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समय की नब्ज पहिचानों - 2

समय की नब्ज पहिचानों2

काव्य संकलन- 2

समर्पण-

समय के वे सभी हस्ताक्षर,

जिन्होने समय की नब्ज को,

भली भाँति परखा,उन्हीं-

के कर कमलों में-सादर।

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

मो.9981284867

दो शब्द-

मानव जीवन के,अनूठे और अनसुलझे प्रश्नों को लेकर यह काव्य संकलन-समय की नब्ज पहिचानों-के स्फुरण संवादों को इसकी काव्य धरती बनाया गया है,जिसमें सुमन पंखुड़ियों की कोमलता में भी चुभन का अहिसास-सा होता है।मानव जीवन की कोमल और कठोर भूमि को कुरेदने की शक्ति सी है।मेरी तरह ही,आपकी मानस भाव भूमि को यह संकलन सरसाएगा। इन्हीं आशाओं के साथ-सादर समर्पित।

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

गुप्ता पुरा डबरा

ग्वा.-(म.प्र)

खूब ही डुबकी लगाई,नोन के इस घाट पर-

इस तरह जीवन हमारा,कट गया इस बार भी।।

वे सभी चौरासियाँ भी,काट लीं इस दौर में-

है अदा-चुकता सभी से,कर्ज अब कोई नहीं।।

हम धनी इस रास्ते के,और साहूकार है-

हाथ थामें हम तुम्हारा,तुम हमारा थाम लो।।

नमक सी ये जिंदगी है,हर किसी को दिख रही-

नहीं पता,वह जाए ये कब,है भरोसा कौन को।।

इसलिए हो लो इकट्टे,इस जगत के घाट पर-

कब बिछुड़ जाएगे हमदम,है पता इसका तुम्हें।।

गिर रहे है किस लिए,परदे इस चौखट-

तुम हजारों साल से,देखे गए,वे परद से।।

सीखते लड़ना लड़ाना,लोग अपने घरों से-

और फिर पूरा वतन ही, है इसी की दौड़ में।।

है चतुर वे लोग,जो लड़ते नहीं है-

दूसरों को लड़ा कर,देखे तमाशा।।

यदि चलो तुम,न्याय की ही राह चुनकर-

न्याय घर की होऐगी नहिं,फिर जरुरत।।

यदि सभी बदलें खुदी में, तो खुदा की खैर है-

न्याय के मुंशिफ सभी,तब ऊँघकर सो जाएगे।।

ये अदालत और कचहरी,न्याय के अड्डे नहीं-

लोग इनसे ही, तबाही दौर में, जीते रहे।।

माँगकर भी मिल सकें,ऐसा नामुमकिन-

वे, धड़ल्ले माँगकर जब खा रहे वे आज भी।।

आज कल तूँ माँगना अब बंद कर दें-

वो जमाना चुक गया,जो रहा अनमोल था।।

दिल लगी,यदि रख सको,दिल में ही रक्खो-

ये बाजारु चीज ना,पगले समझ जा।।

लग गई जिसके दिलो में,चोट गहरी-

बिलबिलाते घाँव गहरे,मरहमों से नहिं पुरैं।।

जिंदगी की दाँस्ता,लम्बी है मित्रों-

सुन सको तो सुनो,काम आऐगी कभी।।

जिंदगी की साँझ हो,होलें भलां ही-

हौसले का सूर्य तो,है आसमाँ में।।

सोचा मैंने,बीते दिन भी,काम नहीं अब आऐगे-

किन्तु पुराना बक्सा खोला,तो देखा सब रक्खे है।।

फाड़ सकते चिठ्ठियाँ मेरी,वे रहबर-

पर जिगर में,लाल स्याही से लिखीं है।।

मोड़ते है जहाँ सफा,कुछ है वहाँ पर-

लग रहा वो,जिंदगी दस्तूर है कोई।।

पृष्ठ का मुड़ना,नया इक मोड़ होता-

मुड़ गई जो जिंदगी,कोहनूर बनती।।

पच्छियों से सुन सको,जीवन कथाऐ-

सुबह की चहकन औ लौटे शाम की भी।।

कह रही क्या ये समां,नदियों की कल-कल-

क्या कभी भूले भटकते,गुफ्त गू इनसे करीं।।

तुम पिओ हर रोज,हम मदहोश होते-

क्या नशा है-जान लो,अंतर यही बस।।

वह नशा क्याॽरोज ही पीकर, उतरता-

