Tumhen kuchh kahana hai bhartihari! books and stories free download online pdf in Hindi

तुम्हें कुछ कहना है भर्तृहरि?

कई वर्ष बाद मेरा दुष्यंत से सामना हुआ था। मुझे आश्चर्य हुआ कि अब उसके प्रति मेरे मन में कुछ नहीं था। न प्यार न नफ़रत। मेरे मन ने इस कदर पराया कर दिया था उसे, कि कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि वह पास आ बैठे या दूर खड़ा रहे, जबकि पहले ऐसा नहीं था। पहले तो उसकी छोटी-से-छोटी बात से भी मुझें फ़र्क पड़ता था।

उस तक पहुंचाने वाली सीढ़ियों से उतरने के बाद मैं भारी मन से जिन्दगी की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी थी। वर्षो लगे थे उसे भूलने में जबकि वह विवाह करके अपनी गृहस्थी में रम चुका था-सुंदर पत्नी, बच्चे, अच्छी नौकरी, भाई-बहनों की जिम्मेदारियों से मुक्ति, समाज में रुतबा, क्या नहीं था उसके पास और मेरे पास-अकेलापन, दुख, रुसवाई के साथ चंद उपलब्धियाँ मात्र! मैंने जो कुछ खोया वह प्रेम करने के कारण और उसने जो पाया शायद प्रेम न करने के कारण। अजीब प्रेम कहानी थी यह, जिसमें दुश्मन जमाना नहीं, खुद नायक था! दरअसल दुष्यंत ने मुझे कभी प्यार किया ही नहीं था। मैं ही उसके आकर्षण को प्यार समझने की भूल कर बैठी थी या फिर वह ‘प्रेक्टिकल’ था और मैं ‘भावुक’ । प्रेम को विवाह में बदला जाय, यह जरूरी तो नहीं, पर क्या यह भी जरूरी नहीं कि अपने प्यार को आग में जलते देख उसे बचाने की कोशिश की जाए!
खैर, अब जो हो चुका उसे याद कर दुखी होने से क्या फ़ायदा ? इस बीच मेरे जीवन में भी तो बहुत कुछ घट चुका था। उससे धोखा खाकर मैं आत्मघात कर लेना चाहती थी, पर मुझे बचाने के लिए आनंद आ गए। उन्होंने मुझे संभाला, मेरा मनोबल बढ़ाया। जिन्दगी का सामना करने के लिए ताकत सँजोने में मदद की , पर वे मुझसे प्यार भी करने लगे। मैंने बहुत मना किया, पर वे नहीं माने। अंतत: मैंने भी जिन्दगी से समझौता कर लिया। जब मेरे विवाह की खबर लोगों तक पहुंचीं, सबने यही कहा कि-मैंने ख़ुदकुशी कर ली। आनन्द से विवाह एक तरफ से आत्महत्या ही थी, पर मैं भी क्या करती! न तो मैं इस शहर को छोड़ना चाहती थी, न उसकी रखैल बनना। मैं उसके लिए ही उससे दूर थी। अजीब विरोधाभास था यह। ज़िंदा रहने के लिए किसी का साथ भी तो चाहिए, इसलिए मैंने आनन्द के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था। इस स्वीकारोक्ति के साथ कि-‘मैं आपसे प्यार नहीं करती, कर पाऊँगी, इसका भी वादा नहीं कर सकती।