Gunaho ka Devta - 29 books and stories free download online pdf in Hindi

गुनाहों का देवता - 29

भाग 29

''आयी हैं, देखो न! कुछ तबीयत खराब हो गयी है। जी मितला रहा है।'' और उसने बाथरूम की ओर इशारा कर दिया। सुधा बाथरूम में बगल में लोटा रखे सिर झुकाये बैठी थी-''देखो! देखती हो?'' कैलाश बोला, ''देखो, कपूर आ गया।'' सुधा ने देखा और मुश्किल से हाथ जोड़ पायी होगी कि उसे मितली आ गयी...कैलाश दौड़ा और उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगा और चन्दर से बोला-''पंखा लाओ!'' चन्दर हतप्रभ था। उसके मन ने सपना देखा था...सुधा सितारों की तरह जगमगा रही होगी और अपनी रोशनी की बाँहों में चन्दर के प्राणों को सुला देगी। जादूगरनी की तरह अपने प्यार के पंखों से चन्दर की आत्मा के दाग पोंछ देगी। लेकिन यथार्थ कुछ और था। सुधा जादूगरनी, आत्मा की रानी, पवित्रता की साम्राज्ञी सुधा, बाथरूम में बैठी है और उसका पति उसे सान्त्वना दे रहा था।

''क्या कर रहे हो, चन्दर!...पंखा उठाओ जल्दी से।'' कैलाश ने व्यग्रता से कहा। चन्दर चौंक उठा और जाकर पंखा झलने लगा। थोड़ी देर बाद मुँह धोकर सुधा उठी और कराहती हुई-सी जाकर सीट पर बैठ गयी। कैलाश ने एक तकिया पीछे लगा दिया और वह आँख बन्द करके लेट गयी।

चन्दर ने अब सुधा को देखा। सुधा उजड़ चुकी थी। उसका रस मर चुका था। वह अपने यौवन और रूप, चंचलता और मिठास की एक जर्द छाया मात्र रह गयी थी। चेहरा दुबला पड़ गया था और हड्डियाँ निकल आयी थीं। चेहरा दुबला होने से लगता था आँखें फटी पड़ती हैं। वह चुपचाप आँख बन्द किये पड़ी थी। चन्दर पंखा हाँक रहा था, कैलाश एक सूटकेस खोलकर दवा निकाल रहा था। गाड़ी यहीं आकर रुक जाती है, इसलिए कोई जल्दी नहीं थी। कैलाश ने दवा दी। सुधा ने दवा पी और फिर उदास, बहुत बारीक, बहुत बीमार स्वर में बोली, ''चन्दर, अच्छे तो हो! इतने दुबले कैसे लगते हो? अब कौन तुम्हारे खाने-पीने की परवा करता होगा!'' सुधा ने एक गहरी साँस ली। कैलाश बिस्तर लपेट रहा था।

''तुम्हें क्या हो गया है, सुधा?''

''मुझे सुख-रोग हो गया है!'' सुधा बहुत क्षीण हँसी हँसकर बोली, ''बहुत सुख में रहने से ऐसा ही हो जाता है।''

चन्दर चुप हो गया। कैलाश ने बिस्तर कुली को देते हुए कहा, ''इन्होंने तो बीमारी के मारे हम लोगों को परेशान कर रखा है। जाने बीमारियों को क्या मुहब्बत है इनसे! चलो उठो।'' सुधा उठी।

कार पर सुधा के साथ पीछे सामान रख दिया गया और आगे कैलाश और चन्दर बैठे। कैलाश बोला, ''चन्दर, तुम बहुत धीमे ड्राइव करना वरना इन्हें चक्कर आने लगेगा...'' कार चल दी। चन्दर कैलाश की विदेश-यात्रा और कैलाश चन्दर के कॉलेज के बारे में बात करते रहे। मुश्किल से घर तक कार पहुँची होगी कि कैलाश बोला, ''यार चन्दर, तुम्हें तकलीफ तो होगी लेकिन एक दिन के लिए कार तुम मुझे दे सकते हो?''

''क्यों?''

''मुझे जरा रीवाँ तक बहुत जरूरी काम से जाना है, वहाँ कुछ लोगों से मिलना है, कल दोपहर तक मैं चला आऊँगा।''

''इसके मतलब मेरे पास नहीं रहोगे एक दिन भी?''