बिन पिए मदहोश हो,सच में नशा वो।।

ये क्षणिक सी जिंदगी,सामां ये इतने-

लद रहे क्योंॽऊँट बनकर आज भी तुम।।

राह लम्बी और ये चौड़े मरुस्थल-

सरखफाई किस लिए,जिंदगी कै साल कीं।।

नफरतों के बीज मत बोओ कभी भी-

नाँगफनियों सी धरा,सहज ही बन जाऐगी।।

क्यौं बनाते हो,धरा शमसान जैसी-

नफरतों की जंग,मत छेड़ों यहाँ।।

द्वेश के थूफान,जब-जब यहाँ उठे है-

ये धरा भी,सागरों में खो गई है।।

प्यास इतनी बढ़ गई,सूखे समंदर-

इस धरा पर और क्या रह पाऐगा।।

जिंदगी तो,सुख-गमों को दौर है-

मत समझ इसको,सुहानी चाँदनी ही।।

दूर के,वे ढोल लगते है सुहाने-

जिंदगी का ही तमाशा,वह सभी।।

पसीने की कहानी को,पसीना बहा कर जानो-

नहीं कुछ जान सकते हो,कभी भी बैठकर ऐ.सी.।।

झाँखकर खिड़की से केवल समझ सकते नहीं हमें-

नजारा बहुत है उल्टा,कभी क्या धूप में खेले।।

तुम्हारे संगमरमर महल भी,किस काम के बोलो-

हमारी झोपड़ी के घौसलों में,चहकते बच्चे।।

बड़े है महल जो जितने नहीं आंगन वहाँ मिलते-

सुनहरी धूप को तरसे,तुलसी का खड़ा विरबा।।

जहाँ सुख साज बजते हो,नहीं वो झोपड़ी छोटी-

छोटे महल होते है,जहाँ किलकारियाँ सूनी।।

क्षण-क्षण घट-बढ़े नित ही,कभी क्या चाँद से पूछा-

कैसी जिंदगी जीकर भी,मीठी चाँदनी देता।।

कालिख से भरा चहरा,कभी क्या चाँद सा होता-

जिसने बाँट दी खुशियाँ,जहाँ में वो बड़ा होता।।

उजाडू शहर ये इतना,फिर भी रोशनी नहाता-

कहीं कुछ दूध में काला,तुम्हें चलना संभलकर के।।

ऊपर साफ सुथरे है,अंदर गँजियाँ मैलीं-

लेपें इत्र कितनी भी,बदबू के खजाने है।।

यह सफर है,गले मिल कट जाएगा-

बरना,खो देगीं तुमको ये पगडंडियाँ।।

चाल टेढ़ी क्योंॽ साथ कुछ जाऐगाॽ

काट ले हंस बोलकर,जीवन यहाँ।।

चल संभल के,मद भरा क्यों डोलता-

यह सुनहरी जिंदगी,कुछ जान लें।।

जब चले फौलाद-कुब्बत,ये कलम।

स्वर्ग होगा धरा पर,करलो यंकी।।

तीर औ शम्शीर, तोपें बम्ब भी।

चले है जब भी,इसारे कलम के।।

इतना सताना इन्हें भी,ठीक तो होता नहीं।

ये खड़े जब-जब हुए,नहीं मिलें है कफन भी।।

क्या कभी देखा है इनकी,कुब्बते-शम्शीर को।

कफन भी वे तार होगे,इस पसीने से जरा।।

इस पसीने से महक ले,धूल जब-जब है सनी।

स्वर्ग बन जाते अनेकों,इस धरा की कूँख में।।

लख पसीना टपकते,बूँद में सागर थमा।

शर्म से शर्मा गयी है,चिलचिलाती धूप भी।।

उठती हुयीं ये उंगलियाँ,स्वंय ही मुड़ जाऐगी।

बनो तो थोड़े से इंसा,खुदा के इंसाफ के।।

इस दर्द की पीर जब,गाने लगेगी गीत कुछ।

सच कहूँ हर हाल में,मौसम बदलते दिखेगे।।

सूर्य भी ठंडा लगेगा,गीत जब गाये पसीना।

खलबलाते जेठ में,बरसात होने लगेगी।।

सब कहें पाषाण दिल,जब मैं उसूलों पर चला।

समझ में आता नहीं,मैं सोच कर हैरान हूँ।।

समझ की तस्तीफ में,अपने पराये हो रहे।

तुम बताओ तो मुझे,अपना किसे अब मैं कहूँ।।

सुलगना भर है मुझे,मैं धधकता अंगार हूँ।

जब तपूँ अपनी तपन पै,टिक नहीं तुम पाओगे।।

चूस मत मुझको तूँ ऐसे,मैं सही हीरा कनी।

लो,संभालो करो में,तो मैं तेरा श्रंगार हूँ।।

खून मेरा चूस कर ही,ये बने इतने बड़े।

पर इन्हें नहिं होश है,जाना नहीं,मैं कोन हूँ।।

