प्यार के इन्द्रधुनष - 34 Lajpat Rai Garg द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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प्यार के इन्द्रधुनष - 34

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चढ़ते सूरज को सलाम। मनमोहन ऑफिस में अपनी सीट पर बैठा एक फ़ाइल पर नोटिंग लिखने में व्यस्त था कि विशाल जो कम्प्यूटर डेटा ऑपरेटर है, ने आकर कहा - ‘मनमोहन, तुमने आई.ए.एस. का एग्ज़ाम दिया था। अभी मैं नेट पर सर्च कर रहा था तो पता लगा कि ‘रिटन’ में पास होने वालों के रोल नम्बर यू.पी.एस.सी. ने अपलोड किए हैं। तुम्हारा रोल नम्बर क्या है?’

मनमोहन यह सुनकर नर्वस हो ग्यारह, पता नहीं कैसा रिज़ल्ट होगा! रोल नम्बर बताने की बजाय वह विशाल के साथ कम्प्यूटर रूम में आया। स्क्रीन पर यू.पी.एस.सी. की साइट खुली हुई थी। उसने अपना रोल नम्बर चेक किया। वह लिखित परीक्षा (मुख्य) में पास था। यह पता चलते ही विशाल ने उसे बधाई दी और मुँह मीठा करवाने की बात कही।

इतनी बड़ी सफलता, और वह भी प्रथम प्रयास में! मनमोहन मन-ही-मन बड़ा ख़ुश हुआ। उसने अपने मनोभावों को नियन्त्रित करते हुए कहा - ‘विशाल भाई, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। अभी तो इन्टरव्यू बाक़ी है। यह तो एक स्टेप पार हुआ है।’

‘मनमोहन जी, आई.ए.एस. जैसी कठिन परीक्षा में ‘रिटन’ पास करना छोटी-मोटी बात नहीं। आपने ‘रिटन’ परीक्षा पास कर ली है तो इन्टरव्यू में भी अवश्य कामयाब होंगे।’

‘विशाल, तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर। यदि मैं आई.ए.एस. में आ गया तो मुझे सदैव याद रहेगा कि तुमने सबसे पहले ‘रिटन एग्ज़ाम’ में पास होने पर मुझे बधाई दी थी।’

इसके बाद तो यह समाचार ऑफिस में जंगल की आग की तरह फैल गया। फ़ाइल की नोटिंग बीच में ही रह गई। बधाइयों का ताँता लग गया। बॉस ने भी उसे अपने केबिन में बुलाया और बधाई देते हुए कहा - ‘मनमोहन, तुम्हारी क़ाबिलियत का तो मैं पहले भी क़ायल था, लेकिन आज जो ख़ुशी महसूस हो रही है, उसे बयान करना मुश्किल है। मुझे ख़ुशी है कि तुम्हारी क़ाबिलियत का सिला तुम्हें मिल रहा है। मेरी तो यही राय है कि अब तुम्हें इस ऑफिस के कामों में मगजमारी की ज़रूरत नहीं, तुम्हें इन्टरव्यू के लिए पूरी मुस्तैदी से डट जाना चाहिए।’

‘सर, आपकी राय पर मैं अमल करूँगा। मैं आज ही छुट्टी के लिए अप्लाई कर देता हूँ।’

बॉस ने बड़ी संजीदगी से कहा - ‘मनमोहन, और दो-चार महीने बाद तो मैं भी तुम्हें ‘सर’ कहा करूँगा।’

‘नहीं सर। आप तो मेरे लिए हमेशा ‘सर’ ही रहेंगे। मैंने आपसे बहुत कुछ सिखा है। असल में, मेरी यहाँ तक की कामयाबी में आपका बहुत बड़ा योगदान है और आपकी शुभकामनाएँ आगे भी मुझे कामयाबी पाने में हेल्पफुल होंगी, ऐसा मेरा विश्वास है।’

‘गुड लक्क।’

अपनी सीट पर आकर उसने पेंडिंग फ़ाइल पूरी की। फिर डॉ. वर्मा को व्हाट्सएप पर मैसेज किया, जिसका तुरन्त उत्तर आ गया - ‘यह तो होना ही था। बहुत-बहुत बधाई मनु। शाम को आती हूँ।’