''नहीं, इन्हें छोड़ जाऊँगा। लौटकर दिन-भर रहूँगा।''

''इन्हें छोड़ जाओगे? नहीं भाई, तुम जानते हो कि आजकल घर में कोई नहीं है।'' चन्दर ने कुछ घबराकर कहा।

''तो क्या हुआ, तुम तो हो!'' कैलाश बोला और चन्दर के चेहरे की घबराहट देखकर हँसकर बोला, ''अरे यार, अब तुम पर इतना अविश्वास नहीं है। अविश्वास करना होता तो ब्याह के पहले ही कर लेते।''

चन्दर मुस्करा उठा, कैलाश ने चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर धीमे से कहा ताकि सुधा न सुन पाये-''वैसे चाहे मुझे कुछ भी असन्तोष क्यों न हो, लेकिन इनका चरित्र तो सोने का है, यह मैं खूब परख चुका हूँ। इनका ऐसा चरित्र बनाने के लिए तो मैं तुम्हें बधाई दूँगा, चन्दर! और फिर आज के युग में!''

चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया।

कार पोर्टिको में लगी। सुधा, कैलाश, चन्दर उतरे। माली और नौकर दौड़ आये, सुधा ने उन सबसे उनका हाल पूछा। अन्दर जाते ही महराजिन दौडक़र सुधा से लिपट गयी। सुधा को बहुत दुलार किया।

कैलाश मुँह-हाथ धो चुका था, नहाने चला गया। महराजिन चाय बनाने लगी। सुधा भी मुँह-हाथ धोने और नहाने चली गयी। कैलाश तौलिया लपेटे नहाकर आया और बैठ गया। बोला, ''आज और कल की छुट्टी ले लो, चन्दर! इनकी तबीयत ठीक नहीं है और मुझे जाना जरूरी है!''

''अच्छा, लेकिन आज तो जाकर हाजिरी देना जरूरी होगा। फिर लौट आऊँगा!'' महराजिन चाय और नाश्ता ले आयी। कैलाश ने नाश्ता लौटा दिया तो महराजिन बोली, ''वाह, दामाद हुइके अकेली चाय पीबो भइया, अबहिन डॉक्टर साहब सुनिहैं तो का कहिहैं।''

''नहीं माँजी, मेरा पेट ठीक नहीं है। दो दिन के जागरण से आ रहा हूँ। फिर लौटकर खाऊँगा। लो चन्दर, चाय पियो।''

''सुधा को आने दो!'' चन्दर बोला।

''वह पूजा-पाठ करके खाती हैं।''

''पूजा-पाठ!'' चन्दर दंग रह गया, ''सुधा पूजा-पाठ करने लगी?''

''हाँ भाई, तभी तो हमारी माताजी अपनी बहू पर मरती हैं। असल में वह पूजा-पाठ करती थीं। शुरुआत की इन्होंने पूजा के बरतन धोने से और अब तो उनसे भी ज्यादा पक्की पुजारिन बन गयी हैं।'' कैलाश ने इधर-उधर देखा और बोला, ''यार, यह मत समझना मैं सुधा की शिकायत कर रहा हूँ, लेकिन तुम लोगों ने मुझे ठीक नहीं चुना!''

''क्यों?'' चन्दर कैलाश के व्यवहार पर मुग्ध था।

''इन जैसी लड़कियों के लिए तुम कोई कवि या कलाकार या भावुक लड़काढूँढ़ते तो ठीक था। मेरे जैसा व्यावहारिक और नीरस राजनीतिक इनके उपयुक्त नहीं है। घर भर इनसे बेहद खुश है। जब से ये गयी हैं, माँ और शंकर भइया दोनों ने मुझे नालायक करार दे दिया है। इन्हीं से पूछकर सब करते हैं, लेकिन मैंने जो सोच रखा था, वह मुझे नहीं मिल पाया!''

