स्त्री.... - (भाग-40) - अंतिम भाग सीमा बी. द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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स्त्री.... - (भाग-40) - अंतिम भाग

स्त्री......(भाग-40)

हम सब बहुत खुश थे.....और सबसे ज्यादा मैं। माँ, पापा, तारा और घर के सब दूसरे नौकर सब के लिए आशु(आशुतोष) जैसे एक बेशकीमती खिलौना था। माँ और तारा दोनो मिल कर उसको संभाल लेती थी जब भी मैं काम में होती। ममता भी तो थी तारा के साथ तो सब कुछ संभला रहता था....माँ की हेल्थ भी और आशु भी....! पापा बहुत खुश थे कि मेरा काम भी बढ़ रहा है...सोमेश जी और आशु के साथ मैं माँ पिताजी और राजन से मिलने हरियाणा हो कर आयी थी। वहाँ सब ठीक और खुश थे, देख कर मुझे भी तसल्ली हो गयी.....।3-4 दिन रूक कर हम वापिस आ गए। पापा चाहते थे कि मैं मुंबई में ही और स्टोर खोलूँ और अपने बिजनेस को आगे बढाना चाहिए। मैं भी यही चाहती थी, मुझे बहुत जल्दी नहीं थी। मैं और सोमेश जी पहले अपना परिवार बढाने का सोच रही थी। आशुतोष के 3 साल के होने तक उसके साथ खेलने के लिए उसकी बहन हमारी दुनिया का हिस्सा बन गयी। हमारा परिवार पूरा हो गया। माँ पापा और सोमेश बहुत खुश हो रहे थे क्योंकि उनकी अपनी न कोई बहन थी न ही बुआ। पापा ने उसका नाम खुशी रखा जो हम सब को भी बहुत पसंद आया क्योंकि वो अपने नाम के जैसे ही खुश रहती थी।बहुत कम रोती थी। राजन और माँ, पिताजी के साथ इस बीच मिलने का मौका मिला था राजन की शादी पर। मीनाक्षी पंजाबी परिवार की लड़की थी। वहाँ छाया से भी मिलना हुआ। लव मैरिज और दूसरी बिरादरी की लड़की को माँ ने बहुत मुश्किल से अपनाया। मीनाक्षी सरकारी स्कूल में टीचर थी। बहुुत जल्दी परिवार में घुलमिल गयी थी। फोन पर बातें होती रहती थी। हमारी खुशी का जन्म उसके आने के बाद हुआ तो मामी बनने पर बहुत खुश हो रही थी और अगले ही दिन सबके साथ पहुँच गयी थी। अब सब कुछ अच्छा था तो माँ पिताजी भी पहली बार हवाई जहाज में बैठे थे, तो बहुत खुश हुए। मेरा मन इतनी खुशियाँ देख कर कभी कभी घबरा जाता था.....मैं अपना काम तो हमेशा की तरह करती रही....पापा ने शोरूम पर जाना छोड़ दिया था, मैनेजर और स्टॉफ सब देख रहे थे और मैं भी वहाँ होती ही थी। शाम को कई बार सोमेश जी चले जाते थे कुछ देर शोरूम की देखरेख के लिए। वक्त तो अपनी रफ्तार से बीतता चला जा रहा था। बच्चे बड़े हो रहे थे, माँ पापा बूढे और कमजोर। बच्चों को मैंने तारा को छोटी नानी बोलना सिखाया था.....। बच्चों पर हम दोनो का ही बराबर ध्यान था क्योंकि मेरे लिए घर पहले था, उसके बाद मेरे सपने.....। मुकेश और आरती में कब प्यार पनपा मुझे ये कभी पता नहीं चला। जब उन्होंने बताया कि वो शादी कर रहे हैं तो मैं हैरान तो हुई पर साथ खुश भी...। दोनो के लिए परिवार के नाम पर कोई था नहीं। जो थे उन्हें इन दोनों बच्चों की जिंदगी से लेना देना नहीं था। तारा ने बिल्कुल माँ की तरह सब काम किए। सोमेश जी और मैंने उन्हें 1BHK फ्लैट किराए पर लेकर दे दिया। किराया उन्हें नहीं देना था तो वो इसके लिए बहुत खुश थे। मैंने कार चलानी तो सीख ली थी, पर मेरी वाली कार का यूज नहीं हो रहा था तो हमने कार को मुकेश को दे दी......। वो लोग पास ही रहते थे, पर काम के लिए अब हम मुकेश को भेजने लगे थे तो कार उसके लिए काम आएगी। वक्त बीतते पता ही नहीं चल रहा था.....