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संस्कृत वांग्मय में अंतरिक्ष विज्ञान






ॐ चित्रम्` देवानामुदगादनीकम्।
चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्रे:।
आप्रा द्यावापृथ्वी अंतरिक्षम्
सूर्य आत्मा जगतस्तस्युपपश्च ।।( यजु 7/42 )(ऋग् 1/ 115/1 )( शुक्ल यजुर्वेद 16)

ऋग्वेद के इस मंत्र में सूर्य देव की स्तुति करते हुए कहा गया है कि प्रकाशमान रश्मियों का समूह सूर्य मंडल के रूप में उदित हो रहा है। यह मित्र ,वरुण, अग्नि और संपूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र हैं। इन्होंने उदित होकर भूलोक, पृथ्वी ,अंतरक्ष को अपने देदीप्यमान तेज से सर्वत : परिपूर्ण करदिया है। इसमें अंतरिक्ष को देदीप्यमान करने वाला सूर्य देव को माना गया है। एक अन्य स्थान पर भूर्लोक भुवर्लोक और स्वर्लोक इन तीनों लोको को ब्रह्मांड स्वरूप होने से विराटपदवाच्य भगवान के स्थूल रूप कहा गया है। इन तीनों लोको को प्रकाशित करने के लिए ही वह विराट रूप ही अग्नि, वायु और सूर्य रूप में क्षिति ,अंतरिक्ष और द्यूलोक में स्थित है। सृष्टि काल में सर्वप्रथम सूर्य की उत्पत्ति हुई और फिर सूर्य से ही समस्त लोको की उत्पत्ति मानी गई है । उन्हीं के दीप्तिमान तेज से 14 लोक दीप्तिमान हो रहे हैं।

वेद ,उपनिषद् ,पुराण आदि संस्कृत ग्रंथों में भू: , भुव: ,स्व: ,मह:, जन : ,तप : और सत्यम् इन 7 लोको का उल्लेख मिलता है। इनमें भू: लोक ,पृथ्वी है। भुव: जल है या जल प्रधान अंतरिक्ष है। स्व : ,तेज प्रधान द्यू लोक है। मह:, वायु प्रधान लोक है । जन: ,आकाश या वायुमंडल है। तप: ,क्रिया या समस्त क्रिया के कारण भूत प्राण प्रजापति का लोक है । सत्यम् सत् की पहली व्याकृत अवस्था मन या मनोमय परमेष्ठी का लोक है। अब इनमें भूः भुवः स्वः यह तीनों पृथ्वी कहलाते हैं और जनः तपः सत्यम् यह तीनों अंतरिक्ष कहलाते हैं। श्री माधवाचार्य जी ने भी तिस्रो भूमि आदि से यही अर्थ स्वीकार किया है। (सूर्यांक पृ 56)

कूर्म पुराण के 39 वे अध्याय मे इन 7 लोको को अंड से उत्पन्न बताया गया है तथा उनका वर्णन इस प्रकार है----

सूर्या चंद्रमसोर्यावत् किरणैखभासते।
तावद् भूलोकः आख्यातः पुराण द्विजपुंगवा :।। (39/3)

यावत् प्रमाणो भू: लोको विस्तरात् परिमंडलात्।
भुवः लोको अपि तावान् स्यान् मंडलाद् भास्करस्वतु।। (39/4)

ऊर्ध्वम् यन् मंडलाद् व्योम ध्रुवो यावत् व्यवस्थितत: ।
स्वलोॅक: स समाख्यातस्तत्र वायोस्तु नेमय :। । (39/5)

अर्थात सूर्य और चंद्रमा की किरणों से जहां तक का भाग प्रकाशित होता है इतने भाग को पुराण में भूलोॅक कहा गया है। सूर्य के परिमंडल से भूलोॅक का जितना परिमाण है ,उतना ही विस्तार सूर्य मंडल से भवलोॅक का भी है। आकाश में ऊपर की ओर जहां ध्रुव तारा स्थित है वहां तक के मंडल को स्वलोॅक कहा गया है । वहां वायु की सात नेमियां (परिधि) है। कूमॅ पुराण में अंतरिक्ष का विस्तृत विवेचन करते हुए संपूर्ण सौरमडलका विस्तार बताया गया है। उसमें कहा गया है----

भूमि: योजन लक्षे तु भानोर्वे मंडलम् स्थितम्।। (39/7)
लक्ष्य दिवाकरस्यापि मंडलम् शशिन: स्मृतम्।
नक्षत्र मंडलम् कृत्स्नम् तत् लक्षेण प्रकाशते ।। (39/ 8)