''क्यों, क्या बात है?'' चन्दर ने पूछा, ''गलती बताओ तो हम इन्हें समझाएँ।''

''नहीं, देखो गलत मत समझो। मैं यह नहीं कहता कि इनकी गलती है। यह तो गलत चुनाव की बात है।'' कैलाश बोला, ''न इसमें मेरा कसूर, न इनका! मैं चाहता था कोई लड़की जो मेरे साथ राजनीति का काम करती, मेरी सबलता और दुर्बलता दोनों की संगिनी होती। इसीलिए इतनी पढ़ी-लिखी लड़की से शादी की। लेकिन इन्हें धर्म और साहित्य में जितनी रुचि है, उतनी राजनीति से नहीं। इसलिए मेरे व्यक्तित्व को ग्रहण भी नहीं कर पायीं। वैसे मेरी शारीरिक प्यास को इन्होंने चाहे समर्पण किया, वह भी एक बेमनी से, उससे तन की प्यास भले ही बुझ जाती हो कपूर, लेकिन मन तो प्यासा ही रहता है...बुरा न मानना। मैं बहुत स्पष्ट बातें करता हूँ। तुमसे छिपाना क्या?...और स्वास्थ्य के मामले में ये इतनी लापरवाह हैं कि मैं बहुत दु:खी रहता हूँ।'' इतने में सुधा नहाकर आती हुई दिख पड़ी। कैलाश चुप हो गया। सुधा की ओर देखकर बोला, ''मेरी अटैची भी ठीक कर दो। मैं अभी चला जाऊँ वरना दोपहर में तपना होगा।'' सुधा चली गयी। सुधा के जाते ही कैलाश बोला, ''भरसक मैं इन्हें दु:खी नहीं होने देता, हाँ, अकसर ये दुखी हो जाती हैं; लेकिन मैं क्या करूँ, यह मेरी मजबूरी है, वैसे मैं इन्हें भरसक सुखी रखने का प्रयास करता हूँ...और ये भी जायज-नाजायज हर इच्छा के सामने झुक जाती हैं, लेकिन इनके दिल में मेरे लिए कोई जगह नहीं है, वह जो एक पत्नी के मन में होती है। लेकिन खैर, जिंदगी चलती जा रही है। अब तो जैसे हो निभाना ही है!''

इतने में सुधा आयी और बोली, ''देखिए, अटैची सँवार दी है, आप भी देख लीजिए...'' कैलाश उठकर चला गया। चन्दर बैठा-बैठा सोचने लगा-कैलाश कितना अच्छा है, कितना साफ और स्वच्छ दिल का है! लेकिन सुधा ने अपने को किस तरह मिटा डाला...

इतने में सुधा आयी और चन्दर से बोली, ''चन्दर! चलो, वो बुला रहे हैं!''

चन्दर चुपचाप उठा और अन्दर गया। कैलाश ने तब तक यात्रा के कपड़े पहन लिये थे। देखते ही बोला, ''अच्छा चन्दर, मैं चलता हूँ। कल शाम तक आ जाने की कोशिश करूँगा। हाँ देखो, ज्यादा घुमाना मत। इनकी सखी को यहाँ बुलवा लो तो अच्छा।'' फिर बाहर निकलता हुआ बोला, ''इनकी जिद थी आने की, वरना इनकी हालत आने लायक नहीं थी। माताजी से मैं कह आया हूँ कि लखनऊ मेडिकल कॉलेज ले जा रहा हूँ।''

कैलाश कार पर बैठ गया। फिर बोला, ''देखो चन्दर, दवा इन्हें दे देना याद से, वहीं रखी है।'' कार स्टार्ट हो गयी।

चन्दर लौटा। बरामदे में सुधा खड़ी थी। चुपचाप बुझी हुई-सी। चन्दर ने उसकी ओर देखा, उसने चन्दर की ओर देखा, फिर दोनों ने निगाहें झुका लीं। सुधा वहीं खड़ी रही। चन्दर ड्राइंग-रूम में जाकर किताबें वगैरह उठा लाया और कॉलेज जाने के लिए निकला। सुधा अब भी बरामदे में खड़ी थी। गुमसुम...चन्दर कुछ कहना चाहता था...लेकिन क्या? कुछ था, जो न जाने कब से संचित होता आ रहा था, जो वह व्यक्त करना चाहता था, लेकिन सुधा कैसी हो गयी है! यह वह सुधा तो नहीं जिसके सामने वह अपने को सदा व्यक्त कर देता था। कभी संकोच नहीं करता था, लेकिन यह सुधा कैसी है अपने में सिमटी-सकुची, अपने में बँधी-बँधायी, अपने में इतनी छिपी हुई कि लगता था दुनिया के प्रति इसमें कहीं कोई खुलाव ही नहीं। चन्दर के मन में जाने कितनी आवाजें तड़प उठीं लेकिन...कुछ नहीं बोल पाया। वह बरामदे में ठिठक गया, निरुद्देश्य। वहाँ अपनी किताबें खोलकर देखने लगा, जैसे वह याद करना चाहता था कि कहीं भूल तो नहीं आया है कुछ लेकिन उसके अन्तर्मन में केवल एक ही बात थी। सुधा कुछ तो बोले। यह इतना गहरा, इतनी घुटनवाला मौन, यह तो जैसे चन्दर के प्राणों पर घुटन की तरह बैठता जा रहा था। सुधा...निर्वात निवास में दीपशिखा-सी अचल, निस्पन्द, थमे हुए तूफान की तरह मौन। चन्दर ने अन्त में नोट्स लिए, घड़ी देखी और चल दिया। जब वह सीढ़ी तक पहुँचा तो सहसा सुधा की छायामूर्ति में हरकत हुई। सुधा ने पाँव के अँगूठे से फर्श पर एक लकीर खींचते हुए नीचे निगाह झुकाये हुए कहा, ''कितनी देर में आओगे?'' चन्दर रुक गया। जैसे चन्दर को सितारों का राज मिल गया हो। सुधा भला बोली तो! लेकिन, फिर भी अपने मन का उल्लास उसने जाहिर नहीं होने दिया, बोला, ''कम-से-कम दो घंटे तो लगेंगे ही।''

