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स्त्री.... - (भाग--32)

स्त्री.......(भाग-32)

सोमेश जी को खाना बहुत पसंद आया, ऐसा उन्होंने ही बताया। खाने के बाद सोमेश जी ने पहले गुलाब जामुन खाया और बाद में आइसक्रीम भी.....कुछ देर बातें करने के बाद उन्होंने विदा ली। इतना शांत इंसान मैंने पिताजी के बाद किसी को नहीं देखा था....मैंने उन्हें भी बताया कि मेरा पूरा परिवार मिलने आ रहा है......वो बोले फिर तो अगली मुलाकात में उनसे भी मिल लूँगा....। उस दिन भी उन्होंने न मेरे डिवोर्स की बात की न अपनी पत्नी के बारे में बताया। मैंने भी जिक्र नहीं छेड़ा क्योंकि डर रही थी कि कहीं उन्हें तकलीफ न हो। उनके जाने के बाद तारा बोली, दीदी साहब आपको बहुत पसंद करते हैं, आप इन्हीं से शादी करना। मैं उसकी बात सुन कर मुस्कुरा दी और पूछा, तुम्हें कैसे पता कि साहब मुझे पसंद करते हैं ? दीदी मुझे तो उनकी आँखो से यही लगा, अगर आप पसंद न होती तो दोबारा मिलने नहीं आते....बात तो उसकी सही थी, सोमेश जी से बात करके मुझे हमेशा जैसे आकर्षण जैसा लगता था, वैसा एहसास बिल्कुल नहीं हुआ पर उनसे बात करके मैं कंफर्ट जोन में खुद को महसूस कर रही थी....वो भी बिना किसी भूमिका के सीधी बातें ही तो कर रहे थे.....कहीं भी नही लगा कि वो मुझे परख रहे हैं कि मैं उनके लायक हूँ भी या नहीं । इतना ही नहीं मुझे उनसे मिल कर इस बात की चिंता ही नहीं हुई कि मैं किस तरह से पेश आऊँ ! पहली बार जो झिझक थी, उनकी बातों से कुछ ही देर में दूर हो गयी थी.....दूसरी मुलाकात से ऐसा लग रहा था कि हम न जाने कितने ही सालों से एक दूसरे को जानते हैं.....बहुत सुकून महसूस कर रही थी और बहुत दिनों बाद अच्छी नींद आयी....अगले दिन की डिलीवरी भी समय से कर अपने काम निपटा लिए थे। आने वाले हफ्ते मैं कोई भी जल्दी देने वाला कोई आर्डर नहीं था....बच्चों को पसंद आने वाला सामान भी सब ले आयी थी....बस अब तो इंतजार कल का था। राजन से बात हो गयी थी, एक दिन पहले ही......14-15 साल हो गए थे मुझे मुबंई आए हुए और मैं सिर्फ 2 बार ही गाँव जा पायी थी.....माँ पिताजी चिट्ठियों से हालचाल लेते रहे पर छाया की शादी के बाद मैं मायके न जा पायी। माँ पिताजी चिट्ठियों में आने को कहते थे, पर पिछली बार बच्चे के न होने पर पड़ोसियों और भाभियों ने जो भी बातें की थी, वो दोबारा नहीं सुनना चाहती थी। माँ खुद तो लिख नहीं सकती थी, कभी छाया से लिखवाती की बच्चे नही हो रहे तो इलाज करवा ले, उनको मुझमें कमी होने का पक्का यकीन था, तब तक तो मेरे पति से जो नाममात्र रिश्ता रह गया था, उसको सामने आने नहीं देना चाहती थी और धीरे धीरे हमारी बातें कम होती गयी। बस पिताजी से भी बात काफी समय बाद करनी शुरू की थी, जब उनके ऑफिस में फोन लगा। पिताजी अपने दामाद का और सबका हाल चाल पूछ कर फोन रख देते थे, शायद वो शर्म की वजह से अपनी बेटी से नाती नातिन के बारे में पूछ नहीं पाते होंगे......मुझे ऐसा ही लगता था......अब आने वाले हैं तो मैं मन ही मन सब सवालों के लिए खुद को तैयार कर रही हूँ। राजन ने बोल दिया था कि किसी को भेजना नहीं, हम टैक्सी से आ जाएँगे। सुबह ट्रेन से उतरते ही राजन का फोन आ गया कि वो टैक्सी ले रहे हैं।
