संस्कृत वांग्मय में जीवन दर्शन - 2 Dr Mrs Lalit Kishori Sharma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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संस्कृत वांग्मय में जीवन दर्शन - 2

संस्कार

संस्कार मानव के नव निर्माण की आध्यात्मिक योजना है । चरक ऋषि ने कहां है संस्कारों हि गुणाअंतर आधान, उच्यते अर्थात संस्कार पहले से विद्यमान दुर्गुणों को हटाकर उनके स्थान पर सद्गुणों का आधान कर देने का नाम है । वेद स्मृति आदि ग्रंथों में 42 संस्कारों का उल्लेख है जिनमें 16 प्रमुख हैं गर्भाधान पुस वन सीमंतोनयन जात कर्म नामकरण निष्क्रमण अन्नप्राशन चूड़ा कर्म कर्ण छेदन उपनयन वेद आरंभ समावर्तन विवाह वानप्रस्थ सन्यास और अंत्येष्टि। भारतीय दर्शन में गर्भाधान को एक संस्कार का नाम देना निश्चित ही उसके लक्ष्य की महानता को शुद्ध करता है इसे पति पत्नी द्वारा किए जाने वाला एक पवित्र यज्ञ माना गया है गर्भाधान के समय शरीर तथा मन की अवस्था का संतान पर गहरा प्रभाव पड़ता है इसी प्रकार गर्भावस्था में भी मां की मनोवृत्ति का संतान के निर्माण पर गहरा प्रभाव पड़ता है जीवन दर्शन के इस महत्वपूर्ण संस्कार को यदि आज भी पति पत्नी द्वारा पूर्ण पवित्रता के साथ वैदिक विधि विधान के अनुसार एक धार्मिक कृत्य मानकर गर्भाधान करें तो निश्चय ही संस्कारवान चरित्रवान एवं इच्छा अनुसार संतान की प्राप्ति कर सकते हैं जिससे समाज को उच्छकल वअनुशासन हीन होने से बचाया जा सकता है। मां की मनोवृत्ति के परिणाम स्वरूप ही सुभद्रा के गर्भ मैं अभिमन्यु ने चक्रव्यूह भेदन करना सीख लिया था तथा अष्टावक्र ने गर्भावस्था में ही वेदांत सीख लिया था। मदालसा अपने संस्कारों के कारण है ऑठो पुत्रों को ब्रह्मर्षि तथा नवे पुत्र को सर्वगुण संपन्न क्षत्रिय बनाने में समर्थ हो सकी । इस प्रकार भारतीय जीवन दर्शन ने गर्भाधान को धार्मिक संस्कार का रूप देकर समाज सुधार व मानव के नव निर्माण की दिशा में एक नव चिंतन को जन्म दिया है। पुंसवन संस्कार का लक्ष्मी गर्भस्थ शिशु के शरीर तथा मन को इच्छा अनुसार ढालना तथा उसकी रक्षा करना है। बालक के मानसिक विकास हेतु सीमंतो नयन संस्कार किया जाता है। आचार्य मनु ने कहा है कि

यादृश्म भजते नारी सुतम सूते तथा विधम ।
तस्मात् प्रजा विशुद्धयथम स्त्रियम रक्षित प्रयत्नत:। मनु

