कभी सोचा न था ( भाग-२)
२२.
जब भी गाया धुन अपनी थी
जब भी गाया धुन अपनी थी
जब भी सोचा, मन अपना था
जब भी देखा, दृष्टि साफ थी
जब भी पूजा, भगवान पास था।
मन में कोई दोष नहीं था
दूर चला था लय नया था,
युग के सारे बोल सुना था
कभी अकेला कभी साथ मिला था।
नये क्षण में, नया प्यार था
चलने में व्यवधान नहीं था,
नये समय में नया रचा था
ईश्वर में कोई भेद नहीं था।
क्षण के ऊपर जो लिखा था
उसको पढ़ता मैं चलता था,
मुझको कुछ-कुछ याद पड़ा था
दुख ने सबको मोड़ा लिया था।
जब भी गाया स्वर अपना था
हर बसंत का सुख न्यारा था।
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२३.
जो गीत तुम्हारे अन्दर है
जो गीत तुम्हारे अन्दर है
मैं गीत वही तो गाता हूँ,
व्यथा तुम्हारे साथ चली जो
मैं हाथ उसी के थामे हूँ।
प्यार तुम्हारे पास रहा जो
खोज उसी की करता हूँ,
जो सौन्दर्य हमारे बीच रहा
मैं आसक्त उसी पर होता हूँ।
जो सम्बन्ध हमारे बीच सजे हैं
मैं राग उसी का बना हुआ हूँ,
जो मन के कोनों पर बैठा है
मैं संगीत उसी को देता हूँ।
जो त्याग-तपस्या में आता है
श्रद्धा उसी पर रखता हूँ,
कुछ अन्दर ऐसा बैठा है
जो प्रश्न अनेकों करता है।
इस जीवन की परिक्रमा में
गीत कई मैं गाता हूँ,
वर्षों समय के दाँतों की
चुभन लिए मैं चलता हूँ।
जो पीड़ा सबके अन्दर है
संगीत उसी में भरता हूँ।
******
२४.
जो सत्य तुम्हारे अन्दर है
जो सत्य तुम्हारे अन्दर है
मैं स्तुति उसी की करता हूँ,
मर कर जिनको अमरत्व मिला
मैं स्नेह उसी पर रखता हूँ।
जो क्रम तुम्हारे अन्दर है
लक्ष्य उसी को कहता हूँ,
जो स्वेद श्रम में बहता है
मैं पवित्र उसी में रहता हूँ।
जो उजाला स्नेह सिखाये
मैं दृष्टि उसी पर रखता हूँ,
जो शब्द लय में ढल जाये
मैं आशीष उसी के पाता हूँ।
जो कदम तुम्हारा अपना है
मैं जीवन उसी को कहता हूँ,
सुख तो कितने-कितने हैं
पर मैं तो अब भी सीमित हूँ।
जिस जय में गीता ही गीता हो,
मैं उस महाभारत का अधिकारी हूँ।
*****
२५.
कभी-कभी
कभी-कभी मन
देवता बन जाता है,
कभी-कभी मन
प्यार करने लगता है।
कभी-कभी तो
वर्षा होती है,
बर्फ गिरती है,
धरती पर माहौल ठीक होता है।
ईश्वरत्व जड़-चेतन में
साफ-साफ एकत्र हो
असीम बन जाता है।
गुनगुनी धूप नीचे उतर
लोगों को गर्मी दे
जीवन का पर्याय बनती है।
हँसी निर्व्यास हो
समय को साफ करती
देवता बन जाती है।
कभी-कभी ऐसा होता है कि-
मन का सन्नाटा टूटता है,
बातें हिमाद्रि सी बन
गुनगुनाने लगती हैं।
आत्मा की मिठास
इधर से उधर तक
दिखने लगती है।
******
२६.
