Kaithrin aur Naga Sadhuo ki Rahashymayi Duniya - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया - 10

भाग 10

नरोत्तम गिरी से मिलकर कैथरीन बेचैन सी हो गई थी। भोजबासा में मिले अष्टकौशल गिरी और महाकाल गिरी से मिली ढेरों जानकारियों से समृद्ध होकर वह ऑस्ट्रेलिया लौटी थी। लेकिन नरोत्तम गिरी अजीब ढँग से उसके हृदय में हलचल मचाए था। उसने इस बात का जिक्र लॉयेना से भी किया था। 

"हो जाता है जीवन में ऐसा जब कोई एक दिव्य पुरुष ऐसा मिलता है जिससे मिलकर लगता है कि हम शायद उसी के लिए इस दुनिया में आए हैं। "

कैथरीन ने हल्के स्मित से लॉयेना को देखा, अब उसमें काफी प्रौढ़ता आ गई है। 

" कैसी निभ रही है तुम्हारी प्रवीण के साथ और अम्मा का कैसा व्यवहार है तुम्हारे प्रति। "

" प्रवीण बहुत रिजर्व टाइप का इंसान है। तुम्हें लेकर हम दोनों के बीच कभी कोई बात नहीं होती। अम्मा की बस यही आस है कि मैं उन्हें पोता दूँ। जानती हो कैथरीन आद्या तुम्हारे भारत प्रवास के दौरान कितनी अपसेट रही। वह तुम्हें बहुत प्यार करती है। "

"हाँ वह मुझ में शेफालिका को देखती है। "

आद्या से घर भरा भरा लगता। पढ़ाई के साथ वह चित्रकारी भी करती। आजकल फैब्रिक पेंटिंग में उसका ज्यादा मन लगता। अब ममा का बुटीक आद्या की फैब्रिक पेंटिंग की वजह से ज्यादा प्रसिद्ध हो रहा था। 

कैथरीन के पास नौकरी न होने की वजह से वक्त ही वक्त था। वैसे नौकरी की अब कोई जरूरत भी नहीं थी। कैथरीन के लिए ममा बंगला गाड़ी और अच्छा खासा बैंक बैलेंस छोड़ गई थीं। आद्या के कारण बढ़े हुए खर्च बुटीक से पूरे हो जाते। प्रवीण के आग्रह पर भी उसने आद्या के लिए कभी कोई मदद नहीं ली उससे। उनका मिलना जुलना भी लगभग नहीं के बराबर था। उसने प्रवीण से दूरी सी बना ली थी ताकि लॉयेना के साथ वह खुलकर जिए। हालांकि आद्या के कारण सप्ताह में दो बार उसे प्रवीण के घर जाना पड़ता। आद्या इतनी भोली भाली प्रेम से ओतप्रोत थी कि भले ही कैथरीन ने उसके लिए शेफालिका की जगह ले ली थी पर अपनी दादी और पापा से भी उसे उतना ही लगाव था। प्रवीण के घर जब सब साथ मिलकर बैठते तो कैथरीन भारत के किस्से सुनाती। इससे एक फायदा यह हुआ कि भोजवासा में नागा साधुओं से प्राप्त जानकारियाँ उसने जो डायरी में लिखी थीं अब उसे याद हो गईं। अब किताब लिखना ज्यादा आसान हो गया। 

वृषभानु पंडित ने बताया कि 4 साल बाद प्रयागराज में महाकुंभ भरने वाला है जिसमें जाने की तैयारी कैथरीन को कर लेनी चाहिए। इस महाकुंभ में वह सभी नागा अखाड़ों से मिल सकती है और और भी अधिक जानकारी पा सकती है। 

कैसे संपर्क करे नरोत्तम गिरी से कैथरीन? वह डायरी के पन्नों में रोज उससे मुलाकात करती। जाने कितनी बातें करती। उसके दिव्य चुंबकीय व्यक्तित्व की उज्ज्वलता में प्रवीण का चेहरा धुँधला नजर आता। कभी-कभी उसे लगता प्रवीण ने उससे प्यार किया ही नहीं वरना लॉयेना से विवाह के प्रस्ताव को इतनी आसानी से कैसे स्वीकार कर लेता। यह बात भी उसने नरोत्तम से डायरी में लिख कर पूछी। जवाब आया ' यह जीवन है देवी, लोग मिलते बिछुड़ते रहते हैं। कभी बहुत करीब से हवा का झोंका हमें छूकर निकल जाता है और कभी ठहरकर सर्वांग आलोड़ित कर देता है। '

नरोत्तम के उत्तर पर वह इत्मीनान से भरकर हल्के से मुस्कुराई। 

" क्या हुआ ममा, मन ही मन मुस्कुरा रही हो। "

अचानक उसके कमरे में आद्या प्रगट हुई और उसे चोरी चोरी मुस्कुराते पकड़ लिया। 

कैथरीन अपनी ही रौ में थी-

"6 फीट ऊँची संगमरमर की प्रतिमा.........."

"अरे रुको ममा, कैनवास लाती हूँ चित्र बनाऊँगी उसका। "

आद्या अपने कमरे से कैनवास स्टैंड उठा लाई-

"अब बोलो। "

"एकदम जैसे फरिश्ता, बेहद भव्य। लंबे काले बालों की जटाएं जूड़े की शक्ल में सिर पर। जूड़े में लिपटी रुद्राक्ष की माला। पूरे शरीर पर चाँदी सी भस्म, माथे पर भस्म का ही तिलक। आँखें बड़ी बड़ी विशाल जैसे पूरी सृष्टि को पलक झपकते अपने में समेट लेना चाहती हों। अधरों पर ठहरी हुई सी प्यास, तप से ब्रह्मांड का बूँद बूँद रसास्वादन करती। फिर भी प्यास बनी की बनी। गंभीर गहरे अर्थों में खोया चेहरा। जो देखे वह उसी का होकर रह जाए। "

