नि.र.स. - एहसास हमारा, जिक्र तुम्हारा
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
Dedicate to my Pen
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
नज्मे
१. गर एहसास नि.र.स. हो जाए
२. मोहब्बत का गुनाह
३. शायद तुम चले गए
४. मगर मुनाफा किसका?
५. जिक्र तेरा
६. अकेलेपन की बातें
७. तुम्हे किसने कहाँ?
८. लंबी राते
९. दर्द की असीम सीमा
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
गर एहसास नि.र.स. हो जाए
आज तू कोई और बात ना कर,
बातों में रात खराब ना कर।
रातों से कालिख खिंच शब्द बना,
पर इस कालिख में लकीरें खराब ना कर।।
गर तू सोचता है लकीरों को,
तो इन लकीरों से खुदा को रच।
और खुदा रच रहा है गर तुझे,
तो यह सोचकर वक्त खराब ना कर।।
गर तू वक्त के नुमाइंदों में फस गया,
तो इन नुमाइंदों से खुद की फरमाइश तो कर।
गर फरमाइशों की सुनवाई ना मिले,
तो तू सुनवाई की गुहार ना कर।।
गर गुहार करे तो न्याय की,
तो न्याय में प्यार की मांग तो कर।
गर प्यार की कैद मंजूर है,
तो कैद में उम्र गिना ना कर।।
तू उम्र गिने तो यादो की,
तो इन यादों में सफर गुजार दें।
गर सफर तुझे थकाने लगे,
तो तू थकान को कहीं ठहराया न कर।।
ठहराये तो किसी मजार पर,
बस वो मजार तेरी ना हो।
गर तेरी हो, तो एक मांग उठा,
पर मांग में प्यार से रिहाई ना हो।।
गर रिहाई हो इस प्यार से,
तो कलम से लिख एहसास को,
गर एहसास नि.र.स. हो जाए,
तो नि.र.स. की स्याही ना हो।
गर स्याही हो कविता बना,
पर कविता में उसकी रूसवाई ना हो।
गर रूसवाई की तू बात करे,
फिर आज तू कोई और बात ना कर।।
- नि.र.स.
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
मोहब्बत का गुनाह
तेरी नाराजगी ने,
मुझ प्यार करने वाले का,
जीना दुस्वार कर दिया।
कसूरवार थे तुम,
पर खता थी ये हमारी,
कि तुमसे प्यार कर लिया।।
तुम्हें बेकसूर करे,
तो ये मोहब्बत का गुनाह,
ये गुनाह कई बार कर लिया।
तेरी नाराजगी ने,
मुझ प्यार करने वाले का,
जीना दुस्वार कर दिया।
- नि.र.स.
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
शायद तुम चले गए
मैंने चाहा था,
खुद को पाना
मैंनें चाहा था,
खुद को हँसाना,
पर ना जाने,
तुम चले गए।
खुद कहीं गुम,
ना कोई हंसी,
ना कोई चाह,
ना मंजिल मेरी,
ना कोई राह,
कहाँ चले गए।।
मैंने चाहा था,
तुझ को पाना
मैंनें चाहा था,
तुझ को हँसाना,
पर ना जाने,
तुम चले गए।
- नि.र.स.
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
मगर मुनाफा किसका?
वो रास्ते में मिले,
बाते होने लगी,
मानो मुझे मेरे सफर का,
मेहमान मिल गया।।
कुछ पलो की बाते,
फिर मुलाकाते बनी,
मानो मुझे मेरे जीवन का,
रकीब मिल गया।।
अब मै ठहर चुका
इन राहो में,
मानो मुझे मेरे सफर का,
रहनुमा मिल गया।।
एक सवाल मन में,
रोज उठता है,
मानो मुझे मेरे सफर का,
जवाब मिल गया।।
वैसे वो छोडकर गई,
इस सौदे में,
या मैने ही जाने दिया,
मगर मुनाफा किसका?
- नि.र स.
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
जिक्र तेरा
अक्सर जिक्र तेरा,
मेरे हर पल में आता है।
न जाने क्यो,
ये मुझे बेचैन कर जाता है।।
अक्सर सुना है,
कि प्यार में कदम सँभल कर रख।
क्योकिं हर कोई,
इसमें आकर फिसल ही जाता है।।
अक्सर जिक्र तेरा,
मेरे हर पल में आता है।
न जाने क्यो,
ये मुझे बेचैन कर जाता है।।
अक्सर तेरी गलियाँ,
पहले नजरो की मुलाकात बनती थी।
उन गलियों में,
आजकल भी एक फरियादी हर रोज जाता है।।
अक्सर जिक्र तेरा,
मेरे हर पल में आता है।
न जाने क्यो,
ये मुझे बेचैन कर जाता है।।
- नि.र.स.
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
अकेलेपन की बातें
तुम अकेलेपन को वरदान कहो,
मुझे अकेलापन कितना खलता है।
तुम ख्याल रखो कह,
अपनी जिम्मोदारी से मुक्त हो चली।
अरे तुम क्या जानो,
ये कितना मन को खटकता है।।
तुम अकेलेपन को वरदान कहो,
मुझे अकेलापन कितना खलता है।
तुम हाथ बढा नही पाई,
देख सूरज वो खुदकुशी करने लगा,
क्षितिज से धरा नाराज क्यों,
आज मन में ये सवाल पलता है।।
तुम अकेलेपन को वरदान कहो,
मुझे अकेलापन कितना खलता है।
वो गिरते फूल तुझ दरख्त से,
मुझ एक एहसास में इत्र से महकने लगे,
क्या मुझ परवाने का कोई मोल नही,
जो तुझ शमा में शोले सा दहकता है।।
तुम अकेलेपन को वरदान कहो,
मुझे अकेलापन कितना खलता है।
मुझ कवि के लेख में,
एक नफरत की निरसता भरी,
जो दर्द संजोह तेरी राहो का,
इस अकेलेपन से गुजरता है।।
तुम अकेलेपन को वरदान कहो,
मुझे अकेलापन कितना खलता है।
-नि.र.स.
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
तुम्हें किसने कहा,
तुम्हें किसने कहा,
कि हम तुमसे प्यार नहीं करते।
तुम्हें किसने कहा,
कि हम तेरा इंतजार नहीं करते।।
गैरों की बात पर,
तुमने विश्वास कर लिया।
हमने तो नहीं कहा,
कि तुम मेरा विश्वास नहीं करते।।
हर दफा मुझे,
तुम्हें प्यार का सबूत देना पड़ता है।
मेरा अंतर्मन मुझसे,
इसी बात पर हर रोज लडता है।।
कि किसने कहा मुझे,
कि तुम मुझे भी चाहती हो।
कि किसने कहा मुझे,
कि तुम मेरी परवाह करती हो।।
कि किसने कहा मुझे,
कि तुम मेरे ना होने पर मुझे याद करती हो।
कि किसने कहा मुझे,
कि तुम मुझसे मिलने की रब से दुआ करती हो।
अब ना जाने किसने कहा,
कि बस तुम तो मेरा अहम हो।
अब ना जाने किसने कहा,
कि तुम मोहब्बत का एक वहम हो।।
तुम हो भी मेरी की नही...
- नि.र.स.
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
लंबी रात
आज की रात लंबी बहुत है।
आखों की बरसात लंबी बहुत है।।
नींद आंखों से जो छीन ली है,
यादों में ये सारी रात जगी है।
इन आँख के सूरमई काजल से गहराई सी,
ये बेदर्द काली रात लंबी बहुत है।।
आखों की बरसात लंबी बहुत है।।
आज की यह रात लंबी बहुत है।
माना आज की ये रात लंबी बहुत है,
शिकायत तेरे लबों से हमने की भी बहुत है।
तुमने कभी होंठो की मधुशाला से मधु छलकाई थी ,
उसी मय से हुई, ये नशीली रात लंबी बहुत है।।
आखों की बरसात लंबी बहुत है।।
आज की यह रात लंबी बहुत है।
अक्सर तुम खो मेरी आँखो के ख्वाबो में,
हर दफा मेरे आने की राह तकते हो।
जब इस निंद ने, बदन तोड ली अंगडाई,
इस हसीन ख्वाब में ये बिन सोई रात लंबी बहुत है।।
आखों की बरसात लंबी बहुत है।।
आज की यह रात लंबी बहुत है।
-नि.र.स.
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
दर्द की असीम सीमा
दर्द की एक सीमा तो हो।।
कोई वरना कब तक सहे।।
रात को नि.र.स. कलम लिखे,
दिल-ए-दर्द बयान करने को।
इन महफिलो से, कौन मरहम माँग रहा,
ये वो है, जो दर्द के सौदे करे।।
दर्द की एक सीमा तो हो।।
कोई वरना कब तक सहे।।
कब तक सहे, कोई ये असीम पीडा,
ये कैसे सौदे बने, मन लुभाने की क्रिडा।
सवाल जब मुझसे, ये कलम ने पुछा,
कि मेरी जवानी, क्यो तेरे दर्द में जले।।
दर्द की एक सीमा तो हो।।
कोई वरना कब तक सहे।।
चुप रहना मुझे बर्दाश्त नही,
कुछ कहने का मुझमें साहस नही,
बस कलम तेरी जवानी की छाप से,
मेरे दिल का थोडा गम मिटे।।
दर्द की एक सीमा तो हो।।
कोई वरना कब तक सहे।।
निशान हो गए, जुदाई से देह पर,
क्योंकि यादों को कुरेदे, हर एक सफर,
तेरे हर जख्म के फलसफें सिखाने लगे,
मगर इतनी मुझे फुरसत कहाँ, ये निशान अब कौन पढे।।
दर्द की एक सीमा तो हो।।
कोई वरना कब तक सहे।।
- नि.र.स.