त्रिधा - 2 आयुषी सिंह द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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त्रिधा - 2

अगले दिन सुबह त्रिधा कॉलेज पहुंची तो फिर संध्या उसे लेकर कॉलेज के सेमिनार हॉल में पहुंच गई जहां आज उन्हें प्रभात और एक अन्य लड़का भी मिला।

" तुम यहां कैसे ? " त्रिधा ने प्रभात से पूछा।

" तुम यहां कैसे ? " प्रभात ने भी वही सवाल दोहरा दिया।

" रैगिंग से बचने के लिए " त्रिधा ने मासूमियत से कहा।

" तो मैं भी इसलिए ही यहां हूं " प्रभात ने कंधे उचकाते हुए कहा जैसे उसे त्रिधा से ऐसे बचकाने सवाल कि उम्मीद न हो।

" ओह हां " त्रिधा ने अपने माथे पर हाथ मारते हुए कहा।

" वैसे संगत का बहुत असर होता है त्रिधा, इस जैसी अकडू और कम अक्ल के साथ रहोगी तो तुम्हारी समझदारी भी जाती रहेगी " प्रभात ने संध्या को देखते हुए त्रिधा से कहा।

" हाउ डेयर यू प्रभात मुद्गल ? व्हाट द हेल डू यू थिंक ऑफ योर्सेल्फ ? " संध्या ने खिसियाते हुए कहा।

" जस्ट अ नॉर्मल पर्सन विद लेसर ऐटिट्यूड दैन योर्स " प्रभात ने एक शांत मुस्कुराहट के साथ कहा।

" उफ्फ " संध्या खीजकर रह गई।

उन दोनों की नोंकझोंक के वक़्त त्रिधा का ध्यान उस लड़के पर गया जो प्रभात के साथ खड़ा हुआ था। वह करीब छः फुट लंबा था, गोरा रंग, घनी दाढ़ी और किसी ऐतिहासिक फिल्म के राजा की तरह घुमावदार मूंछें, थोड़े से बढ़े हुए बाल, नीली आंखों पर नजर का, काले फ्रेम का गोल चश्मा। सफेद टीशर्ट पर भूरी जैकेट, नीला जीन्स, कीमती जूते और उनसे भी ज्यादा कीमती घड़ी। वह लड़का बहुत ज्यादा घमंडी लग रहा था। उसे देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि वह ज़रूर किसी रईस घर से है। जब उसे लगा कि कोई उसे देख रहा है तब उसने नज़रें उठा कर देखा तो त्रिधा को खुद को देखते हुए पाया। कुछ पलों के लिए दोनों ही एक दूसरे की आंखों में देखते रहे जब तक त्रिधा के सर पर किसीने थपकी न दी। त्रिधा ने सकपका कर पलटकर देखा तो प्रभात और संध्या को देखकर उसे कुछ शांति अाई, उसे लगा कि शायद सीनियर्स आ गए। यह प्रभात था जिसने त्रिधा के सर पर थपकी दी थी और कहा " आज लेक्चर अटेंड नहीं करना, कल तो बहुत पढ़ाकू बन रही थी "

" हां वो मैं तुम दोनों की बहस खत्म होने का इंतजार कर रही थी " त्रिधा ने हल्की मुस्कुराहट के साथ कहा।

" हंसती मुस्कुराती हुई अच्छी लगती हो त्रिधा, इस मुस्कुराहट को कभी खोना मत " प्रभात ने कहा।

" हां पहली बार यह लड़का कुछ ठीक बोला है त्रिधू " संध्या ने त्रिधा के गाल खींचते हुए कहा।

" मैं हमेशा ठीक ही बोलता हूं, बस तुम इस अकडू घमंडी से बच कर रहना त्रिधा " प्रभात ने फिर तीखी मुस्कुराहट के साथ कहा।

और इसी तरह लड़ते झगड़ते, एक दूसरे की टांग खींचते, तीनों क्लासरूम की तरफ जाने लगे तब त्रिधा ने पीछे मुड़कर उस लड़के को देखना चाहा लेकिन तब तक वह जा चुका था।

शुरुआत के तीन लेक्चर शांति से बीतने के बाद लंच होते ही संध्या कैंटीन चली गई क्योंकि आज वह अपना लंचबॉक्स घर भूल अाई थी तब प्रभात त्रिधा के पास आ गया और उसे अपना लंचबॉक्स देते हुए कहा " लो त्रिधा इसे खा लो "