अर्थात् भूमि से एक लाख योजन ऊपर सूर्य मंडल स्थित है। सूर्य से भी एक लाख योजन ऊपर के भाग में चंद्रमा का मंडल कहा गया है। उससे भी एक लाख योजन पर स्थित संपूर्ण नक्षत्र मंडल प्रकाशित होता है।

नक्षत्र मंडल से उत्तर की ओर दो लाख योजन की दूरी पर बुध स्थित है। शुक्र से उतने ही प्रमाण पर मंगल की स्थिति है। मंगल से दो लाख योजन दूरी पर देवों के पुरोहित बृहस्पति हैं और इनसे दो लाख योजन दूरी पर सूर्यपुत्र शनि स्थित है। यह ग्रहों का मंडल है। ग्रह मंडल से लाख योजन दूरी पर सप्तर्षि मंडल प्रकाशित होता है। सप्तर्षि मंडल से एक लाख योजन ऊपर ध्रुव स्थित है जो संपूर्ण ज्योतिष चक्र का केंद्र रूप है। (कूर्म पुराण 39/ 9 से 12)

"विवर्तते अहनी चक्रमैव "तथा " दिवो धर्ता भुवनस्य प्रजापति:"
(ऋग्वेद 4/ 53 /2 )इत्यादि अनेक वैदिक मंत्रों में सैकड़ों हजारों भूमियों का सूर्य के अधिकार में बद्ध रहना तथा सूर्य द्वारा चक्र की भांति सब को घुमाना और स्वयं भी अपनी धुरी पर अंतरिक्ष में घूमना स्फुट रूप से कहा गया है। श्रुति में स्पष्ट उल्लेख है---" यथा अग्नि गर्भा पृथ्वी तथा द्यौरिन्द्रेण अस्तु गर्भिणी"-- अर्थात जैसे पृथ्वी के गर्भ में अग्नि है ,वैसे ही द्यू लोक के गर्भ में इंदु (सूर्य) है । अतः इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ किसूयॅ अंतरिक्ष के मध्य से जल को प्रेरित करते हैं और अपनी शक्तियों से पृथ्वीलोक और द्यूलोक दोनों को रोके हुए हैं जैसे कि अक्ष रथ के चक्रों को रोके रहता है ।( ऋग्वेद 10 /89/ 5) एक और स्थान पर इसका स्पष्ट उल्लेख है----

"स सूर्य: पर्युवरास्येन्द्रो ववृत्याद्रथ्मेव चक्रः ।( ऋग्वेद 10 /89/ 2)

अर्थात सूर्य रूपी इंद्र समस्त महान मंडलों को रथ चक्र की भांति घुमाता है ।

अंतरिक्ष के अंतर्गत स्वः, महः, जनः, जिन तीन लोको की गणना की गई है ,वेदों के अनेक मंत्रों में उन तीनों लोकों को,तथा पृथ्वी के तीनों लोकों को सूर्य द्वारा धारण किए जाने का उल्लेख किया गया है।

जिस्रो भूमि धारमन् त्रीहतदमन् त्रीणि वृताविदथे अंतरेषाम्
(ऋग्वेद 2/27/ 8 )

अर्थात आदित्य तीन भूमि के एवं तीन द्यू लोकों को धारण करता है । ऋग्वेद में ही एक स्थान पर कहा है----

जिस्रो मातृस्त्रीन् पितृन् विभ्रदेक।
उध्वॅ तस्थौ नेममवग्लाप्यन्ति ।।( ऋग्वेद 1 /164/ 10)

यहां मातृ शब्द पृथ्वी और पितृ शब्द द्यु का वाचक है। अतः मंत्र का अर्थ है कि एक ही सूर्य तीन पृथ्वी और तीन द्यु लोकों को धारण करते हुए ऊपर स्थित है।


छान्दोग्य उपनिषद् में बताए गए तेज अप् और अन्न के त्रिवृत्करेण के अनुसार प्रत्येक मंडल में तेज ,अप् ,अन्न ,तीनों की स्थिति है। और प्रत्येक मंडल में पृथ्वी चंद्रमा सूर्य यह त्रिलोकी नियत रहती है। इस त्रिलोकी में भी प्रत्येक में तेज, अप् ,अन्न ,तीनों का भाग है। इनमें से अन्न का भाग पृथ्वी, अप् का भाग अंतरिक्ष और तेज का भाग द्यु कहलाता है । तब तीनों मंडलों को मिलाकर तीन भूमि और तीन द्यु हो जाते हैं। इनको धारण करने वाला प्राण रूप आदित्य देवता है।