‘ पर आनन्द तो इसी बात से खुश थे कि उन्हें मेरा साथ मिलेगा। मैं उन्हें प्यार करूं न करूं, इस बात से उन्हें फ़र्क नहीं पड़ता था। हाँ, उन्होंने जरूर वादा किया कि- मेरे मन में अपनी अच्छाइयों से प्यार जगा देंगे और तब तक बल प्रयोग नहीं करेंगे। मैं आनन्द को बहुत अच्छा इंसान समझने लगी थी। एक ऐसा इंसान, जो मुझे देह -मात्र नहीं समझता था, पर मैं गलत थी। आनन्द की नजर भी मेरे शरीर पर ही थी। उन्होंने बस शराफत का नकाब पहन रखा था। विवाह के बाद मुझे इस सच का तब पता चला, जब वे मेरे तन-मन-धन का शोषण करने लगे। अपने घर-परिवार में जगह दिलाने की जगह वे मेरे ही घर में रहकर मुझे प्रताड़ित करते रहे। मैं क्या करती! भरसक उन्हें निभाने की कोशिश करती रही, हर मोर्चे पर अकेली लड़ती रही और पति-पत्नी दोनों की जिम्मेदारियाँ उठाकर घर-गृहस्थी सँजोती रही। पर जाने क्यों घर के कोने-कोने में मैं दुष्यंत की उपस्थिति महसूस करती, उसकी पसंद की चीजों को तरजीह देती। क्या वह मेरी आत्मा में खुशबू की तरह समाया था या फिर आनन्द द्वारा उस जगह को भरा न जा सका था, जो उसने रिक्त की थी। दिन बितते रहे और मैं उन जगहों पर जाने से बचती रही, जहां वह मिल सकता था, पर धीरे-धीरे मैंने अपने मन को मजबूत करना शुरू किया। आखिर एक ही शहर में रहकर, साहित्य-संस्कृति कर्मी होकर कहाँ संभव है कि उससे मुलाक़ात न हो। जब उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, फिर मैं क्यों कमजोर हूँ?
और एक दिन एक समारोह में उससे मुलाक़ात हो ही गई। कुछ देर तक मैं उससे कटती रही, पर वह एकाएक सामने आकर खड़ा हो गया और मुझे नमस्कार किया। मुझे भी जवाब देना पड़ा, फिर उसने पहली बार की तरह मुझे प्यार से देखा और जरा-सा एकांत मिलते ही बोला-‘मेरी याद नहीं आती।‘ मैं आश्चर्य में पड़ गई कि कोई आदमी इतना... निर्मम कैसे हो सकता है? किसी की जिन्दगी को बर्बाद कर उससे इस तरह का सवाल कैसे कर सकता है? वह आगे बोला-‘तुम तो अपनी उम्र से दस साल छोटी लगने लगी हो, पहले से कहीं ज्यादा मादक।‘
'ओह, यहाँ भी देह! अभी भी देह! कम उम्र की सुंदर लड़की से विवाह करने के बाद भी! पुरूष क्या कभी नहीं सुधरेगा ?अपनी लंपटई नहीं छोड़ेगा ?पत्नी को तो सात तहों में लपेटकर रखेगा और खुद....!'
मैं सोचने लगी- आखिर अब ये सब कहने से इसका क्या मतलब है? मुझे छोड़कर दूसरी लड़की से विवाह कर लिया। फिर अब क्यों! शायद इसके पुरुषत्व पर इस बात से आंच आती है कि कभी इसपर जान छिड़कने वाली इसे छोड़कर सबसे बात करे। शायद यह लोगों को यह दिखाना चाहता है कि इसने मुझे धोखा नहीं दिया था और अब भी दोनों के बीच दोस्ती है। कितना दिखावा -पसन्द है यह आदमी! क्या इसी व्यक्ति को मैंने प्यार किया था? यह तो किसी के भी प्यार के काबिल नहीं। न प्रेमिका के न पत्नी के । मुझे विचार-मग्न देखकर वह बोला -‘तुमने आनन्द से विवाह क्यों किया? वह तुम्हारे लायक नहीं था।‘
मेरा जी चाहा कि कहूँ-और मैं तुम्हारे लायक नहीं थी... तभी तो....।
–‘मैं जानता हूँ उन दोस्तों को, जिन्होंने तुम्हें गुमराह किया और आनन्द से तुम्हारा विवाह कराकर मुझे धोखा दिया...। तुम्हें मुझसे छीना.... ।’ कहते हुये उसकी आँखों से आँसू छलक आए। मैं सकते में थी कि-यह तो अपने को ही छला व धोखा खाया हुआ बता रहा है।क्या यह चाहता था , कि खुद तो विवाह करके गृहस्थ बन जाएँ और मैं इसकी वापसी का इंतजार करती रहूँ, पत्नी से बचे या चुराये इसके प्यार को पाने के लिए। उसे