कारीगरो की संख्या बढ रही थी। कुछ पुराने चले भी गए थे। हमारा हँसता खेलता परिवार एकदम से सहम गया, जब बच्चों की दादी नहीं रही। बच्चों का रोना बहुत बैचेन कर रही थी हमें। स्कूल से आकर दादी के पास ही उनका वक्त बीतता था। पापा ने बच्चों को संभाल लिया या खुद को समझ नहीं पाए हम....पर धीरे धीरे जिंदगी पटरी पर आ ही रही थी कि एक रात पापा भी हमें छोड़ कर चले गए....! हम सब के लिए वो टाइम बहुत बुरा था और बुरा वक्त बहुत मुश्किल से कटता है.......हमारी मीनाक्षी ने जुडवाँ बच्चों को जन्म दिया दोनो बेटे ही हुए। पापा के जाने के बाद ये खुशी का मौका आया था हमारे घर में। हम सब वहाँ गए और उनकी खुशी में शामिल हो कर आ गए.......पापा की बहुत इच्छा थी कि मैं स्टोर्स बनाऊँ वीवर्स के नाम से। तब तक ये नाम मैंने रजिस्टर करवा ही लिया था। अगले 10 साल में मैंनै 5 स्टोर खोल लिए। मैंने ड्रैसेस बनवा कर भी स्टोर में रखने लगी थी। बच्चों को 5Th के बाद सोमेश जी के कहने पर हॉस्टल में डाल दिया। वो चाहते थे कि उनके बच्चे ऐशो आराम के आदी न बन जाएँ। स्टूडैंटस की नार्मल लाइफ जिएँ.....मेरा मन तो नहीं था पर सोमेश जी का कहना भी ठीक कहा था। हम लोग बीच बीच में उनसे मिल आते थे। मेरे काम में नए लोग जुड़ रहे थे, फैशन तो बदलते ही रहते हैं,पर हाथ का काम कभी आउटडैटेड नहीं हुआ। इसलिए हम अपने काम से खुश थे और आगे काम का एक्सपैंड करने में लगे थे। धीरे धीरे "वीवर्स" ने दुपट्टे, सूट, साडी, स्कर्ट, बैग्स, टॉप्स सब बनाने शुरू कर दिए। हर जगह मैं नहीं जा सकती थी तो अलग अलग शहरों में भी मैंने हमारे स्टोर की फ्रैंचाइजी देना शुरू कर दिया। हमारे रिश्ते सुनील भैया और सुमन दीदी के साथ पहले जैसे ही थे। एक दूसरे से बात करना और घर में आना जाना रहता ही था। सुमन दीदी और सुनील भैया के बच्चों के नाम मैंने FD करवा रखी थीं जैसे जैसे 18 साल के होते गए चारों बच्चों के एकाउंट में वो पैसा जमा करा दिया, ये वही पैसे थे जो माँ(पहली सास) ने मकान का हिस्सा दिया था और बेचने के बाद जो मुझे पैसा मिला। मैंने शुरू से यही सोच कर FD करवायी थी। मुझे माँ ने इतना प्यार और सम्मान दिया कि पैसे मुझे कभी चाहिए ही नहीं थे। कामिनी और सुमन दीदी ने कुछ कहना चाहा, पर मैंने उन्हें चुप करा दिया....सोमेश जी भी खुश थे कि मैंने सही किया। विपिन जी और चाची जी भी शिफ्ट हो गए थे दूसरे फ्लैट में विपिन जी की शादी के बाद। इस बात को कुछ ही टाइम बीता था कि मोबाइल पर एक फोन आया। मैंने उठाया तो उधर से एक आदमी की आवाज आयी....हैलो जानकी, मैं बोल रहा हूँ? मैं कौन? मैंने पहचाना नहीं? मैं पहचान गयी थी, इस आवाज की ठंडक और उसकी सिहरन नहीं भूली थी, पर अनजान बनना मुझे ठीक लगा। मैं सुधीर बोल रहा हूँ!! जी कहिए, आपने कैसे फोन किया? मैं तुमसे माफी माँगना चाहता हूँ, मैंने बहुत गलत किया तुम्हारे साथ.....जो हुआ, मैं भूल गयी आप भी भूल जाएँ यही बेहतर होगा। एक बार कह दो कि तुमने मुझे माफ कर दिया। मैं अपनी कमी को तुम्हारे सामने या किसी के सामने एक्सेप्ट नही् करना चाहा रहा था, जो गलत था..।
वो कुछ और कहते, पर मैंने ही टोक दिया। आपने मेरे साथ जो गलत किया सो किया, चलिए माफ किया आपको। पर माँ के साथ जो किया वो बहुत गलत किया, खैर जाने दीजिए अब इन सब बातों का कोई मतलब नहीं रह जाता। मैं बहुत खुश हूँ अपने परिवार में अपने काम में....आप अपनी दुनिया में मस्त रहिए और दोबारा फोन मत कीजिएगा, कहकर फोन रख दिया। उसके बाद कभी फोन नहीं आया.......। बच्चे कब बड़े हो गए पता नहीं चला। पहले हॉस्टल में रहे फिर दोनो ने ही अपने पापा की तरह डॉ. बनने का सोच लिया तो फिर अलग अलग शहरो में रहना पड़ा दोनो को और फिर M.D करने के लिए वो विदेश चले गए।