विष्णु पुराण में कहा गया है कि-----

"त्रिनाभिमति पंचारे षण्नेमिन्यक्षयात्मके ।
संवत्सरमये कृत्स्रं कालचक्रम् प्रतिष्ठितम्।" ।( वि० पु० 2/ 8/: 4)

यहां पर कालचक्र की तीन नाभिंयां तथा छह नेमी बताई गई है। कुछ व्याख्याकार चक्र पद का अर्थ ,सौर जगत (ब्रह्मांड )ही ग्रहण करते हैं। उनके मतानुसार भूमि, अंतरिक्ष ,और दिव (द्यु) नाम के तीनों लोको की तीन नाभि है । इस चक्र का विवेचन है--- "अनर्षम्"। निरुक्तकार इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं--- "अप्रत्युतमन्यस्मिन्"-- अर्थात सूर्य अपने ही आधार पर है वह किसी दूसरे के आकर्षण पर बद्ध नहीं हैं। सूर्य मंडल के आकर्षण से ही सब लोग बंधे हुए हैं। आधुनिक विज्ञान से भी यही बात सिद्ध होती है । ऋग्वेद् में एक मंत्र का उल्लेख है----

"अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता मध्यमों अस्त्यश्र : ।।
तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्या,
त्रापश्यम् विश्पतिम् सप्त पुत्रम्" ।।( ऋग्वेद 1/ 164 /1)

भाष्यकार श्री सायणाचार्य द्वारा की गई इस मंत्र की व्याख्या से स्पष्ट होता है कि अग्नि ,वायु और सूर्य से भूमि ,अंतरिक्ष और द्यु-- इन तीनों लोको के तीन प्रमुख देवता है। निरुक्तकार द्वारा की गई व्याख्या के अनुसार भी वायु का स्थान अंतरिक्ष ही बताया गया है। सूर्यदेव अपनी रश्मियों द्वारा आकृष्ट रस को वायु में समर्पित करते हैं अर्थात वायु, सूर्य से अंतरिक्षस्थ रस को हरण कर लेते हैं।

ऋग्वेद संहिता तथा यजुर्वेद संहिता दोनों में ही प्रश्नोत्तर रूप में एक मंत्र का उल्लेख है-------

"पृच्छामि त्वाम् परमन्तम् पृथिव्या:।
पृच्छामि यत्र भुवनस्य नाभि:।। (ऋ ०1/ 164 /34 )(यजु० 23 /61)

अर्थात् मैं तुम से पृथ्वी का सबसे अंत का भाग पूछता हूं और भुवन अर्थात उत्पन्न होने वाले सव पदार्थों की नाभि जहां है वह स्थान पूछता हूं। इन दोनों प्रश्नों का उत्तर देते हुए अध्वर्यु कहता है

"इयम् वेदि: परो अंत: पृथिव्या :।
अयं यज्ञो भुवनस्य नाभि:।।"

अर्थात् यह यज्ञ की वेदी ही पृथ्वी का सबसे अंतिम अवधि- भाग है और यह यज्ञ सब भुवनों की नाभि है। व्याख्याकारों द्वारा यज्ञ और वेदी का अर्थ प्राकृत सन्निवेश के आधार पर कल्पित किया है वह दृष्टव्य है----

"सूर्य के संबंध से पृथ्वी पर जो प्राकृत यज्ञ हो रहा है उसमें एक ओर सूर्य का गोला है और दूसरी ओर पृथ्वी है तथा मध्य में अंतरिक्ष है। अंतरिक्ष द्वारा ही सूर्य किरणों से सब पदार्थ पृथ्वी पर आते हैं। इस सन्निवेश के अनुसार यज्ञ में भी सन्निवेश बनाया जाता है कि पूर्व में आहवनीय कुंड ",पश्चिम में गार्हपत्य कुंड और दोनों के बीच में वेदी । यज्ञ में आहवनीय कुंड सूर्य के स्थान में है। गार्हपत्य कुंड पृथ्वी के स्थान पर और वेदी अंतरिक्ष के स्थान में है। इस विभाग को दृष्टि में रखकर जब यह कहा जाता है कि यह वेदी ही पृथ्वी का अंत है ,तो इसका यह अभिप्राय स्पष्ट समझ में आ सकता है कि पृथ्वी का अंत वही है ,जहां से अंतरिक्ष का प्रारंभ होता है। वेदी रूप अंतरिक्ष ही पृथ्वी का दूसरा अंत है । इसके अतिरिक्त पृथ्वी का और कोई अंत नहीं हो सकता।"

