Inclusion of human rights education in teacher training courses books and stories free download online pdf in Hindi

शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में मानवाधिकारों की शिक्षा का समावेश

हर युग का ज्ञान कला देती रहती है ।
हर युग की शोभा स्त्री लेती रहती है ।
इन दोनों से भूषित वेशित और मंडित।
हर शिक्षक वाणी एक दिव्य कथा कहती है।

मानव जाति के क्रमबद्ध सुव्यवस्थित और सकारात्मक विकास के उच्चतम शिखर तक पहुंचने के लिए मानवाधिकारों का संरक्षण एवं उनके सदुपयोग की आवश्यकता सदैव से ही स्वीकार की जाती रही है और की जाती रहेगी। किसी भी लोकप्रिय और न्याय प्रिय समाज द्वारा मानवाधिकार के इस अहम तत्व को नकारा नहीं जा सकता।

मानवाधिकार किसी एक देश की सरहदों से ऊंची अवधारणा ही नहीं है वरन संपूर्ण विश्व के प्राणी मात्र के कल्याण संवर्धन व संरक्षण की परिपूर्ण परिकल्पना है। मानवाधिकार एक विचारधारा है जो संपूर्ण प्राणी जगत को उनकी सुख समृद्धि व स्वतंत्रता का आश्वासन देती है।

वर्तमान की इस बहुचर्चित अवधारणा का जन्म 1946 में हुआ जब विश्व के कुछ प्रबुद्ध नागरिकों ने मानव अधकारों के
सार्वभौमिक घोषणा पत्र को तैयार करना प्रारंभ किया। 10 दिसंबर 1948 के ऐतिहासिक दिन श्रीमती एलिनर रूजवेल्ट की अध्यक्षता में संयुक्त राष्ट्र संघ की असाधारण महासभा में संपूर्ण विश्व के नागरिकों के लिए मानवाधिकारों का सार्वभौमिक घोषणा पत्र प्रस्तुत किया गया । इस घोषणापत्र में मानव मात्र की स्वतंत्रता को अत्यंत व्यापक अर्थों में उसके नैसर्गिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया। अपनी इच्छा अनुसार भ्रमण की आजादी ,अभिव्यक्ति की आजादी , सूचना प्राप्त करने का अधिकार आदि अनेकों अधिकारों को मानवाधिकारों के रूप में समाहित किया गया ।

मानवाधिकारों के रूप में सभा का यह सार्वभौमिक घोषणा पत्र मानव इतिहास का अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो मानवीय जीवन की प्रतिष्ठा, उसके सम्मान की रक्षा तथा उसके विकास के लिए हर संभव प्रयास करने के प्रति प्रत्येक शासन व्यवस्था की जवाबदेही निश्चित करता है ।

भारत जैसे लोकतांत्रिक शासन पद्धति वाले देश में मानवाधिकार की धारणा और भी अधिक प्रभावी तथा अत्यंत महत्वपूर्ण बन जाती है क्योंकि प्रजातांत्रिक देशों में शासन का मूल जनता ही होती है तथा शासन के समस्त क्रियाकलाप जन कल्याणकारी भावना लिए हुए होते हैं । जनता के मूलभूत अधिकारों की रक्षा लोकतंत्र की मूल भावना है , जिसकी पूर्ति के अभाव में लोकतंत्रीय पद्धति का अस्तित्व ही संकट में हो जाता है। किसी भी देश की सर्वोत्कृष्ट , सर्वाधिक मूल्यवान संपदा उसका नागरिक होता है। यदि किसी देश के नागरिक दीन हीन, विपन्न ,उत्क्रमणीय ,अशिक्षित तथा सामाजिक चेतनाविहीन हो तो उस देश में लोकतंत्र की धारणा अर्थहीन हो जाती"है। नागरिकों में चेतना शक्ति जागृत करने की दिशा में "शिक्षा" नींव के पत्थर का कार्य करती है। शिक्षा ही वह आधारशिला है, जो बालकों में अच्छे संस्कारों का बीजारोपण, कर बालकों के सर्वांगीण विकास रूपी अट्टालिका का निर्माण करती है। शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य जीवन की पूर्णता मैं ही निहित है। मानव जीवन की अपूर्णता उसके अधिकार और कर्तव्य रूपी ताने बाने से मिलकर ही संभव है। शिक्षा के बल पर ही सभ्यता और संस्कृति सुरक्षित हैं। शिक्षालय ही वह कार्यशाला है जहां देश के भविष्य का निर्माण होता है । यहां पर देश के कर्णधार सच्ची नागरिकता के सांचे में ढाले जाते हैं और शिक्षक ही वह सूत्रधार है जो देश के भावी नागरिकों को मानवाधिकारों के वास्तविक अर्थ से अवगत करा उन्हें राष्ट्र निर्माण की दिशा में कर्तव्यनिष्ठ बनने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।