" आज तो तुमने संध्या का लंच नहीं खाया और ऑफर तो उसे करना था न कल की वजह से , तो फिर मुझे क्यों दे रहे हो ? " त्रिधा ने आश्चर्य से पूछा।

" सच के लिए...... दोस्ती के लिए, वो मुझे छोले भटूरे बिल्कुल नहीं पसंद। मैं तो बस एक दोस्त पाना चाहता था, न कि अपने मम्मी पापा के ओहदे से एक दोस्त कमाना चाहता था " प्रभात ने कहीं खोए हुए कहा।

" मतलब ? " त्रिधा ने नासमझी में पूछा।

" मेरे पापा आईएएस हैं और मां डॉक्टर, दोनों ही लोग अच्छे पदों पर हैं, जिस किसी ने भी मुझसे दोस्ती की वो सिर्फ मेरे मम्मी पापा के पद को देख कर की, मेरे व्यवहार को किसी ने समझा ही नहीं बस मैं उन पर पैसे लुटाता रहता और वो खाते रहते। यह सब टाइमपास, अपना फायदा और अपना मतलब निकालना ही उनके लिए दोस्ती थी " प्रभात ने अब भी कहीं खोए हुए ही कहा।

" पर तुमने उन पर अपने मम्मी पापा के मेहनत के पैसे खर्च क्यों किए प्रभात ? "

" हाहाहा वो मेरी पॉकेटमनी होती है त्रिधा, अपने मम्मी पापा का अकेला बेटा हूं तो किसी चीज़ की कमी नहीं..... सिवाय वक़्त के " प्रभात ने पहले हंसते हुए और फिर कुछ गम्भीर होकर कहा।

" और तुम्हारे मम्मी पापा.... मतलब उनसे तुम्हारी कैसी इक्वेशन है ? " त्रिधा ने पूछा।

" दोनों मेरे बेस्ट फ्रेंड हैं लेकिन तुम्हें पता होना चाहिए कि डॉक्टर्स और आईएएस ऑफिसर्स को घर के लिए ज्यादा समय नहीं मिलता और मेरे कोई भाई बहन भी नहीं जिनके साथ मेरा अकेलापन दूर हो सके। दो दोस्त थे मेरे..... राघव सक्सेना और अभिनव वर्मा। अभिनव और राघव दोनों ही ने मुझसे बिना मतलब की दोस्ती की थी और वह मेरे हर मूड को समझते थे, चाहे में गुस्से में उससे कुछ भी कह दूं , चाहे मैं कुछ गलत कर रहा होऊं वहां मुझे रोकना हो या मेरे पहले प्यार को खो देने का दुख हो, वो सब समझते थे और हमेशा मेरे साथ खड़े रहते। मैं जब भी परेशान होता उन्हें अपने पास पाता लेकिन कहते हैं न खुशियों को जल्दी नजर लग जाती है..... अभिनव और मेरी लड़ाई की वजह एक लड़की थी, राधिका। अभी दो महीने पहले , मतलब बोर्ड एग्जाम्स से पहले, अभिनव को राधिका से प्यार हो गया था, वह हमारी क्लासमेट थी। मैं जानता था वो लड़की अभिनव के लिए सही नहीं है और मैंने अभिनव को बहुत समझाया भी था पर वह नहीं माना, मैंने फिर उसे समझाया लेकिन वह फिर भी नहीं माना। फिर उसे रोकने के लिए मैंने गुस्से में अभिनव से कह दिया कि उसे राधिका और मुझमें से किसी एक को चुनना होगा और वही हुआ जो हमेशा होता आया है, दोस्ती और प्यार में,प्यार जीत गया और दोस्ती..... दोस्ती हार गई, दोस्त तो जैसे उसके लिए कभी था ही नहीं और एक दिन ऐसा आया जब उसने भी मुझसे मुंह मोड़ लिया..... हमेशा के लिए " प्रभात अब बिल्कुल शांत था।