प्रश्नोपनिषद( 5 /1/7) में कहा गया है कि ओंकार ही "पर", "अपर ",ब्रह्म है। एक मात्रा के अभिध्यान के फल स्वरूप जीव उसके द्वारा संवेदित हो कर शीघ्र ही पृथ्वी को प्राप्त होता है उस समय ऋक् उसे मनुष्य लोक में पहुंचा देता है। वहां वह तपस्या, ब्रह्मचर्य और श्रद्धा द्वारा संपन्न होकर महिमा का अनुभव करता है। दो ही मात्रा के अभिध्यान के फल से मन: स्थिति उत्पन्न होती है। उस समय यजु : उसको अंतरिक्ष में ले जाते हैं। वह सोम लोक में जाता है और विभूति का अनुभव कर पुनरावर्तन करता है। त्रिमात्रा" ॐ अक्षर "के द्वारा साधक सूर्य के साथ तादात्म्य प्राप्त करता है । वहां से साम उसे ब्रह्मलोक ले जाते हैं । इससे स्पष्ट है कि वेद त्रय पृथक रूप में लोक त्रय को प्राप्त करने वाले हैं। ---"ऋक् भूलोक को, यजु : अंतरिक्ष लोक को, और साम स्वर्ग लोक को, प्राप्त करान वाला है । यह तीनों लोक पुनरावर्तनशील है। यही प्रणव की 3 मात्राएं हैं।

गायत्री मंत्र में भी भू: भुव: स्व : आदि लोकों का उल्लेख किया गया है । शांति पाठ करते समय भी "ॐ अंतरिक्ष शांति: "मंत्र के द्वारा भी अंतरिक्ष का उल्लेख किया जाता है।

ऋग्वेद् के( 10 /149 /1) में कहा गया है कि सूर्य ने अपने यंत्रों से पृथ्वी को सुस्थिर रखा है। उन्होंने विना अवलंबन के अंतरिक्ष और द्यू लोक को सुदृढ़ता से बांध रखा है।

बृहदारण्यक उपनिषद्( 2 /3 /1--5 )में ब्रह्मांड के 2 मूल भाग बताए गए हैं। यह ब्रह्म के ही दो रूप हैं जिन्हें मूर्त एवं अमूर्त तथा पुरुष एवं प्रकृति भी कहा जाता है। अमूर्त के अंतर्गत वायु तथा अंतरिक्ष का ज्योतिर्मय "रस "आता है। मूर्त के अंतर्गत वायु तथा अंतरिक्ष के अतिरिक्त और जो कुछ भी है उस का रस आता है। जिसका प्रतीक स्वयं तपने वाला आदित्य मंडल है( वैदिक दर्शन पृष्ठ 79)


सावित्री उपनिषद् में गायत्री मंत्र के -"भुव: भर्गो देवस्य धीमहि।"- की व्याख्या में कहा गया है कि अंतरिक्ष लोक में सविता देव के तेज का हम ध्यान करते हैं। कूर्म पुराण में भी अंतरिक्ष आदि समस्त लोकों को त्रैलोक्य की संज्ञा दी है और उन्हें सूर्य रश्मियो से व्याप्त बताया है----

"

"दिवाकरकेरेरेतत् पूरितम् भुवनत्रयम् ।
त्रैलोक्यं कथितं सदिवर्लोकानाम् मुनिपुंगवा: "। । (कूर्म पु० 39/ 40)

कूर्म पुराण में ----धाता, अर्यमा ,मित्र, वरुण, इंद्र ,विवस्वान, पूषा पर्जन्य, अंशु ,भग ,त्वष्टा और विष्णु नाम से --वारह आदित्यों का उल्लेख है । (कूर्म पुराण 40 /23 )--इसी प्रकार गायत्री, वृहती, उष्णक ,जगती, पंक्ति ,अनुष्टुप एवं त्रिष्टुप नामक सात छंद सूर्य के सात अश्व कहे गए हैं। सुषुम्न, हरिकेश ,विश्वकर्मा , विश्वव्यचा ,संयद्वसु ,अर्वाबसु ,तथा स्वाराड् यह सूर्य की सप्त रश्मियाॅ कहीं गई हैं ।