सुधा कुछ नहीं बोली, चुपचाप रह गयी। चन्दर ने दो क्षण प्रतीक्षा की कि सुधा अब कुछ बोले लेकिन सुधा फिर भी चुप। चन्दर फिर मुड़ा। क्षण-भर बाद सुधा ने पूछा, ''चन्दर, और जल्दी नहीं लौट सकते?''

जल्दी! सुधा अगर कहे तो चन्दर जाये भी न, चाहे उसे इस्तीफा देना पड़े। क्या सुधा भूल गयी कि चन्दर के व्यक्तित्व पर अगर किसी का शासन है तो सुधा का! वह जो अपनी जिद से, उछलकर, लडक़र, रूठकर चन्दर से हमेशा मनचाहा काम करवाती रही है...आज वह इतनी दीनता से, इतनी विनय से, इतने अन्तर और इतनी दूरी से क्यों कह रही है कि जल्दी नहीं लौट सकते? क्यों नहीं वह पहले की तरह दौडक़र चन्दर का कॉलर पकड़ लेती और मचलकर कहती, 'ए, अगर जल्दी नहीं लौटे तो...' लेकिन अब तो सुधा बरामदे में खड़ी होकर गम्भीर-सी, डूबती हुई-सी आवाज में पूछ रही है-जल्दी नहीं लौट सकते! चन्दर का मन टूट गया। चन्दर की उमंग चट्टान से टकराकर बिखर गयी...उसने बहुत भारी-सी आवाज में पूछा, ''क्यों?''

''जल्दी लौट आते तो पूजा करके तुम्हारे साथ नाश्ता कर लेते! लेकिन अगर ज्यादा काम हो तो रहने दो, मेरी वजह से हरज मत करना!'' उसने उसे ठण्डे, शिष्ट और भावहीन स्वर में कहा।