क्षण भर रुकी कैथरीन। उसकी आँखों में नरोत्तम की छाया जैसे उसकी परछाई हो। परछाई हमेशा साथ रहती है। बस अँधेरे में दिखती नहीं। अँधेरा ही मनुष्य की जीवन यात्रा के लिए चुनौती है। महात्मा बुद्ध ने अपने परम प्रिय शिष्य से कहा था अपना दीपक स्वयं बनो। स्वयं को दीपक बनाना ही तो तप है जो नरोत्तम गिरी का मार्ग है। 

" ममा देखो। "

चकित रह गई कैथरीना। आद्या ने कैनवास पर रेखाओं में हूबहू नरोत्तम को उतार दिया था। वह शीघ्रता से उठी और अपनी स्कैच बुक ले आई। जिसमें उसने भोजवासा की गुफा में धूनी की लपटों के नर्तन में नरोत्तम गिरी का पेंसिल स्केच बनाया था। 

" देखो आद्या मैंने भी कोशिश की थी। पर तुमने तो कमाल ही कर दिया। "

" आप किताब लिखो ममा। मैं उस किताब की कहानी पर चित्र भी बनाती जाऊँगी। "

कैथरीन ने आद्या को गले से लगा लिया। 

इन दिनों कैथरीन खुद को खंगाल रही है........ उथल-पुथल की जानलेवा सोच से गुजर रही है। क्या उसके अंतर्मन से कोई आहिस्ता आहिस्ता जा रहा है और क्या कोई तेजी से कदमों की गहरी छाप छोड़ता आ रहा है ? यह उसके साथ क्या हो रहा है? इतने वर्ष प्रवीण के साथ के, मान के, दुलार के भोजवासा से उठे भीषण बवंडर में तिनका तिनका हो उड़े जा रहे हैं। शायद इसीलिए ...शायद इसीलिए ईश्वर ने प्रेरणा दी कि वह प्रवीण का घर बसाए ताकि अलविदा होने में दुख न हो। अवसाद न घेरे। शायद इसीलिए वह दूर देश के नागा साधुओं पर किताब लिखने की अपनी आकांक्षा से कलम थामने को तत्पर हुई। आखिर क्या कराना चाहता है ईश्वर उससे ? उसे अपने मन को संभालना होगा। वास्तविकता के धरातल पर पैर जमाने होंगे। आखिर उसने कलम उठा ली। 

देखते-देखते चार वर्ष बीत गए। इन चार वर्षों में किताब का आधा लिखा पहला ड्राफ्ट तैयार हुआ। लॉयेना दो बार माँ बनी। दोनों ही बार बेटों को जन्म दिया। अम्मा जी के प्राण जाग उठे। अपनी तापसी पर जान न्यौछावर करने लगीं। प्रवीण ने बिजनेस और बढ़ा लिया। और अधिक व्यस्त हो गया। और आद्या जॉब के साथ अपने जीवन में आए रॉबर्ट से प्यार करने लगी। रॉबर्ट अनाथालय में पला बढ़ा था। फिर एक मध्यवर्गीय निःसंतान दंपति ने उसे गोद ले लिया। रॉबर्ट से आद्या की मुलाकात उसी कंपनी में हुई जहाँ आद्या जॉब करती थी। आद्या ने कैथरीन को रॉबर्ट के विषय में बताया-" ममा हम एक दूसरे को प्यार करने लगे हैं। "

"क्या तुम उससे शादी करना चाहती हो ?"

"अभी इस ओर ध्यान ही नहीं गया। हमें ऐसा लगता है कि हमें आपस में प्यार है पर अभी बहुत कुछ समझना बाकी है। परखना बाकी है। "

आद्या ने गंभीरता से कहा। 

काश ऐसा प्रवीण ने भी सोचा होता। उसने भी सोचा होता। सोचते हुए कैथरीन ने सिसकी भरी साँस ली और उठकर कॉरिडोर में आ गई। पूर्व दिशा कितनी दूर लग रही थी और दूज का चाँद भी दूर- फीका- फीका सा। 

वृषभानु पंडित ने कैथरीन से मिलने की इच्छा प्रकट की। उन्हें कुंभ के सिलसिले में उससे बात करनी थी। लॉयेना भी अपने दोनों बच्चों सहित आ गई। वृषभानू पंडित नियत समय पर आ गए। अम्मा ने लॉयेना को दाल की कचौरी बनाना सिखा दिया था तो वह डिब्बा भर कचौरी और इमली की चटनी बना कर ले आई थी। रॉबर्ट भी आ गया था। प्रवीण जरूरी मीटिंग की वजह से नहीं आया। 

कैथरीन के बंगले में उत्सव जैसा माहौल था। 

"इस बार महाकुंभ 55 दिन का होने वाला है कैथरीन। आप भारत में रहने का कम से कम 2 महीने का इंतजाम तो कर ही लो। "वृषभानु पंडित ने कहा। 

" इस बार हम दोनों भी चलेंगे ममा। मैं और रॉबर्ट। "

"यह तो बढ़िया सोचा आद्या ने। " "ले ही जाना कैथरीन। तुम्हारे बिना खुश नहीं रहती है ये। "

लॉयेना ने आद्या के गाल पर चपत लगाते हुए कहा। 

"कुंभनगर में लॉजिंग बोर्डिंग विदेशियों के लिए बुक हो रहे हैं। मैं तुम तीनों के लिए बुक करवा देता हूँ। "

नौकरानी कॉफी बना लाई थी। साथ में लॉयेना की लाई कचौरी और चटनी भी। 

"आद्या तुम अपनी पेंटिंग दिखाओ वृषभानु सर को। "

आद्या ने नरोत्तम गिरी की जो पेंटिंग बनाई थी वह दौड़ कर ले आई। वृषभानू पंडित ताज्जुब से भर गए। 

"अरे यह तो भारतीय नागा साधु है। "

" जी हाँ, जिनसे मिलकर मैं आई हूँ वही नरोत्तम गिरी। "

"तुम्हारी किताब में सहयोगी बनेगी आद्या। "

"हाँ मैं ममा की किताब की घटनाओं पर चित्र बनाऊँगी। "

"वाह..... इससे बढ़िया और क्या हो सकता है। कैथरीन की सालों की मेहनत एग्जीबिशन में भी दिखे तो क्या बात है। "

रात 9 बजे वृषभानु पंडित विदा हुए। लॉयेना रात वहीं रुक गई। 

कैथरीन को नींद नहीं आई। डायरी निकालकर उसने नरोत्तम गिरी से सवाल किया -'क्या मैं विदेशी हूँ? तुम अपने लिए आकाश, पाताल चारों दिशाओं को अपने तप के लिए खुला पाते हो। फिर मैं विदेशी कैसे हुई?' उत्तर आया-" तुम तो स्त्री हो जिसे ईश्वर ने इसलिए बनाया कि ब्रह्मांड न डगमगाए। वह किसी एक देश की कैसे हो सकती है देवी कैथरीन ?'

