Ram Rajya and the current struggle books and stories free download online pdf in Hindi

रामराज्य और वर्तमान संघर्ष

रामराज्य अनंत सुख का राज्य है। रावण रूपी अवांछित तत्वों का विनाश होने पर ही राम राज्य की स्थापना होती है। सामाजिक उन्नति और मानव कल्याण के लिए रामराज्य एक अनिवार्य शर्त है। राम राज्य एक स्थिति विशेष का नाम है और यह स्थिति अनुकूल तत्वों के परिपक्व होने पर स्वतः उत्पन्न हो जाती है । यह ऐसी सिद्धि है जिसमें सारा उत्तरदायित्व और महत्व साधनों पर ही केंद्रित रहता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम उन आदर्शों के प्रतीक हैं जोकि आदर्श राज्य की स्थापना के आवश्यक तत्व हैं। रामराज एक ऐसा राज्य है जो कल्पना का स्वर्ग होते हुए भी मनुष्य द्वारा लम्य है जो अलौकिक होते हुए भी लोक सुलभ बन सकता है और जो आदर्श होते हुए भी यथार्थ की पकड़ में आ सकता है।

रमते इति राम : अर्थात जो सभी प्राणियों के हृदय में रमण करें वही राम है। राम ने अपनी इसी विशेषता के कारण लोकनायकत्व का श्रेष्ठ पद प्राप्त किया । तुलसी के राम शासक कम, लोकनायक अधिक हैं। जहां शासन कम होता है वही अनुशासन अधिक होता है। जहां आज्ञा कम दी जाती है वही उसका पालन अधिक होता है। अपने इस लोकनायकत्व के आधार पर ही राम के द्वारा जिस राम राज की स्थापना की गई वह राम राज्य का स्वरूप आज भी राम के समान है, सबके हृदय पटल पर एवं कल्पना लोक में अपना आदर्श स्थापित किए हुए हैं।


राम के समान आदर्श समन्वित तथा आचरण संपन्न शासक जब राज सिंहासन पर विराजमान हो जाता है तब संसार के इतिहास में एक अद्भुत अध्याय का प्रारंभ हो जाता है। शासक अपने व्यक्तित्व से वातावरण को ओतप्रोत कर देता है और तब वह वातावरण जनसाधारण को आचार, व्यवहार का उचित निर्देशन देता है उनकी भावनाओं को कल्याणमय रूप प्रदान करता है और उनके जीवन को आदर्श मानवता के सांचे में ढाल देता है । इस वातावरण में जीवन बनाया नहीं जाता वह स्वयं बन जाता है। मार्ग दिखाया नहीं जाता वह देख लिया जाता है जीवन के आदर्श स्वयं ढल जाते हैं और तभी

राम राज्य बैठे त्रिलोका
हर्षित भए, गए सब शोका ।

यह व्यक्तित्व की गरिमा का प्रभाव है। एक सत्यवान व्यक्ति संपूर्ण समाज को प्रेरित करने की क्षमता रखता है। यह राम के व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि


वयरु न कर काहू संग कोई
राम प्रताप विषमता खोई।

विषमता का अभाव ही सामाजिक सौहार्द्र की सृष्टि करता है। समाज में शांति और सुमति का निवास होता है और पारस्परिक व्यवहार में सरलता और सहृदयता की मिठास घुल जाती है। मनुष्य स्वमेव ही जीवन के आदर्श आचरण की और उन्मुख हो जाता है इसीलिए राम राज्य मैं

वर्णाश्रम निज निज धर्म निरत वेद पथ लोग।
चलहि सदा पावहिं सुखहिं नहीं भय शोक न रोग ।

धर्म मय जीवन ही सभी सांसारिक समस्याओं का स्वाभाविक समाधान है। इसमें एक निष्प्रहता होती है जो ममता के बंधन की अप्रियता को गले नहीं मढती और एक उदारता होती है जो अपनत्व मैं विश्वत्व का अंतर भाव कर देती है। इस जीवन प्रणाली में उन भौतिक तत्वों का अस्तित्व ही मिट जाता है जो दुख तथा शोक के कारण बनते हैं । अतः यदि राम राज्य में

दैहिक दैविक भौतिक तापा ।
राम राज्य नहीं काहू व्यापा ।।

की भावना थी तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। फिर प्रजा मैं इस प्रकार की सुख शांति तभी स्थापित हो सकती है जबकि राजा स्वयं धर्म की धुंरी को धारण करने वाला हो क्योंकि यथा राजा तथा प्रजा। राजाराम ऐसे ही धर्म धुरंधर थे

श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर।
गुनातीत अरु भोग पुरंदर ।।

