Valmiki Ramayana and Education Methods books and stories free download online pdf in Hindi

बाल्मीकि रामायण और शिक्षा पद्धतियां

बाल्मीकि रामायण की रचना वैदिक काल के उत्तर वैदिक काल एवं सूत्र काल के बाद हुई। अतः वैदिक काल से जो शिक्षण पद्धतियां प्रचलित थी वह वाल्मीकि के समय में भी विद्यमान रही। साथ ही पाठ्य विषयों में अभिवृद्धि होने के कारण कुछ नवीन विधियां भी विकसित हुई तथा कुछ प्रचलित पद्धतियों में भी परिष्कार तथा परिवर्धन हुआ महर्षि बाल्मीकि जिन विधियों का आश्रय लेकर विविध ज्ञान विज्ञान की शिक्षा अपने शिष्यों को प्रदान करने में सफलता प्राप्त की उन महत्वपूर्ण शिक्षण विधियों का विवेचन आगे अंकित है

नंबर 1 गीत विधि

महर्षि वाल्मीकि ने लव कुश को रामायण की शिक्षा गेयात्मक रूप में ही प्रदान की थी। ऋषि मंडली में शिक्षा का परीक्षण होने पर जब वे वीणा की ताल एवं लय रामायण की कथा को गाकर सुनाते हैं तब उनकी मधुर संगीत युक्त गायन शैली से सारी सभा रस प्लावित हो जाती है तथा ऋषि मुनि प्रेम से अभिभूत हो उन्हें अनेक वस्तुएं अर्थात पुरस्कार भेंट करते हैं

तौ तू गांधर्व तत्व गौ स्थान मूर्छन को विदो
भ्रातरौ स्वर संपन्नौ गंधारवाविव रूपिणौ, बा रा बाल 410

उक्त संदर्भ से स्पष्ट होता है की बाल्मीकि जी ने वैदिक एवं लौकिक विषय वस्तु को मधुर काव्य में निबद्ध करके गीत विधि से अपने शिष्यों को पढ़ाया था। वस्तुतः काव्य तथा गीत का बाल मनोविज्ञान से बड़ा घनिष्ट संबंध है बालक विषय वस्तु को गीत रूप में शीघ्र ग्रहण कर लेता है तथा वह उसको स्मृति का अंग बना लेता है इस बात को उन्हें सामान्य रूप में भी प्रचारित करना था इसीलिए उन्होंने गीत को एक प्रभावपूर्ण शिक्षण विधि के रूप में अपनाया


नंबर दो मौखिक पद्धति "श्रवण"

रामायण का रचनाकाल वैदिक काल के बाद का है ऋग्वेद में मंत्रों का प्रारंभिक युग मूलतः रचना युग था ऐसी मान्यता है कि वेद मंत्रों का ज्ञान ऋषि यों को तप और योग बल से दृष्ट हुआ फलत: वह मंत्र दृष्टा कह लाए इसके बाद से अध्ययन अध्यापन के क्रम में ऋषि यों ने मौखिक पद्धति से जिन्हें ज्ञान दिया वे ज्ञान श्रवण करने के कारण श्रुत ऋषि कहलाए पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान प्रदान करने की यह प्रणाली मौखिक ही रही और बाद में लेखन कला का विकास हो जाने पर भी वेद मंत्रों को लिखना वर्जित ही माना जाता रहा । संभवत इस मान्यता के पीछे मूल कारण मंत्रो का अशुद्ध उच्चारण होने तथा उनकी प्रभावशाली शक्ति के लोप हो जाने का भयही रहा होगा । आज मौखिक श्रुति परंपरा के लोप हो जाने का मूल कारण भी यही है किं वैदिक स्वराघातो के चिन्ह ही ग्रंथों में अंकित हैं उनके उच्चारण की सही विधि सिखाने वाले अधिकृत विद्वान निरंतर कम होते जा रहे हैं।

मौखिक श्रवण की पद्धति व्यावहारिक तथा वैज्ञानिक पद्धति है गुरु मुख से शुद्ध सस्वर उच्चारण का श्रवण कर के शिष्य अनुश्रवण करते थे । श्रवण के लिए छात्र को चित्त की एकाग्रता की शिक्षा दी जाती थी क्योंकि एकाग्रता न होने पर गुरु का उपदेश निरर्थक हो जाता था अतः कहा गया है