मुझे एक कविता की पंक्ति याद आई - ‘मरहम वहाँ लगाते हैं जहाँ घाव नहीं।‘ उसकी बातों से मेरा मन दुखने लगा। सूखे घाव हरे होने लगे तो मैं बहाना बनाकर घर वापस आ गई।
दूसरी बार जब वह मिला, तो पूछ बैठा-‘तुम मुझे गलत तो नहीं समझतीं। कहीं और विवाह कर लेने से नाराज तो नहीं। क्या करूँ, बहुत मजबूर था! भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी, जाति-बिरादरी का दबाव और माँ की पसन्द को टाल नहीं सकता था।‘ मैं सोचने लगी- इतना जिम्मेदार व्यक्ति अपने प्यार के प्रति ज़िम्मेदारी कैसे भूल सकता है? क्या किसी लड़की को वाग्दत्ता पत्नी बनाकर भी अपनी जिम्मेदारियों का रोना रोया जा सकता है! मुझे पता चला था कि उसने खुद अपने लिए ऐसी लड़की तलाश की थी, जो उनकी जाति-गोत्र की ही नहीं, बहुत सुन्दर और शालीन भी थी। इतनी प्यारी लड़की कि उससे मिलकर मुझे कभी ईर्ष्या नहीं हुई कि उसने मेरा प्यार छीना है क्योंकि मैं जानती थी-जो कुछ हुआ वह दुष्यंत के दिमाग से हुआ है। अपने भाइयों की नौकरी, बहनों के विवाह, बिरादरी का संगठन बनाने में तो वह पीछे नहीं हटा, फिर उसी के संबंध में मजबूर होकर क्यों पीछे हट गया...?और अब वह अपनी सफाई क्यों पेश कर रहा है! क्यों चाहता है कि मैं उसे उस मजबूर नायक की तरह समझूं, जो अपने परिवार की खुशी के लिए अपनी खुशियों की बलि चढ़ा देता है। वह अब भी मुझे कितना बेवकूफ समझता है।हर तरह से सुखी-सम्पन्न वह मुझ जैसी दुखी, अकिंचन स्त्री से आखिर अब क्या चाहता है! मैंने उससे पूछ लिया-‘तुमने तो मुझे अयोग्य समझकर त्याग दिया था। फिर अब... क्या अब तुमको बदनामी का डर नहीं, जैसा पहले था।‘
वह बोला-‘नहीं, अब तो तुम एक सम्मानित शख्सियत हो, अब अगर तुमसे मेरा नाम जुड़ेगा भी, तो मेरा सम्मान ही बढ़ेगा।‘
‘पर मैंने तो विवाह कर लिया है ।‘
‘तो क्या हुआ ,मैं सबसे कहता हूँ गुमराह होने के बदले तुमने विवाह किया |’
‘पर वह विवाह टूटने के करीब है।‘
‘टूट जाने दो, आनन्द ने धोखे से तुम्हें मुझसे अलग किया। मैं हमेशा तुम्हारा था...हमेशा साथ दूँगा।’
मुझे लगा बरसों पहले जो शीशा मेरे मन में टूटा था, उसकी किरचें अब चुभने लगी हैं। प्यार ने मुझे कहाँ पहुंचा दिया है..?.कितनी अकेली हो गई हूँ मैं...? पति है, वह इस तरह से मुझे जल्दी-जल्दी खा लेना चाहता है कि खत्म होते ही भाग निकले... कोई ज़िम्मेदारी नहीं उठाना चाहता। हर पल झोला तैयार रखता है और जिसको प्यार किया था वह इस कदर हृदयहीन और स्वार्थी है।