मैं अभी तक जानता था,खून यह ना चीज है।

मगर ए क्यों पी रहे है,स्वाद इसमें है जरुर।।

तुम पुकारो तो मुझे,क्यों रहे हो सोचतेॽ

लौट आता हूँ फलक से,मैं तुम्हारे पास हूँ।।

बार कितनी ही मिला,तुम भूलते मुझको गये।

देखना तुमको पड़ेगा,मैं तुम्हारे पास हूँ।।

ऐ लोहा मेरे खून पारस से,सदाँ कंचन बना है।

पारस कोई पत्थर नहीं है,वो सही इंसान है।।

मेरे खून से,बनता है सोना जरुर।

पर वे तौर तरीके,कुछ अलग है।।

तुम,ईमान पर भी,कर रहे हो सक।

चुक गया सारा,सभी जिसके लिये।।

क्यों करो शक दोस्तों,ईमान तो ईमान है।

क्या तराजू है कहींॽऔर तौल सकता है कोई।।

हैं गवाही आज भी,पृष्ठ ये इतिहास के।

धन-धरा,परिवार,तन भी,त्याग अमृत हो गये।।

हो गये है आज तक,समझाते कितने।

पर किसी भी बात पर,तुम तो टिकाऊ हो नहीं।।

जानता सारा जहाँ है,ये तुम्हारी हरकतें।

अब नहीं रुकते-रुके,तुम बाज आने से रहे।।

बहुत नाजुक है ये जिंदगी,इसे रुलाना मत।

बहारों सी खुशी दो इसको,बरना ये कहीं की नहीं।।

वैसे,रोते-रोते भी,कट जाती है ये जिंदगी।

अगर जीना है सही,तो हँसते हसाते रहो।।

तुम खुदा तो नहीं,जो मैं तुमसे डरुँ।

तुम्हारे जैसे सैकड़ो देखे,डरा तो बस खुदा से।।

इसे तुम ले नहीं सकते,ये अमानत खुदा की है।

फिर डरुँ क्योंॽतुम खुदा तो नहीं।।

तुम्हारे जुल्म,अपने आप ढह जाऐगे क्योंकि।

जुल्म,जुल्म होते है,गवाही की जरुरत नहीं।।

है तवाही दौर का,मंजर यहाँ।

भूँख से मरने लगे,हैं आदमी।।

लोग गिरते जा रहे,होश से चलना जरा।

अंधे नहीं,वे लोग, उनके चार आँखे लगी।।

आज से ही तो नहीं,मुद्दतें बीतीं मगर।

नहिं बदल पाये है अबतक,इस जमाने के चलन।।

रोशन अपने आप ही,हो जाऐगी ये शमां।

जरा चाँद को तो उगने दो आसमां में।।

तुम चलने से पहले,इस तरह से काँपते हो।

क्या भरोसा है कि तुम्हें,मंजिले मिलेगी।।

अपने आप ही,दूर हो जाऐगा ये अंधेरा।

तुम उठाओ तो मंका,जरा रोशनी के।।

इन नशों में खो रहे क्यों बख्त अपना।

यदि पीते हो तो पियो,जाम भरकर दर्द के।।

दर्द से बढ़कर नशा,है नहीं कोई जिगर।

जो मजा उसमें मिलेगा,वो कहीं ढूँढे नहीं।।

स्वाभिमान ही तो हमें,जिंदा रखे हैं आजतक।

बरना हम,कभी के होते,जमाने के मुताबिक।।

हम खुद्दारी में,मरकर भी जिंदा रहे है।

क्या समझे,ये सभी के,बूते की बात नहीं।।

चाँद,तारों को ही गिनते,रात जब गुजरी तेरी।

बात पुख्ता तो नहीं,है रात सोने के लिये।।

रात में सोये नहीं तुम,पेट की सरगम लिये।

बात झूँठी है नहीं,दे रहे तारे गवाही।।

राह तेरी है अलग,उस राह से मैं अलग हूँ।

नहिं हुआ समझौता अबतक,बात कुछ ऐसी रही।।

हालात भी तो मुझे,अपना नहीं बना सके।

क्योंकि मैं तो शुरु से,हालात पर भारी रहा हूँ।।

पेट से बड़ा,हो नहीं सकता तुम्हारा दिल।

क्योंकि तबाही का दौर भी,तो यही पेट है।।

लोग भाग रहे है,एक मुद्दत से यहाँ।

क्योंकि आदमी का पेट,भरता ही नहीं कभी।।

हालातों ने,बदलने को,किया बहुत मजबूर।

मगर मैं था,जो,कुछ कर नहीं सकीं हालात।।

जब हम कुछ होगें,तो जमाना भी हमारे साथ होगा।

कोई भी हिला नहीं सकता,मेरे किरदार को।।