परम संतुष्टि से भरी कैथरीन डायरी के पन्नों में मुंह छुपाए फुफुसाई-" आ रही हूँ नरोत्तम। "

****

कड़ाके की सर्दी में जकड़ा 5 किलोमीटर के क्षेत्र में फैला प्रयागराज का कुंभनगर। मेले में आठ करोड़ देशी विदेशी श्रद्धालु पर्यटकों का होना विश्व की अद्भुत घटना है। नागा अखाड़ों के निवास की बेहतरीन व्यवस्था मेला कमिश्नर की ओर से की गई थी। जूना अखाड़े में नरोत्तम गिरी सहित सारे नागा आज पहला शाही स्नान करेंगे। जब पूरा देश मकर संक्रांति पर्व मना रहा होगा। अखाड़ों से पहले ब्रह्म मुहूर्त में रात्रि 3 बजे से ही शंकराचार्य और कुछ संतों ने अपने भक्तों के साथ स्नान कर लिया था। शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद, निश्चलानंद वगैरह को अखाड़ों से पहले स्नान करने की स्वीकृति दी गई थी। धीरे-धीरे सूरज की किरणों ने कुंभनगर के रेतीले तट पर बिखरना शुरू किया। जूना अखाड़े से हाथी, घोड़ों, रथों, पालकियों का जुलूस गंगा तट की ओर शाही स्नान के लिए प्रस्थान कर रहा था। 

जूना अखाड़े सहित सभी अखाड़े के नागाओं के स्नान की अवधि निश्चित थी। दरअसल शाही स्नान को लेकर अलग-अलग अखाड़े के नागा एक-दूसरे से उलझ पड़ते हैं। इसलिए अंग्रेजों के समय से ही इन अखाड़ों के स्नान की अवधि निश्चित कर दी गई थी। अखाड़ों में मौजूद नागा संख्या के आधार पर अवधि 30 मिनट से 1 घंटे तक की होती है। नागा जिस रास्ते से स्नान के लिए जाते हैं उस रास्ते से लौटते नहीं है। नहीं तो दूसरे अखाड़े के साथ झड़प होने की संभावना रहती है कि तुम लोगों ने बहुत समय ले लिया। अब हमें जल्दी में स्नान करना पड़ेगा वगैरह वगैरह। 

जूना अखाड़े के धर्म रक्षक योद्धा नागाओं के शाही स्नान के बाद जब अन्य अखाड़ों ने भी शाही स्नान कर लिया तब आम श्रद्धालुओं, लगभग 82 लाख श्रद्धालुओं ने डुबकी लगाई। लोगों का उत्साह देखते ही बनता था। सुबह 11:00 बजे तक श्रद्धालु स्नान कर चुके थे। गंगा की सतह पर नर ही नर..... जल कहीं दिखता न था। 

विदेशी पर्यटकों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। नरोत्तम गिरि महंत और गीतानंद गिरि महंत गंगा के पश्चिमी घाट पर बैठे विदेशी पर्यटकों की आवाजाही देख रहे थे। श्री उदासीन पंचायती अखाड़े का एक नागा अपना त्रिशूल लेकर एक विदेशी पर्यटक के ऊपर झपटा। विदेशी जो शक्ल से जापानी लगता था गले में कैमरा लटकाए जिद कर रहा था|

" बाबा एक फोटो ले लेने दीजिए। हम अपने देश जाकर दिखाएंगे। " दूसरे पर्यटकों ने नागा का त्रिशूल पकड़ लिया। 

" बाबा क्षमा करें। "

नागा लाल-लाल आँखों से घूरने लगा -"हम ने मना किया न कि हमारी फोटो मत लो। हमारी साधना में विघ्न डालते हो?" जापानी पर्यटक भय से थर थर काँप रहा था। नागा क्रोध से भरा नथुने फड़काते गंगा तट की ओर चला गया। 

धर्म पर आस्था का मंजर देख रहा है नरोत्तम गिरी। करोड़ों लोग चुंबक की तरह खिंचे चले आ रहे हैं इस कुम्भ नगरी में। आठ करोड़ श्रद्धालुओं की उपस्थिति विश्व की अद्भुत घटना है। समुद्रों पर्वतों को लांघ कर आया विदेशी सैलानियों का हुजूम भी हूबहू भारतीय जैसा ही माथे पर तिलक भभूत लगाए रुद्राक्ष की माला पहने इस भीड़ में शामिल हैं तो क्या मात्र दिखावे के लिए? और किसे फुर्सत है इन्हें देखने की? सब अपनी-अपनी आस्था अपने-अपने भक्ति भाव में डूबे हैं। 