राष्ट्र के भावी कर्णधारो के निर्माता शिक्षकों को आदर्श शिक्षक के सांचे में ढालने में मदद करती है--- प्रशिक्षण संस्थाएं।

जो स्वयं के अधिकार एवं कर्तव्य से अनभिज्ञ हो वह भला किसी दूसरे को दिशा बोध कैसे करा सकता है? यदि हम चाहते हैं कि देश का हर बालक अपने अधिकारों से परिचित हो तो सबसे पहले हमें शिक्षित वर्ग को अपने अधिकार व समाज के प्रति अपने कर्तव्य से परिचित कराना होगा । शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम इस दिशा में एक सेतु के समान है जिसके माध्यम से शिक्षकों के अंतर में मानवाधिकारों की चेतना जागृत की जा सकती है।

इतिहास साक्षी है कि जब जब भी समाज व राष्ट्र की किसी भी समस्या के निराकरण हेतु अन्य सभी साधन धराशाई हो गए उस समय शिक्षक और शिक्षा ही एकमात्र ऐसे सशक्त साधन सिद्ध हुए हैं जिसके सामने हर अज्ञानता को घुटने टेकने पड़े हैं। आज भी जब हम चाहते हैं कि मानव अधिकार के प्रति जन-जन में चेतना जागृत हो तो सबसे पहले हमें शिक्षक को जगाना होगा, उसमें चेतना शक्ति के प्राण फूंकने होंगे , उन्हें मानव अधिकारों के प्रति पूर्ण जागृत बनाना होगा और तभी समाज के जन-जन में मानवाधिकारों के प्रति चेतनता व जागरूकता आ पाना संभव है।

यदि हम भारत वर्ष के महान अतीत के झरोखे में झांक कर देखे तो गुरु विश्वामित्र ,संदीपनि, मुनि वशिष्ट , गुरु द्रोणाचार्य और आचार्य चाणक्य जैसे अनेकों शिक्षकों को पाते हैं, जिन्होंने मानवाधिकार जैसे गुरु मंत्र के बल पर विभिन्न समय पर समाज को पतन के गर्त में गिरने से बचाया है। भारतीय संस्कृति को गौरवान्वित किया और भारत माता के सम्मान की रक्षा की। मानव अधिकारों के प्रति जागरूक इन शिक्षकों की एक पुकार पर सारा समाज इनका अनुभव हो जाता था। अधिकारों के प्रति जागरूकता और कर्तव्यो के प्रति निष्ठा, किसी भी सुदृढ़ समाज की आधारशिला कही जा सकती है। मानव अधिकारों की सच्चे अर्थों में व्यवहारिक शिक्षा देने वाले इन शिक्षकों के चरणों में राजमुकुट भी नतमस्तक हो जाते थे। इनके चरण कमलों की धूल से राज दरबार और राज सिंहासन भी गौरवान्वित समझे जाते थे। अतीत की महानता को वर्तमान में पुनः साकार बनाने हेतु आज फिर से प्रशिक्षण संस्थाओं में ऐसे महान शिक्षकों के निर्माण का सांचा तैयार करना होगा। उन्हें मानव अधिकारों का सही बोध कराना होगा । "जिओ और जीने दो" की शिक्षा देकर आदर्श नागरिक तैयार करने का गुरु मंत्र हमें अपने शिक्षकों को बताना होगा।