एक दिन वह बोला-‘तुम तो अच्छी राइटर हो। अपनी प्रेम- कहानी लिखो, पर उसमें मेरी अच्छी इमेज बनाना |सारे प्रसंगों को सुन्दर व काव्यात्मक मोड़ देना |मेरी जिम्मेदारियों व मजबूरियों का जिक्र करते हुए प्यार के यादगार क्षणों का जिक्र करना।‘ मैं ध्यान से उसका चेहरा देखती रही कि मेरे तन-मन-भावना से खेलने के बाद अब यह मेरी कलम से खेलना चाहता है। चाहता है कि मैं इसे पुराणकालीन योद्धा या फिर धीरोदात्त नायक की तरह सौन्दर्य, पौरुष व मनुष्यता के प्रतीक के रूप में चित्रित करूं। पर यह शायद यह नहीं जानता कि कलम किसी के साथ भी अन्याय नहीं करती! न्याय ही उसका लक्ष्य होता है। वह सबकी होती है और किसी की भी नहीं होती; खुद लिखने वाले की भी नहीं। मैंने कहानी लिखी, जिसमें कल्पना कम सच्चाई ज्यादा थी। कहानी छपी और चर्चित हुई। इस कहानी से उसका चरित्र तो खुला ही ,मैं भी एक्सपोज हो गई। लोग इस सत्य को जानने के बाद कि मेरे और उसके रिश्ते अंतरंग थे, मुझे कुछ दूसरी ही दृष्टि से देखने लगे। आनन्द को तो झोला उठाकर भागने का मौका मिल गया, जबकि इस सत्य को वह विवाह पूर्व ही उन्हें बता चुकी थी। शायद इसी सत्य का उन्हें लाभ भी मिला था, अन्यथा वे कल्पना में भी मुझ जैसी स्त्री को नहीं पा सकते थे। सबसे अधिक आहत हुआ दुष्यंत। इल्ज़ाम लगाने लगा-‘तुमने मुझे बदनाम कर दिया। हमारे रिश्ते को पोस्टर बनाया। मेरी गलत छवि पेश की| सस्ती लोकप्रियता के लिए तुमने ऐसा किया।‘ मैं सोचने लगी-ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया मैंने? क्या एक स्त्री की छवि पुरुष की छवि से कमतर होती है? मेरी जिन्दगी को तबाह कर, मुझे अकेलेपन का अभिशाप देकर भी वह आहत है! क्या उसने कभी यह जानने की कोशिश की कि मैं कैसे जी रही हूँ?किन हालातों से गुजर रही हूँ? वह तो बस यह सोच रहा है कि मैंने उसे महिमामंडित क्यों नहीं किया? क्यों उसके स्वार्थ को मजबूरी का नाम नहीं दिया? क्यों उसकी स्त्रीजनित कमजोरी का खुलासा किया? कितना कमजोर है वह, सब कुछ छिपकर करना चाहता है। प्यार को गुनाह की तरह निभाना चाहता है। माना आज उसकी गृहस्थी है, पर जब उनका प्रेम चल रहा था, तब भी तो वह ऐसा ही था, शायद इससे भी ज्यादा ।
मुझे याद है विवाह से पूर्व वह मुझे अपने घर बुलाता, पर भयभीत भी रहता कि कोई जान न जाए। अपनी बहन से सारी खिड़कियाँ-दरवाजे बंद रखने को कहता,जब तक मैं वहाँ रहती। एक दिन बहन ने गर्मी के कारण एक खिड़की खोल दी, तो उसे तो डांट पड़ी ही, मैं भी चपेट में आ गई-‘बहन तो नासमझ है, पर आपको तो ध्यान रखना चाहिए।’ मैं आहत हो गई थी कि ये खिड़कियाँ तब तो बंद नहीं रखता, जब इसके गाँव से लड़कियां आती हैं। उसी में ऐसा क्या है? क्या ‘चोर की दाढ़ी में तिनके’ वाली बात है या फिर कुछ और। मैं अक्सर सोचती-‘आखिर पुरुष ऐसे रिश्ते बनाता ही क्यों है, जो दुनिया से छिपाना पड़े। वह समाज में प्रतिष्ठा भी पाना चाहता है और ऐसे रिश्तों के लिए ललकता भी है। एक तीर दो निशाने। हर तरफ से घाटे में रहती है स्त्री। पत्नी है तो प्रेमिका से और प्रेमिका है तो पत्नी से भयभीत! शायद असुरक्षा की भावना ही उन्हें भयभीत करती है।‘