सरस्वती नदी कितने वर्ष पहले गायब हो गई कि भूगर्भ वैज्ञानिकों को उसके मार्ग की खोज करने के जीवाश्म और सैटेलाइट इमेजरी का अध्ययन करना पड़ा। न ही उसका विलोप होना इतना निकट है कि उसके अस्तित्व को तलाशा जा सके। लेकिन वैदिक ऋचाओं में देवलोक की इन तीन नदियों के स्वर्गिक संगम का महिमा गान मौजूद है। गंगा अपनी सुनहली लहरों के रूप में, यमुना साँवली लहरों के रूप में और सरस्वती धवल क्षीण धार सहित जब एक दूसरे के आलिंगन में समाती हैं तो मानो स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं। यह विश्वास ईसा से तीन हज़ार साल पहले से मौजूद है। विद्यार्थी जीवन में नरोत्तम गिरी ने हर तर्क को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परखा है और उत्तर पाया है। लेकिन इस महान आस्था का कोई उत्तर नहीं है उसके पास। गायकों, कलाकारों के शो के प्रायोजक लाइट और आधुनिक उपकरण सजा कर भी कभी इतनी भीड़ नहीं जुटा पाए। गाँव, देहात से सिर पर गठरी रखे लोग उमड़े पड़ रहे हैं। हर वर्ग का आदमी बस एक बार गंगा में डुबकी लगाने की इच्छा के लिए चला आ रहा है। दो दो तीन तीन महीने के शिशुओं तक को सर्द पानी में डुबकियाँ लगवा रहे हैं श्रद्धालु। 

नरोत्तम गिरी तो अखाड़ों की सज्जा से भी चकित है। चमक-दमक, साज सज्जा और दिखावे में एक-दूसरे से होड़ लेते अखाड़ों के गेट, किले या महल के गेट जैसे शानदार हैं। जूना अखाड़े और अन्य नामी गिरामी अखाड़ों के आगे तो कारों और जीपों की

लाइन लगी थी। कारों में केसरिया परदे लगे थे और यह सारी व्यवस्था निरासक्त, बैरागी, नंग धड़ंग नागा साधुओं के लिए जिन्होंने कामेच्छा पर विजय पा ली थी, उनके चेले चपाड़ो भक्तों ने की थी। 

******

नरोत्तम गिरी गीतानंद गिरि के साथ अखाड़े में अधलेटा चिलम फूँक रहा था। राजसी ठाठ के अखाड़े में वह खुद को अनफिट पा रहा था। भोजन भी अन्य दिनों से बिल्कुल अलग। कभी पूड़ी, सब्जी हलवा, पुलाव। कभी कढ़ी, चावल, भरता, कोफ्ते, राजभोग, चमचम, रसगुल्ले। उनके चेले उन्हें आग्रह कर कर के परोसते। इस समय नरोत्तम गिरी दूसरी ही दुनिया में था। शरीर से असंपृक्त लेकिन मन में कहीं गुँथा। 

सामने से गुजरते आद्या, रॉबर्ट और उनके जापानी साथी को गीतानंद गिरि ने इशारे से पास बुलाया। 

"कहाँ से आए हो?"

"मैडम और सर ऑस्ट्रेलिया से आए हैं और मैं जापान से। "

तीनों उनके पैर छूकर वहीं पास में बैठ गए। गीतानंद ने लड़की से पूछा

"चिलम पियोगी ?लो एक सुट्टा मारो और हमारे पांव दबाओ। "

सुनहले बाल, जींस, पुलोवर, गोरे मुखड़े पर रोली का तिलक और कन्धे से लटकता कशीदा किया हुआ काला बैग। आद्या ने चिलम को होठों में दबाकर भरपूर खींचा। गहरा नशीला, धुँआ उसके गालों को आरक्त कर गया। वह हिंदी में बोली -

"बाबा आपका धन्यवाद। "और वह गीतानंद गिरि के पांव दबाने लगी। उसके फूल से कोमल गोरे हाथ जैसे वृक्ष के तने पर हों। साँवले, चमकते .......शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं। उसने देखा नरोत्तम गिरी को जो गौर वर्ण का बेहद आकर्षक व्यक्तित्व का था लेकिन उसने एक बार भी उसकी ओर नहीं देखा जबकि चरण स्पर्श और पैर दबाने की यह परंपरा वह जब से कुंभनगर आई है देख रही है। उसने नरोत्तम गिरी से कहा -"बाबा आपके पैर भी दबा दूँ?"

नरोत्तम ने उसकी ओर देखा। वह चौक पड़ी। ये तो वही साधु है जिसकी पेंटिंग उसने बनाई थी!

"नहीं माता, आप गीतानंद के पैर दबा रही हैं। थक जाएंगी। "

"क्यों थकेंगी?लो अब हमारी पीठ भी मल दो। "

गीतानंद गिरि उठ कर बैठ गया। नरोत्तम गिरी ने अपनी हँसी दबा ली और चिलम पीने लगा। आद्या घुटनों के बल बैठ कर गीतानंद गिरि की पीठ मलने लगी। इतनी देर से वह गीतानंद गिरि को स्पर्श कर रही है, दबा रही है पर ये जरा भी उत्तेजित नहीं। ये सचमुच विदेह है। इन्हें देह का भान नहीं। जापानी ने मौका देखकर हिम्मत की

" बाबा मैडम के साथ आपकी एक फोटो ले लूँ?"

गीतानंद गिरि ने अलमस्त हो आसमान की ओर निगाहें उठाईं- "खींच लो, खींच लो। यह शरीर तो मिट्टी में मिलना है। तुम्हारा कैमरा हमारी आत्मा की फोटो तो खींच नहीं सकता और आत्मा का उद्धार होता है इच्छाओं के त्याग से

गंगा के नहाए ते कौन नर तर गए मीनहु न तरी जाको जल में ही वास है

अखाड़े में विदेशियों को नागाओं के साथ देख मीडिया ने उन्हें घेर लिया। 

" बाबा हम समाचार चैनल से हैं। क्या आप हमारी शंकाओं का समाधान करेंगे ?"