मैं और तारा नाश्ते की तैयारी में जुट गए। मटर कचौड़ी, पोहा और वड़ा पाव सब था हमारे पास और मीठे में हलवा जो उनके आने पर ही बनेगा गर्मागरम....मैं तो सुबह बहुत जल्दी उठ गयी थी। सुबह कारीगरों को भी कचौरी और पोहा के साथ चाय हम दे ही चुके थे। रात को सोच कर सोए थे तो सब काम फटाफट हो गया....सब काम करने के बाद तारा घर की सफाई में लग गयी और मैं नीचे चली गयी.....काम में मन कहाँ लग रहा था ! 11:30 बज गए जब टैक्सी वर्कशॉप पर रूकी। सिर्फ मैं ही नही सब बाहर आ गए, परिवार का स्वागत करने के लिए।
किसी ने भी पिताजी और राजन को सामान नहीं उठाने दिया। सब ने सामान टैक्सी से उतारा और ऊपर रख आए। माँ इतनी हैरानी से सब देख रही थी कि मुझसे मिलना ही भूल गयी। छाया बहुत सुंदर लगने लगी थी और उसके बच्चे तो मुझे हैरानी से देख रहे थे और अपनी माँ और नानी के पीछे छिप गए....। हम सब अंदर आए और मैंने सबसे उनका परिचय कराया....सब बहुत खुश दिख रहे थे वर्कशॉप को देख कर। माँ थोड़ी नर्वस थी या कंफ्यूज पर चुपचाप सब देख रही थीं.......ऊपर आ सबको पहले चाय पिलायी, फिर सब बारी बारी से नहाने लगे और सब के नहाने तक हलवा तैयार हो गया। तारा मुझसे ज्यादा खुश दिख रही थी..बहुत जल्दी बच्चे उसको तारा मौसी बुलाने लगे....तारा की खुशी देखते बन रही थी..सबने नाश्ता किया और फिर बचपन की बातों से सिलसिला शुरू हो गया। छाया बच्चों को सुलाने चली गयी और पिताजी सुनील भैया और सुमन दीदी के परिवार के बारे में बात कर रहे थे। दीदी जीजा जी कब तक आते हैं? राजन ने पूछा तो माँ भी बोली हाँ मैं भी वही पूछने वाली थी..... वो तो अहमदाबाद में है कई सालों से!! फिर तुम यहाँ अकेली ही रहती हो? दामाद अगर वहीं काम कर रहे हैं तो फिर तुम वहीं क्यों नहीं गयी? माँ सुधीर जी अब आपके दामाद नहीं हैं, वो मुझसे तलाक ले कर दूसरी शादी करके वहीं रहते हैं! मेरी बात सुन कर सब सकते में आ गए।माँ ने रोना शुरू कर दिया है और बोलने लगी कि इतना कुछ हो गया और तूने जरूरी नहीं समझा हमें बताना? कितना कहा था कि डॉ. से इलाज करवा ले ,बच्चे ही तो पति पत्नी को बाँधे रखते है और न जाने क्या क्या!! मुझे माँ की कोई बात बुरी नहीं लग रही थी क्योंकि मैं इसके लिए कहीं न कहीं खुद को तैयार कर चुकी थी....पिताजी और राजन के सामने मैं कुछ कहना नहीं चाहती थी और माँ को मेरी सच्चाई पर यकीन होने से रहा। क्योंकि माँ की भी वही पुरानी सोच थी कि पुरूष में कमी नहीं हो सकती। गाँव में कितनी औरतें थी जिनके बच्चे नहीं थे तो गाँव की औरते झट से उन्हें बाँझ कहने से गुरेज नहीं करती थीं....बहुत देर तक पिताजी माँ की बातें सुनती रहे फिर बोले, बेटा अकेले तूने सब सह लिया और हमें बताया ही नहीं, कम से कम मुझे तो बताती, मैं तुझे लेने ही आ जाता। पिताजी मुझे गाँव आना नहीं था, इसलिए मैंने नहीं बताया। मैं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थी आप पर बोझ नहीं बन सकती थी और न गाँव वालो के ताने सुनना चाहती थी...। राजन जो इतनी देर से चुप बैठा था बोला, दीदी आप ने जो सोचा और किया बिल्कुल ठीक किया, बस दुख इस बात का है कि आपके दुख मैं हम शामिल न हो पाए, शायद कुछ तकलीफ कम कर पाते। हाँ शायद ये मेरी गलती हो सकती है बस उसके पीछे का कारण मैं बता चुकी हूँ भाई!....