कहीं सुबह थी
कहीं सुबह थी
कहीं शाम थी
मेरे अन्दर गहन रात थी।
मैं सुबह तक पहुँचा था,
फिर भ्रम में अटका था,
कहीं बसंत था
कहीं प्यार था
मेरे अन्दर फटा तूफान था।
कहीं रंग था
कहीं रूप था
मेरे अन्दर अधीर प्रश्न था।
कहीं लय था
कहीं विलय था
मेरे भीतर प्रलय बहुत था।
समय सौम्य था
ईश्वर अनन्त था
मेरे अन्दर कठिन सत्य था।
समय कम था
सौन्दर्य अथाह था
मेरे अन्दर असीम स्वप्न था।
*******
२७.
वह
बहुत बर्षों बाद उसे देखा
कभी वह
नदी सी बही होगी,
यौवन सी फली होगी।
क्षितिज सी बन
आसमान को छूती होगी,
किसी की आँखों में
किसी के घर में
बैठ गयी होगी,
किसी बीते युग सी।
कभी पहाड़ सी अटल
मन से उठती होगी,
भोर के मंत्र सी
होठों में आ,
सन्ध्या तक
जपी जाती होगी।
बर्षों बाद उसे
मन के छोरों पर आते देखा,
बादलों सी उमड़ती-घुमड़ती,
बहती हवा सी
सांसों में मिलते देखा,
कितनी बार बूँद-बूँद बन
जीवन से कुछ कहते सुना।
******
२८.
कार्यालय
मेरे कनिष्ठ
अ,आ,ई,
सब ठीक हैं।
मेरे समकक्ष सहयोगी
क,ख,ग,
सब अच्छे हैं।
मेरे वरिष्ठ सहयोगी
च,छ,ज,
अच्छे भले हैं।
हमारे प्रमुख
निदेशक, अध्यक्ष
प,फ,ब,
अति उत्तम हैं,
लोग उन्हें सरल मानते हैं।
हमारे प्रधानमंत्री,
हमारे राष्ट्रपति
अद्भुत हैं, न्याय प्रिय हैं
ऐसा सब सुनते हैं।
त,थ,द,
तब कौन हैं?
जो प्रेत से लेटे
हमारी आत्मा को खाते हैं।
******
२९.
मन से मन तक बहुत चला हूँ
मन से मन तक बहुत चला हूँ
उबड़-खाबड़ जो जैसा था
उसको वैसे पार किया हूँ।
धुँध कहीं थी,ठंड कहीं थी
द्वेष कहीं था, युद्ध कहीं था
सबके आगे बसंत कहीं था।
पतझड़ की वेला साफ नहीं थी
समय स्वयं अनन्त बना था।
मन से मन बहुत चला हूँ
ईश्वर तक सन्देश दिया हूँ,
गाँव गया हूँ, शहर गया हूँ
फूलों में निवेश हुआ हूँ।
जहाँ लिखा हूँ, शुद्ध लिखा हूँ
आत्मा को पवित्र किया हूँ,
किसी जगह पर शब्द बना हूँ
कहीं गीत का लय रहा हूँ।
मन ही मन प्रश्न दुखद है
मेरी अपनी पहिचान सरल है,
जनम-मृत्यु सा जो जैसा है
उसको वैसे पार किया हूँ।
*******
३०.
मन की बातें कहते-कहते
मन की बातें कहते-कहते
उम्र गुजर जाती है,
तन का ढांचा पढ़ते-पढ़ते
उम्र निकल जाती है।
प्यार-स्नेह में चलते-चलते
उम्र जीर्ण हो जाती है,
धूप-छाँव में बैठे-बैठे
उम्र पिछड़ जाती है।
कलाकृति को छूते-छूते
उम्र बिखर जाती है,
शब्दों को लिखते-लिखते
उम्र शुभ्र हो जाती है।
नित समय को भजते-भजते
उम्र बुजुर्ग हो जाती है,
मन के छोरों को धोते-धोते
उम्र रगड़ खा जाती है।
अनजान दिशा में उड़ते-उड़ते
उम्र भटक जाती है,
मन की बातें कहते-कहते
उम्र बिगड़ जाती है।
*******
३१.
मेरी अपनी ही बातें
मेरी अपनी ही बातें
कहती हैं रो लो,
मेरी अपनी ही बातें
कहती हैं हँस लो।
मेरे अपने ही सपने
कहते हैं उड़ लो,
मेरी अपनी ही उम्र
कहती है मुड़ लो।
मेरी अपने ही गीत
कहते हैं सो जाओ,
मेरी अपने ही आँसू
कहते हैं रूक जाओ।
******
३२.