अन्य मनसा व भूयम न दृष्टम न श्रौषम

अर्थात अन्यत्र मन जाने के कारण मैंने नहीं देखा और न ही सुना अतर स्पष्ट है कि श्रवण के लिए मन की एकाग्रता होना बहुत आवश्यक है । बाल्मीकि रामायण में भी वेदों का अध्ययन अध्यापन परंपरागत श्रवण विधि से ही होता था इसमें कृति के मूल अंश को संरक्षित करने का भाव ही अधिक प्रबल था आज भी वस्तुतः अनुवाद की अपेक्षा मूल रचना के प्रति आकर्षण लोगों में अधिक ही रहता है श्रवण परंपरा का उद्देशय रटने तक ही सीमित नहीं था अपितु सम आलोचनात्मक दृष्टि से विचार मनन तथा निदिद्यासन अथवा ध्यान भी करना अपेक्षित था । वेदोंगो का ज्ञान भी परम आवश्यक था। बिना वेदांग के वेदार्थ ज्ञान संभव नहीं था इन वेदांगों में वस्तुतः विभिन्न आधुनिक पद्धतियों का समावेश हो जाता है व्याकरण नामक वेदांग के अध्ययन हेतु अध्यापन की पारायण विधि प्रचलित थी इसमें छात्र को नियमों की आवृत्ति बार-बार करनी पड़ती थी इसीलिए यह युक्ति प्रचलित थी


आवृत्ति सर्व शास्त्रआणि बोधात अपि गरीयसी

आवृत्ति के लिए स्मृति को पुषट करने पर बल दिया जाता था

3 प्रश्नोत्तर विधि

तत्कालीन समय में सैद्धांतिक विषय प्रश्नोत्तर विधि द्वारा पढ़ाए जाते थे और अन्य विषयों के लिए प्रयोगात्मक विधियों का प्रयोग किया जाता था वाल्मीकि रामायण में प्रश्नोत्तर विधि के तो स्थान स्थान पर दर्शन होते हैं गंगा पार करते समय बीच धारा में पहुंचकर वहां होने वाली गंगा की तुमुल ध्वनि के प्रति उत्कंठा पूर्वक राम अपने गुरु से पूछते हैं


ज्ञातुम कामों महा तेजा: सह राम : कनीयसा

अथ राम सरिन मध्ये प्रपचछ मुनि पुंगवम बा रा 36/45

गुरु विश्वामित्र द्वारा तुरंत ही इसका समाधान किया जाता है इसी प्रकार गंगा" अवतरण के विषय में तथा सिद्ध आश्रम के बारे में जिज्ञासा पूर्वक प्रश्न पूछने पर गुरु विश्वामित्र द्वारा संपूर्ण वृतांत का उल्लेख किया जाता है उस समय संपूर्ण ज्ञान वर्तमान की तरह मात्र पुस्तकीय नहीं था यह विशेषता रही की प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक स्थलों का प्रत्यक्ष निरीक्षण एवं साक्षात्कार करा कर ही तब संबंधी ज्ञान विज्ञान की वार्ताओं का क्रम प्रश्नोत्तर विधि के माध्यम से चलता था

4 दृष्टांत विधि

तत्कालीन शिक्षण पद्धति की एक विशेषता यह भी थी कि विभिन्न विषयों का ज्ञान पौराणिक आख्यानों ऐतिहासिक इतिवृत्ततो एवं कथाओं का आश्रय लेकर इस प्रकार निबद्ध किया गया कि बालक उसे आसानी से ह्रदयगम कर ले तथा स्मृति में धारण कर सके परंतु कालांतर में कथा तत्व का प्रावधान इतना बढ़ गया कि उसमें निबद्ध ज्ञान कालांतर में गोण होता चला गया । कथाओं में बालकों की सामान्य अभिरुचि होती है अतः साहित्यकार कभी कभी जड़ पदार्थों का भी मानवीकरण कर देता है वाल्मीकि रामायण में भी अनेक विकराल और विध्वंसक अस्त्र शस्त्रों को भी वृक्षआशुव के पुत्र बतलाकर उनका मानवीकरण कर दिया गया है अनेक स्थलों पर वृक्षों व पाषाण खंडों के प्रति भी यही भाव दिखाई पड़ता है रामद्वारा विश्वामित्र से अस्त्रों की संहारक विधि के संबंध में भी प्रश्न किया जाता है पर वहां वह केवल संकेत मात्र देकर ही आगे बढ़ जाते हैं