" और राघव.... वह कहां है ? " त्रिधा ने पूछा।

" जानती हो त्रिधा , राघव को दीपावली बहुत पसंद थी और उस दिन कोइंसिडेंटली उसका जन्मदिन भी दीपावली वाले दिन था.... हम सबके लिए डबल सेलिब्रेशन। हम सब एक रेस्टोरेंट में थे कि तभी राघव को याद आया कि वह अपना वॉलेट घर भूल आया है और मेरे मना करने के बावजूद भी कि वह अकेला न जाए, वह अकेला ही अपने घर, अपना वॉलेट लेने चला गया। उसके जाने के कुछ सेकंड बाद ही एक ज़ोरदार धमाका हुआ जब हम सबने बाहर निकलकर देखा तो बहुत बड़ा धक्का लगा हमें, हमारा राघव ज़मीन पर पड़ा हुआ था और उसके चारों ओर खून ही खून था, अपने जन्मदिन पर ही अपने मां, पापा, भाई, बहन और अपने दोस्तों को छोड़ गया कमीना...... मेरा राघव इस दुनिया में ही नहीं है त्रिधा तो मेरे साथ कैसे होगा " कहते कहते प्रभात की आंखें भीग गईं।

" मेरा कभी कोई दोस्त नहीं बना और न ही किसी अपने का प्यार मिला, मैंने भी रिश्तों में सिर्फ पैसों की अहमियत देखी है इसलिए मैं भी भावनाओं की, रिश्तों की अहमियत अच्छे से समझती हूं प्रभात, और मैं कभी तुमसे मुंह नहीं मोडूंगी " त्रिधा ने हल्की मुस्कुराहट के साथ कहा।

" जान सकता हूं तुम्हारे साथ क्या हुआ ? " कुछ देर बाद प्रभात ने संयत होकर पूछा।

" बिल्कुल..... " त्रिधा कुछ कहती इससे पहले ही संध्या वहां आ गई और पूछने लगी " क्या बता रही हो त्रिधा, मुझे नहीं बताओगी ?" संध्या ने फिर चेहरे पर बच्चों जैसे भाव लाते हुए कहा।

" हां संध्या तुम और प्रभात दोनों मेरे दोस्त हो और तुम दोनों को मेरे बारे में जानने का भी हक है " कहकर त्रिधा ने संध्या और प्रभात को अपने बचपन से अब तक की सारी बातें बता दीं।

त्रिधा की पूरी कहानी जानने के बाद संध्या ने उसे गले लगा लिया तभी प्रभात बोला " त्रिधा अब क्या होगा? "

" मतलब " त्रिधा और संध्या दोनों एकसाथ बोल पड़ीं।

" डिफ्यूजन सुना है, मूवमेंट ऑफ पार्टिकल्स फ्रॉम हायर कॉन्सन्ट्रेशन टू लोअर कॉन्सन्ट्रेशन, यही तुम्हारे साथ हुआ है तुम्हारी सारी अक्ल इस अकडू में चली गई है तभी किसी जोक का मतलब ही समझ नहीं आता हार बात में मतलब मतलब करती रहती हो , अरे इसके गले लगाने से जो अक्ल तुम में बची थी वह भी इसी में चली गई होगी " प्रभात ने समझाया।

" नहीं प्रभात अभी तो तुम भी गले लगा लो तब होगा न मेरा दिमाग खाली, वैसे बकवास जोक था " त्रिधा ने संध्या को हाई फाइव देते हुए कहा और प्रभात ठगा सा रह गया।

" वैसे अकडू हम दोनों की रामकथा तो सुन ली तुम्हारा क्या स्पेशल केस है ? " प्रभात ने फिर संध्या को चिढ़ाया।

" ऐसी बात है मैं तुम्हें सिर्फ त्रिधा की वजह से झेल रही हूं..... खैर अब पूछा है तो बता देती हूं मेरा ऐसा कोई स्पेशल केस नहीं, मेरे डैड प्रोफेसर हैं संस्कृत कॉलेज में और मॉम हाउसवाइफ हैं, एक छोटा भाई है, दोस्त कुछ दिल्ली चले गए और कुछ साइंस मे दिमाग लगा रहे हैं मुझसे साइंस दो साल ही बर्दाश्त हुई तो आर्ट्स ले ली.... अब मज़े कि ज़िन्दगी है। " संध्या ने बताया तो त्रिधा और प्रभात मुंह खोले कभी उसे देखते तो कभी एक दूसरे को देख कर अपनी हंसी रोकने की कोशिश करते।

" वैसे त्रिधा इस अकडू के लंच और हॉस्टल के बकवास खाने से बोर हो जाओ या मां के हाथ का खाना खाने की इच्छा हो तो घर आ जाना, मेरा घर तुम्हारे हॉस्टल से दो गलियां छोड़कर ही है " प्रभात ने त्रिधा के सर पर हाथ फेरते हुए कहा और यह सुनते ही संध्या ने हाथ में पकड़ी किताब प्रभात के सर पर दे मारी और प्रभात खीज कर रह गया।

