैं। मंगल ने पढ़ा है

इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें 40 हज़ार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया। अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा वृंदावन के बाद गोकुल आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुकाबला कर गोकुल की रक्षा की। जब-जब राष्ट्र ने पुकारा है वे एक प्रशिक्षित कमांडो की तरह आ डटे और बलिदान दिया। मंगल का मन नागा साधुओं के प्रति श्रद्धा से भर उठा। उनकी ओर झुकने लगा। 

सुबह आसमान साफ था। बादल का एक टुकड़ा भी न था। आकाश में उगते सूरज की अरुणिमा से मंगल का मन भी उद्वेग रहित हो गया। उसे लगा जैसे उसे उसका मार्ग मिल गया। क्षिप्रा के शीतल जल में डुबकी लगा उसे अपार सुख मिला। इस बार अंजुली में जल भर उसने सूर्य को अर्ध्य दिया। हाँ वह सूर्य स्तोत्र भी याद कर लेगा। बाबूजी रोज सूर्य को अर्घ्य देते हुए आदित्य ह्रदय स्तोत्र बोलते थे। जिसे सुनते सुनते उसे कच्चा पक्का याद था। अब अच्छी तरह याद कर लेगा। 

दिन भर वह उसी नागा साधु की बगल में बैठा रहा। नागा बाबा कभी ध्यान मग्न हो जाते, कभी चिलम का सुट्टा लगाते हुए उससे बात करने लगते। 

"बाबा मेरा नाम मंगलसिंह है। लेकिन आप मुझे मंगल नाम से पुकारें। आपका नाम क्या है बाबा?

" गीतानंद गिरि महंत। यह नाम हमारे गुरु गजानन महाराज ने हमें दिया है। तुम्हारा नाम भी बदल जाएगा। लो सुट्टा लगाओ। " कहते हुए नागा साधु ने चिलम उसकी ओर बढ़ा दी। मंगल ने चकित होकर पूछा-

"जी आपको कैसे पता कि मैं भी नागा......."

"हम तो शिवजी के गण हैं। बम बम भोले भंडारी बता देते हैं हमें लोगों की मंशा। "

वह हतप्रभ था। उसके शरीर में अद्भुत प्रवाह का संचार हो रहा था। उसकी सोचने की शक्ति जड़ हो उठी थी। उसने गीतानंद गिरि के पैरों की ओर हाथ बढ़ाया-" आप महान हैं बाबा, आपने तो ...."

"नहीं, नहीं। कुछ मत कहो। रात्रि के प्रथम प्रहर अखाड़े में आकर मिलो हमसे। कल शाही स्नान है। समय नहीं मिलेगा हमें। "

"आपका अखाड़ा ?"

"बहुत सारे अखाड़े होते हैं हमारे। जूना, महानिर्वाणी, अटल, निरंजनी, अग्नि, आनंद और आवाहन अखाड़ा। और भी हैं। जिनमें प्रमुख है जूना अखाड़ा। हम जूना अखाड़ा के हैं। "

जूना मतलब पुराना। गुजराती भाषा का शब्द है ये। "

" तुम्हारे मन में कौतूहल बहुत है। अच्छा है। कौतूहल बुद्धि का विकास करता है। बात मुगलकाल की है। जब जूनागढ़ के निजाम ने वहाँ की जनता पर अत्याचार किया तो भैरव अखाड़े के नागा साधुओं ने एकजुट होकर निजाम की सेना को पछाड़ दिया। अपनी हार देख

निजाम ने संधि करनी चाही। मित्रता का हाथ बढ़ाया, रात्रि भोज का आमंत्रण दिया। लेकिन उसके मन में खोट थी। भोजन में जहर था। नियम था कि मुख्य पुजारी, कोठारी....."

"कोठारी मतलब?"

"बीच में टोका न करो। कोठारी मतलब जो बहीखाता बनाता है। हिसाब रखता है। हाँ तो हम कह रहे थे कि मुख्य पुजारी, कोठारी और उनके सहयोगी सभी के खा लेने के बाद भोजन करते थे। वह बच गए और अपनी जान बचाकर भाग निकले और दूसरे अखाड़ों में शरण ली। दूसरे अखाड़े वालों ने पूछा कि "भैरव अखाड़े के तो सब मर गए। तुम लोग कौन से अखाड़े के हो। "

सब वृत्तांत जानकर उन बचे हुए लोगों के अखाड़े का नाम जूना अखाड़ा दिया गया। "

कहानी कुछ खास तो नहीं थी। पर गीतानंद गिरि महंत ने जिस चाव से उसे सुनाई तो अच्छी लगी। अम्मा भी इसी तरह करवा चौथ, संतान सप्तमी, हलछठ और तीज की कहानी सुनाती थीं। जब तक वह स्कूल का विद्यार्थी था मुट्ठी में फूल चावल लिए बड़े मनोयोग से कहानी सुनता था। सभी त्योहारों की कहानियाँ उसे कंठस्थ हो गई थीं। करवा चौथ में अम्मा चाँद को अर्घ्य देतीं। वह अम्मा के साथ एकटक चाँद को देखता। तब उसके अंदर का वैज्ञानिक जो हालात की मजबूरी में मन का मन में ही रह गया था बताना चाहता कि चाँद पृथ्वी की तरह एक ग्रह है। देवता नहीं। लेकिन वह उनकी आस्था भी खंडित करना नहीं चाहता था। कहानी सुनने में उसे बड़ा आनंद आता। कहानी धैर्य से सुनने के पीछे मुख्य आकर्षण प्रसाद का रहता। फिर चाहे घर में कितनी बार हलवा, पंजीरी, बेसन के लड्डू, चरणामृत बने, जो मजा प्रसाद में था वह इनमें नहीं। किसी मंदिर के सामने से गुजर रहा होता तो पंडित जी से नारियल, चिरौंजी, तुलसी का प्रसाद जरूर लेता। 