मुझे चलने दो
मुझे चलने दो
मेरी महक में
मानव के रंग आ जाने दो।
मेरे भीतर के पेड़ों को
उगने दो,
मेरे अन्दर की पहाड़ियों पर
पगडण्डियाँ उठने दो।
मेरी इच्छा-ईर्ष्या को
ऊँचा कर दो,
वसंत के तप को
खिल कर फैलने दो।
मुझे चलने दो
धूप को छूने दो,
हँसी-खुशी के द्वंद्वों पर
मेरी आभा पड़ने दो।
मुझे मिट जाने दो,
शव सा हो जाने दो
मुझे जलने दो,
आग बन
चिता होने दो।
मुझे भूख रहने दो
चलने के लिए
आहत होने दो।
छोड़ो, मुझे चलने दो
चलने दो,चलने दो
मुझे क्रोध ही रहने दो।
*****
३३.
मैं तो यथार्थ हूँ
मैं तो यथार्थ हूँ
चलते-चलते सपना बन जाऊँगा,
तुम जहाँ सोचोगे
वहाँ नहीं मिलूँगा,
इक एहसास की तरह
लगातार बहता रहूँगा।
सर्दी, वर्षा, गर्मी
सबसे मुलाकात करूँगा,
बसंत जब हटेगा
मैं दूर हो जाऊँगा,
बर्फ जब गिरेगी
मैं ठंड बन जाऊँगा,
आत्मा का सारा दायित्व लिए
तुम जहाँ सोचोगे,
वहाँ नहीं मिलूँगा।
*****
३४.
मैं तो सपना हूँ
मैं तो सपना हूँ
नींद टूटते ही
उड़ जाऊँगा।
मैं तो कथा हूँ
सुनते-सुनते
अद्भुत हो जाऊँगा।
मैं तो स्नेह हूँ
चलते-चलते
आशीर्वाद बन जाऊँगा।
मैं तो चहल-पहल हूँ
दौड़ते-दौड़ते
शान्त हो जाऊँगा।
मैं तो बीता क्षण हूँ
आगे जाकर
नींव बन जाऊँगा।
******
३५.
मेरे स्वर बहते हैं
मेरे स्वर बहते हैं
तुम चाहो तो रख लेना,
जीवन की पीड़ा मुझ में है
तुम चाहो तो पढ़ लेना।
सुख के नद से मैं आता हूँ
अन्वेषक सा लगता हूँ,
छोटा सा जीवन है
तुम चाहो तो जी लेना।
पवित्र-अपवित्र सब इसमें हैं
शुभ-अशुभ का गणित यहाँ है,
चाहो तो तीर्थ कराना
चाहो तो घर पर रखना।
इक छोटी सी हँसी खिली है
तुम चाहो तो रख लेना,
जीवन दूब पर ओस गिरी है
तुम चाहो तो उसे चढ़ाना।
मत-सम्मत कितने होते
अपनी आत्मा मत खोना,
हल्की सी हँसी पकड़
तुम चाहो तो उसे पिरोना।
******
३६.
मेरा आश्चर्य
जिस पहाड़ पर चढ़ा
ईश्वर ने उसे ऊँचा कर दिया,
मैंने जिस आकाश को देखा
ईश्वर ने उसे और फैला दिया।
मैं जिस रास्ते पर चला
ईश्वर ने उसे ओर लम्बा कर दिया,
मैं जिस जंगल में गया
ईश्वर ने उसे और बीहड़ बना दिया।
मैं जिससे मिलने गया
ईश्वर ने उसे और दूर कर दिया,
मैं जिस बसंत में लौटा
ईश्वर ने वहीं पतझड़ कर दिया।
मैं जिस धूप में निकला
ईश्वर ने उसे वहीं अस्त कर दिया,
मैंने जिससे भी नाता जोड़ा
ईश्वर ने उसे वहीं विदा किया।
मैं जैसे भी जाना गया
ईश्वर ने उसे वहीं धो दिया,
मैं जिस समय में था
ईश्वर ने उसे ठहरने नहीं दिया।
*******
३७.