" बिल्कुल " कहते हुए त्रिधा भी बच्चों की तरह मुस्कुरा पड़ी।

लंच ब्रेक खत्म होने पर प्रोफेसर और बाकी सभी लोग क्लास में आने लगे तब त्रिधा की नजर उस सुबह वाले लड़के पर पड़ी जो उसकी ही क्लास में आ रहा था। एक बार फिर दोनों की नज़रें टकराई और एक बार फिर त्रिधा उसकी आंखों में खो गई ।

त्रिधा को यूं खोया हुआ देखकर पीछे बैठे प्रभात ने एक बार फिर उसके सर पर थपकी दी और पूछा " क्या हुआ त्रिधा किसे देख रही हो ? "

" क.... कहीं नहीं, किसी को नहीं " त्रिधा ने सकपकाकर कहा जैसे वह गहरी नींद से जागी हो।

" लगता है मुझसे ज्यादा तुम्हें प्रभात की दोस्ती अच्छी लगने लगी है तभी मुझसे ज्यादा इससे बातें करती हो " संध्या ने चिढ़ते हुए कहा।

" कहीं से जलने की बू आ रही है न त्रिधा " प्रभात ने ज़ोर से हंसते हुए कहा।

" संध्या मेरे लिए तुम और प्रभात दोनों ही बराबर हो क्या बचपना है यह " त्रिधा ने झूठी नाराजगी दिखाते हुए कहा।

" मेरी बात का जवाब तो दिया नहीं लगी हो इस अकडू को मनाने " प्रभात ने फिर त्रिधा के सर पर थप्पड़ लगा दिया।

" तुम्हारे बहुत हाथ चलते हैं प्रभात के बच्चे " त्रिधा ने भी अपनी किताब प्रभात के सर पर दे मारी।

" आह..... वैसे यार बच्चे तो तब होंगे न जब मुझे किसी से प्यार होगा और प्यार वगैरह में मुझे कोई इंटरेस्ट है नहीं " प्रभात ने हंसते हुए कहा।

" वैसे प्रभात जस्ट इमेजिन यार मैं तुम्हारे बच्चों के साथ मिलकर तुम्हें तंग किया करूंगी, कितना मज़ा आएगा न " त्रिधा ने अपनी बड़ी बड़ी आंखों में चमक लाते हुए कहा।

" और मेरा क्या ? " संध्या ने फिर बच्चों जैसे भाव बना कर कहा।

" अरे तुम तो खुद ही बच्ची हो.... कम अक्ल वाली बच्ची " प्रभात ने हंसते हुए त्रिधा को हाई फाइव दिया।

इतनी देर से प्रोफेसर तीनों की बकवास सुने जा रहे थे और आखिरकार उनके सब्र का बांध टूट गया।
" आप तीनों लोग पढ़ने आए हैं या बातें करने, ऐसी बातें इस क्लास में बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं की जाएगी, तीनों लोग बाहर जाईए "

तीनों झेंपते हुए क्लास से बाहर निकल आए।

पीछे से तीनों को प्रोफेसर की आवाज़ सुनाई दी " किसी और को बात करनी हो तो वह भी बाहर जा सकता है " यह सुनकर संध्या वहीं ज़ोर ज़ोर से हंसने लगी और प्रभात और त्रिधा उसे आंखे फाड़कर देख रहे थे।

" तुम दोनों की इस बकवास में मैं और क्लास से बाहर हूं " त्रिधा ने दोनों को घूरते हुए कहा तो प्रभात और संध्या दोनों ने उसका एक एक कान पकड़कर मरोड़ दिया। जब त्रिधा उनकी इस हरकत पर भी मुस्कुरा दी तो दोनों ही खिसिया गए और उसके कान और ज्यादा ज़ोर से मरोड़ दिए। त्रिधा ने दर्द से अपनी आंखे भींच लीं। संध्या और प्रभात दोनों को जैसे ही अपनी गलती का पता चला उन्होंने तुरंत उसके कान छोड़ दिए। त्रिधा ने अपनी आंखे खोली लेकिन उसके चेहरे से अब भी दर्द झलक रहा था।

" सॉरी त्रिधु " संध्या और प्रभात ने एकसाथ अपने कान पकड़कर कहा और त्रिधा ने मुस्कुराते हुए कहा " कोई बात नहीं "