राम ने राज्य प्रबंध की कोई निजी व्यवस्था स्थापित नहीं की थी वह श्रुति पथ पालक थे । ऋषि मुनियों के बनाए हुए विधान को ही वह कार्यान्वित करते थे। लोकनायक विधान नहीं बनाते वल्कि आदर्श आचरण प्रस्तुत करते हैं। उनका प्रत्येक कार्य लोक कल्याण की भावना से समन्वित रहता है तभी तो करुणानिधान प्रभु श्री रामचंद्र जी परहित को सर्व श्रेष्ठ कर्म मानते हैं। स्वयं प्रभु के श्री मुख का वचन है

परहित सरिस धर्म नहीं भाई

निश्चित ही राम राज्य में " स्व" हित के लिए कोई स्थान नहीं होता उसमें सब कार्य "पर" हित तथा सर्वहित होते हैं। इस शांतिपूर्ण साम्राज्य में न कहीं संघर्ष होता है और न तनाव। तभी तो

जीतहूं मनहिं सुनहिं अस रामचंद्र के राज ।।

की स्पृहणीय स्थिति उत्पन्न हो गई थी। प्रकृति भी मानव की सहचरी बन गई थी जिसके फलस्वरूप

फूलहिं फलहिं सदा तरु कानन रहहिं एक संग गज पंचानन।
लता विटप मांगे मधु चुबही मनभावतो धेनु पय श्रवहिं।।

विधु महि पूर मयूखन्हि रवि तप जेतनेहिं काज।
मांगे वारिद देहिं जल रामचंद्र के राज ।।

मानवता की चरम सीमा पर पहुंच कर मानव वस्तुतः संपूर्ण सृष्टि का स्वामी बन गया था। आदर्श चरित्र के कारण ही

राम भगति रत नर अरु नारी ।
सकल परम गति के अधिकारी।।

बन गए थे। इस अवस्था पर पहुंचकर मानव की चित् शक्ति का परम विकास हो जाता है और वह जड़ चेतन सृष्टि पर अपनी इच्छा का साम्राज्य स्थापित कर लेता है। यही साम्राज्य की पूर्णता है और यही उसका चरम विकास है।

राम राज्य के अभाव में रावण रूपी अवांछित तत्वों के उदय होते ही समाज में अनेक विघटनात्मक परिस्थितियों का प्रादुर्भाव हो जाता है । मर्यादा का अतिक्रमण होते ही स्वार्थ सिद्धि का लोभ रूपी राहु मानव जीवन रूपी पूर्ण चंद्र को ग्रस लेता है । स्व की अति के द्वारा मर्यादा हीनता के कारण असुर प्रकृति के व्यक्तियों की वृद्धि हो जाती है और संघर्षमय परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है।

वर्तमान संघर्ष भी इन्हें परिस्थितियों का परिणाम है। मानव जीवन में मर्यादा की परम आवश्यकता है । जब तक सरिता अपने दोनों किनारों की मर्यादा को स्वीकार करती है ,तभी तक सुंदर लगती है , और जब वह मर्यादा तोड़ कर स्वतंत्र हो जाती है, तब जल प्रकोप का कारण बन जाती है ,दुखदाई हो जाती है। मर्यादा का उल्लंघन सुखद नहीं होता ---- न अपने लिए , न दूसरों के लिए। स्व हित भी उसी सीमा तक वांछनीय है जहां तक वह समाज के हित के प्रतिकूल न हो।

आज का मानव अपने पूर्व आदर्शों को भूल बैठा है इसी कारण वह परस्पर ईर्ष्या द्वेष तथा घृणा के संघर्ष में फस गया है । भौतिक लिप्सा में खोए हुए प्राणी को ज्ञान की ज्योति प्राप्त होना कठिन है। आज का शासक या अधिकारी वर्ग भी सर्व हिताय का दिखावा कर स्व हिताय के चिंतन में लगे हुए हैं। मैं और मेरे की भावना प्रबल होती जा रही है। अधिक से अधिक अधिकार प्राप्त कर लेना ही उनका ध्येय हो गया है कर्तव्य की पूर्ति करना नहीं । अधिकार प्राप्ति के लिए कर्तव्य आवश्यक है। महानता के लिए त्याग आवश्यक है

दीपक के जलते प्राण दिवाली तभी सुहावन होती है ।।

त्याग के उपरांत ही सुख की प्राप्ति होती है । आदर्श रामराज के मूल में भी पहले राज्य लिप्सा का त्याग ही सर्वोपरि था। राज्य प्राप्ति अर्थात अधिकार प्राप्ति जीवन का लक्ष्य नहीं था अपितु विश्व कल्याण की कामना ही जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य था। लक्ष्मण जी के शब्दों में

