अचानक हृदयाघात के कारण दिव्यानी के पति यश का स्वर्गवास हो जाने से परिवार पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। यश अपने जीवन काल में अपने बेटे हर्ष का रिश्ता तय कर चुके थे, सभी तैयारियाँ भी पूर्ण हो चुकी थीं। अतः दिव्यानी ने पूर्व निर्धारित तिथि पर ही हर्ष और मिताली को विवाह के पवित्र गठबंधन में बाँध दिया। उनकी बहू मिताली यूँ तो स्वभाव से अच्छी थी, किंतु ससुराल आने के कुछ ही समय में उसे ऐसा लगने लगा कि पूरा घर केवल उसकी मर्जी से ही चलना चाहिए। छोटी छोटी-सी बातों को लेकर वह दिव्यानी से कई बार नाराज़ हो जाती थी। धीरे-धीरे हर्ष भी समझ रहा था कि घर में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
हर्ष कई बार मिताली को समझाता, "मिताली मैं अब इस उम्र में माँ को तो बदल नहीं सकता। वह जैसी हैं तुम्हें उन्हें वैसे ही स्वीकार करना होगा। मैं नहीं समझता कि माँ को बदलने की ज़रूरत है, वह तो परफेक्ट ही हैं। वर्षों से उन्होंने ही पूरे परिवार को एकता के सूत्र में बाँधे रखा है। परिवार में सभी उनकी बहुत इज़्जत करते हैं। माँ को नहीं तुम्हें अपने अंदर बदलाव लाना होगा मिताली। तुम जैसे रहना चाहती हो वैसे रहो, कोई तुम्हारे जीवन में हस्तक्षेप नहीं करेगा किंतु तुम भी किसी की दिनचर्या या आदतों में अपनी मर्जी चलाने की कोशिश मत करो।"
हर्ष के मुँह से यह सब सुनने के बाद मिताली मन ही मन नाराज़ हो गई। हर्ष के लाख समझाने के बाद भी वह स्वयं को बदल नहीं पाई। उसके मन में अब दिव्यानी के लिए ईर्ष्या ने भी जगह बना ली। उसे लगने लगा हर्ष उससे ज़्यादा अपनी माँ से प्यार करता है। अब उसकी एक ही इच्छा थी कि किसी भी तरह से दिव्यानी को अलग रहने भेज दिया जाए। वह जानती थी कि हर्ष यह कभी नहीं मानेगा लेकिन वह अपनी इस इच्छा को रोक नहीं पा रही थी।
रविवार को सब कार्यों से निवृत्त होकर वह अपने कमरे में जाकर जैसे ही बिस्तर पर लेटी तुरंत ही उसकी नींद लग गई। कुछ ही देर में उनके घर के दरवाज़े पर दस्तक हुई, मिताली ने उठकर दरवाज़ा खोला सामने एक अनजान व्यक्ति खड़ा हुआ था।
"कौन हो तुम क्या चाहिए?" मिताली ने पूछा।
"दिव्यानी मैडम यहीं पर रहती थीं ना?"
"जी हाँ बिल्कुल कहिए क्या बात है?"
आगंतुक ने कहा, "मैडम मैं वृद्धाश्रम से आया हूँ, दिव्यानी मैडम की तबीयत बिगड़ गई है, वह अपने बेटे को याद कर रही हैं।"
दिव्यानी ने तुरंत ही हर्ष को उठाया और कहा, "हर्ष माँ की तबीयत बिगड़ गई है।"
हर्ष तुरंत ही उठ बैठा और बोला, "मिताली जल्दी करो माँ के पास चलते हैं।"
कुछ ही देर में वह लोग वृद्धाश्रम पहुँच गए, वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि दिव्यानी आँख बंद करके लेटी थी लेकिन आँखों के किनारों से अश्कों की लंबी कतार नीचे उनका बिस्तर भिगा रही थी। उनके पास कुछ वृद्ध बैठे थे और एक व्यक्ति उनके सर पर ठंडे पानी की पट्टी रख रहा था, शायद बहुत तेज बुखार था उन्हें।
वे सब आपस में बात कर रहे थे, किसी ने कहा, "युवा पीढ़ी को शर्म आनी चाहिए जिसने जन्म दिया उसी को बेसहारा छोड़ देते हैं। आजकल के लड़के ना!"