शाम से ही मेले की बत्तियाँ टिमटिमा रही थीं। क्षिप्रा की उर्मियाँ हवा के सँग उठती गिरती आवाज कर रही थीं। कुछ पंछी पर फड़फड़ाते अपने घोंसलों में लौटने की तैयारी में थे। वह जूना अखाड़ा पहुँचा तो आठ दस नागा साधुओं के बीच एक विशेष सा दिखता साधु बैठा था। गीतानंद गिरि ने परिचय कराया-" ये पूज्य गुरू महेंद्र गोविंद गिरी हैं। "

वह प्रणाम कर एक ओर खड़ा हो गया। 

गुरु महेंद्र गोविंद गिरी ने उसे नख से शिख तक निहारा। उनकी आँ खें चमक उठीं-" सच्चा चेला, भोले भंडारी की अनुमति मिल गई। कल शाही स्नान के बाद हम हरिद्वार चले जाएंगे। चार दिन बाद हरिद्वार में हमारे आश्रम में आकर मिलो। अपना पता ठिकाना इनको दो। गीतानंद, इनका पता ठिकाना लो। जहाँ माता-पिता रहते हैं। "

गीतानंद गिरि ने कागज पर हरिद्वार का पता लिखकर दिया। मंगल ने अपना कार्ड उन्हें दिया लेकिन मन में शंका भी जागी कि उसके घर का पता क्यों ले रहे हैं! घर को उसे बीच में नहीं लाना है। क्या पता शुरुआत की यह कोई प्रक्रिया हो। 

कुछ नये नागा साधुओं से भी मंगल की मुलाकात हुई। सिंहस्थ कुंभ के प्रथम शाही स्नान में उनसे क्षिप्रा में 108 डुबकियाँ लगवाई गई थीं और संस्कारित करने का अनुष्ठान किया गया था। सिंहस्थ में दीक्षित किए जाने वाले यह साधु खूनी नागा कहलाते हैं। मंगल को ताज्जुब हुआ, खूनी तो हत्यारे को कहते हैं। पर प्रगट में खामोश ही रहा। नए बने खूनी नागा साधु ने पूछा-

"तुम भी सन्यास ले रहे हो? नागा साधु बनोगे? अच्छा मार्ग है। हमें तो 3 वर्ष गुरुजी की देखरेख में रखकर अब दीक्षित किया गया है। " "तीन वर्ष क्यों ?"

"कभी-कभी तो 6 या उससे भी ज्यादा वर्ष लग जाते हैं। हमारा ब्रह्मचर्य परखते हैं न, मोह माया परखते हैं, नाते रिश्ते परखते हैं। तब दीक्षित करते हैं। "

"अच्छा, पर खूनी नाम क्यों ?

अलग अलग जगह भरने वाले कुंभ में दीक्षित किए गए साधुओं को अलग-अलग नाम दिया जाता है। पहचान हो जाती है न कि कहाँ दीक्षा मिली। प्रयाग के महाकुंभ में दीक्षा लेने वाले को नागा, उज्जैन में खूनी नागा, हरिद्वार में बर्फानी नागा और नासिक में खिचड़िया नागा कहा जाता है। "

उनकी बातों में मंगल तो रात का ढलना ही भूल गया। जब सब नागा साधु सोने चले गए वह क्षिप्रा के तट पर आ गया और देर तक सारे घटनाचक्र की बारीकी से समीक्षा करता रहा। घर तो वह नहीं लौटेगा। उसे कीरत भैया का जीवन तबाह नहीं करना है। दीपा से अगाध प्रेम भी उसके पलायन की वजह है। एक ही घर में दीपा और उसका होना, रहना मानो चुभते पलों का हर वक्त थमे रहना है। अगर ऐसा नहीं भी होता तो..... होता क्या ! साधारण सा जीवन होता। एक अदद नौकरी, बीवी -बच्चे, जिंदगी भर का खटराग लेकिन अम्मा बाबूजी? उन पर क्या बीतेगी। जब उन्हें उसके नागा साधु होने की सूचना मिलेगी। मगर सूचना कौन देगा। क्या कीरत भैया का सिपाही अर्जुन या फिर पवन। लेकिन दोनों को ही यह बात पता नहीं है। यह बात दीगर है कि सिपाही अर्जुन उसकी जासूसी करता हो और खबरें कीरत भैया तक पहुँचाता रहा हो क्योंकि पवन तो यही जानता है कि वह हिप्पियों के दल के साथ है। शायद अम्मा बाबूजी को कुछ ऐसी ही सूचना मिले। उसे माया मोह से निकलना है। यह संसार उसके लिए नहीं। उसने जो चाहा उसे मिला नहीं। उसे सिद्धार्थ की तरह मोह त्याग करना होगा। निकलना होगा उस काल्पनिक सुख से जो उसे मिला ही नहीं कभी। उसे अपने लिए बोधिवृक्ष ढूंढना होगा। वही कल्याण का शांति का मार्ग है। 

रात के परिंदों ने पर फड़फड़ाए। खामोश हवा में हलका सा शोर हुआ परों का। मंगल ने देखा आसमान में शुक्र तारा खूब चमक रहा था और दिशाएं रौनक से भर उठी थीं। 

वह टेंट में लौट आया। 

**

सुबह होते ही वह शाही स्नान देखने के लिए क्षिप्रा के तट पर आ गया। उषाकाल की लालिमा पूर्व दिशा को रक्तिम कर रही थी। सूरज अभी पूरी तरह नहीं निकला था। शाही

स्नान आरंभ हो चुका था। शाही स्नान के पहले नागाओं के अतिरिक्त कोई भी स्नान नहीं कर सकता। पुलिस की भारी व्यवस्था थी। नागा साधु डुबकी लगा रहे थे। गीतानंद गिरि ने बताया था कि -"हमें तो सभी नदियों का मैल अपने ऊपर लेना है। हम से ही पवित्र होंगी नदियाँ । "