पर पथ तो है
पथ सारा शुद्ध नहीं है
कंकड़ हैं,पत्थर हैं
द्रोह है,विद्रोह है
काँटे हैं, कटुता है
आँधी है,अंधड़ है
पर पथ तो है।
माया है,मोह है
रूप है,राग है
शोक है,शंका है
धुँध है,धुँआ है
पर पथ तो है।
शोषण है,शोर है
शक्ति है,श्मशान है
सड़न है,गलन है
पर पथ तो है।
पाप है,पशुता है
तम है,ताण्डव है
रोग है,रोक है
पर पथ तो है।
भूख है,प्यास है
आग है,अपमान है
स्वार्थ है,षडयंत्र है
पर पथ तो है।
*******
३८.
पेड़ ऊँचे होते हैं
पेड़ ऊँचे होते हैं
पेड़ बड़े होते हैं,
एकदम तपस्वी की तरह,
राग-द्वेष से दूर
छाया से संतृप्त।
पेड़ बड़ी प्रकृति के साथ
उठते हैं,
आसमान की तरफ जा
ऊँची दृष्टि में
समा जाते हैं।
जब भी पेड़ बनते हैं
हरियाली आती है।
स्वरूप आदमी का
नीचे से ऊपर आ
पेड़ की तरह
लुभावना हो
आकृष्ट करता है।
*****
३९.
आत्मा के लिए
आत्मा के लिए
एक शब्द
बहुत है,
राम ही सही
कृष्ण ही सही
शिव ही सही।
*****
४०.
परम्परा
पहले मैं बच्चों का ख्याल रखता था
अब बच्चे मेरा ख्याल रखते हैं,
तब में उनके आँसू पोछता था
अब वे मेरे आँसू पोछते हैं।
जिस खुशी में वे दौड़े थे
अब उस खुशी में,मैं टहलता हूँ,
जिस आकाश के वे किनारे थे
उस आकाश को मैं टटोलता हूँ।
जहाँ उनकी परिच्छाइयां थीं
वहाँ मैं अब बैठता हूँ,
जिस जगह वे खेलते थे
वहाँ मैं टकटकी लगाता हूँ,
जहाँ वे मन को खोलते थे
वहाँ मैं मन को बाँधता हूँ।
*******
४१.
सोचा न था
सोचा न था
इस वर्ष बर्फ गिरेगी
सरहद पर युद्ध होगा
रेल दुर्घटना होगी
नदी डूब जायेगी
संध्या खो जायेगी
सुबह थक जायेगी
लोग आपस में लड़ेंगे
दोस्तों का कत्ल होगा
मन बिखर जायेगा
धूप मुरझा जायेगी
वसंत रूठेगा
भाग्य फूट-फूट कर रोयेगा।
सोचा न था
इस वर्ष ग्रहण लगेगा
आतंक उठेगा
भूकम्प आयेगा
विश्वास डगमगा जायेगा
परिवार के परिवार खो जायेंगे।
हरियाली सूखेगी
विचार ठूंठ बनेंगे
संस्कृति रूठेगी
सूखा पड़ाव डालेगा
अंधकार बरबस लौटेगा
आत्मीयता लुप्त होगी।
मनुष्य के ऊपर
युद्ध मडरायेगा
बिल्ली रास्ता काट
अपशकुन का अंधविश्वास जगायेगी,
ऐसे में सोचा न था
संध्या होते होते
जीवन से प्यार हो जायेगा।
*****
४२.
सुख ही मेरी दुविधा है
सुख ही मेरी दुविधा है
इस पार रहूँ या
उस पार रहूँ
सुख ही मेरी दुविधा है।
सुबह उठा हूँ
दिन चला हूँ
सन्ध्या पर हूँ
रात अँधेरी जगी हुई है।
जहाँ गया हूँ
जिधर रहा हूँ
सुख ही मेरी दुविधा है।
विजय इधर है
जय उधर है,
स्नेह स्वयं है
सौन्दर्य अपूर्व है,
क्षण आता है
क्षण जाता है
परिवर्तन में सम-विषय है।
यहाँ तीर्थ है
वहाँ देव है,
इधर चलूँ या
उधर चलूँ
सुख ही मेरी दुविधा है।
*****
४३.
