The Natya Lok and Psychology of Bhavabhuti books and stories free download online pdf in Hindi

भवभूति का नाट्य लोक और मनोविज्ञान

जीवन के इस सुंदर तम उद्यान में हृदय के भावों की सुषमा चारों ओर बिखरी हुई है। कभी कोई ऐसा विशेष क्षण आता है जब वह तूलिका के चित्र में बंध जाने के लिए बाध्य हो जाती है। आंसुओं की गहराई और अधरों पर मधुर मुस्कान यही तो सब नाटक की विशेषता है। नाटककार जीवन का मार्मिक सखा होता है। वर्षों के साहचर्य से उसे जीवन की प्रत्येक मुस्कान और उसके पीछे छिपे हुए उच्छवास की गहराई का भली-भांति ज्ञान होता है। यही कारण है कि प्रेम और करुणा जैसे गहन भावों को उभारने में महाकवि भवभूति सिद्धहस्त हैं

न तत्ज्ञानम, न तत्शिल्पम, न सा विद्या न सा कला
ना सो योगो न तत्कर्म नाट्ये अश्मिन यन,न दृश्यते।

जीवन की संपूर्ण गहराई नाट्य कला में ही दृष्टिगोचर होती है--- काव्येषु नाटकम, रम्यं---- वास्तव में श्रव्य काव्य की अपेक्षा दृश्य काव्य अधिक ह्रदय ग्राही, आकर्षक, मनोरंजक एवं भावों का स्फूट अभिव्यक्त होता है । दिल को छू लेने वाली गहराई नाटक के अतिरिक्त और कहां संभव है? यही कारण है कि मनोविज्ञान के पारखी महाकवि भवभूति ने जीवन के वास्तविक सत्य को दर्शकों और पाठकों तक पहुंचाने हेतु नाट्य कला का ही चयन किया। उन्होंने नाटक के राम में अपने काव्य की अजस्र धारा ही प्रवाहित कर दी है क्योंकि वह मनोविज्ञान के इस तथ्य से भली-भांति परिचित थे कि सशक्त माध्यम द्वारा ही सत्य को प्रभावी व हृदयस्पर्शी बनाया जा सकता है।

महाकवि भवभूति ने अपनी प्रथम नाट्य कृति महावीर चरितम में परंपरागत रूप से चली आ रही रामकथा को, पाठकों व दर्शकों की मनोभावना व रुचि के अनुकूल कथानक को नया मोड़ देकर अपने मनोविज्ञान संबंधी अलौकिक प्रतिभा का परिचय दिया है ,क्योंकि मनोविज्ञान का पारखी कवि ही अपने पाठकों के भावों व रुचियां को समझने में निपुण होता है। भवभूति जानते थे कि नायक राम का चित्रण अलौकिक शक्ति संपन्न भगवान के रूप में करना लोक भावनाओं के अनुकूल ना होगा और इसीलिए श्री राम को एक आदर्श महावीर के रूप में चित्रित किया गया ,जो लोक कल्याण के वाधक तत्वों का नाश कर संसार को अभय दान दे सके। लोकमानस से उत्पन्न होने वाली लांछन संभावनाओं को ध्यान में रखकर ही भवभूति ने अपने नायक राम के चरित्र को सूर्पनखा और बाली जैसी घटनाओं से दोषमुक्त बनाए रखा है।

क्योंकि भवभूति मनोविज्ञान के इस सिद्धांत से भलीभांति परिचित थे कि व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों का परिष्कार साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से ही संभव है। इसीलिए नाटक के कथानक के माध्यम से युवाओं को प्रेम रस सागर में गोते लगाने हेतु स्वच्छंद छोड़ दिया।


"मालती माधव" में नायक नायिका की प्रणय कथा के माध्यम से युवावस्था के उन्मत्तकारी प्रेम का विशद चित्र अंकित कर अपने युवा दर्शकों की श्रंगारिक भावना के प्रवाह की पूर्ण संतुष्टि कर दी है परंतु कथानक के अंत में नायक नायिका को प्रणय सूत्र में बांधकर उसे उन्मत्त प्रेम की गहराई प्रदान कर, मनोविज्ञान में वर्णित प्रेम जैसी आवश्यक मूल प्रवृत्ति को भी मानो भारतीय संस्कृति के आदर्श अवगुण्ठन से सुशोभित कर दिया है।

उत्तररामचरितम् तो महाकवि भवभूति का श्रेष्ठतम नाटक ग्रंथ है । इसमें कवि की मनोवैज्ञानिकता मानो अपनी उच्चतम सीमा को छू गई है । भावों के हृदयस्पर्शी चित्रण के कारण ही संस्कृत कवियों में भवभूति की श्रेष्ठता सिद्ध होती है---- उत्तररामचरिते भवभूति : विशिष्यते ।----