गीतानंद गिरि वैसे ही दूसरे लोक में विचरण कर रहा था। ऐसा आनंद तो पहले कभी नहीं मिला। 

"पूछो पूछो हम बताने के लिए बैठे हैं। "

कैमरा मैन ने कैमरा संभाला और संवाददाता ने माइक -

"बाबा यह धूनी, यह डमरू, त्रिशूल, तलवार और उसके साथ ये मोर पँख, यह किसका प्रतीक है?" "यह हमारे श्रृंगार हैं। वैसे तो श्रृंगार 16 प्रकार के होते हैं पर हम 17 श्रृंगार करते हैं। और हमारा 17 वाँ

श्रृंगार है भस्म जो आकाश की तरह हमें अपने में समेटे रहती है। इसके अलावा चंदन, पैरों में लोहे या चाँदी का कड़ा, अंगूठी, पँचकेश, फूलों की माला, माथे पर रोली का लेप, कुंडल, हाथों में चिमटा, डमरु या कमंडल, गुंथी हुई जटाएं, तिलक, काजल, हाथों में कड़ा, बदन पर भस्म और रुद्राक्ष की माला। भगवान शंकर 11हज़ार रुद्राक्ष माला गले में धारण करते हैं। बस तीन बातें महत्वपूर्ण हैं। भस्म कवच है, रुद्राक्ष श्रृंगार है और मोर पंख कृष्ण यानी बुद्धि का दाता है। जटाओं में मोर पँख भी लगा सकते हैं। पर हम अपने पास रखते हैं मोर पँख। जो दिगंबर नहीं होते सत्रहवां श्रृंगार उनका लंगोट होता है। "

संवाददाता अगला प्रश्न पूछता उसके पहले ही गीतानंद गिरि ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा- "अब तुम पूछोगे कि हम नागा क्यों हुए, किस उद्देश्य से हुए?"

" हाँ बाबा, मन में यह सवाल तो आता है। हमें तो पढ़ाई, कंपटीशन भरे जॉब, शादी, बच्चे, बच्चों की पढ़ाई का भारी खर्च, शादी-ब्याह, महंगाई की मार, कमर टूट जाती है बाबा। "

"तो काहे को पड़े हो झमेले में। दुनिया क्या है 2 दिन का मेला। मेला खत्म सब रौनक खत्म। साधना और तप ही जीवन का सार है। "

"मगर बाबा आप भी इस साधना से खुद का और देश का क्या भला कर रहे हैं?"

इलाहाबाद आने के पहले हरिद्वार में गुरु जी ने कहा था कि क्रोध पर नियंत्रण रखना तो आए हुए क्रोध को भीतर घोंटकर गीतानंद गिरि ने कहा -

"बड़ा गूढ़ और गहरा विषय है। समझना कठिन है। बस इतना जान लो कि हम शस्त्र और शास्त्र से देश के लिए काम करते हैं। जरूरत पड़ने पर हम योद्धा बनकर शस्त्र धारण कर देश की रक्षा करते हैं और धर्म की हानि होने पर शास्त्रों से धर्म की रक्षा करते हैं। इतिहास पढ़ोगे तो जानोगे कि नागाओं ने क्या किया?"

" जब जब देश की सभ्यता संस्कृति नष्ट हुई तब तब हम विरासत के पहरेदार बन कर आए हैं। धर्म रक्षा का अंतिम युद्ध लड़ कर धर्म पर छाए संकट के बादल हटाए हैं। "इस बार नरोत्तम गिरी ने मौन तोड़ते हुए कहा। 

"आद्या तुम यहाँ !मैं तुम्हें संगम तट पर दो घंटे से तलाश रही हूँ। "

आद्या रॉबर्ट के साथ खड़ी थी। कैथरीन की आवाज सुनकर पलटी "ओ ममा मैं कोई बच्ची हूँ। "

नरोत्तम गिरी को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। सामने कैथरीन खड़ी थी। हाथ में मोबाइल और गले से लटका कैमरा। इतने वर्षों में वह और अधिक खूबसूरत और अधिक जवान हो गई थी। नरोत्तम गिरी उठ कर खड़ा हो गया

" कैथरीन आप !"

" ओ माय गॉड, आई कांट बिलीव। नरोत्तम गिरी, इतने बड़े कुंभ नगर में पहले ही दिन आपको इतनी आसानी से देख सकूँगी ! वैसे आप का अखाड़ा यानी जूना अखाड़ा मुझे याद था और मैं उसी को तलाशती हुई इधर तक पहुँची। "

फिर उसने आद्या की ओर देखते हुए कहा-" आद्या यही हैं नरोत्तम गिरी जो मुझे भोजवासा में मिले थे और जिनके बारे में मैं रोज ही तुमसे चर्चा करती हूँ। और इनकी पेंटिंग भी तुमने बनाई थी। "

"इन्हें देखकर मुझे भी यही लगा था कि मैंने इनका चित्र बनाया है। "

गीतानंद गिरि ने जो मीडिया से घिरा था कैथरीन की ओर देखा, फिर आद्या को, जो उसे ममा कह रही थी और जिससे वह थोड़ी देर पहले पैर दबवा चुका था। उसने मीडिया को विदा किया और नरोत्तम गिरी, आद्या, रॉबर्ट और कैथरीन के पास आ बैठा। 

" यह गीतानंद गिरि महंत है और गीतानंद ये कैथरीन और उनकी बेटी आद्या। "

"जानते हैं हम आपको। भले देखा पहली बार हो। "

यानी नरोत्तम गिरी भी उसकी चर्चा करता है, सोचा कैथरीन ने। "आद्या ऑस्ट्रेलियन नाम हिंदू। यह कैसे संभव हुआ ?"