उस रात को मैं उसकी बहन के साथ सो रही थी। डबल बेड था। उसकी बहन चादर ताने एक कोने में सिमटी हुई थी। दुष्यंत के कमरे और इस कमरे के बीच एक दरवाजा था, जो दोनों तरफ से खुलता था। वह रात के भोजन के समय से ही मुझे अपने कमरे में आने का निमंत्रण आँखों ही आँखों में दे रहा था, पर मैं खिड़की वाली घटना से नाराज थी, इसलिए चुपचाप सोने की कोशिश में थी। हल्की झपकी लगी ही थी कि मुझे अपने पीछे किसी के होने का आभास हुआ |मैं पलटी तो वह मुझे बाहों में बांधकर चूमने लगा |कमरे में अंधेरा था ,बहन सो रही थी, पर मैं कांप रही थी कि जवान बहन आहट से जग गई, तो मेरे बारे में क्या सोचेगी? पर उसको इस समय अपनी बहन तक की परवाह नहीं थी। वह उत्तेजना में फुसफुसाकर जाने क्या-क्या कहे जा रहा था! मुझ पर भी उसके स्पर्श से नशा छाने लगा था, फिर भी मैं अपने को संभाले हुए थी। प्रेम में इस तरह देह को शामिल करना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ था। फिर अभी तो यह भी निश्चित नहीं था कि वह मुझसे प्रेम करता है और विवाह भी करेगा। पर मैं उसे रोकूं भी तो कैसे? तभी मेरे दिमाग में कुछ कौंधा। मैंने धीरे-से कहा-‘अगर बच्चा हो गया तो... ।‘ यह सुनते ही उस का जिस्म ठंडा पड़ गया। प्यार के इन क्षणों में भी उसका दिमाग सक्रिय था। वह फँसने वाला काम नहीं कर सकता था। उसने धीरे-से मेरी हथेली चूमी और अपने कमरे में चला गया। उसके जाते ही मेरी नींद उड़ गई। मैं सोचने लगी-‘दुष्यंत मुझसे प्यार नहीं करता। प्यार करने वाला देह के लिए हड़बड़ी नहीं दिखाता। वह जिस तरह से प्यसर को गुनाह की तरह छिपा रहा है, उससे तो यही लगता है कि मुझसे विवाह तो दूर, ज्यादा समय तक प्रेम का रिश्ता भी नहीं रखेगा।‘ एक तरफ मैं यह सब सोच रही थी, दूसरी तरफ मेरा शरीर जाग उठा था। उसके स्पर्शों ने जैसे ज्वालामुखी पर जमी राख़ उड़ा दी थी। अब मैं क्या करूं! रातभर मैं सो नहीं पाई। सुबह तक मुझे डिप्रेशन हो गया। पर वह सँभल चुका था । मेरी हालत देखकर उसे सब कुछ समझ में आ गया। वह जान गया था कि जिसे मन-बहलाव समझ रहा था, वह गले में बंधने को तैयार है। पर वह ऐसा हरगिज नहीं कर सकता था। मेरी तबीयत इतनी खराब हो गई थी कि मुझसे उठा भी नहीं जा रहा था। बस आँखों से आँसू बहे जा रहे थे। वह मौका देखकर मेरे पास आया और बोला-‘मैं नहीं जानता था कि तुम्हारे अंदर इतनी गहरी नैतिकता होगी। मैं तो तुम्हें बोल्ड समझा था, पर तुम तो उन्हीं लड़कियों में निकलीं, जो पति के अलावा किसी दूसरे के स्पर्श को भी पाप समझती हैं। भई, हम तो प्रेम को गिलास में भरा साफ पानी समझते हैं। प्यास लगी, पी लिया और आगे चल दिए। अब गिलास से बंधकर तो जिंदगी नहीं चल सकती। तुम्हीं सोचो, जब हाथ से हाथ मिला सकते हैं, तो जिस्म से जिस्म क्यों नहीं! हाथ मिलना जब पाप नहीं तो जिस्म मिलना कैसे हुआ?’