"सुषुम्नो हरिकेशश्व विश्वकर्मा तथैव च।
विश्वव्यचा: पुनश्चान्य : संयद्वतसुरत : पर:।।( 41/ 3)

अर्वावसुरिति ख्यात: स्वरा ऽन्य: प्रकीर्तित:।।( 4 ।।)

सूर्य की सुषुम्न नामक रश्मि चंद्रमा की चांदनी को पुष्ट करती है। हरिकेश नामक रश्मि नक्षत्रों का पोषण करने वाली है। विश्वकर्मा नामक रश्मि बुध का पोषण करती है । विश्वच्यवा नामक रश्मि शुक्र ग्रह का पोषण करती है। संयद्वसु नामक रश्मि मंगल ग्रह का और सूर्य की अर्वावसु नामक रश्मि बृहस्पति का पोषण करती है। साथ में स्वराड् नामक रश्मि शनि का पोषण करती है। (कूर्म पुराण 41 /3-7 )इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न पुराणों में जहां 7 लोकों का विस्तृत वर्णन है जिसमें से 3 लोकोंको अंतरिक्ष कहां गया है। इस अंतरिक्ष में व्याप्त आदित्य व उनके सौरमंडल का भी विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है । अंतरिक्ष विज्ञान को समझने हेतु हमें इनके गहन अध्ययन की आवश्यकता है।


अंतरिक्ष ,जिसके द्वारा प्रकाशित है ,उस सूर्य का व्यास 9000 योजन कहा गया है। उसका 3 गुना सूर्य मंडल का विस्तार है। सूर्य के विस्तार का दोगुना चंद्रमा का विस्तार कहा गया है। जब सूर्य दक्षिणायन के मार्ग में विचरण करता है तब वह सभी ग्रहों के निम्न भागों में भ्रमण करता है उसके ऊपर विस्तृत मंडल बनाकर चंद्रमा विचरण करता है । संपूर्ण नक्षत्र मंडल चंद्रमा से ऊपर भ्रमण करता है। नक्षत्रों से ऊपर बुध, बुध से ऊपर शुक्र, शुक्र से ऊपर मंगल और मंगल से ऊपर बृहस्पति है । बृहस्पति से ऊपर शनि और उससे ऊपर सप्तर्षि मंडल तथा उनसे भी ऊपर ध्रुव स्थित है।

अंतरिक्ष आदि लोकों को प्रकाशित करने वाले सूर्य ही दिन और रात, 12 महीने ,छह ऋतुऔ तथा संवत्सर आदि के कारण कहे गए हैं। वे सूर्य बसंत एवं ग्रीष्म ऋतु में 300 किरणों से तपते हैं। शरद और वर्षा ऋतु में 400 रश्मियों से वर्षा करते हैं । हेमंत और शिशिर ऋतु में 300 रश्मियों से हिम प्रदान करते हैं। माघ मास में सूर्य का नाम वरुण होता है। फाल्गुन मास में वह पूषा कहलाते हैं। चैत्र मास में अंश ,वैशाख में धाता, जेष्ठ मास में इंद्र, आषाढ़ मास में सविता ,श्रावण में विवस्वान तथा भाद्र मास में भग कहे जाते हैं। आश्विन में पर्जन्य, कार्तिक में त्वष्टा, मार्गशीर्ष में मित्र और पौष मास में सनातन विष्णु कहलाते हैं। इन वारह आदित्यों की रश्मियों की संख्या की भी गणना की गई है।( कूर्म पुराण 41 /16--22 )सूर्य विभिन्न ऋतुओ में भिन्न वर्णों के बताए गए हैं। यह सूर्य देव ही औषध के द्वारा मनुष्यों को ,स्वधा के द्वारा पितरों को और अमृत के द्वारा देवताओं को संतृप्त करते हैं।

कूर्म पुराण के 44 वें अध्याय के33 वें श्लोक में गंगा का, श्री विष्णु के चरण से निकलकर चंद्र मंडल को आप्लावित करती हुई स्वर्ग से ब्रम्हपुरी में गिरकर पुनः अंतरिक्ष से निकलने का भी उल्लेख किया गया है।

अंतरिक्ष विज्ञान का विषय अति गहन तथा अत्यधिक विस्तार वाला है। इसमें जितना भी कहा जाए, वह मात्र सूर्य को दीपक दिखाने के समान होगा। यह सर्वथा ही शोध का विषय बना रहेगा ।


इति

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