कैथरीन धूनी के पास बैठ गई। रॉबर्ट और आद्या को भी वहीं बैठा लिया। जापानी उनसे इजाजत लेकर चला गया। कैथरीन ने अपना चिरपरिचित सिगरेट का टिन निकाला और सबको एक-एक सिगरेट दी। 

" संभव क्यों नहीं हो सकता? मैंने हिंदू आध्यात्म पढ़ा है। बहुत प्रभावित हूँ मैं उससे। आद्या मेरी दत्तक पुत्री है। दृढ़ इच्छाशक्ति वाली है यह। देवी दुर्गा की भांति। तो मैंने इसका नाम आद्या रखा। देवी दुर्गा को आद्या कहते हैं न वैसे जरूरी तो नहीं है लेकिन बता देती हूँ कि आद्या के माँ-बाप भारतीय हैं। "

नरोत्तम गिरी के चेहरे की खुशी देखते ही बन रही थी। उसकी आँखों में एक मोहक चमक ने डेरा डाल लिया था। चेहरा आरक्त था और अधिकतर खामोश रहने वाले होठ मुस्कुरा रहे थे। 

"आप भोजवासा से कब आए?" कैथरीन ने बहुत स्नेह से नरोत्तम गिरी को देखते हुए पूछा। 

"मैंने वहाँ बर्फीले पर्वतों और गुफाओं में ढाई वर्ष साधना की। फिर हरिद्वार लौटा तो गुरु जी ने मुझे कर्ण प्रयाग के जंगलों में स्थित प्रशिक्षण केंद्र में भेज दिया। हम पाँच प्रशिक्षकों ने 100 नए रंगरूटों को 15 महीने नागा प्रक्रिया का प्रारंभिक प्रशिक्षण दिया। पूर्णिमा के दिन उन्हें दीक्षा दी जाएगी यहाँ गंगा घाट पर। " "नरोत्तम गिरी, मैंने भोजवासा के बाद सिडनी लौटकर और भी हिन्दू आध्यात्मिक ग्रंथ पढ़े। चारों वेद पढ़ डाले। पूरा विष्णु पुराण। मेरी संस्कृत और भी अधिक सुधर गई है पर मैं नागा साधुओं को नहीं समझ पा रही हूँ। "

कैथरीन ने आद्या के चलने के आग्रह पर उठते उठते कहा-" कल सुबह मिलूँगी। हमारे रहने का इंतजाम यहाँ के कमिश्नर ने टैंट हाउस में किया है। "

तभी चेले कुल्हड़ों में चाय और दोने में गर्म भजिए और बेसन के लड्डू ले आए। 

"प्रसाद ग्रहण करके जाओ कैथरीन। "

इस बार नरोत्तम गिरी ने कैथरीन को देवी नहीं कहा और यह बात गीतानन्द गिरी और कैथरीन ने एक साथ नोटिस की। 

" यह प्रसाद है?"

" हाँ माता, हनुमान जी का प्रसाद है। यहीं कुंभ नगर में उनका मंदिर है। "

प्रसाद लेकर आए एक श्रद्धालु ने बताया। 

"चलिए गीतानन्द गिरी जी, आद्या को मंदिर दिखा दें। अद्भुत मंदिर है। "

साँझ की लाली पश्चिम दिशा को नशीला किए दे रही थी। नरोत्तम गिरी और गीतानंद गिरि के साथ विदेशी युवक युवतियों को देखकर भीड़ उनके पीछे हो ली। 

संगम तट से किले तक की दूरी तय करते वे मंदिर के द्वार पर पहुँचे। मंदिर में प्रवेश करते ही हनुमान जी की शयन अवस्था में मूर्ति देख कैथरीन चकित रह गई। कैथरीन, आद्या को देख दक्षिणा ऐंठने के चक्कर में एक पंडित उनके पीछे लग गया। 

"आप तो विदेशी लगती हैं। "

उधर नरोत्तम गिरी और गीतानंद गिरी को मंदिर के द्वार पर मीडिया ने घेर लिया। कैथरीन ने पंडित को ₹100 दक्षिणा में देते हुए पूछा- "क्या आप बता सकते हैं यह मूर्ति शयनावस्था में क्यों है?"

पंडित बगलें झाँकने लगा, कैथरीन की धारा प्रवाह संस्कृत निष्ठ हिंदी सुनकर। फिर भी उसे अपना सिक्का तो जमाना था। 

" हाँ, हाँ हम अभी कथा सुना देते हैं। बहुत पुरानी बात है। बाबर अकबर के जमाने की। जहाँ अभी यह मंदिर है वहाँ पहले बाघम्बरी बाबा रहते थे। उनके साथ एक जंगली बाघ कुत्ते की तरह रहता था। बाबा हमेशा बाघ की खाल ओढ़ते और बाघ की खाल को ही बिछाते थे। एक दिन जब वे समाधि में बैठे तो उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ कि यहाँ जमीन के अंदर हनुमान जी हैं। दूसरे दिन उस जगह की खुदाई शुरू हुई। लेकिन जैसे-जैसे मजदूर खोदते जाते थे हनुमान जी की मूर्ति नीचे धँसती जाती थी। उन्होंने मूर्ति को खड़ा करने की बहुत कोशिश की पर सब बेकार। विश्राम जो करना था उन्हें। बाबा ने खुदाई बंद करा के उनकी लेटी हुई अवस्था में ही प्राण प्रतिष्ठा करके पूजा-अर्चना शुरू कर दी। "

कथा समाप्त कर पंडित ने दोने में रख कर बेसन का लड्डू उन्हें प्रसाद स्वरूप दिया। 

"जागृत हनुमान जी हैं। सबकी इच्छा पूरी करते हैं। माँग लो जो माँगना है। "

कैथरीन, आद्या ने मूर्ति के चरण स्पर्श किए और बाहर निकल आईं। 

जैसे-तैसे मीडिया से पीछा छुड़ाकर नरोत्तम गिरी और गीतानंद गिरी कैथरीन को उसके टैंट हाउस तक छोड़ने आए। आद्या बच्चों जैसी जिद करने लगी। 

" अंदर चलिए न बाबा जी। 

बाहर से तम्बू जैसा दिखता लेकिन अंदर 3 और 4 सितारा होटल जैसी ताम-झाम। सामने टेबल पर ढेर सारी हिंदू आध्यात्मिक किताबें, पेम्फ्लेट्स, कैलेंडर, डायरी......