गिरगिटों को व्यर्थ ही,बदनाम कर रहे है।

रंग बदलना ही तो सीखा,इन सभी ने आदमी से।।

वर्ष में इकबार गिरगिट रंग बदलते।

आदमी तो बदलते है,पल-पलों में।।

तुम इन्हें ख्बाबे शेर,जो कुछ भी समझो।

चुनाँचे ये मेरी,अपनी कहन के तरीके है।।

मैं कुछ भी कहता हूँ,अल्फाज नहीं,हकीकत है।

गुजर कर आयी है कश्ती,अनेकों काट कर धारें।।

सच कहने में भी,तुम्हें क्योंकर बुराई है।

क्या मैं कह नहीं सकता,अनेकों जुर्म सहकर भी।।

तुम अभी-भी,सच को सच,कहना नहीं सीखे।

फिर तो तुम्हें जीने का,हक भी नहीं बनता।।

हमने कौन से पत्थर,फैंके है तुम्हारे घर पर।

अरे जुल्म को तो जुल्म कहो,न कहना क्या जुर्म नहीं।।

जो लदा होता है कहीं फल-भार से,सदां झुकता।

अरण्डों को कभी,झुकने का सलीका भी आया।।

क्यों इतराता है इतना,अरे झुक कर तो देख।

सारी दुनियां तुझे,झुकते ही नजर आऐगी।।

सीख लें एक पेंच,झुकने का अनूठा कोई।

जो झुका खुद में,खुदा भी झुक गया समझो।।

गोंदरा धार में,देखो,खड़ा भी रह सका झुककर।

वो गहरी जड़ो के दरखत,औधे मुँह गिरे देखे।।

तुम अपनी समझ को,कुछ और निखार कर देखो।

ये हकीकतें है,इन्हें अपने आप समझ जाओगे।।

खुदा की आयतें समझो,उतर ये फलक से आयीं।

इन्हें लिखने लिखाने की,समझ लो,क्या जरुरत है।।

जब तुम सब कुछ,समझ जाओगे निशार।

बिल्कुल चुप होकर,सिर्फ शिर हिलाओगे।।

वो इल्म,जब तुम्हारी,जहन में आ जायेगा।

तुम खुदा को खुद-व-खुद,समझने लग जाओगे।।

तुम्हारे ऐब के पहलू,उजागर हो गये लेकिन।

दबे है सिर्फ तब तक ही,पैसा हाथ में जबतक।।

जरा कुछ सोच के चललो,पैसा है नहीं सबकुछ।

ये सपने ही तिजोरी,अन्त खाली हाथ ही चलना।।

समझता हूँ सभी रहबर,तसल्ली दे रहे मुझको।

पुरानी नाव है जर-जर,किनारे पहुँच जायेगी।।

तसल्ली कब तलक दोगे,मैं भी समझता सबकुछ।

फैसला होयेगा वो ही,जिसे हम तुम समझते है।।

रोकते ही रह गये,हालात के रोड़े मुझे।

पर चला दे ठोकरें,लक्ष्य को भूला नहीं।।

बहुत रोका था मुझे,हर मोड़ पर हालात ने।

रुक न पाये ये कदम अरु हार मानी राह ने।।

कह रहा हालात ये सबकुछ कहानी आज भी।

छोड़ कर नहीं चल सका,क्या कहूँ स्वाभिमान को।।

क्यों उठाने फन लगेंॽफुंकार ही तो बहुत है।

ये जमाना जानता,तुम किसी के भी हो नहीं।।

हर तुम्हारी चाल को भी,जानते है सब कोई।

हो नहीं सकते हो अच्छे,काटते दबकर सदां।।

इस जमाने ने तुम्हारी,खूब ही पूजा की।

दूध पीकर भी हमेशा,उगलते विष ही रहे।।

क्या खरीदोगेॽबताओ आज के बाजारो में।

मोल मांटी के यहाँ पर,अस्मतें भी बिक रहीं।।

है नहीं संकोच कोई,ये खुला बाजार है।

बेच लो,सबकुछ खरीदो,कौन किससे कम रहा।।

है नहीं कोई भी पर्दा,मुल्क की तासीर में।

नांचते सबकुछ दिखा है,देख लो वे पर्द भी।।

आज के हालात,इतने गिर चुके साथी।

आदमी को,आदमी कहना बड़ा मुश्किल।।

आज के भगवान कैसेॽकंचनों से तुल रहे।

वे पैंदी से लुढ़कते है,इस तरफ से उस तरफ।।

बनना चाहो खरा सोना,खुद कसौटी पर कसो।

बरना तुम्हें इंसान कहनें में शर्म आती हमें।।

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