तभी दूसरे वृद्ध ने उनकी बात काटते हुए कहा, "सिर्फ़ लड़कों को ही क्यों दोष देते हो, जिनकी सब इतनी तारीफ करते हैं इसमें उनका योगदान ज़्यादा होता है। पति के माता-पिता की उपस्थिति किसी-किसी स्त्री को पसंद नहीं आती, जिसका यह अंज़ाम होता है। लेकिन हाँ सभी बेटियाँ ऐसी नहीं होतीं। दोष केवल लड़कों को ही मत दो, इस गलती के अपराधी तो वह दोनों ही होते हैं।"
तब तक हर्ष और मिताली अपनी माँ के पास पहुँच गए। हर्ष ने अपनी माँ के सर पर हाथ रख कर पुकारा, "माँ"
बेटे की आवाज़ कानों में पड़ते ही दिव्यानी ने आँखें खोल दीं, हर्ष की आवाज़ मानो उनके कानों को सुकून दे गई, यह वह आवाज़ थी जिसका उन्हें इंतज़ार था। उसे देखते ही वह बोलीं, "मुझे घर ले चलो बेटा, मैं अपने अंतिम दिनों में तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ, पुरानी यादों को अपने अंदर सहेजना चाहती हूँ। यदि यहाँ से ऊपर जाऊँगी तो तुम्हारी और मिताली की बहुत बदनामी होगी और मैं ऐसा बिल्कुल नहीं चाहती हर्ष।"
हर्ष ने अपनी माँ को सहारा देकर उठाया और अपने साथ घर ले आया। अपने कमरे में आकर दिव्यानी को मानो स्वर्ग का एहसास हो रहा था। हर्ष उनके पास बैठा था, शायद यह उनकी अंतिम इच्छा थी जो समय रहते पूरी हो गई। दिव्यानी ने कुछ ही घंटों में अपने परिवार से विदा ले ली।
सभी को यह दुःखद समाचार दे दिया गया। मिताली के माता-पिता भी अंतिम संस्कार में आए। लोगों के मुँह से उन्हें सारी बात का पता चला। यह जानते ही उनका क्रोध अनियंत्रित हो गया।
मिताली के कमरे में जाकर उसके पिता ने सिर्फ़ इतना ही कहा, "मिताली तुमने तो वह काम कर डाला जिसे सोचने में भी हमें शर्म आती है, ऐसे संस्कार तो हमने तुम्हें कभी नहीं दिए थे। हमारे घर भी किसी की बेटी आई है जो बिल्कुल अपने माता पिता की तरह हमारा ख़्याल रखती है। तुमने जो अपराध किया है उसके लिए हम तुम्हें कभी माफ़ नहीं करेंगे, समझो तुम्हारे लिए हम मर चुके हैं।"
अपने पिता के मुँह से इस तरह के शब्द सुनकर मिताली डर कर उठ बैठी उसकी आंखें खुल गईं, वह चारों तरफ़ हैरान होकर देखने लगी।
तभी उसके कानों में आवाज़ आई, "मिताली बेटा चलो साथ बैठकर चाय पीते हैं, चाय तैयार है। क्या हो गया? तबीयत तो ठीक है ना? आज अभी तक नींद नहीं खुली, इतनी घबराई हुई क्यों लग रही हो?"
आज दिव्यानी की इस आवाज़ ने मिताली के कानों में मानो अमृत घोल दिया। उसकी हालत देखकर दिव्यानी समझ गई कि शायद इसने कोई भयानक सपना देख लिया है और पूछ लिया, "मिताली क्या कोई सपना देखा है बेटा?"
मिताली ने ठंडी राहत की साँस ली, दिव्यानी को अपने निकट देख उसे ऐसा लगा मानो उसे अपने निकलते हुए प्राण वापस मिल गए। उसने उठकर दिव्यानी को अपने गले से लगा लिया। आज दिव्यानी के अंदर उसे अपनी माँ नज़र आ रही थी। उसी समय हर्ष वहाँ आया और यह दृश्य देखकर उसे ऐसा लगा मानो उसकी मुराद पूरी हो रही है।
जो बातें मिताली को हर्ष चाह कर भी नहीं समझा पा रहा था, वही बातें एक सपने ने उसे समझा दी। उसे समझ आ गया कि वह कितनी बड़ी गलती कर रही थी कितना बड़ा पाप कर रही थी। यह सपना भले ही अत्यंत भयानक था लेकिन उसका परिणाम बेहद सुखद था, शिक्षाप्रद था। स्वयं के अंदर आए हुए इस मानसिक और भावनात्मक परिवर्तन से आज मिताली को दिव्यानी की हर बात अच्छी लग रही थी। मिताली अब उनके अनुभवों से बहुत कुछ सीखने लगी।
मिताली में आया यह परिवर्तन क्यों और कैसे था, हर्ष और दिव्यानी यह तो नहीं समझ पाए लेकिन इस बदलाव ने एक परिवार को टूटने से बचा लिया। मिताली का हृदय परिवर्तन हो चुका था। अब हर्ष के जीवन में कोई भी तनाव नहीं था।
मिताली सोच रही थी कि उसने जैसे ही दिव्यानी को सास की जगह माँ माना वैसे ही सारे शिकवे शिकायत और सारी परेशानियाँ ही ख़त्म हो गईं। बात केवल इतनी ही तो होती है कि हम केवल मैं को छोड़कर हम पर विश्वास कर लें। पति के साथ-साथ पूरे परिवार को दिल से स्वीकार कर लें, तब हमारा परिवार सुखी परिवार बन जाता है और जीवन जीना कितना आसान हो जाता है। बिना तनाव का सुकून वाला जीवन हमारे स्वयं के हाथ में ही तो है। हम चाहें तो हम स्वयं शांति और सुख के प्रतीक बनकर परिवार को पूरा सुखमय बना सकते हैं।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः