Meri Nazar se Dekho - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

मेरी नजर से देखो - भाग 3 - सरकारी दफ्तर की महंगी चाय

...कि मेरी पत्नी के भाई यानी मेरे साले मजबूरदास की काॅल आ गई। अपनी जीजी से मिलने को आ रहा था। मैने अपनी पत्नी को कहा तेरा भाई आ रहा है, कुछ पकवान बना लो। वैसे तो हमारे साले साहब की भी सरकार के तंत्र के साथ बडी रोचक कहानी है, इतने में वो आए मै आपको बता देता हूँ कि आखिर वो कैसे इन सरकारी झमेलो में आ गए?...

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मजबूरदास का जैसा नाम वैसा ही स्वभाव। इसके माथे पर शिखर हमेशा ज्यों की त्यों रहती है। और बुढापा उम्र से पहले आ गया, अभी उम्र पिछले बरस ही तो 61 हुई है। अभी तो उसके अपने दिन आए थे, खुलकर जीने के। अजीब ही दास्तां है जिंदगी की। खैर रिटायर्ड तो सरकारी नौकरी से हुआ था, मगर क्लर्कगिरी करते करते कौन-सा कोई पहचान बने। हाँ, कुछ लेने देने वाले काम आते तो बात कुछ ओर होती। बस कैसे भी मजबूरी से समझौता कर नौकरी पूरी कर ली। अच्छी बात ये थी कि अब पेंशन शुरू होने वाली थी। मगर दफ्तर से फाईल निकले व सरकार के हाथो में जाए, उसमें समय की मुल्य तो लगती ही है। माना सरकारी नौकर है, पर नौकरी के बाद तो आम नागरिक ही है। सबक ना मिलेगा तो बात ही क्या। पीछे सरकार ने बैंक में डालने की स्कीम के वादे तो दिए थे, मगर वो फाईल भी किसी दफ्तर की टेबल पर अटक गई होगी। अब क्या करे, ये दस्तूर हमारे हर सरकारी दफ्तरो की आन-बान-शान का प्रतिक जो ठहरा।

मजबूरदास को सरकारी दफ्तर से अपनी उम्र भर कि पेंशन का आठ हजार प्रतिमाह मिलना था। बस फाईल एक बार निकल जाए फिर तो बैंक में देर-सवेर सरकार डाल ही देगी , हाँ! बस बैंक जाकर हर रोज का ब्यौरा लेना होगा। अब ये सरकारी दफ्तर की ओर जाने लगे। तो घर से निकल ही रहे थे कि हमारी सलज ने कहाँ पर्स हल्का तो नही ले जा रहे। कही फिर चक्कर लगाना पडे। कम से कम तीस हजार लेते जाओ, चाय नाश्ते का।और वैसे भी इतना तो आप तीन- चार माह में ले ही लोगे सरकार से। ये सुन मजबूरदास माथे पर परेशानी व पर्स में चाय का खर्चा लेकर निकल पडा फाईल को आगे बढवाने।

मजबूरदास दफ्तर के बाहर जैसे पहुचाँ, तो सबसे पहले पाँच सौ का नोट चाय वाले को थमा दिया कि जायजा ले आए कितने है ओर कहाँ-२ है। फाईल का वजन जो हल्का करने को ठहरा। चाय वाला ब्यौरा लेकर आ गया, तो फिर आगे के सफर पर निकले। दरवाजे की दान पेटी यानी चौकीदार को चढावा चढा कर आगे बढे। पहले तो मुलाकात अपने ही भाई बन्धुओ से हुई। अब इन्हे पत्ता होता की इस स्तर पर भी चढावा है, तो कुछ ये भी कमा लेते, मगर मजबूर की मजबूरी तो कौन जाने। रगो में डर जो बैठा था। खैर अब मेज दर मेज से होते हुए का कुल चाय का खर्चा हुआ दस हजार, सरकारी मुलाजिम थे, तो कुछ रीबेट मिल गई, वरना तो बीस हजार से कम कहाँ आजकल रेट है छोटे मुलाजिमों का बाजार में। आप लोगो को तो पत्ता ही होगा, कभी लाईसेंस नही बनवाया का।

अब मजबूरदास व उनकी फाईल सरकारी बाबू के पास हस्ताक्षर को पहुँच गई थी। यहाँ से निकले तो दफ्तर का पीछा छूटे। जैसे ही दरवाजे पर पहुँचे, तभी उसको सरकारी बाबू के पी.ए. ने रोक कर कहा कि "आजकल साहब जरा कम आते है, दास जी। जरा बैठिये तो सही। हम भी तो है, आपके खास। हमसे ना बात किजिएगा।" मजबूरदास जी बोले, अरे भईया आप तो अपने ही है। कैसी बाते करते है। अब दोनों जरा गर्मजोशी में एक दूजे के लिए सत्कार कर्म करा और ऐसे में फिर बात को आगे बढा दिया। मजबूरदास जी कुछ हिसाब लगा ही रहे थे, कि पिछे से आवाज आई, अरे आप चिंता क्यो करते है, एक बार फाईल देख लिजीए। फिर साइन कर देते है, आपको पेंशन भी तो देनी है जी हमें। ये सरकारी बाबू थे। अभी कुछ समय पहले ही बने थे। मगर पिताजी विधायक थे, तो खून में लेने देने के गुण पहले से थे।

आगे तो आप सब समझ गए होंगे, अब मजबूरदास जी मुस्कराते हुए घर लौट आए कि कम से कम सरकार कि नैतिकता व भाईचारे से मेरी चाय का खर्चा पच्चीस हजार ही हुआ। वरना कोई ओर होता तो चालीस हजार से कम में कहाँ कुछ करते।

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टिंग टोंग... लगता है मजबूरदास आ गया। मैने मेरी पत्नी को दरवाजे खोलने को रूक्का दिया। मेरी पत्नी ने अपने भाई की आवभगत की, फिर मैने पुछा ओर आजकल क्या चल रहा साले साहब । कहने लगे क्या बताए जीजाजी आपसे क्या कुछ छुपा है, पिछले साल दोनो बेटियों की शादी का खर्चा ज्यो त्यों निकाला था। अब इनकी माँ की क्या ही कहे.... । एक लम्बी बातचीत के बाद मजबूरदास चला गया। और मेरी कलम का दौर अब यहाँ से आगे शुरू हुआ। सामाजिक मुद्दो की असहजता के बारे में, जिसकी वजह कभी कभी हम ही होते है।।...

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