वह रोते-रोते बोली-‘पर मैं आपसे प्रेम करती हूँ... आपसे दूर नहीं रह सकती। बताइए मुझमें क्या कमी है... आप मुझे क्यों नहीं अपना सकते?’ वह गंभीरता से बोला-‘देखो, तुम बहुत सुंदर हो, मैं तुम्हें पसन्द भी करता हूँ, पर सारी खूबियों के बाद भी राधा रुक्मिणी नहीं हो सकती। तुम चाहोगी तो, तुमसे आजीवन दैहिक रिश्ता रख सकता हूँ। इसमें मुझे कोई नैतिक बाधा नहीं है, पर इस तरह हालत बनाओगी तो मुश्किल होगी। अरे पगली, मेरे जैसे जाने कितने लोग तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडराएँगे। क्यों मुझसे बंधना चाहती हो! तुममें सौन्दर्य है, प्रतिभा है, देखना कल तुम कहाँ होगी? मेरे ऊपर तो परिवार की जिम्मेदारियाँ हैं। मैं तो शायद विवाह भी न करूँ...तुम अपने आपको संभालो।‘
मुझ पर तो जैसे वज्रपात हुआ। मैं तो उसके साथ जीवन जीना चाहती थी, पर वह तो.... । क्या उसका वह प्यार झूठा था? वह तो मुझे लोगों में बाँट देना चाहता है। मेरा डिप्रेशन और बढ़ गया। उसके बाहर जाने के बाद मैं किसी तरह उठी और रिक्शा करके अपनी एक सहेली के घर चली गई। सहेली मेरी हालत देखकर घबरा गई और मुझे एक मनोचिकित्सक के पास ले गई। मैं सिर्फ फूट-फूटकर रोती रही। मैं खुद को उस खाली सीपी की तरह महसूस कर रही थी,जिसका मोती चुरा लिया गया हो ।डॉक्टर को विस्तार से सारी बात बिना दुष्यंत का नाम लिए मुझे बतानी पड़ी। डॉक्टर ने मुझे डाँटा-‘उस फ़्राड आदमी से आप अब भी उम्मीद रखती हैं!’ आनन्द और दुष्यंत के दोस्तों ने भी कहा था कि ‘दुष्यंत एक खुदगर्ज़, जाति व क्लास-कांसेस आदमी है, बातें चाहे कितनी भी प्रगतिशीलता की करे।‘ दुष्यंत की यह आदत थी कि वह अपने सौन्दर्य व प्रतिभा का परीक्षण लड़कियों पर किया करता था, इस बात से अनभिज्ञ कि यह भी एक तरह की हिंसा है। वह जिस भी सुंदर लड़की से मिलता। मुग्ध- भाव से ऊपर से नीचे तक इस तरह निहारता कि लड़की समझती उसे पसन्द करता है। फिर जुबान से मीठी बातें करता, लड़की और भी प्रभाव में आ जाती , दो कदम साथ चलता, लड़की प्रेम करने लगती। पर उसके प्रेम में पड़ते ही वह पलायन कर जाता। लड़की शिकायत करती, तो उसे कुंठित कहता। अब तक शायद उसने अपने सौन्दर्य व प्रतिभा का परीक्षण किया था। पौरुष का परीक्षण करने का साहस नहीं जुटा पाया था। शायद जानता था इसमें वह फँस सकता है, पर अपने पौरुष को लेकर वह कनफ्यूज्ड था। उसे ऐसी लड़की की प्रतीक्षा थी, जिससे उसे किसी तरह का खतरा न हो! शायद मुझे (अपने अतीत के कारण) ऐसी ही लड़की समझ बैठा था, पर वह भूल गया था हर लड़की आखिर लड़की ही होती है। बिना प्रेम के समर्पण नहीं करती। माना कि इस तरह के विचार रखने के लिए वह स्वतन्त्र था, पर उसे तो धोखे में न रखता। उसे बता देता कि मैं तुमसे प्यार नहीं करता, बस अपने मर्द होने का प्रमाण-पत्र चाहता हूँ, तो शायद मैं सोचती।