शारदा को
शारदा को घर के काम करने हैं
स्कूल का बस्ता सजा,
घर के लिए
पूरे अक्षर पढ़ने हैं,
उसे खाना बना
स्लेट पर लिखना है।
जागरण की कलम
बार-बार चलानी है,
सुबह-सुबह उठ
चाय बनानी है,
रोटियां सेकनी हैं
खेत से जंगल तक
खुद ही चलना है,
रास्ते के काँटे
स्वयं ही काटने हैं।
जीवन को रेखांकित कर
वातावरण को खुश रखना है।
स्वतंत्रता दिवस हो
या गणतंत्र दिवस
तिरंगा फहराना है,
तिरंगे के रंगों को
अपना रंग समझना है।
*****
४४.
समय के उस पार
मैं समय के उस पार चल कर
आ गया हूँ,
कुछ सुख थे
कुछ सुख थे,
कुछ प्यार के आँकड़े थे।
जिधर देखा मैं खड़ा था
स्नेह का मेला लगा था,
बसंत अपनी बात को
खिलखिला कर कह रहा था।
जो युद्ध थे
वे पस्त थे,
जो द्वेष थे
वे रो रहे थे,
समय के उस पार सबके
चित्र धुँधले रह गये थे।
नींद सबकी खुल गयी थी
प्यार सबका जग गया था,
समय के उस पार से
सन्देश प्यारा आ गया था।
रूठी बात मिट गयी थी
थकान मीठी हो चुकी थी,
उस पार के रोष में
मुस्कान थोड़ी आ गयी थी।
******
४५.
तथ्य है
सहस्रों अच्छे विचार
मिलते हैं यहाँ
हजारों अच्छी बातें
बिखरी हैं यहाँ।
अच्छी पूजा के लिए
बने हैं मन्दिर,
अच्छी इबादत के लिए
बने हैं मस्जिद,
ऊँची सदाशयता के लिए
खड़े हैं गिरिजाघर।
लाखों अच्छी बातें
होती हैं यहाँ,
सहस्त्रों शुभ अवसर
आते हैं यहाँ।
तालियों की गड़गड़ाहट में
खुशियाँ हैं यहाँ,
सहस्रों आशीर्वाद
मिलते हैं यहाँ।
लम्बी यात्राओं का
आनन्द है यहाँ,
सैकड़ों पर्वों का
उल्लास है यहाँ।
सहस्रों स्वरों की
मधुरता है यहाँ,
असंख्य सच्चे विचार
विचरते हैं यहाँ।
तथ्य है कि तुम और हम
रहते हैं यहाँ।
**********
४६.
यह कैसे प्रजातंत्र है
यह राम की भूमि है
यह कृष्ण की माटी है,
जहाँ अंग्रेजी की अनिवार्यता के साथ
झंडा ऊँचा उठता है,
और प्रजातंत्र परिभाषित होता है।
*******
४७.
ये क्षण हैं
ये क्षण हैं
कि बीत जायेंगे,
आतंक का व्यापार
उबड़-खाबड़ मार्ग
लाशों पर खड़े दिन
धीरे-धीरे निकल जायेंगे।
उर्ध्व हो जायेगा मन
तेजस्वी लोग
शैतान को पहिचान जायेंगे।
धरती के सुर
देवत्व से मिल,
हमारे बीच पहुँच
एक बड़ा सत्य चुन लेंगे।
*****
४८.
यह कैसा उजाला है
यह कैसा उजाला है
जिसे कोई जानता नहीं,
कोई खोजता नहीं
कोई पूछता नहीं।
यह कैसा उजाला है
जो बुदबुदाता नहीं,
छटपटाता नहीं
निखरता नहीं।
पूरब से पश्चिम तक
जो चुपचाप रहता है,
आँधी और तूफान को
जो मौन सहता है।
यह कैसा उजाला है
जो स्नेह तक आता नहीं
सौन्दर्य को खोलता नहीं,
जीवन पर रूकता नहीं।
****
४९.