जब भगीरथ गंगा माँ को धरती पर लाए थे तो गंगा माँ ने पूछा था कि मैं जब मैली हो जाऊंगी तो कौन मुझे स्वच्छ करेगा। यह बीड़ा नागाओं ने उठाया। उन्हें स्वच्छ करना ही शाही स्नान है इसीलिए कोई हमारे स्नान के पहले स्नान नहीं करता। स्वच्छ नदी जल करके तब अन्य लोग स्नान करें। फिर कोई बाधा डालता है तो बहुत क्रोध आता है। 

अचानक उसके सामने वॉकी टॉकी पर बात करते हुए अर्जुन सिपाही आ खड़ा हुआ

"लीजिए सर से बात कर लीजिये। " बावजूद झुंझलाहट के वह खुद को बात करने से बचा नहीं पाया। 

"मेला तो आज खत्म हो जाएगा। तुम कब लौट रहे हो मंगल? अम्मा तुम्हारे लिए बहुत परेशान हैं। "

" अभी तो उज्जैन घूमेंगे भैया। पत्र लिखा है अम्मा को। मिला होगा। " "ठीक है, रुपए चाहिए तो अर्जुन से ले लो और जल्दी घर लौटो। "

उधर से आवाज कट गई। उसने तैश भरे शब्द बहुत ही मुलायमियत से अर्जुन सिपाही से कहे- "देखिए मेरा पीछा करना बंद करिए। किसी की निजी जिंदगी में क्यों दखल दे रहे हैं?"

अर्जुन सिपाही को मजा आ रहा था मंगल की लुकाछिपी में। इसलिए जहाँ भी उसे देखता कीरत भैया को फोन लगा देता। लेकिन इस बार मंगल के व्यवहार ने उसे जता दिया कि वह उससे दूर रहे। चाय नाश्ते का पूछ कर वह अन्य सिपाहियों के साथ वहाँ से चला गया। 

मंगल स्नान करके टैंट में लौटा। हिप्पी दल गोवा जाने की तैयारी में थे। आज शाम को ही नागा साधु भी हरिद्वार चले जाएंगे। उसकी जेब में थोड़े रुपए ही शेष थे। 

कुंभ मेला समाप्ति के बाद वह उज्जैन में सस्ती धर्मशाला की तलाश में निकल पड़ा। इतने दिन हो गए यहाँ आए। जिस पीड़ा और मन की आहत अवस्था में वह यहाँ आया था अब कंट्रोल में थी। उसे लग रहा था कि उसे उसका मार्ग मिल गया। हालांकि उस मार्ग में अभी तक प्रवेश नहीं हुआ था। न जाने कहाँ ले जाएगा वह मार्ग। लेकिन इतना निश्चित था कि न वहाँ प्रेम का बदलता रूप है, न छल कपट और न इसके लिए कुछ भी कर डालने की चाह है। 

रात के 8 बज रहे थे उसे भूख सताने लगी। हलवाई की दुकान देख कर रुक गया। कड़ाही में फूलती पूड़ियों को देख उसने एक प्लेट पूड़ी सब्जी का आर्डर दिया। और चीकट सी दिखती बेंच पर बैठ गया। आलू टमाटर की रसेदार सब्जी, पूड़ी के साथ आम के अचार की एक सूखी फाँक और हरी मिर्च भी थी-

" भैया यहाँ कोई धर्मशाला है क्या?"

" तीर्थयात्री जान पड़ते हो। है न कोस भर की दूरी पर बनवारी लाल धर्मशाला। खा पी लो। छुटका छोड़ आएगा तुम्हें। कुछ दे देना उसे। " मंगल मुस्कुराया। गठबंधन की राजनीति यहाँ भी। 

धर्मशाला ठीक-ठाक थी। सफाई तो थी पर रात भर मच्छरों ने सोने न दिया। सुबह एल्युमीनियम की केटली में चाय भरे लड़का आया। एक कप चाय और चार बिस्किट। "खाना खरीदकर खाना पड़ेगा। आर्डर लिख लूँ?"

"नहीं भैया, मंदिरों के दर्शन करने जाएंगे न। उज्जैन तो मंदिरों का शहर है। चावल चढ़ाते चढ़ाते बोरा भर चावल दिन भर में खत्म हो जाते हैं यहाँ तो। "

लड़का हँसने लगा-" इतना भी नहीं। "

अगले दिन वह खर्च के लिए रुपए निकालने बैंक गया तो देखा एक नागा साधु काउंटर पर बहस कर रहा था कि "आज ही हमें एक करोड़ की धनराशि कैश विड्रा करानी है। "

काउंटर पर बैठे व्यक्ति ने असमर्थता प्रकट करते हुए उसे मैनेजर के पास भेज दिया। मंगल के आश्चर्य की सीमा नहीं थी। साधु जीवन की यह कैसी समृद्धि ! संसार से विमुख भी, संसार में आसक्त भी। थोड़ी देर बाद उसने नागा साधु को मैनेजर के कमरे से बाहर आते देखा। मैनेजर हाथ जोड़े उसे बैंक के गेट तक छोड़ने आया। 

" कल सुबह 11:00 बजे आपका काम हो जाएगा। "

नागा साधु के साथ वह भी बाहर निकल आया। नागा साधु ने उसकी ओर देखते हुए कहा-

" अखाड़े का रुपया है। आवश्यकता पड़ने पर तो निकालेंगे न। करें बैंक वाले इंतजाम। जब रुपया जमा किया है तो इंतजाम भी बैंक वालों को ही करना होगा। जाएँ ऊपर के लेवल तक। आरबीआई के थ्रू। दे न आरबीआई इंस्ट्रक्शंस। "

मंगल नागा साधु की ओर देखता ही रह गया। पढ़ा लिखा बहुत बेहतर भाषा का प्रयोग करने वाला नागा साधु उसके संग संग चलता रहा-