होता यदि राजत्व मात्र ही लक्ष्य हमारे जीवन का ।
तो क्यों उसको पूर्वज अपने छोड़ मार्ग लेते वन का। (पंचवटी)

आज का मानव इन आदर्शों को भूलकर स्वार्थ की संकीर्णता में बुरी तरह जकड़ चुका है। आज का स्वार्थ संकुल क्षुद्र ह्रदय उन राम के आदर्श विशाल मानस की छाह तक नहीं छू सकता जिनका कहना था कि

स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि ।
आराधनाय लोकस्य मुन्चतो नास्ति मैं व्यथा।।

अर्थात लोक आराधना के लिए स्नेह दया सौख्य अथवा जानकी को भी छोड़ना पड़े तो मुझे कोई व्यथा नहीं होगी।

आज का मानव अपने पद प्रतिष्ठा के अभिमान में भूला हुआ है। यदि शासक अपनी पद गत विशिष्टता के झीने आवरण को अलग कर सके और अपने मानवीय व्यक्तित्व को जनसाधारण के धरातल पर ला सके तो उसकी श्रेष्ठता सराहनीय हो जाती है। उसकी गरिमा स्पृहणीय बन जाती है। श्री राम की जीवन में भी मर्यादा है, किंतु असमानता नहीं, समता है , किंतु अनाधिकार ता नहीं, एकरूपता है किंतु अविचारता नहीं।

वर्तमान संघर्ष का एक अन्य कारण सामाजिक असमानता व अर्थ प्रणाली का वैषम्य है। जब तक वर्गों की असमानता का समाधान नहीं होगा तथा अर्थ वितरण की संतोषजनक प्रणाली नहीं मिलती तब तक समाज में द्वेष की अग्नि सुलगती रहेगी और किसी भी समय दावाग्नि का रूप धारण कर सकती है । भौतिक धरातल पर वर्ग वैषम्य मिटाने का प्रयत्न स्तुति और वांछनीय तो है ही साथ ही सामाजिक अशांति को दूर करने के लिए आवश्यक है किंतु इतने से संघर्ष की आत्यत्रिक निवृत्ति संभव नहीं है । भौतिकता में किसी न किसी प्रकार का संघर्ष बना ही रहता है। अतः व्यक्ति कि विचार दृष्टि को नैतिकता का अनुभव मिलना अत्यावश्यक है तभी समाज में शांति और सुमति का निवास हो सकता है ।

रामचरितमानस के गहनअनुशीलन से यह स्पष्ट है कि राम राज्य की प्राप्ति के लिए रामत्त्व को प्राप्त करना आवश्यक है । रामत्व की प्राप्ति हेतु सुमति शांति और पवित्रता परम आवश्यक है, तथा इन सबकी प्राप्ति के मूल में आवश्यक है इंद्रियों का संयम। मानस के पात्र इन्हीं तत्वों के प्रतीक है । अयोध्या नरेश दशरथ वह जीव है जो अपने दसों इंद्रियों के रथ की बागडोर भली प्रकार थामें हुए है । दसों इंद्रियों पर पूर्ण संयम प्राप्त कर लेने पर ही सुमति अर्थात सद्बुद्धि शांति और शुचि अर्थात पवित्रता का प्रादुर्भाव हो सकता है दशरथ की तीन रानियां इन्हीं तीनों श्रेष्ठताओं की प्रतीक थी। तुलसी के शब्दों में

सुमति शांति शुचि सुंदर रानी

इन सुंदर बुद्धि शांति और पवित्रता रुपीस तीनों रानियों की प्राप्ति के उपरांत ही हम रामत्व को प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार पूर्ण संयमित मर्यादित एवं पवित्रता बाप बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण शांतिमय समाज मैं ही रामराज की स्थापना हो सकती है। आज देश में राम राज्य लाने की कामना तो सभी करते हैं परंतु सरकार और जनता दोनों में ही परस्पर विश्वास का अभाव है। उपदेश तो सभी देते हैं परंतु आदर्शों को कार्यान्वित करने के लिए कोई तैयार नहीं है ऐसी स्थिति में राम राज्य
कैसे आ सकता है?

अतः यदि हम वर्तमान संघर्ष को सदा के लिए समाप्त कर देना चाहते हैं और पुनः उस अनंत सुख संपन्न राम राज्य की स्थापना करना चाहते हैं तो आवश्यक है कि हम श्री रामचंद्र जी के चरित्र का अनुशीलन करें और "परहित धर्म" का अनुसरण करें जिसे प्रभु श्री राम ने सर्वोपरि धर्म घोषित किया था।


इति

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