5 व्याख्यान पद्धति

योगी प्राचीन एवं प्रचलित प्रणाली थी चर्चा में पद विग्रह होता था उदाहरण एवं प्रत्यउदाहरण में भी दृष्टांत देने का विधान था वाक्यअध्यायहार में वाक्य अर्थ का विश्लेषण किया जाता था इस प्रकार इस के चार अंग थे

नंबर 1 चर्चा 2 उदाहरण 3 प्रत्यदाहरण 4 वाक्य अध्यायहार

अन्य प्रणालियां

नंबर 1 प्राक्कथन--- बिना पूर्व तैयारी के शीघ्र ही कुछ कहना

नंबर दो भाषण--- किसी बात को भली-भांति अभिव्यक्त करना


नंबर 3 सम्यक बौध ---किसी बात का विश्लेषण और मनन करना


नम्बर 4 प्रति श्रवण ---किसी विषय पर ज्ञान चर्चा करना सुनना एवं सुनाना


6 वाद विवाद पद्धति

सैद्धांतिक ज्ञान के विकास में इस का महत्वपूर्ण योगदान रहा है यह एक प्राचीन पद्धति है और शैक्षिक वार्तालाप के इस रूप का प्रचलन आध्यावधि भी किसी ना किसी रप में होता आया है यह शास्त्रार्थ पद्धति के अधिक निकट है विद्वत सभा में विभिन्न विषयों पर मनीषी वक्ता अपना अपना पक्ष रखते थे वाल्मीकि रामायण में इस पद्धति का प्रचुरता से उल्लेख मिलता है महाराजा दशरथ द्वारा आयोजित यज्ञ सभा में कोई भी ऐसा सदस्य न था जो वाद विवाद में कुशल न हो


सदस्य सितस्य बैराज्ञी नाबाद कुशली द्विज: बा रा बाल 14/2

अपने मत का औचित्य सिद्ध करने हेतु विभिन्न विषयों का ज्ञान विज्ञान सदाचार आदि के विषय में वाद विवाद करके निष्पक्ष निर्णय लेने की इस विधि का प्रवर्तन रामायण में देखा जा सकता है

महर्षि वाल्मीकि द्वारा इस विधि के माध्यम से महर्षि जावाली एवं श्री राम के मध्य भौतिकवादी मत का खंडन करवाया गया है

बा रा अयोध्या सर्ग 109, 110 यह सामूहिक तर्क की प्रक्रिया है राम के उत्तराधिकार के संबंध में भी अयोध्या की राज्यसभा में इसी पद्धति द्वारा सामूहिक निर्णय होता है

7 योजना पद्धति

बाल्मीकि रामायण में "यज्ञ की आयोजना विधि" द्वारा शिक्षा प्रदान करने की प्राचीन पद्धति का किलपैट्रिक द्वारा प्रचलित योजना पद्धति से सादृश्य स्थापित किया जा सकता है योजना वह क्रिया है जिसमें पूर्ण संलग्नता के साथ सामाजिक वातावरण में लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है यज्ञ के सांगोपांग अनुष्ठान में इस पद्धति के सिद्धांत तथा प्रायोजना के कुछ प्रकारों को चित्रित कर सकते हैं जैसे निरीक्षण के अंतर्गत जीव जंतुओं वनस्पतियों को वर्गीकृत करके विभिन्न वर्णनो के प्रसंग से प्रस्तुत किया गया है आश्रमस्थ उपवन व्यवस्था भी दर्शनीय है पहचान के अंतर्गत वृक्षों, फलो, जंगली जानवरों ,पत्थर शिलाओ आदि को स्थान स्थान पर परिचित कराया गया है पंचवटी में साल ताल तमाल पुनांग ,आम ,अशोक, चंपा ,केवड़ा, पलाश ,आदि आदि वृक्षों का परिचय कराया गया है


इसी प्रकार इकाई विश्लेषण आदि विधियों से संबद्ध विशेषताओं को भी वाल्मीकि रामायण में रेखा अंकित किया जा सकता है

अंततः कहा जा सकता है कि वर्तमान समय में जिन पद्धतियों का आविष्कार विभिन्न शिक्षाविदों द्वारा किया गया है अथवा जिन पद्धतियों का आश्रय लेना वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है वे पद्धतियां बाल्मीकि की वैचारिक परिधि से बाहर की नहीं है वाल्मीकि रामायण में यथा स्थान इन शिक्षण पद्धतियों का पर्याप्त समावेश किया गया है यही कारण है कि यह कृति एक युग प्रवर्तक रचना के रूप में समादृत रही है

इति

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