नाटक की कथा का प्रारंभ मूलतः सीता के परित्याग से होता है परंतु मनोविज्ञान के पारखी कवि भवभूति इस तथ्य को भली-भांति जानते थे कि प्रारंभ में ही अचानक निर्दोष सीता का परित्याग दर्शकों के कोमल ह्रदय पर बज्र घात का कार्य कर सकता है इन्हीं कोमल भावनाओं की सुरक्षा हेतु दुखद घटना की अचानक सूचना देने के पूर्व एक समुचित पृष्ठभूमि तैयार कर कवि ने मनोवैज्ञानिक कुशलता का ही परिचय दिया है । श्रीराम पूजा के अनुरंजन का अनुकूल बहाना ढूंढ कर सीता को वन में निर्वासित कर देते हैं। इसके पूर्व ही सीता द्वारा वनवास के चित्रों का दर्शन करते समय स्वयं वन देखने की इच्छा प्रकट करवा कर कवि ने सीता वनवास की घटना को रुचि अनुकूल बताते हुए न केवल मनोवैज्ञानिकता का परिचय दिया है अपितु श्री राम के कृत्य का औचित्य भी सिद्ध कर दिया है ।


नाटक के प्रारंभ में ही अष्टावक्र ऋषि द्वारा दिए जाने वाले कुल गुरु वशिष्ठ के संदेश से यह स्पष्ट होता है कि प्रथम----- गर्भवती सीता के मनोविनोद के लिए ही श्री राम को अयोध्या में रखा गया है दूसरा----- प्रजा का अनुरंजन करना राजाराम का प्रधान कर्तव्य है और तीसरा---- राज्य भार नया है और अवस्था भी नई है अतः प्रमाद न करना। गुरु के इस छोटे से संदेश के माध्यम से कवि ने मनोविज्ञान के तीन गहन तथा उच्चतम सिद्धांतों को बड़ी ही कुशलता के साथ प्रकट कर दिया है। प्रथम यह की गर्भावस्था के समय नारी का प्रसन्न चित् रहना आवश्यक है क्योंकि मां की मानसिकता का सीधा प्रभाव गर्भस्थ शिशु की भावना पर पड़ता है । इसी तथ्य की रक्षा के लिए सीता बनवास के पूर्व चित्रों के माध्यम से स्वयं सीता द्वारा वन दर्शन की इच्छा प्रकट करवा कर कवि ने गर्भस्थ शिशु को विपरीत मानसिकता के प्रभाव से बचा लिया है।

दूसरा यह है कि लोक रंजन को राजा का प्रधान कर्तव्य बताकर दूषित लोक वृत्ति द्वारा समाज पर पड़ने वाले कुं प्रभावों को मानो स्वत: ही स्पष्ट कर दिया है। सामाजिक मनोविश्लेषणवाद के अनुसार समूह में पनपने वाली अच्छी या बुरी भावना का उस समाज की उन्नति व अवनति पर सीधा प्रभाव पड़ता है। किसी समाज के व्यक्ति यदि निरंतर नकारात्मक चिंतन का शिकार हो जाएं तो निश्चित ही उस समाज को पतन के गर्त तक पहुंचने में अधिक समय नहीं लगेगा। इसी कारण समाज कल्याण के हित में भी भवभूति के राजा राम सीता की पवित्रता तथा अग्नि शुद्धि को हृदय से स्वीकार करने के पश्चात भी सामाजिक वातावरण को दूषित होने से रोकने हेतु तथा लोकरंजन हेतु देवी सीता का परित्याग कर देते हैं। उदात्त गुणों वाले राजा राम की इस अभूतपूर्व घटना को भी सहज एवं स्वाभाविक बनाने हेतु कवि राम के मुख से पूर्व में ही यह उद्घोषणा करवा देते हैं

स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि ।
आराधनाय लोकस्य मुंचतो नास्ति मे व्यथा।।

इससे यह स्पष्ट हो जाता है की देवी सीता का परित्याग केवल लोकापवाद के कारण किया है किसी मनोमालिन्य के कारण नहीं ।

उत्तररामचरितम् में श्रंगार के संयोग और वियोग दोनों ही भावों का मनोविश्लेषणात्मक वर्णन भी दर्शनीय है। प्रिय स्पर्श द्वारा अनुभूत आनंद अनुभूति को कवि ने तृतीय अंक के 12 वे तथा 14 वे श्लोक मे

स्पर्श: पुरा परिचितों नियतम, स एव
स जीवनस्य मनस: परितोषणश्च।
प्रसाद इवं मूर्तस्ते स्पर्श: स्नेहाद्र शीतल ।
अध्यापि आनंदयति मां ।