हाय सुधा! अगर तुम जानती होती कि महीनों उद्भ्रान्त चन्दर का टूटा और प्यासा मन तुमसे पुराने स्नेह की एक बूँद के लिए तरस उठा है तो भी क्या तुम इसी दूरी से बातें करती! काश, कि तुम समझ पाती कि चन्दर ने अगर तुमसे कुछ दूरी भी निभायी है तो उससे खुद चन्दर कितना बिखर गया है। चन्दर ने अपना देवत्व खो दिया है, अपना सुख खो दिया है, अपने को बर्बाद कर दिया है और फिर भी चन्दर के बाहर से शान्त और सुगठित दिखने वाले हृदय के अन्दर तुम्हारे प्यार की कितनी गहरी प्यास धधक रही है, उसके रोम-रोम में कितनी जहरीली तृष्णा की बिजलियाँ कौंध रही हैं, तुमसे अलग होने के बाद अतृप्ति का कितना बड़ा रास्ता उसने आग की लपटों में झुलसते हुए बिताया है। अगर तुम इसे समझ लेती तो तुम चन्दर को एक बार दुलारकर उसके जलते हुए प्राणों पर अमृत की चाँदनी बिखेरने के लिए व्यग्र हो उठती; लेकिन सुधा, तुमने अपने बाह्य विद्रोह को ही समझा, तुमने उस गम्भीर प्यार को समझा ही नहीं जो इस बाहरी विद्रोह, इस बाहरी विध्वंस के मूल में पयस्विनी की पावन धारा की तरह बहता जा रहा है। सुधा, अगर तुम एक क्षण के लिए इसे समझ लो...एक क्षण-भर के लिए चन्दर को पहले की तरह दुलार लो, बहला लो, रूठ लो, मना लो तो सुधा चन्दर की जलती हुई आत्मा, नरक चिताओं में फिर से अपना गौरव पा ले, फिर से अपनी खोयी हुई पवित्रता जीत ले, फिर से अपना विस्मृत देवत्व लौटा ले...लेकिन सुधा, तुम बरामदे में चुपचाप खड़ी इस तरह की बातें कर रही हो जैसे चन्दर कोई अपरिचित हो। सुधा, यह क्या हो गया है तुम्हें? चन्दर, बिनती, पम्मी सभी की जिंदगी में जो भयंकर तूफान आ गया है, जिसने सभी को झकझोर कर थका डाला है, इसका समाधान सिर्फ तुम्हारे प्यार में था, सिर्फ तुम्हारी आत्मा में था, लेकिन अगर तुमने इनके चरित्रों का अन्तर्निहित सत्य न देखकर बाहरी विध्वंस से ही अपना आगे का व्यवहार निश्चित कर लिया तो कौन इन्हें इस चक्रवात से खींच निकालेगा! क्या ये अभागे इसी चक्रवात में फँसकर चूर हो जाएँगे...सुधा...

लेकिन सुधा और कुछ नहीं बोली। चन्दर चल दिया। जाकर लगा जैसे कॉलेज के परीक्षा भवन में जाना भी भारी मालूम दे रहा था। वह जल्दी ही भाग आया।

हालाँकि सुधा के व्यवहार ने उसका मन जैसे तोड़-सा दिया था, फिर भी जाने क्यों वह अब आज सुधा को एक प्रकाशवृत्त बनकर लपेट लेना चाहता था।

जब चन्दर लौट आया तो उसने देखा-सुधा तो उसी के कमरे में है। उसने उसके कमरे के एक कोने में दरी हटा दी है, वहाँ पानी छिड़क दिया और एक कुश के आसन पर सामने चौकी पर कोई पोथी धरे बैठी है। चौकी पर एक श्वेत वस्त्र बिछाकर धूपदानी रख दी है जिसमें धूप सुलग रही है। लॉन से शायद कूछ फूल तोड़ लायी थी जो धूपदानी के पास रखे हुए थे। बगल में एक रुद्राक्ष की माला रखी थी। एक शुद्ध श्वेत रेशम की धोती और केवल एक चोली पहने हुए पल्ले से बाँहों तक ढँके हुए वह एकाग्र मनोयोग से ग्रन्थ का पारायण कर रही थी। धूपदानी से धूम्र-रेखाएँ मचलती हुईं, लहराती हुईं, उसके कपोलों पर झूलती हुईं सूखी-रूखी अलकों से उलझ रही थीं। उसने नहाकर केश बाँधे नहीं थे...चन्दर ने जूते बाहर ही उतार दिये और चुपचाप पलँग पर बैठकर सुधा को देखने लगा। सुधा ने सिर्फ एक बार बहुत शान्त, बहुत गहरी आकाश-जैसी स्वच्छ निगाहों से चन्दर को देखा और फिर पढऩे लगी। सुधा के चारों ओर एक विचित्र-सा वातावरण था, एक अपार्थिव स्वर्गिक ज्योति के रेशों से बुना हुआ झीना प्रकाश उस पर छाया हुआ था। गले में पड़ा हुआ आँचल, पीठ पर बिखरे हुए सुनहले बाल, अपना सबकुछ खोकर विरक्ति में खिन्न सुहाग पर छाये हुए वैधव्य की तरह सुधा लग रही थी। माँग सूनी थी, माथे पर रोली का एक बड़ा-सा टीका था और चेहरे पर स्वर्ग के मुरझाये हुए फूलों की घुलती हुई उदासी, जैसे किसी ने चाँदनी पर हरसिंगार के पीले फूल छींटे दे दिये हों।

थोड़ी देर तक सुधा स्पष्ट स्वरों में पढ़ती रही। उसके बाद उसने पोथी बन्द कर रख दी। उसके बाद आँख बन्द कर जाने किस अज्ञात देवता को हाथ जोडक़र नमस्कार किया...फिर उठ खड़ी हुई और फर्श पर चन्दर के पास बैठ गयी। आँचल कमर में खोंस लिया और बिना सिर उठाये बोली, ''चलो, नाश्ता कर लो!''