" यार तुम इतनी अच्छी हो, अब भी हमसे नाराज़ नहीं हुई जबकि तुम्हें इतनी लग गई.... क्यों त्रिधु" संध्या ने त्रिधा को लाड़ से देखते हुए कहा। प्रभात भी चुपचाप त्रिधा को देख रहा था।

" तुम दोनों ने इन दो दिनों में ही इतना हंसाया है कि मैं अपनी पिछली सारी कड़वी यादों को भूल चुकी हूं और वैसे भी अब यह मेरा टर्न है तुम दोनों को मारने का " कहकर त्रिधा मुस्कुरा दी और संध्या और प्रभात दोनों उसे एकटक देख रहे थे जैसे उसे समझने की कोशिश कर रहे हों।

अगले लेक्चर में तीनों ही क्लास में गए और त्रिधा दोनों को न बोलने के लिए कहकर उनके बीच में बैठ गई ताकि फिर वे दोनों झगड़ा न कर सकें

कॉलेज ख़त्म हुआ तो तीनों ही अपने अपने घर की तरफ चल दिए। अब कॉलेज का वक़्त त्रिधा के दिन का सबसे अच्छा वक़्त होने लगा था।

त्रिधा हॉस्टल पहुंची तो देखा एक लड़की उसके रूम में अपना सामान जमा रही थी जो त्रिधा को देखकर उसकी तरफ मुड़ी और दो पल उसे देखते रहने के बाद बोली " तुम त्रिधा हो ? "
त्रिधा भी उसे ही देख रही थी साधारण लंबाई, खूबसूरत आंखें , बहुत गोरी और थोड़ी गोल मटोल सी वह लड़की त्रिधा को काफी दिलचस्प लगी। उसने अपना हाथ त्रिधा की आंखों के सामने हिलाते हुए कहा " कहां खो गईं ? "

" कहीं नहीं, हां मैं ही त्रिधा हूं " त्रिधा ने कहा। त्रिधा की यही एक आदत थी जिससे वह परेशान थी , जिससे भी मिलती बहुत गौर से उसे देखने लगती।

" हाय, मैं माया चौधरी, अपने नाम से बिल्कुल उलट हूं, न शक्ल है, न अक्ल है। मैं जब भी सोचती हूं मैं कितनी अकेली हूं तभी मन के किसी कोने से तीन आवाज़ें आने लगती हैं। पहली होती है फेस ऑयल की, दूसरी होती है हेयरफॉल की ओर तीसरी होती है मोटापे की, तीनों एकसाथ बोलते हैं " मैं हूं ना "
उसकी बातें सुनकर त्रिधा सन्न रह गई और मन ही मन सोचने लगी कि संध्या क्या कम थी जो यह भी उसके जैसी आ गई "

" तुम अभी तक क्यों नहीं आईं मतलब तीन दिन बाद कैसे ? " त्रिधा ने पूछा।

" सम पर्सनल प्रॉबलम " माया ने एक फीकी मुस्कुराहट के साथ कहा।

" जब भी किसी से बांटने का मन हो , मुझसे कह सकती हो " त्रिधा ने भी मुस्कुराते हुए कहा और फिर दोनों अपने अपने काम में लग गईं।

लेकिन अब भी बहुत कुछ ऐसा था जिससे अभी त्रिधा को रूबरू होना था।


****


अब त्रिधा को भोपाल आए हुए एक महीना हो चुका था। इस एक महीने में त्रिधा, प्रभात और संध्या को काफी अच्छे से समझ चुकी थी लेकिन माया को समझने की उसकी कोशिश नाकाम ही रही। वह हमेशा ही उसे कुछ रहस्यमई लगी। माया अक्सर ही अपने फोन में गाने सुनती रहती या किसी से फोन पर धीरे धीरे बातें करती रहती और त्रिधा जब भी उसे देखती, वह मुस्कुराकर बात टाल देती। माया कॉलेज भी कम ही जाती और उसे पढ़ते हुए तो त्रिधा ने कभी देखा ही नहीं था। उसके इस रहस्यमई और अजीब व्यवहार के चलते त्रिधा उससे ज्यादा घुल मिल नहीं पाई थी लेकिन माया हमेशा त्रिधा से अच्छे से ही बात करती और अक्सर ही अपनी बातों से उसे हंसा भी दिया करती थी।