वस्तुतः अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू है। मानव अधिकारों की सुरक्षा तभी संभव है जब एक और अधिकारों के प्रति लोगों को सचेत किया जाए और दूसरी ओर कर्तव्य पालन के लिए भी प्रेरित किया जाए। शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों के द्वारा शिक्षकों को जहां एक और अधिकारों के प्रति जागरूक बनाना है वहीं दूसरी ओर शिक्षकों की कर्तव्य निष्ठा का बोध कराना भी आवश्यक है। शिक्षक एक जलती हुई मशाल है जिसक प्रकाश में समाज ज्ञानरूपी ज्योति को प्रज्ज्वलित करता है। उसके प्रकाश से असंख्य दीपको को ज्ञान का प्रकाश मिलता है। अतः शिक्षक को अपने चरित्र एवं कर्म से महान होना बहुत आवश्यक है क्योंकि उसके चरित्र का अनुकरण कर न जाने कितने चरित्रों का निर्माण होता है।

यदि हम समाज के असंख्य दीपो मैं ज्ञान का प्रकाश पुंज चमकते देखना चाहते हैं तो प्रशिक्षण संस्थाओं में अच्छे शिक्षक तैयार करने होंगे मानव अधकारों को पढ़ाना ही होगा


दीपक के जलते प्राण
दिवाली तभी सुहावन होती है।।

वर्तमान में शिक्षा के बढ़ते स्तर को मानवाधिकार के एक सशक्त पहलू के रूप में स्वीकारना होगा। निसंदेह जस्टिस श्री रंगनाथ मिश्र की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग एक सख्त व सार्थक कदम है। परंतु 10 दिसंबर को प्रतिवर्ष मानव अधिकार दिवस के रूप में कुछ भाषण , संगोष्ठी, चर्चा अधिकार लेने से हमारे कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती बल्कि इस दिशा में सार्थक प्रयोग हेतु मानवाधिकार शिक्षा को शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम का एक आवश्यक अंग बना कर शिक्षकों को इस और जागरूक करना होगा और तभी समाज में जन जागृति संभव है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षक जनकल्याण में समाज के उन्नयन हेतु अपनी अहम भूमिका के महत्व को समझें

कोउ नृप होय हमें का हानि

वाली मानसिकता को निकाल फेंकना होगा और समाज की महत्वपूर्ण इकाई के रूप में अपने कर्तव्य और अधिकारों को पहचानना होगा , स्वीकारना होगा । इन सब कार्यों की सफलता हेतु आवश्यक है कि समय की मांग के अनुसार शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में भी मानवाधिकार शिक्षा को एक आवश्यक पहलू के रूप में स्वीकार किया जाए।

जिस प्रकार सुदृढ़ नींव के अभाव में गगनचुंबी अट्टालिका का निर्माण संभव नहीं है उसी प्रकार शिक्षकों की जागरूकता के बिना समाज में जागृति का मंत्र फूकना भी असंभव है । मानव अधकारों के संवर्धन के बिना , राष्ट्र के निर्माता शिक्षकों में मानव अधिकारों की चेतनता व जागरूकता लाए बिना, ना तो समृद्ध व विकसित राष्ट्र का सृजन संभव है और न ही सुदृढ़ समाज का निर्माण। अतः प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में मानवाधिकार शिक्षा का समावेश कर उससे उनके विकास में शिक्षकों को मशाल की तरह जलाकर समाज में जन जागृति हेतु प्रेरित किया जा सके और वह कह सकें

हम याद आएंगे जमाने को
मिसाल की तरह।
वक्त की दहलीज से
टकरा के न गिर
रास्ते बंद नहीं चलने वालों के लिए।


इति

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