" कहते हैं एफडी बनवा लो। बैंक कि किसी अच्छी योजना में इन्वेस्ट कर दो। रुपया बढ़ेगा। हम तो साधु हैं। क्या करेंगे रुपया बढ़ाकर। हमारी आवश्यकताएं भोले भंडारी पूरा करते हैं। लाखों साधुओं का जमावड़ा होता है कुंभ के मेले में। सभी के भंडारे का खर्चा, बिजली, पानी, एसी का खर्चा। इतनी व्यवस्था में एक करोड़ खर्च होना मामूली रकम है। "

फिर उसकी ओर देखते हुए बोला- "तुम्हें तो जूना अखाड़े में देखा था कल। नागा बाबा बनना चाहते हो न। दुर्गम मार्ग है। सोच विचार कर लेना। " और वह क्षिप्रा की ओर चला गया। 

मंगल के मन में नागा साधु ने कई सारे प्रश्न खड़े कर दिए। पर वह इस समय प्रश्नों में उलझना नहीं चाहता था। उसे अपने निर्णय को भटकने नहीं देना है। 

चौथे दिन वह हरिद्वार जाने वाली ट्रेन में बैठ गया। सीट पर बैठकर सिर पीछे टिका लिया। घर उसके बिना चिंता और तनाव की गिरफ्त में था। अम्मा को पत्र मिल गया था लेकिन उससे स्थितियाँ स्पष्ट नहीं थीं। पवन से मिले सूत्र से कीरत सिंह पहुँच तो गया था मंगल तक पर वहाँ पर भी उसके घर लौट आने पर प्रश्नचिन्ह लगे थे। ट्यूटोरियल क्लासेस में भी उसके विद्यार्थी परेशान हैं, " सर कहाँ गए ? परीक्षाएं सिर पर हैं। "

*****

"बाबूजी कोई साधु आया है। पूछ रहा है मंगल भैया को। "

रोली ने सूचना दी। बाबूजी हड़बड़ा कर बाहर आए। साधु को बरामदे में बिठाला। पानी मंगवाया। 

"कहिए कैसे आना हुआ?"

बिना किसी भूमिका के साधु ने कहा -"आपका बेटा मंगल सन्यास ले रहा है। हम यही जानकारी आपको देने आए हैं। "

" सन्यास ले रहा है ?"

बाबू जी ने अविश्वसनीय आँखों से साधु की ओर देखा। 

" कौन हैं आप? कहाँ से आए हैं?" "हमारा कोई ठिकाना नहीं। हम तो घुमंतू हैं। चलते हैं हम। जय भोले भंडारी। "

और साधु आनन-फानन में गेट खोल सड़क पर कहीं लुप्त हो गया। बाबूजी किंकर्तव्यविमूढ़ से कुर्सी पर बैठे के बैठे रह गए। अम्मा, रोली उन्हें अंदर लाईं। पलंग पर लेटाया। अम्मा दूसरे कमरे में जाकर चुपके चुपके रोने लगीं। रोली ने कीरत को खबर करी। कीरत ड्यूटी पर था। दौड़ा आया- "क्या हुआ बाबू जी को !"

"जब से मंगल भैया के सन्यासी होने की खबर सुनी है तब से वे खामोश हैं। कुछ बोलते नहीं। "

रोली ने रो-रोकर बताया। 

कीरत ने तुरंत डॉक्टर बुलाया, पवन भी आ गया थोड़ी देर में। 

" इन्हें सदमा लगा है, विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। कोई भी ऐसी बात इनके सामने न करें जो इन्हें डिप्रेशन में ले जाये। "

बात तो हो चुकी थी। अब उससे ज्यादा पीड़ादायी बात और क्या होगी ?उनका लाड़ला मंगल मंगलवार को पैदा हुआ। वह हनुमानजी के भक्त, सवा सेर मगद का प्रसाद हनुमान मंदिर में चढ़ाया और नाम रखा मंगलसिंह। 

"देखना मेरा बेटा सबका मंगल करेगा, कल्याण करेगा। "

जब रात तक भी बाबूजी ने आँखें नहीं खोलीं तो सब घबरा गए। अम्मा का रो-रोकर बुरा हाल था। दीपा सहमी सी खड़ी थी। जानती थी उसके कारण ही मंगल घर छोड़ कर गया है। बहुत दिल कलपता है जब सोचती है कि उसने कितना मंगल का दिल दुखाया और वह प्रेम का देवता खामोशी से उसे प्रेम करता रहा। दीपा के घर वाले कीरत की नौकरी और उसके स्टेटस से प्रभावित हो गए थे। समाज में दबदबा था उसका। लेकिन दीपा को कीरत से कभी वह लगाव, वह समर्पण नहीं मिला जिसकी चाह लेकर वह इस घर में आई थी। धीरे-धीरे वह मंगल की ओर झुकती गई। मंगल की पसंद का खाना बनाना, थाली भले परोस कर उसके कमरे में रख आती थी पर खाती उसके खाने के बाद ही। कीरत तो ड्यूटी से लौट कर खा पीकर खर्राटे भरने लगता। न कभी दोनों ने साथ खाना खाया, न कभी कीरत को कमरे में उसका इंतजार करते पाया। एक रसहीन रूटीन था दोनों की जिंदगी में। 

दीपा को अच्छा लगता मंगल का गुनगुनाना, किताब पढ़ते हुए किताब पर झुका संजीदा चेहरा, माथे पर बिखर आए बाल। अम्मा जी की पूजा की घंटी की आवाज सुनते ही प्रसाद के लिए हाथ फैलाकर खड़े होना। आचमन कर सूर्य को अर्ध्य देते हुए सूर्य स्तोत्र का पाठ करते बाबूजी के साथ-साथ श्लोक दोहराना। रोली के संग विज्ञान की बातों को डिस्कस करना। 

उस दिन धोबी को कपड़े देते हुए जब उसने मंगल के पेंट की जेब खाली की तो पर्स निकल आया। पर्स मंगल के कमरे में रखने जाते हुए उसने यूं ही खोल कर देखा तो दंग रह गई। उसमें दीपा की मेहंदी के फंक्शन की फोटो थी। फोटो देखकर तो कई रातों की नींद उड़ गई उसकी। एक ओर समर्पित प्रेम दूसरी ओर केवल रिश्ते का बंधन। बीच में डगमग चलती दीपा लेकिन उस दिन वह डगमगाई नहीं। चंद लम्हों के लिए ही सही मंगल के आलिंगन में वह असीम सुख से भर उठी। उसे क्या पता था कि......