यह कैसा अन्धेरा है
यह कैसा अन्धेरा है
जिसे हम आँख मूँद
पी जाते हैं।
यह कैसा सत्य है
जिसे हम ठुकरा देते हैं,
यह कैसा अन्धेरा है
जिसे थोड़ी हिचकिचाहट से
हम समेट लेते हैं।
यह कैसी भाषा है
जिसे हम चौंधियाते हैं,
इसी को ज्ञान समझ
अँधेरा ही बढ़ाते हैं।
*****
५०.
यह आदमी
यह चिड़िया
जो आसमान में उड़ती है
राजनीति में शून्य है।
यह मछली
जो गहरे सागर में तैरती है
कूटनीति में अनपढ़ है।
यह गाय जो
हरी घास चरती है
सहिष्णुता से लबालब है।
यह आदमी
जिससे मेरा रिश्ता है
राजनीति में पारंगत है!
******
५१.
यह जो जूते बनाता है
यह जो जूते बनाता है
यह जो फूल बेचती है
यह जो गाय चराता है
यह जो घास काटती है,
जीजिविषा है
जीवन का संगम है,
अनुभूतियों की धरोहर है
ईश्वर के घर से निकला
यायावर है।
यह जो खेत जोतता है
यह जो बच्चे पालती है
यह जो सीमा पर है
यह जो घर पर है,
यह जो नदी की तरह है
यह जो वृक्ष के समान है,
परम्परागत बलिदान है।
*******
५२.
हिमालय के लिए
हिमालय के लिए
एक भाषा चाहिए
जो शुभ्र कह सके।
गंगा के लिए
एक वाणी चाहिए
जो पवित्र बोल सके।
भारत के लिए
एक स्वर चाहिए
जो गणतंत्र ला सके।
जनता के लिए
एक भाषा चाहिए
जो साथ रख सके।
भारत के लिए
एक आवाज चाहिए
जो सम्मान दे सके।
देश के लिए
एक ललाट चाहिए
जो उज्जवल दिख सके।
जीवन के लिए
एक गीत चाहिए
जो जीजिविषा ला सके।
मन के लिए
मिठास चाहिए
जो राष्ट्र बना सके।
******
५३.
एक दिन
एक दिन विदा हो जाऊँगा
अपने घर से,
डूब जाऊँगा
इसी आसमान में।
बच्चों से विदा लेना
रिश्तों से अलग होना,
आदमी का आदमी से बिछुड़ जाना
समय का स्वभाव है,
ईश्वर का विधान है।
जो हाथ मैंने पकड़ा
कल छूट जायेगा,
जो साथ मैंने पकड़ा
कल वह टूटेगा।
मेरी अपनी सत्ता
कहीं और पड़ाव डालेगी।
भूचाल जो आया
वह भी थमेगा,
अंधकार के भीतर
बहुत कुछ डूबेगा,
प्रकाश की लौ से
अनंत भी खुलेगा।
एक दिन अपना ही घर
मुझे छोड़ देगा,
हवाओं की ताजगी
मुझे उड़ा ले जायेगी
क्षितिजों के उस पार।
फिर मैं डूब जाऊँगा
इसी आसमान में।
*******
५४.
ईश्वर यायावर है
ईश्वर यायावर है
सतयुग, त्रेता, द्वापर से चल
कलयुग तक आ जाता है।
आदमी का सच
उसे भाता है,
जीव-जन्तुओं को
वह देखता है,
मनुष्य की पूजा
उसे घेरती है।
आम जनता के बीच पहुँच
वह सोचता है,
आशीर्वाद उसके
धर्मनिरपेक्ष हो,
यायावर हो जाते हैं।
वह सात्विक हो
आदमी के तमस पर
शिकंजा कसता है।
ईश्वरत्व को
सतयुग, त्रेता, द्वापर से
कलयुग में लुढ़का,
मनुष्य को देता है।
*******
* महेश रौतेला