"यह सब ममा ने कुंभ नगर के स्टॉल से खरीदा है। पढ़ती रहती हैं दिन रात और आपको याद करती हैं नरोत्तम बाबा। "

नरोत्तम के हृदय में तरल सा कुछ उतरा जिसमें वह पगता चला गया। 

लेकिन यह सब क्षणांश के लिए। अगले ही क्षण उसने मन में उठे भावों को झटक दिया 'हे भोले भंडारी'

"और यह पगली कहती है यह भी मेरी तरह कुंवारी रहेगी। जबकि यह किसी के प्यार में है। "

कैथरीन ने प्यार से आद्या के गाल छुए। 

"प्यार मुश्किल से मिलता है आद्या। उसका सत्कार करो। " कहते हुए नरोत्तम गिरी ने गुरु जी का फोन अटेंड किया। 

" अखाड़े में लौटो नरोत्तम। मौनी अमावस्या में हमें 250 नौजवानों को दीक्षा देनी है। तैयारी का मार्गदर्शन करो। "

"गुरुजी पधारता हूँ। "

"अरे, आपके पास तो मोबाइल है। नंबर दीजिए अपना। "

कैथरीन खुश होकर जल्दी-जल्दी नंबर सेव करने लगी। 

"लैपटॉप भी है, आपको पता है नरोत्तम गिरी नागा होने से पहले दिल्ली में लेक्चरर थे। बहुत विद्वान हैं। कहीं आप अटकें, मेरा मतलब है आध्यात्मिक विषयों पर तो पूछ सकती हैं। "

गीतानंद गिरि ने बताया तो नरोत्तम गिरी ने कहा

"अब जब बता ही रहे हो तो यह भी बता दो खगोलीय ज्ञान भी रखता हूँ थोड़ा बहुत। "

"ये तो इसरो में वैज्ञानिक होने वाले थे पर भगवान को इनसे कुछ और ही कराना था। "

कैथरीन ने चमकती आँखों से नरोत्तम गिरी की ओर देखा। मानो अपनी आँखों की झील में डुबो लेना चाहती हो इस परम विद्वान अद्वितीय पुरुष को। पहले से ही कितना कुछ जानती है कैथरीन नरोत्तम के बारे में लेकिन किसी और के मुँह से बार-बार सुनना अच्छा लगता है। 

"अब विदा दें माता। "

गीतानंद गिरि ने हाथ जोड़े। कैथरीन और आद्या उन्हें टैंट के बाहर तक विदा करने आईं। 

संगम तट भक्ति, साधना और संगीत की त्रिवेणी में डूबा हुआ था। ठंड बढ़ती जा रही थी और पूरा कुंभनगर तरह-तरह के व्यवसायी भंडारघरों में पक रहे भोजन की खुशबू से सुवासित था। 

गुरुजी से भेंट कर सभी आवश्यक कार्यों से निवृत्त हो नरोत्तम गिरी और गीतानन्द गिरी धूनी के सामने आ बैठे। धूनी उनकी जीवन संगिनी थी जिसके बिना रात्रि आरंभ ही नहीं होती है। 

" मुझे लगता है तुम्हारे ह्रदय में कैथरीन के लिए प्रेम उत्पन्न हो गया है, जो नागाओं के लिए वर्जित है। " गीतानंद गिरि ने मौका देखकर कहा। नरोत्तम गिरी जानता था उसके पास इसका उत्तर नहीं है। फिर भी गीतानंद गिरि के प्रश्न का उत्तर तो देना ही था। 

"वर्जित बातें ही तो जिज्ञासा पैदा करती हैं और बिना जिज्ञासा के जीवन कैसा!"

फिर उसने खुद को टटोला। उसकी मरुभूमि में एक नन्हा सा बिरवा फूट आया था प्रेम का। यह कब और कैसे हुआ वह नहीं समझ पाया। तो क्या वह पूर्ण नागा नहीं है। 

कहाँ कमी रह गई उसकी साधना में ?उसकी तपश्चर्या में? पूछ रहा है वह करवट बदलते हुए अपनी शयनावस्था में ...... पूछ रहा है शिवजी से। उत्तर आ रहा है -'प्रेम पूरे ब्रह्मांड में समाया है। ब्रह्मांड भी उसकी विशालता के आगे छोटा है। तुम गलत नहीं हो नरोत्तम। तुम्हारी साधना भी प्रेम है, तपस्या भी प्रेम है, नागा होना भी प्रेम है, संपूर्ण जगत प्रेम की नींव पर टिका है। भ्रमित मत हो, तुम प्रेम की राह पर हो। पूर्ण नागा। '

वह मीठी नींद की गोद में आहिस्ता आहिस्ता समाता चला गया। 

तड़के सुबह ही नरोत्तम गिरी ध्यान, वंदना, श्रृंगार आदि से निपटकर संगम तट पर अकेला ही आ गया। त्रिवेणी तट पर भगदड़ मची थी। पुलिस किसी विदेशी लड़की को घेर कर ले जा रही थी। तभी एक देहाती जोर से चिल्लाता हुआ भागा-" अरे वह पूरी नंगी है। " नरोत्तम गिरी ने देखा कि भगदड़, उत्तेजना और लड़की के नग्न शरीर को देखने के लिए लोग टूटे पड़ रहे हैं। वह विदेशी थी। सुगठित, सुंदर, छरहरे बदन और खूबसूरत चेहरे की मालिक। उसके संगमरमरी बदन पर एक भी वस्त्र नहीं था। उसने रेत, मिट्टी से बालों को सानकर नागा साधुओं जैसी जटाएँ बना ली थीं। गले में शंख और कौड़ियों की ढेर सारी मालाएं। उसे नग्न देख भीड़ इकट्ठी हो गई थी। और वह आश्चर्यचकित थी कि उसने ऐसा क्या कर दिया जो इतने लोग जमा हो गए। जब नागा साधु नग्न रह सकते हैं तो वह क्यों नहीं! लेकिन भीड़ को अपनी ओर आकर्षित पा वह जल्दी-जल्दी संगम तट की रेत उठा उठा कर अपने पूरे बदन को ढकने की कोशिश करने लगी। तभी पुलिस आ गई और उसे घेर कर ले गई। नरोत्तम गिरी को लगा इस लड़की के ऐसे आचरण का दोषी वह है। आम जिंदगी से अलग रह कर जीने की चाह उसे कहाँ से कहाँ ले आई। वह भारी कदमों से अखाड़े की ओर लौटा। अखाड़े में कैथरीन और आद्या पहले से विराजमान थीं। 

" नग्न लड़की की खबर लाए हो न नरोत्तम गिरी? कल्चर का अंतर है। विदेशी और भारतीय कल्चर में बेचारी लड़की अपमानित हो गई। " नरोत्तम गिरी धूनी के सामने बैठ गया। 

" लेकिन इसमें उसका क्या दोष? जब नागा साधु नग्न रह सकते हैं.........