सुबह बाबूजी चिरनिद्रा में लीन मिले। डॉक्टर ने बताया रात किसी वक्त इनका हार्ट फेल हुआ है। सदमा घातक सिद्ध हुआ। पूरे घर को जैसे लकवा मार गया। पल भर तो सूझा ही नहीं कि यह हुआ क्या है। सब संज्ञाशून्य से। धीरे-धीरे जब वस्तुस्थिति का भास हुआ तो मोहल्ले के लोग जुटने लगे। कीरत ने बाबूजी के पलंग के पाए पर सिर पटक लिया। दीपा को लगा जैसे उसके दिल, उसके होशोहवास को कोई नोचे ले जा रहा है। इस हादसे की जिम्मेवार वह है, हाँ ...वही, सिर्फ वही है। इस सोच से वह अधमरी हो रही थी। रोली अम्मा को देखे कि अम्मा रोली को। 

वह काला दिवस...... इंतजार किस का ?मंगल तो सन्यासी हो गया। मंगल के लिए न बाबू जी रुके, न उनका पार्थिव शरीर। 

**

इधर बाबूजी के अस्थि पुष्प हरिद्वार में विसर्जित किए जा रहे थे। उधर मंगल का नागाओं के लोक में प्रवेश हो रहा था। 

"तुम पास हो गए हो। तुम्हें अखाड़े में प्रवेश की अनुमति है। अब देनी होगी ब्रह्मचर्य की परीक्षा। इसमें 6 महीने से 12 साल तक लग जाते हैं। ब्रह्मचर्य पालन में एक निष्ठ पाते ही दीक्षा दी जाएगी। "

गुरुजी कैसे करेंगे ब्रह्मचर्य की परीक्षा। मंगल के मन में तरह-तरह के प्रश्न उठ रहे थे। क्या खूबसूरत स्त्रियों को उसके सामने लाया जाएगा। क्या रात में उन स्त्रियों के साथ उसे अकेला छोड़ा जाएगा। क्या उत्तेजित करने वाली कथाएं सुनाई जाएंगी या फिर मदिरापान कराकर उसके होश उड़ाए जाएंगे। वह नागा गुरु घनानंद गिरी के सम्मुख अबोध बालक सा खड़ा हो गया। 

"सनातनी धर्म की रक्षा के लिए अब तुम अखाड़े के एक सदस्य हो। तुम परिवार नाते रिश्ते को त्यागकर सन्यासी होने का व्रत ले रहे हो। "

"जी। "

"आज से तुम ब्रम्हचर्य की परीक्षा दोगे। ब्रह्मचारी का अर्थ केवल स्त्री का साथ और कामवासना का त्याग नहीं है। वह संयम है। संयम ब्रम्हचर्य का ही एक हिस्सा है। मगर तुम्हें ब्रह्मचारी के गहरे अर्थों में खरा उतरना होगा। वैराग्य, ध्यान, सन्यास और धर्म की दीक्षा दी जाएगी तुम्हें। अब यह तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है कि तुम इस प्रक्रिया में खरे उतरने के लिए कितना समय लेते हो। "

गुरु घनानंद गिरी के चेहरे पर शांति थी किंतु आँखें शोलों सी लाल थीं। क्या यह ब्रम्हचर्य का तेज है? वह उन्हें प्रणाम कर बाहर निकल आया। अखाड़े में धूनी रमाए कुछ नागा साधु वार्तालाप कर रहे थे, कुछ ध्यान में मग्न थे। 

शाम आसपास के घने दरख़्तों पर उतर आई थी। बांस के झुरमुट में हवा का प्रवेश होते ही बांसुरी सी बजने लगती। गहराते शाम के अंधेरे में जंगल भयभीत कर रहा था। उसे गुजरना है वैराग्य, ध्यान, सन्यास और धर्म से। उसे त्यागना है खुरदुरे सपनों की देहलीज़ को। दहलीज़ को पार कर ही समा जाना है स्वयं में, अंगीकार कर लेना है उस विराट में समाकर जहाँ एक नया पथ, नया विश्वास उसकी बाट जोह रहा है। लगता है उसने वैराग्य पर विजय पा ली है। सन्यासी वह हो ही गया है और धर्म उसकी नस नस में व्याप्त है। लेकिन ध्यान....... ध्यान लगाते ही अम्मा, बाबूजी, रोली दीपा के चेहरे गडमड होने लगते हैं। वह विरक्त हो चुका है, वैरागी हो चुका है फिर चेहरे क्यों पीड़ा पहुँचाते हैं। आखिर उसका संसार इन चेहरों तक क्यों सिमट आया है। उसे तो विराट में जाना है। समस्त संसार की वेदना को अपने में समाहित कर लेना है। जैसे शाही स्नान करके नदियों का मैल नागा साधु अपने ऊपर ले लेते हैं। स्वच्छ हो जाती हैं नदियाँ। 

उसकी रातें जागरण में कटने लगीं। उसे रविन्द्रनाथ टैगोर याद आए-' जारे वक्षे वेदना अपार तार नित्य जागरण। ' जिसके सीने में अपार वेदना है उसका नित्य जागरण है। 

कबीर भी लिख गए-

' सुखिया सब संसार है खाए और सोए। 

दुखिया दास कबीर है जागे और रोए। '