खैर जो हुआ उसको जाने दो, पर बेटा अभी सारी जिंदगी पड़ी है न तो अकेला आदमी रह सकता है न ही औरत, कुछ तो सोचना पड़ेगा आगे के लिए बेटा....पिताजी ने कहा तो राजन भी बोला हाँ दीदी अगर सुधीर बाबू दूसरी शादी कर सकते हैं तो आप क्यों नही ?माँ अभी भी सदमें थी, बस सुन रही थीं। तब तक छाया भी आ गयी बच्चों को सुला कर....मैं सोमेश जी की बात उस समय नहीं कहना चाह रही थी....बस इतना ही कहा," हाँ पिताजी, इस बारे में सोच रही हूँ"। तारा ने दोपहर का खाना बना लिया था, वो नीचे चली गयी तो मैंने माँ को तारा के बारे में बताया कि वो कितना ध्यान रखती है मेरा....फिर मैं अपने काम के बारे में बताने लगी, जिसे सुन कर सब खुश हो रहे थे.....धीरे धीरे माँ भी नार्मल हो रही थी। राजन अब समझदार हो गया था...पढ लिख कर और शहर में रहने से ये समझ गया था कि लड़कियों का काम करना, अपने पैरों पर खड़े होना भी उतना जरूरी है जितना लड़को का....पिताजी तो वैसे भी हमेशा मेरे सपोर्ट में रहे थे......पर वो भी दुखी तो हो गए थे मेरी तलाक की बात सुन कर। वो तो दुनिया के हर माँ बाप हो जाते होंगे....छाया ने कुछ नहीं कहा पर वो अपनी दीदी के लिए खुश है, वो मैं देख रही थी.....मैं उसके लिए खुश थी क्योंकि वो अपने ससुराल में बहुत खुश थी और बच्चों के भविष्य के लिए सचेत भी। वो अपने बेटे और बेटी को एक समान समझती है। माँ ने छाया को बहुत दबा कर रखा था और वो मेरे जैसी नहीं थी। उसने कभी पलट कर जवाब न दिया होगा माँ को......पर ससुराल में सबसे ज्यादा पढी होने के कारण बहुत सम्मान मिल रहा था। ये सब राजन बता चुका था। दोपहर के खाने के बाद बच्चे मुझसे भी घुलमिल गए थे....शाम को सुनील भैया और सुमन दीदी अपने परिवारों के साथ सब को मिलने आए.....माँ पिताजी को पहले ही बता दिया था कि वो लोग अब भी मुझसे वैसे ही रिश्ता रखे हुए हैं तो उन्हें खुले दिल से मिले और अपने दामाद की कोई बात उनसे न करे तो अच्छा रहेगा...... रात को सब बच्चों की धमाचौकड़ी ने घर को वाकई घर बना दिया और सबने मिल कर खाने का मजा लिया....। जब सब जाने लगे तो माँ ने घर की बनाई मिठाई दी और बच्चों को पहली बार मिलने का शगुन भी दिया। वो लोग भी बच्चों के लिए चॉकलेट्स और खिलौने लाए थे.......माँ बहुत अच्छे से उनसे मिली, इसकी खुशी मुझे बहुत ज्यादा थी। सुनील भैया और राजन बहुत घुलमिल कर बातें कर रहे थे, पिताजी और नरेन जीजा जी अपनी बातें ले कर बैठे थे और छाया, कामिनी और सुमन दीदी की भी बैठक जम गयी थी....मैं और तारा उन्हें घुलमिल कर बातें करते देख मुस्कुरा रहे थे........कुल मिला कर पूरा दिन खुशी और प्यार से बीत गया....।
क्रमश:
स्वरचित और मौलिक
सीमा बी.

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