बच्चे अपने पापा और उनके विचारों से इतना प्रभावित थे कि वो अपनी पढाई पूरी करके वापिस अपने देश आ गए। खुशी गायनकोलोजिस्ट बन गयी और आशु हार्ट सर्जन......जिंदगी बहुत खूबसूरत हो चली थी एक बार फिर घर खुशियों से भर गया। दुख की बात ये थे की जिन बच्चों को गोद में खिलाया था तारा ने,जो उनकी छोटी नानी थी, वो भी हमें छोड़ कर दूसरी दुनिया में जा चुकी थी....दोनो बच्चे बड़े बड़े हॉस्पिटल में काम करने लगे। सोमेश जी रिटायर हो कर मेरे काम में मदद करने लगे हैं अब तो। मेरे जीवन का सफर बहुत कठिनाइयों से भरा बेशक रहा। जब से सोमेश जी मेरी दुनिया का हिस्सा बने तब से अपनी जिंदगी से प्यार हो गया और आज भी है......माँ और पापा भी इस संसार को एक अरसा हुआ छोड़ कर चले गए। सुमन दीदी और सुनील भैया तो नाती पोते पोती वाले हो गए हैं और उधर छाया और राजन भी......हमारे बच्चे हमारी तरह देर सै सैटल हुए हैं, पर बहु और दामाद पा कर ऐसा लग रहा है कि हमने जरूर पुण्य किया होगा या ये हमारे माँ पापा का आशीर्वाद है हम पर....जो भी है बहुत खूबसूरत है। आज हमारा "वीवर्स"जाना माना नाम हो गया है। मैं और सोमेश जी के पास भरपूर समय है, एक दूसरे के साथ बिताने के लिए....! कभी कभी दिल में ये विचार जरूर आता है कि अगर मुझे सुधीर बाबू ने ना छोड़ा होता, तो मैं यहाँ तक शायद ही पहुँच पाती। माँ तो वो सुधीर बाबू की थी पर उन्होंने साथ अपनी बहु का दिया और हौंसला भी अपने दम पर जीने का,उनका ये एहसान और प्यार हमेशा से याद रहा है मुझे। माँ तो एक नयी कहावत रच कर चली गयी, "एक औरत की सफलता के पीछे भी एक औरत का ही हाथ होता है। मुझे मेरे जीवन में दो औरते मिली और दोनो ने ही मेरा साथ दिया अपने आखिरी समय तक"। वो लोग साथ न देते तो मैं कुछ नहीं कर पाती। तारा का मिलना भी किसी चमत्कार से कम नहीं रहा। मुझे और बच्चों को तो संभाला ही उसने तो पूरा घर भी संभाल लिया था। मेरी जिंदगी में जितनी औरतें आयी, उनकी वजह से ही मैं एक सशक्त स्त्री बन पायी हूँ, मैंने सबके गुणों को धारण करने की कोशिश की.......और सफल हो पायी। बस भगवान से यही प्रार्थना है कि मैं भी एक अच्छी सास, दादी, नानी और पत्नी के किरदार उतनी ही अच्छे से निभा सकूँ। जिंदगी को जहाँ से मैं इस वक्त 65 साल की उम्र में देख रही हूँ, यहाँ तक पहुँचने के लिए हम औरतें न जाने कितनी बार मरती हैं, हारती हैं और फिर उठ कर खड़ी हो जाती हैं जिंदगी जीने को। दुख की बात ये है कि दुनिया सुधीर और विपिन जैसे लोगो से भरी पड़ी है, दुर्भाग्य से सोमेश जी और उनके पिता जैसे लोग गिनती के ही हैं........दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी में हैं हम लोग, फिर भी स्त्रियाँ कमजोर हैं, जो मेरे साथ हुआ। वो कुछ नया नहीं था, पर मुझे जो लोग मिले और जहाँ तक मैं आ पायी, वो सब के साथ कहाँ हो पाता है ? मैंने अपनी जिंदगी के हर एक पन्ने को ज्यों का त्यों खोल कर रख दिया......सिर्फ इस आस में कि जरा हम ध्यान दें कि हमारे आस पास तो कोई नहीं जूझ रही अपने अस्तित्व की पहचान के लिए.............!!
समाप्त

पाठको के लिए--- आशा है कि आप को मेरे द्वारा लिखी गयी ये रचना आपको पसंद आएगी....प्लीज अपनी राय जरूर दीजिएगा... क्योंकि किसी भी लेखक का लेखन तभी सफल माना जाता है जब उसे पाठको द्वारा पढा जाए...... 🙏🙏