''यहीं ले आओ!'' चन्दर बोला। सुधा उठी और नाश्ता ले आयी। चन्दर ने उठाकर एक टुकड़ा मुँह में रख लिया। लेकिन जब सुधा उसी तरह फर्श पर चुपचाप बैठी रही तो चन्दर ने कहा, ''तुम भी खाओ!''

''मैं!'' वह एक फीकी हँसी हँसकर बोली, ''मैं खा लूँ तो अभी कै हो जाये। मैं सिवा नींबू के शरबत और खिचड़ी के अब कुछ नहीं खाती। और वह भी एक वक्त!''

''क्यों?''

''असल में पहले मैंने एक व्रत किया, पन्द्रह दिन तक केवल प्रात:काल खाने का, तब से कुछ ऐसा हो गया कि शाम को खाते ही मन बिगड़ जाता है। इधर और कई रोग हो गये हैं।''

चन्दर का मन रो आया। सुधा, तुम चुपचाप इस तरह अपने को मिटाती रहीं! मान लिया चन्दर ने एक खत में तुम्हें लिख ही दिया था कि अब पत्र-व्यवहार बन्द कर दो! लेकिन क्या अगर तुम पत्र भेजतीं तो चन्दर की हिम्मत थी कि वह उत्तर न देता! अगर तुम समझ पातीं कि चन्दर के मन में कितना दुख है!

चन्दर चाहता था कि सुधा की गोद में अपने मन की सभी बातें बिखेर दे...लेकिन सुधा कहे, कुछ शिकायत करे तो चन्दर अपनी सफाई दे...लेकिन सुधा तो है कि शिकायत ही नहीं करती, सफाई देने का मौका ही नहीं देती...यह देवत्व की मूर्ति-सी पथरीली सुधा! यह चन्दर की सुधा तो नहीं! चन्दर का मन बहुत भर आया। उसके रुँधे गले से पूछा, ''सुधा, तुम बहुत बदल गयी हो। खैर और तो जो कुछ है उसके लिए अब मैं क्या कहूँ, लेकिन अपनी तन्दुरुस्ती बिगाड़कर क्यों तुम मुझे दुख दे रही हो! अब यों भी मेरी जिंदगी में क्या रहा है! लेकिन एक ही सन्तोष था कि तुम सुखी हो। लेकिन तुमने मुझसे वह सहारा छीन लिया...पूजा किसकी करती हो?''

''पूजा कहाँ, पाठ करती हूँ, चन्दर! गीता का और भागवत का, कभी-कभी सूर सागर का! पूजा अब भला किसकी करूँगी? मुझ जैसी अभागिनी की पूजा भला स्वीकार कौन करेगा?''

''तब यह एक वक्त का भोजन क्यों?''

''यह तो प्रायश्चित्त है, चन्दर!'' सुधा ने एक गहरी साँस लेकर कहा।

''प्रायश्चित...?'' चन्दर ने अचरज से कहा।

''हाँ, प्रायश्चित्त...'' सुधा ने अपने पाँव के बिछियों को धोती के छोर से रगड़ते हुए कहा, ''हिन्दू गृह तो एक ऐसा जेल होता है जहाँ कैदी को उपवास करके प्राण छोड़ने की भी इजाजत नहीं रहती, अगर धर्म का बहाना न हो! धर्म के बहाने उपवास करके कुछ सुख मिल जाता है।''

एक क्षण आता है कि आदमी प्यार से विद्रोह कर चुका है, अपने जीवन की प्रेरणा-मूर्ति की गोद से बहुत दिन तक निर्वासित रह चुका है, उसका मन पागल हो उठता है फिर से प्यार करने को, बेहद प्यार करने को, अपने मन का दुलार फूलों की तरह बिखरा देने को। आज विद्रोह का तूफान उतर जाने के बाद अपनी उजड़ी हुई जिंदगी में बीमार सुधा को पाकर चन्दर का मन तड़प उठा। सुधा की पीठ पर लहराती हुई सूखी अलकें हाथ में ले लीं। उन्हें गूँथने का असफल प्रयास करते हुए बोला-

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