उसी समय से ऑफिस में प्रत्येक कर्मचारी और अधिकारी का उसके प्रति व्यवहार एकाएक परिवर्तित हो गया। जहाँ उसके साथी कर्मचारी ही नहीं, सेवादार भी उसे नाम लेकर बुलाया करते थे, वहीं अब सेवादार उसे ‘सर’ और उसके साथी तथा अधिकारी ‘मनमोहन जी’ कहकर बुलाने लगे। मनमोहन मन-ही-मन सोचने लगा, अभी तो मेरे सफल होने में सबसे कठिन परीक्षा - इन्टरव्यू - शेष है, अभी से मुझे इतनी इज़्ज़त मिलने लगी है तो फ़ाइनल रिज़ल्ट में यदि मैं सफल हो गया तो यही लोग मुझे कंधों पर उठा लेंगे। इस ख़्याल मात्र से वह रोमांचित हो उठा।

उसने रेनु को फ़ोन करके यह शुभ समाचार दिया और साथ ही कहा कि शाम को वृंदा आएगी।

अस्पताल में एक डिलीवरी केस के कारण डॉ. वर्मा को देर होती लगी तो उसने मनमोहन को फ़ोन करके कहा - ‘मनु, मुझे अस्पताल से निकलने में देरी हो सकती है। मैंने वासु को हम सबके लिए डिनर तैयार करने के लिए कह दिया है। रेनु को कुछ भी बनाने की ज़रूरत नहीं। यहाँ से फ़्री होते ही मैं खाना लेकर आऊँगी।’

‘वृंदा, तुमने खाना क्यों बनवाया? रेनु बना लेती।’

‘रेनु की इस हालत में उसपर अधिक बर्डन डालना ठीक नहीं। बाक़ी बातें मिलने पर करते हैं।’

डॉ. वर्मा जब क्वार्टर पर पहुँची तो वासु खाना तैयार कर चुका था। उसने पैक करवाया और कार में रखवा कर मनमोहन के घर के लिए निकल ली। ठंड तो थी ही, कोहरे की गहरी परत के कारण सड़क पर कार चलाना बड़ा मुश्किल हो रहा था, क्योंकि विजीबिलिटी बहुत कम थी। सामान्य स्थिति में आठ-दस मिनट लगते थे मनमोहन के घर तक पहुँचने में, आज लगभग आधा घंटा लग गया। घर पहुँचकर उसने जैसे ही डोरबेल बजाई, मनमोहन ने दरवाज़ा खोला। घर में कदम रखते ही उसने पुकारा - ‘स्पन्दन बेटा, कहाँ हो?’

‘मैं यहाँ हूँ मम्मी के पास’, स्पन्दन ने स्पष्ट शब्दों में कहा।

डॉ. वर्मा ने उसे प्यार किया। फिर मनमोहन से कहा - ‘एक बार तुम मेरे साथ कार तक आओ, खाना निकालकर लाएँ।’ जैसे ही मनमोहन उसके साथ बाहर जाने के लिए मुड़ा, स्पन्दन भी बेड से उतरने लगी तो रेनु ने उसे रोकते हुए कहा - ‘बेटा, ठंड बहुत है, तुम रज़ाई में ही रहो।’

‘मम्मा, पापा-आंटी को ठंड नहीं लगती?’

‘लगती है, लेकिन वे बड़े हैं। तुम अभी छोटी हो, इस समय बाहर निकलना ठीक नहीं।’

‘मम्मा, मैं कब बड़ी होऊँगी?’

‘जब तुम्हारा भइया आएगा।’

‘भइया कब आएगा?’

जब स्पन्दन यह सवाल पूछ रही थी तो डॉ. वर्मा और मनमोहन अन्दर आ चुके थे। अत: रेनु ने कहा - ‘यह तो तुम अपनी आंटी से पूछो।’

डॉ. वर्मा - ‘आंटी क्यों भई, मैं इसकी मम्मी हूँ..... बेटा स्पन्दन, मैं भी तुम्हारी मम्मी हूँ।’ फिर  मनमोहन को सम्बोधित करते हुए पूछा - ‘मनु, तुमने इसे मुझे इसकी ‘बड़ी मम्मी’ बनाया था, अब यह ‘आंटी’ कैसे कहने लग गई?’