तो वह जाग रहा है। वह खुद को बदल रहा है सर्वांग। सब यादों को, सब नाते रिश्तों को बड़े से संदूक में बंद कर दिल की गहराइयों में दाब दिया है। जैसे नव इमारत के निर्माण के लिए नीव खुदने पर बहुत सारी धर्म और पूजा से जुड़ी चीजें नींव के अंदर रखी जाती हैं। तब नया सृजन होता है। किले, महल, इमारत, घर बनते हैं। उसका भी नया सृजन हो रहा है। संपूर्ण कायनात नई हो उठी है। नए-नए जंगल कि जैसे वर्षा जल और धूप से नहाए। नई नई चहचहाती चिड़ियाँ, नये फूटते झरने, नई बहती नदियाँ। नया, सब कुछ नया। वह दिव्य ज्ञान से भर उठा। अब उसका अपना कुछ नहीं। चराचर जगत में मात्र एक प्राणी जो ईश्वर के द्वारा धरती पर भेजा गया। ईश्वर के निमित्त उनके दिए कार्यों को करने। 

***

तीन साल तक मंगल अखाड़े के गुरुओं की सेवा करता रहा। गुरुओं से प्राप्त धर्म-दर्शन और कर्मकांड को समझता रहा। ऐसा नहीं है कि वह इन बातों से अनभिज्ञ था। बचपन से ही उसकी रुचि इन्हीं बातों में रही है। वह बाबूजी को अपना गुरु मानता था। परिपक्वता यहाँ आकर मिली। 

चार वर्ष बीत गए। चौथे वर्ष उसे गुरु श्री महंत घनानंद गिरि ने अपने अखाड़े में बुलाया। वह निर्विकार हो उनके सम्मुख खड़ा था। 

" हरिद्वार में अर्ध कुंभ होने वाला है। मेष राशि में सूर्य और कुंभ राशि में बृहस्पति प्रवेश कर रहे हैं। वहीं तुम्हें ब्रह्मचारी से महापुरुष बनाया जाएगा। तुम्हारे पाँच गुरु, पँच परमेश्वर, पँचदेव शिवजी, भगवान विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश होंगे। इन पाँचों की आराधना तुम्हें करनी है। पाँच देव को हृदय में धारे, हम सबका ...सारी पृथ्वी का कल्याण होगा। "

वहाँ उपस्थित सभी नागाओं ने सफलतापूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने की उसे बधाई दी और महापुरुष बनने की शुभकामनाएं। लेकिन मंगल के मन में लेश मात्र भी न हर्ष हुआ न विषाद। वह इन सबसे परे जा चुका है। उसे खुद ताज्जुब है कि यह सब हुआ कैसे? इतना बड़ा परिवर्तन?

अखाड़े में धूनी जल रही थी जिस की लपटों की रोशनी में अखाड़ा तिलिस्म सा नजर आ रहा था। अखाड़े के सभी नागा चिलम के नशे में डूबे एक दूसरे से बातें कर रहे थे। 

सारे बड़े-बड़े अखाड़े इस रहस्यमय स्थल पर ही हैं। यह स्थल गाँव, शहर से दूर जंगल में है। जंगल के बीच में भी बड़े बड़े सेठों, नागा भक्तों, धार्मिक स्थलों से इन अखाड़ों के लिए दान की पेटियाँ आती हैं। मगर नागा मानते हैं कि जो मिल जाए वह ईशकृपा है। मंगल को इस बात की तसल्ली है कि अखाड़े के सभी नागा शाकाहारी हैं। प्याज, लहसुन तक नहीं खाते। दिन भर क्रियाएं करने के बाद केवल शाम को भोजन कर वे चिलम का आनंद लेते हैं और फिर सोने चले जाते हैं। 

मंगल अब पूरे तौर पर अखाड़े का हो चुका है। सभी कहते हैं ईश्वर की बड़ी कृपा है मंगल पर। वरना इतनी जल्दी महापुरुष की दीक्षा !

अभिभूत है वह नागाओं के संपूर्ण व्यक्तित्व, जीवनशैली और संसार में रहकर संसार से विरक्त रहने के जज़्बे से। इतिहास बताता है कि नागा परंपरा आदि काल से चली आ रही है। वेद व्यास ने संगठित रूप से पहले बनवासी सन्यासी परंपरा की शुरुआत की थी। फिर शुकदेव ने फिर अनेक ऋषियों और संतों ने इस परंपरा को अपने अपने तरीके से आगे बढ़ाया। बाद में आदि गुरु शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित कर दशनामी संप्रदाय का गठन किया। इसके बाद अखाड़ों की परंपरा शुरू हुई। 

हरिद्वार में अर्धकुंभ का मेला आरंभ हो चुका था। विदेशी पर्यटकों की भीड़ गंगा तट पर छाई हुई थी। सारे विदेशियों के आकर्षण का केंद्र नागा साधु और उनके अखाड़े थे। वह जूना अखाड़े में अन्य नागाओं के साथ था। गुरुजी ने उसे सुबह चार बजे उठकर नित्य क्रिया से निवृत्त हो ध्यान आदि करके गंगा किनारे मिलने को कहा था। अभी तो अंधेरा था। तारे टिमटिमा रहे थे लेकिन कुंभ की बत्तियाँ जल रही थीं। नागा बनने की कठिन प्रक्रिया उसके लिए किसी सेना में शामिल होने जैसी थी। पहले उसका मुंडन कराया गया। फिर गंगा में 108 बार डुबकियाँ लगवाई गईं। कड़कड़ाती ठंड में गंगा का बर्फीला पानी और उसमें 108 डुबकियाँ। उसका गोरा चेहरा लाल भभूका हो गया। उसे लगा जैसे गंगा ने उसके अंदर प्रवेश कर लिया है। वह गंगामय हो गया। उसका अतीत गंगा में समा गया है। और एक