उसको मझसे यह शिकायत है कि मैंने उसके बारे में सब सच क्यों लिख दिया । वह इस चोट को भूल ही नहीं पा रहा है। वह कहता है-‘इस कहानी की काट लिखो।‘ उसे सिर्फ अपनी चिंता है। मेरे अकेलेपन की पीड़ा, उसके अनुसार वह सजा है, जो कहानी लिखकर मैंने की है। अन्यथा वह मुझे प्यार करता यानि की चोरी-छिपे देह के रिश्ते रखता। मैं सोचती हूँ-पुरुष क्यों प्रेम भी दया की तरह स्त्री की झोली में डालना चाहता है? क्यों अपनी शर्तों के अनुसार प्यार करना चाहता है? मुझे नहीं चाहिए पुरुष का ऐसा प्यार! मेरी तनहाइयाँ, मेरा संघर्ष और मेरी कलम, बस जिन्दगी के शेष दिनों के लिए यही काफी है।
पर आज रात फिर नशे में धुत दुष्यंत का फोन आया है-‘छत्तीस घाट का पानी पीकर सतवन्ती बनने चली हो। बंद करो कहानी लिखना, वरना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।‘ और भी गाली-गलौज!
मैं सोचने लगी-शायद यही बाकी था! शायद यही मोह -भंग है। अंत भी! क्या इसी दुष्यंत के लिए मैं रोती-तड़पती थी, हर नायक में इसी की छवि देखती थी, इसी को हर जगह ढूंढती थी, इसी को प्रभावित करने के लिए कलम उठाई थी। दूसरी स्त्री की गन्ध से भरे इस आदमी के पास मुझे देने के लिए कभी कुछ नहीं था। भाव का वह तुलसी पत्र भी नहीं, जिससे उसका पलड़ा मेरे पलड़े की बराबरी पर आता।
दुष्यंत ने मुझे गाली दी, वैसी ही गाली-जैसी असफल पुरुष देता रहा है। वही इल्ज़ाम-जो स्त्री पर लगाता रहा है। वही चरित्र हनन! बार-बार वही सब कुछ! सच कहा था तुमने भर्तृहरि-‘धिक्कार है इस प्रेम को क्योंकि जिसे मैं चाहता हूँ वह किसी और को चाहती है, जिसे वह चाहती है वह किसी और को चाहता है और जिसे वह चाहता है, वह मुझे चाहती है।‘ वह अमर फल प्रेम ही था न भर्तृहरि!तुम प्रेम का प्रतिदान न पाकर जोगी हो गए और तुमने दूसरे संतों की तरह स्त्री को माया, ठगिनी और मुक्ति में बाधक कहा।
आज मैं दुनिया की तमाम छली गई स्त्रियों की तरफ से कहती हूँ-पुरुष है माया! पुरुष है ठग! और पुरुष है स्त्री की मुक्ति में बाधा। तुम्हें कुछ कहना है भर्तृहरि!


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