‘वृंदा, मुझे मत डाँटो, अपनी बहन से पूछो।’

इस पर डॉ. वर्मा ने कुछ नहीं कहा, किन्तु रेनु ने अपनी सफ़ाई देते हुए कहा - ‘सॉरी दीदी, मैं यदि इसे आपको ‘मम्मी’ कहना सिखाती तो इसने पूछना था - दो मम्मियाँ कैसे? .... आप तो समझती हैं ना, आजकल बच्चे बहुत तेज गति से सोचते हैं। सवालों की झड़ी लगा देते हैं।’

‘स्पन्दन बेटा, आज से तुम मुझे ‘आंटी’ नहीं, ‘बड़ी मम्मी’ बुलाओगी। ठीक है बेटे?’ डॉ. वर्मा ने रेनु की दुविधा को दूर करते हुए कहा।

स्पन्दन ने जैसे इस बात का मर्म समझ लिया हो, स्वीकृति में सिर हिलाया। डॉ. वर्मा को तो प्रसन्नता होनी ही थी, मनमोहन भी मन-ही-मन प्रसन्न हुआ।

खाना खाने के बाद जब डॉ. वर्मा जाने लगी तो बाहर कोहरे को देखते हुए मनमोहन ने कहा - ‘वृंदा, सँभलकर जाना और घर पहुँचकर फ़ोन ज़रूर करना।’

‘मनु, चिंता मत करो। पहुँचकर फ़ोन करती हूँ।’

स्पन्दन के सोने के बाद मनमोहन ने करवट बदलकर लेटी रेनु से पूछा - ‘डार्लिंग, नींद आ गई या जाग रही हो?’

रेनु ने उसी अवस्था में कहा - ‘कहो, क्या बात है?’

‘मैं देख रहा हूँ कि तुझे मेरी सफलता पर कोई ख़ास ख़ुशी नहीं हुई!’

मन में दबाए उद्वेग को और न दबाते हुए रेनु ने अपने मनोभाव प्रकट कर दिए - ‘डॉ. दीदी से मुझे कोई गिला-शिकवा नहीं, लेकिन आपकी पत्नी होने के नाते मुझ गँवार से यह बर्दाश्त नहीं होता कि आप उन्हें पहले नम्बर पर रखें।’

मनमोहन के मस्तिष्क में रेनु की इस धारणा का तत्काल कोई सूत्र नहीं जुड़ पाया, सो उसने पूछा - ‘ऐसा तुम क्यों सोचती हो?’

रेनु ने करवट बदली और मनमोहन की ओर मुख करके कहा - ‘आपके रिज़ल्ट का मुझे डॉ. दीदी से पता चला।’

‘लेकिन मैंने तो तुम्हें फ़ोन करके बताया था।’

‘आपके फ़ोन आने से पहले डॉ. दीदी ने मुझे बधाई दे दी थी।’

‘ओह! तो यह कारण है महारानी के कोपभाजन का!’ बिना किसी लाग-लपेट के मनमोहन ने आगे कहा - ‘तुम तो जानती हो, वृंदा की प्रेरणा से ही मैंने कंपीटिशन में चाँस लिया है, तो उसे तो पहले बताना ही था। ... मुझे नहीं पता था कि तुम इतनी छोटी-सी बात को दिल से लगा लोगी।’

‘आपके लिये यह छोटी बात हो सकती है! डॉ. दीदी ने क्या सोचा होगा, जब मैंने उनसे पूछा - बधाई किस बात की?’

‘अरे, वृंदा इन छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं देती। जब वह बधाई देने आ रही थी तो खाना तो हमें बनाना चाहिए था, लेकिन नहीं, उसे तुम्हारी सेहत का अधिक ख़्याल है, इसलिए खाना अपने घर से बनवाकर लाई।’

मनमोहन की इस बात ने रेनु को निरुत्तर कर दिया। उसके मन की मैल धुल गयी। उसने बाँहें मनमोहन के गले में डालते हुए कहा - ‘बधाई हो मेरी जान! … मैं क्यों नहीं उस तरह सोच पाती, जिस तरह आप सोचते हैं!’

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