और एक दिव्य आलोक उसका आगामी पथ जगमगा रहा है। वह पथ कितना विस्तृत.... आगे और आगे.... समस्त धरती पर, धरती के छोर तक.... क्षितिज के पार तक चलना है उसे। इस पथ का राही बनकर ही वह गंतव्य तक पहुँ चेगा, अपनी मंज़िल पायेगा। लेकिन पथ जितना ज्योर्तिमय है उतना ही दुर्गम भी। 

108 वीं डुबकी के बाद जब वह तट पर आया तो शरीर का एहसास ही खत्म हो चुका था। पूरा शरीर जैसे ग्लेशियर। ठंडा और दृढ़। 

**

अभी और भी इम्तिहान बाकी हैं। अब उसे अवधूत बनाए जाने की प्रक्रिया आरंभ हुई। उसका जनेऊ संस्कार हुआ और उसे सन्यासी नागा जीवन की शपथ गुरुओं ने दिलाई -

"हम सन्यासी हैं। विकार रहित। केवल जगत कल्याण के लिए ही हमारा जन्म हुआ है। हम इसी भावना में जिएंगे, इसी में मरेंगे। " शपथ के बाद मंगल ने स्वयं अपना पिंड दान किया। सांसारिक बंधनों से मुक्ति के लिए अपने अगले पिछले सारे ....सारे संबंध समाप्त। अपने जीते जी पिंड दान करके तमाम पूर्वज तर जाते हैं। गुरुजी ने बताया 24 पूर्वज तरते हैं जीते जी हुए इस पिंडदान से। मंगल मर चुका है। अखाड़े के महाराज और पुरोहित ने उसका तर्पण करा दिया है। उसका नया जन्म है। गुरुजी ने नाम दिया नरोत्तम गिरी। मंगल हो गया नरोत्तम, नर में उत्तम। 

इसके बाद उसका दंडी संस्कार हुआ जिसमें वह पूरी रात ओम नमः शिवाय का जाप करता रहा। जाप करने के बाद भोर होते ही उसे अखाड़े में ले जाकर उससे विजया हवन करवाया गया और गंगा में फिर से 108 डुबकियाँ लगवाई गईं। डुबकियाँ लगवाने के बाद अखाड़े के ध्वज के नीचे दंडी त्याग यानी बिजवान करवाया गया। वह निर्वस्त्र 24 घंटे तक अखाड़े के ध्वज के नीचे खड़ा रहा। वैसे भी वह सभी गुरुओं, पुरोहित की नजरों में कैद था। इस कठिन तप से जरा भी विचलित होने पर उसे अब तक की सारी प्रक्रियाएं फिर से दोहरानी पड़तीं पर ऐसा हुआ नहीं। मंगल नहीं, अब मंगल नहीं.... नरोत्तम अपने संकल्प में दृढ़ था। उसका आत्मबल उसके संकल्प को सहारा दे रहा था। एक पल को भी मन में यह विचार नहीं आया कि वह ऐसा क्यों कर रहा है। जब भी आँख मूँदता चट्टान को फोड़कर उगी हरी हरी दूब याद आ जाती। वह दूब बिना मिट्टी पानी के चट्टान को अपनी हरीतिमा से ढक देती है ......'नरोत्तम तुम्हें चट्टान बनना है। और अपने अंदर उगी दूब को सहेजना है। उसके भीतर से आवाज आई और उसने देखा सुबह हो चुकी है। और अखाड़े का एक वरिष्ठ नागा उसकी ओर बढ़ रहा है। उसके पास आते ही उसने नरोत्तम का लिंग हाथ से दबाया और बम बम भोले करते हुए उसके लिंग की नस खींच कर तोड़ दी। उसे नपुंसक बना दिया। नरोत्तम बिलबिला उठा। दर्द की तड़पन में उसने दाँत भींच लिए और गर्दन को ऊपर उठाकर आकाश की ओर देखने लगा। उसे पूर्व दिशा में अपनी तड़प की लाली फैलती नजर आई। आज बचाखुचा मंगल भी समाप्त हो गया। 

अखाड़े के अन्य नागाओं में खुशी की लहर व्याप्त थी। एक और व्यक्ति दिगंबर नागा बन उनके समुदाय में शामिल हो गया था। वे अधिक सुगठित, अधिक बलवान हो गए थे। ईश्वर की भक्ति के क्रम में इजाफा हो रहा था। नरोत्तम गिरी सोच रहा था..... कितने वर्ष बीत गए। नागा बनने की प्रक्रिया कमांडो की ट्रेनिंग से भी ज्यादा कठोर है। जिसे उसने पूरी दृढ़ता और संकल्प शक्ति से पूरा किया। अब उसे अलग ही तरह की जीवनशैली अपनानी होगी। जो इतने वर्षों में वह धीरे-धीरे अंगीकार कर चुका है। बल्कि अभ्यस्त हो गया था। अब उसे नागा आश्रम में रहते हुए और भी कठोर अनुशासन का पालन करना होगा। शिवजी और अग्नि के भक्त नागा दुनिया बदल जाने पर भी ऐसे ही रहेंगे। विचारों और खान-पान में संयम उसके आचरण में शुरू से था। अब भी है। उम्र भर रहेगा। नागा होना मानो एक सैन्य पंथ है और वह एक सैन्य रेजिमेंट की तरह बंटा है। त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम उसके सैन्य दर्जे को दर्शाते हैं। 

अब वह दिगंबर है। आकाश ही उसका वस्त्र है। कपड़ों के नाम पर पूरे शरीर पर भस्म लपेटे। पहले वह समझता था यह भस्म अखाड़ों में जलने वाली धूनी की राख होगी। लेकिन यह भस्म भी लंबी प्रक्रिया के बाद तैयार होती है। वे जो हवन करते हैं उस हवन कुंड में पीपल, पाखड़, रसाला, बेलपत्र, केले के पत्ते और पींड़ व गाय के गोबर को जलाकर उस राख को बारीक कपड़े से छानकर कच्चे दूध में सानकर लड्डू बनाते हैं। इस लड्डू को सात बार अग्नि में तपाया जाता है। जब वह अंगारे सा दहकने लगता है तो उसे फिर कच्चे दूध से बुझाकर भस्म बनाया जाता है। यह भस्म टलकम पाउडर जैसी मुलायम होती है। यही भस्म नागाओं का वस्त्र है। यह भभूत या भस्म उन्हें सारी आपदाओं से बचाती है। न उनके शरीर को मच्छर काटते हैं। न कोई वायरल उनमें प्रवेश कर पाता है। यह नागा साधुओं का श्रृंगार कहलाता है। श्रृंगार की नई परिभाषा ने नरोत्तम नागा को रोमांचित कर दिया। 