अर्थात गर्भवती स्त्री मन में जिस प्रकार के विचार रखती है वह उसी प्रकार की संतान को जन्म देती है इसीलिए उत्तम संतान हेतु स्त्री को ऐसे वातावरण में रखना चाहिए जिससे संतान उत्तम तथा शुद्ध संस्कारों वाली हो
संतान के उत्पन्न होने के बाद जो कर्म किए जाते हैं वह जात कर्म कहलाते हैं। जन्म पूर्व संस्कारों पर माता तथा आनुवंशिक संस्कारों का मुख्य प्रभाव पड़ता है तथा जन्मोत्तर त्संस्कारों पर पर्यावरण संबंधी संस्कारों का मुख्य प्रभाव पड़ता है। नामकरण संस्कार में बालक का नाम उच्च भावना को जागृत करने वाला रखा जाना चाहिए। सभी संस्कारों का उद्देश्य बालक को संस्कारवान बनाना है, ---- मनु कहते हैं---- "जन्मना जायते शुद्र:, संस्कारा,त द्विज उच्चयते"--- । उपनयन संस्कार द्वारा यज्ञोपवीत धारण कर तत्पश्चात वेद आरंभ संस्कार द्वारा विद्यारंभ किया जाता था। विद्या उपार्जन के समय ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए पूर्ण संयमित जीवन व्यतीत करने का निर्देश दिया जाता था और विद्या पूर्ण होने पर समावर्तन संस्कार द्वारा गुरु ----सत्यम वद धर्मं चर स्वाध्याय स्वाध्यायान मां प्रमद: आदि उपदेशों के साथ गृहस्थ धर्म में प्रवेश की अनुमति प्रदान करता है। विवाह संस्कार को सर्वोपरि श्रेष्ठ धार्मिक संस्कार माना गया है। पति-पत्नी का जन्म जन्मांतर का संबंध है विवाह का मुख्य उद्देश्य पित्र ऋण को चुकाना है इसीलिए उसे धार्मिक कृत्य माना गया है विवाह के समय कन्या को
साम्राज्ञी होने का आशीर्वाद दिया जाता है। अपने सुकर्मों द्वारा सबके दिल पर राज करने की शिक्षा दी जाती है। विवाह केवल विषय बुक का साधन नहीं है अपितु परमार्थ एवं लोक कल्याण का साधन कहा गया है। भारतीय जीवन दर्शन में विवाह संस्कार एक स्थाई और शास्त्रीय संस्कार हैं। विवाह उपरांत प्रवृत्ति धर्म की पूर्णता गृहस्त में हो जाती और तत्पश्चात व्यक्ति वानप्रस्थ और सन्यास की ओर प्रस्थान करता है और प्रवृत्ति से निवृत्ति मार्ग की ओर चल पड़ता है। वानप्रस्थ में व्यक्ति आत्मचिंतन में प्रवृत्त हो जाता है और सन्यास आश्रम में त्याग की भावना से समन्वित होकर जनकल्याण में लग जाता है वह संसार की प्राणी मात्र की सेवा का व्रत ले लेता है। अंतिम संस्कार अंत्येष्टि द्वारा मानव जीवन की अंतिम शुद्धि कर दी जाती है इस प्रकार जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत संस्कारों द्वारा सुसंस्कृत होकर निरंतर उन्नति पथ पर अग्रेषित होना ही भारतीय जीवन दर्शन का लक्ष्य रहा है इतना ही नहीं वह तो जन्म जन्मांतर तक उन्नति के आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर हो सकता है। क्योंकि मृत्यु तो सिर्फ चोला बदलने का नाम है---" न जायते म्रियते वा कदाचित"

समानता एवं प्रेम का भाव
न केवल मानव अपितु विश्व के समस्त प्राणी मात्र के प्रति समानता और प्रेम की भावना ही भारतीय जीवन का आदर्श रहा है। संपूर्ण संस्कृत वांग में ऐसी समानता व प्रेम व्यवहार की दृष्टांत गाथाओं से भरा पड़ा है इसीलिए वैदिक ऋषि सदा ही सहयोग पूर्ण जीवन की कामना करता है

सह नौ भुनक्तु सह वीर्यम करवावहै ।
तेजस्विनौ अवधीतम अस्तु मां विद्वेषवहै

भारतीय जीवन दर्शन का मुख्य गुण विषमता प्रतिस्पर्धा तथा अशांति को दूर कर समता समानता और शांति तथा प्रेम का साम्राज्य स्थापित करना है। इसी महिमा से मंडित होकर वह आज भी विश्व का आदर्श बना हुआ है जहां नदियों को भी मां की संज्ञा दी जाती हो पर्वत और वृक्षों की पूजा की जाती हो उनके सुख दुख का अनुभव किया जाता हो वृक्ष की संतानोत्पत्ति पर भी उत्सव मनाया जाता हो इससे अधिक समानता और प्रेम की महानता के दर्शन विश्व में अन्यत्र दुर्लभ है।

सादा जीवन उच्च विचार

संस्कृत वांग्मय में जितने भी महानतम विभूतियों के जीवन दर्शन का उल्लेख है उनके अनुसार जीवन को उन्नत करने का अर्थ आवश्यकता ओं को या सांसारिक पदार्थों के संग्रह को बढ़ाना नहीं है अभी तो अपने नैतिक स्तर को उन्नत करना है। जीवन का सौंदर्य संयमित जीवन में प्रेम की गहराई में तप की एक निष्ठा में और उच्च विचारों की गहनता में ही झलकता है सदाचार क्या भाव में सौंदर्य अभिशाप बन जाता है। भारतीय जीवन का आदर्श ही निराला है यहां शरीर के अंगों की शोभा गहनों से नहीं अपितु सद कार्यों से होती है

श्रोतम श्रुति नव न कुंडलेन
दानेन पाणि, नि त कंकड़ न
विभाती कायाः करुणा परप्णांम
परोपकारेण न चंद नैन

यहां विचारों की महानता इस सीमा तक, जहां सभी के सुखी और निरोगी होने की कामना की जाए

सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मां कश्चित् दुख भाग भवेत्

विचारों की यह महानता ही भारतीय को---" वसुधैव कुटुंबकम" की ऊंचाइयों तक पहुंचा सकती है भारतीय जीवन का आदर्श संग्रह में नहीं अपितु त्याग में है बड़ी से बड़ी अपार राज्य संपदा को भी ठुकरा कर वह अध्यात्म मर्ग का पथिक बनने में आनंद का अनुभव करता है इस आनंद अनुभूति का अनुभव वही कर सकता है जिसमें त्याग और संयम का मार्ग चुन लिया हो --जब आवे संतोष धन सब धनु धूरि समान भारतीय जीवन दर्शन का मूल मंत्र यही है --"सादा जीवन उच्च विचार"

पुरुषार्थ चतुष्टय

संस्कृत वांग्मय में वर्णित मानव जीवन का परम ध्येय आत्मसाक्षात्कार कथा भगवत प्राप्ति करना है मानव जीवन के उत्कर्ष की यही पराकाष्ठा है। जीवन दर्शन की चरितार्थता हेतु चार पुरुषार्थ निर्धारित किए गए हैं--- धर्म अर्थ काम और मोक्ष। मानव अपने प्राकृत रूप में पशु के समान ही होता है--- धर्मो ही तेषाम अधिको विशेष: मानव के जीवन दर्शन की विशेषता यह है कि उसके सभी कार व्यवहार धर्म से परिचालित होते हैं। धर्म से युक्त होने के कारण है बह संस्कारित होता है यह संस्कार उसमें माता-पिता के सदाचरण उपदेश गुरु द्वारा प्राप्त शिक्षा सत्संग आदि से प्राप्त होते हैं जिससे उसकी विवेक बुद्धि का विकास होता है

सांसारिक जीवन काममय है उसके लिए अर्थ का प्रयोजन है अतः अर्थ और काम को भी मानव जीवन का पुरुषार्थ माना गया है। परंतु सबसे पहला पुरुषार्थ धर्म है और अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष अथवा आत्मसाक्षात्कार है । अतः अर्थ और काम धर्म और मोक्ष से वंधरहते हैं भगवान वेदव्यास कहते हैं

धर्म अर्थष,च काम : षच स किमर्थम न सेवयते

अर्थात धर्म से अर्थ और काम दोनों से धोते हैं तब ऐसे धर्म का सेवन क्यों नहीं करते? अर्थ और काम के स्वैराचारों का नियंत्रण करने वाला धर्म ही है धर्म से अवरुद्ध काम को ईश्वर की बूटी कहा गया है

धर्माविरुद्ध भूतेषू कामःअसमी भरतर्षभः (श्रीमद्भगवद्गीता)

रामायण में श्री राम वन गमन के समय स्वयं कहते हैं कि--- "धर्म अर्थ और काम एक साथ ही रहते हैं इस विषय में मुझे कोई संशय नहीं है। पर यदि धर्म किसी रास्ते से जा रहा हो और अर्थ एवं काम किसी दूसरे रास्ते से तो अर्थ और काम का साथ छोड़कर धर्म का ही साथ देना चाहिए" ----क्योंकि आंतरिक संस्कारों के अभाव में वह संस्कार भी निरर्थक हैं। भारतीय जीवन दर्शन में जीवन का विचार केवल वर्तमान जीवन के आधार पर नहीं किया जाता बल्कि पूर्व जन्म वर्तमान जन्म और पुनर्जन्म अर्थात त्रिकाल व्यापी अखंड जीवन के आधार पर किया जाता है । मृत्यु संस्कार जीवन का अंत नहीं है अपितु नए जीवन का प्रारंभ मात्र है

भारतीय जीवन दर्शन की यह विशेषता रही है की वैयक्तिक जीवन का विश्व के समष्टि जीवन की चरितार्थता के साथ कोई विरोध नहीं है जो पुरुषार्थ चतुष्टय व्यक्ति के हैं वही चार पुरुषार्थ अखिल मानव जाति के भी हैं इन पुरुषार्था के साधन की जो सांस्कृतिक प्रणाली है उसका अनुसरण करने वाला प्रत्येक व्यक्ति कुछ ना कर के भी अखिल विश्व हित का साधक बन जाता है धर्म और मोक्ष से बंधा हुआ प्रत्येक जीवन सबके लिए अनुकरणीय होता है रामायण महाभारत पुराण आदि ग्रंथों में उल्लिखित संस्कार आज भी भारत की काया पलट कर जगत को शांति का अमोघ संदेश देने में सक्षम है

इति