" क्या कह रहे हो नरोत्तम गिरी! नागा साधु ही रहते हैं न नग्न। आम इंसान तो नहीं। क्या तुमने साधु होने के लिए कठोर जीवन नहीं जिया ?विषय वासना का त्याग नहीं किया ?"

"लेकिन फिर भी मुझे लगता है जैसे मैं अधूरा हूँ, पूर्ण पुरुष नहीं। " कैथरीन ने चकित होकर नरोत्तम को देखा। कहीं नरोत्तम को अपने नागा होने का पश्चाताप तो नहीं ?

"तो आम आदमी क्या हासिल करता है विषय वासना में लिप्त रहकर ?जिंदगी में एक वक्त ऐसा आता है जब सब कुछ हाथ से निकल जाता है और जिंदगी रह जाती है रिक्त, खाली। "

नरोत्तम का मन हुआ कैथरीन के चरणों पर माथा टेक दे। वह भटकता जा रहा था। कैथरीन ने उसे भटकने से बचा लिया। उसे उसके जीने का अर्थ समझा दिया। अब वह निष्कलुष है। कैथरीन और अधिक उसके करीब आ गई है। देवदूत सी। 

कैथरीन और आद्या के लिए नरोत्तम ने भोजन मंगवाया। 

" और तुम ?ओह हाँ याद आया तुम तो संध्या को ही भोजन करोगे। "

भोजन में सुनहरी सिंकी गरम पूड़ियाँ , आलू मटर की सब्जी, बूंदी के लड्डू और वेजिटेबल कटलेट थे। 

" खाओ कैथरीन, पूड़ियाँ खास तुम्हारे लिए। "

" तुम्हें याद रहा नरोत्तम भोजबासा में मेरा चाव से पूड़ियाँ खाना। टूट ही पड़ी थी मैं तो पूड़ियों पर। "

"हाँ, और खिचड़ी को हाथ भी नहीं लगाया था। "

दोनों देर तक हँलसते रहे थे। 

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आज मौनी अमावस्या का महान पर्व है। संगम तट पर सनातन संस्कृति की सेवा और सांसारिक सुखों से विरक्ति की प्रक्रिया का आगाज होगा। नागाओं के अखाड़ों में हजारों लोगों को दीक्षा दी जाएगी। 

"नरोत्तम, प्रह्लाद, सोम, अखंडानंद, गीतानंद सब तैयार रहो। तुम्हारे द्वारा प्रशिक्षित नव युवकों की दीक्षा के लिए। "

आचार्य महामंडलेश्वर घनानंद गिरी ने उन्हें इंगित कर समझाया। आद्या, रॉबर्ट और कैथरीन भी इस अभूतपूर्व अनुष्ठान के चश्मदीद गवाह बनना चाहते हैं। उनके पास दूरबीन और कैमरे हैं। मुंडन कराने के लिए 50 से अधिक नाई और संस्कार की सारी सामग्री गाय का गोबर, गोमूत्र, दही, भस्म, चंदन, हल्दी हरिद्वार से गुरु जी ने मंगवाई है। कर्णप्रयाग प्रशिक्षण शिविर के सभी प्रशिक्षार्थी बहुत उत्साह में हैं। आज तो दीक्षा दी जाएगी। फिर आगे के वर्षों में नागा बनने की कठिन परीक्षा से वे अभी अनभिज्ञ भी हो सकते हैं। हालांकि प्रशिक्षण के दौरान उन्हें इस बारे में ज्ञात करा दिया गया था। 

जूना अखाड़े के नागाओं ने दीक्षा संस्कार और शाही स्नान के लिए ब्राह्म मुहूर्त में प्रस्थान किया। गंगा की लहरों पर हजारों की तादाद में मेलॉर्ड और सुर्खाब पक्षी छाए हुए थे। जब तक शाही स्नान नहीं हो जाता कोई भी आम श्रद्धालु स्नान नहीं कर सकता। तेरह अखाड़ों में से सात अखाड़े ही दीक्षा देंगे। 

जूना

महानिर्वाणी

निरंजनी

अटल

अग्नि

आनंद और आवाहन अखाड़े। 

जूना अखाड़े के पुरोहित आचार्य प्रेमपुरी ने नव युवकों का मुंडन करवाया। फिर दशविधि स्नान कराके उनकी संस्कार सामग्री दही, गोबर, गोमूत्र, हल्दी, चंदन, भस्म से शुद्धि कराके गंगा में 108 डुबकियाँ लगवाईं। अब वे सन्यासी से महापुरुष हो गए। अब इन नए धर्मरक्षकों को अपना गुरु चुनने का अधिकार भी मिल गया। इस वैदिक परंपरा से हुए अनुष्ठान में इन सब का उत्साह देखते ही बनता था। 

अखाड़ों की दीक्षा और शाही स्नान की समाप्ति के पश्चात श्रद्धालु जन समूह स्नान के लिए संगम तट पर उमड़ पड़ा। जूना अखाड़ा के सभी नागा कैथरीन से परिचित हो चुके थे। कैथरीन बेरोकटोक आती जाती, तर्क करती। एक दिन तो आचार्य घनानंद महामंडलेश्वर से उलझ पड़ी थी। लेकिन उसके तर्क सभी को चकित करते। कई बार वह नागाओं के लिए चुनौती बन जाती। नागा बनने की प्रक्रिया पर उसके अकाट्य प्रश्न सभी को निरुत्तर कर देते। 

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