इस कठोर जीवन में प्रवेश करने के बाद नरोत्तम गिरी की जीवन चर्या ही बदल गई। कठोर भूमि पर मात्र एक चादर बिछाकर बिना तकिए के वह सोता है और सुबह 4:00 बजे जाग जाता है। नित्य क्रिया, स्नान के बाद शरीर पर भस्म लगाकर माथे पर आड़ी भस्म लगा तीन धारी तिलक लगाता है। लंबे बाल जो अब जटाएं बन गए हैं उनका शिवजी के समान जूड़ा बांध कर उस पर रुद्राक्ष की माला लपेट

कर गले और कलाइयों पर रुद्राक्ष की माला पहन कर वह श्रृंगार से निवृत्त हो जाता है। इसके बाद हवन, ध्यान, वज्रोली प्राणायाम, कपाल क्रिया, नौली क्रिया करके वह मन के भीतर प्रवेश करता है। वह मन की आँखों से संसार देखता है। कितने ऐसे प्रश्न हैं इस जन्म को लेकर जिस के उत्तर उसे अपनी साधना से खोजने हैं। अगर वह सामाजिक जीवन जी रहा होता तो वह नपुंसक कहलाता। उसे याद है जब वह 24 घंटे अखाड़े के ध्वज के नीचे खड़ा रहा था। उसके कंधे पर एक दंड (लाठी) और हाथों में मिट्टी का बर्तन था और वैदिक मंत्रों से उसकी इंद्री की पुरुषत्व की नस तोड़ कर निष्क्रिय कर दी गई थी। यह दृश्य बार-बार उसकी चेतना को झंझोड़ता है। मन में प्रश्न उठता है कि क्या साधना के लिए समाधिस्थ होने में पुरुषत्व आड़े आता है? या फिर नपुंसक करना इस बात की तसल्ली है कि अब कभी स्त्री के लिए मन नहीं भटकेगा, विचलित नहीं होगा। उसे कई दिनों तक स्वप्न आता रहा जैसे वह इतना विशाल हो गया है कि पूरा ब्रह्मांड उसके लपेटे में है। वह अंतरिक्ष की ऊँचाई से देख रहा है धरती पर छोटे-छोटे पर्वत, नदियाँ, जंगल। धरती पर विचरण करती बूंद जैसी मानव जाति। लड़ती, झगड़ती एक टुकड़ा जमीन और एक स्त्री के लिए खून की नदियाँ बहाती। सिर्फ अपने लिए जीती, सिर्फ अपने लिए सोचती। अपने सुख और लालसा के लिए बड़े से बड़ा पाप करने में भी पीछे नहीं हटती। ये संसार!! ओह, इस संसार के लिए इतने वर्ष उसने गंवाए?

स्वप्न टूटता तो भोर हो चुकी होती। गीतानंद गिरि कहता-" तुमसे भोलेनाथ कुछ विशिष्ट करवाना चाहते हैं। यह स्वप्न उसी का संकेत है। 

गीतानंद गिरी और नरोत्तम गिरी में खूब पटती है। दोनों शिव का जाप करते जंगल में दूर निकल जाते हैं। कितना लुभाता है जंगल। गिलहरी, मोर, लाल पीली छोटी-छोटी मुनिया चिड़ियाँ, टहनियों पर उछलते लंबी पूंछ वाले लंगूर। हरिद्वार के दूरदराज बसा यह जंगल जड़ी बूटियों की खान है। कहीं गिलोय तो कहीं गुरुमुखी की बेल। 

यहाँ नौ ग्रहों से संबंधित पौधे भी अपने आप उगे हैं। प्रकृति की विशाल देन। 

"देखो नरोत्तम, अपामार्ग बुध ग्रह के लिए है गूलर, शुक्र ग्रह के लिए पलाश, चंद्रमा के लिए पीपल, बृहस्पति ग्रह के लिए खदिर, मंगल ग्रह के लिए आक, सूर्य ग्रह के लिए मदार, शनि ग्रह के लिए शमी, राहु ग्रह के लिए दूर्वा और केतु ग्रह के लिए कुश। यहीं से हवन के लिए जड़ी बूटियाँ लकड़ियाँ भी अखाड़े में जाती हैं। जिनकी भस्म बनती है। "

नरोत्तम मंत्रमुग्ध हो सुन रहा था। पौधों और ग्रहों की नई परिभाषा से परिचित हो रहा था। अब तक इतना तो जाना ही नहीं था। अद्भुत है यह जंगल। कमाल की वन संपदा। इनके फूलों में कैसा जादुई आकर्षण है। 

गीतानंद गिरि आगे-आगे चल रहा था। थक कर सुस्ताने के लिए दोनों बरगद की छांव तले बैठ गए। संध्या हो रही थी। संध्या वंदन की तैयारियों में अखाड़े के नागा तत्पर होंगे। वे दोनों भी अखाड़े की ओर लौटे। नरोत्तम गिरी को ग्रहों से संबंधित पेड़-पौधों, जड़ी बूटियों की जानकारी अभी भी अचंभित किए थी। 

संध्या वंदन भोजन आदि के पश्चात वह रात्रि विश्राम के लिए जब अपने कमरे में गया तो लगा एक विशेष छोर की अज्ञानता पर से धीरे-धीरे पर्दा उठा है और वह प्रकृति से साक्षात्कार कर रहा है।