कह कर मानो पाठकों को भी कोमल स्पर्श सुख के आनंद से द्रवीभूत कर दिया है।

इस तृतीय अंक के 17 में श्लोक में

अंतःकरण तत्वस्य दंपतयों: स्नेह संश्यात,
आनंद ग्रंथि परेको अयमपत्याभिति पठ्यते ।।

इस श्लोक के द्वारा संतानोत्पत्ति को प्रेम की पराकाष्ठा कहकर कवि ने प्रेम के महत्व को अनंत ऊंचाई तक पहुंचा दिया है। दूसरी ओर कवि का मानना है कि बिरह अग्नि में तप कर ही प्रेम रूपी कंचन खरा बनता है ऐसा सच्चा प्रेम बड़े ही भाग्य से उपलब्ध होता है । भवभूति कहते हैं कि प्रेम की पुष्टि हेतु वाहय कारणों की आवश्यकता नहीं होती वह तो कोई अभ्यंतर अनिर्वचनीय कारण है जो दो हृदयो को मिलाता है । संपूर्ण नाटक में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के मनोभावों का सूक्ष्म विश्लेषण सीमा का अतिक्रमण कर गया है जो किसी सहृदय को आकृष्ट किए बिना नहीं रहता।

"अंतर की वेदना एकीभूत होकर तीव्र रूप धारण कर लेती है" मनोविज्ञान के सिद्धांत को तृतीय अंक के प्रारंभ में ही

अनिर्भिन्नो गंभीरत्वादन्तःरमूढ धनष्यथ विशाल: ।
पुटपाक प्रतीकाशो रामस्य करुणो रस:।।

इस श्लोक में पुटपाक शब्द द्वारा उसकी सार्थकता को सिद्ध किया है। "अंदर का संताप अश्रु के माध्यम से निकल कर मन को हल्का बना देता है"---- मनोविज्ञान के सिद्धांत की पुष्टि के लिए ही कवि ने नायक राम को अनेक स्थलों पर अश्रु धारा बहाते हुए दर्शाया है। श्री राम का सारा प्रसंग करुण रस में डूबा हुआ सा दृष्टिगत होता है। वास्तव में बिरह में भी कितना उल्लास कितनी शांति है।

"जो कभी किसी की स्मृति में तड़प तड़प कर, चीख चीख कर रोया नहीं ,वह जीवन के ऐसे सुख से वंचित है जिस पर सैकड़ों मुस्कान न्योछावर है।"

एकोरस: करुणेव के समर्थक भवभूति के राम और सीता दोनों ही वियोग की इसी अवस्था की मानो साकार मूर्ति हैं।

महाकवि भवभूति जहां एक और प्रेम और करुणा जैसे भावों के चित्रण में सिद्धहस्त हैं वहीं दूसरी ओर उनकी नाटय कृति शिक्षा मनोविज्ञान के सिद्धांतों से भी अछूती नहीं है। द्वितीय अंक के चतुर्थ श्लोक में
"वितरति गुरु: प्राज्ञ विद्याम यथैव तथा जड़े" कहकर गुरुद्वारा सभी को समान भाव से शिक्षा देने के सिद्धांत की ही पुष्टि की है । इसके विपरीत किसी विशिष्ट बालक की ओर गुरुद्वारा विशेष ध्यान देने के कारण अन्य छात्रों का उपेक्षित हो जाना एवं शाला त्यागने हेतु बाध्य हो जाना , बाल मनोविज्ञान व शिक्षा मनोविज्ञान के अनेक सिद्धांतों की पुष्टि करता है। उत्तररामचरित में भी अति मेधावी छात्र लव कुश की ओर अधिक ध्यान दिए जाने के कारण अन्य अल्प मेधावी छात्रों का पिछड़ना तथा आत्रेयी द्वारा बाल्मीकि आश्रम छोड़कर अन्यत्र आश्रम में चले जाना इन सब घटनाओं के उल्लेख से यह स्पष्ट है कि भवभूति बाल मनोविज्ञान एवं शिक्षा मनोविज्ञान के भी कुशल पारखी हैं। वे मनोविज्ञान के इस अकाट्य सिद्धांतों के भी पक्षधर रहे हैं कि अच्छी संगति बुरे व्यक्ति का भी उद्धार कर देती है।

अंततः हम कह सकते हैं कि पदे पदे भावों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ही आचार्य भवभूति की अपनीं अनोखी विशेषता है । वस्तुतः उनका नाट्य साहित्य कुछ ऐसा ही है, मानो सुकुमार भावों के साथ सुशीलता जुड़ी हो , मानसिक मृदुता के साथ चारित्रिक दृढ़ता सजी हो, गहन अंतस वेदना के साथ प्रेम संजोया गया हो , अपार वैभव के संग विपुल वैराग्य गुॅथा हो, संभवतः विश्व साहित्य ऐसा पुनः न सॅजो सके।



इति

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