त्रिधा, माया के साथ जितनी असहज थी, प्रभात और संध्या के साथ उतनी ही सहज थी। अब वह प्रभात और संध्या दोनों को ही बहुत अच्छे से समझ चुकी थी। अपने अपने नामों के अनुरूप ही दोनों एकदूसरे से बिल्कुल विपरीत थे। जहां संध्या एक खुले विचारों वाली, ज़िन्दगी को बेफिक्र होकर जीने वाली थी वहीं प्रभात बिल्कुल ट्रैडीशनल और ज़िन्दगी को लेकर गंभीर था। संध्या बहुत स्टाइलिश थी वहीं प्रभात को सादगी पसंद थी। संध्या बिल्कुल बेपरवाह, शरारती और नासमझ थी वहीं प्रभात सबकी परवाह करता और दूसरो की भावनाएं समझता, उनकी कद्र करता। संध्या दूसरों के दुख बांटती वहीं प्रभात अपनी बातों से दूसरों को हंसा देता और त्रिधा.... वह बिल्कुल प्रभात जैसी थी बस हालातों ने उससे उसकी हंसी और हंसने की वजह छीन ली थी जोकि संध्या और प्रभात से मिलने के बाद धीरे धीरे लौट रही थी। त्रिधा और प्रभात दोनों ही काफी समझदार और गंभीर थे और शायद इसीलिए संध्या की सारी बकवास झेलते थे। प्रभात और संध्या के साथ रहते हुए त्रिधा भी कभी कभी बच्चों जैसी हरकतें करती, कभी संध्या से नखरे करती तो कभी प्रभात से नाराज़ हो जाती और दोनों चुपचाप उसे मनाने में लग जाते क्योंकि अब उन्हें भी अहसास था कि वे त्रिधा के लिए क्या मायने रखते हैं। कुछ दिनों में ही त्रिधा, संध्या और प्रभात से इतनी जुड़ गई थी कि अब वह उन्हें खोने से डरने लगी थी। आखिर अपनों के नाम पर रोशनी मैडम, संध्या और प्रभात के अलावा उसका अपना और था भी कौन।

इस सबके अलावा त्रिधा ने एक अन्य बात भी महसूस की, कि वह एक ऐसे लड़के के प्रति आकर्षित हो रही है जिसका वह नाम तक नहीं जानती, जिसके साथ उसका ( त्रिधा का ) कोई मेल ही नहीं है। उसने सोचा कि ऐसे रिश्ते का कोई फायदा नहीं जो किसी मंज़िल तक न पहुंच पाए इसलिए वह तय कर चुकी थी कि अब चाहे जो ही हो, वह उस लड़के के बारे में सोचना बिल्कुल बन्द कर देगी।

उस दिन रविवार था और त्रिधा को पिछली शाम से ही बुखार था तो वह अकेली ही पहले हॉस्पिटल और फिर दवाइयां लेने चली गई। जब लौटकर अाई और खर्च का हिसाब लगाया तो उसे पता चला कि सिर्फ डॉक्टर को दिखाने दवाइयों और ऑटो के किराए में ही काफी रुपए खर्च हो चुके थे और अब विशाल और रोशनी मैडम के दिए हुए रुपए भी ज्यादा नहीं बचे थे। त्रिधा को समझ आ गया कि स्कॉलरशिप से उसकी पढ़ाई का खर्च तो चल रहा था लेकिन और भी कई खर्च थे जिनके लिए उसे कुछ न कुछ काम करना ही पड़ेगा।

दिन भर त्रिधा सोचती रही कि आखिर ऐसा कौनसा काम है जो उसे थोड़ी आर्थिक सहायता दे सके। जब त्रिधा को कोई जवाब न मिला तो अंततः उसने अपनी रोशनी मैडम को फोन किया और उनसे अपनी सारी परेशानी कही। रोशनी मैडम चाहती थीं कि वे खुद त्रिधा को कुछ रुपए हर महीने भेज दिया करें लेकिन साथ ही वे यह भी जानती थीं कि त्रिधा बहुत स्वाभिमानी है और कभी किसी से मदद नहीं लेगी इसलिए उन्होंने उसके सामने कुछ विकल्प रखे जिनमें से त्रिधा को बच्चों को पढ़ाना ही ठीक लगा क्योंकि इसमें उसे सम्मान भी मिलता साथ ही किसी तरह का कोई खतरा भी नहीं था। अब दूसरी समस्या थी कि आखिर वह कहां पढाए, हॉस्टल में यह सम्भव नहीं था।

अगले दिन कॉलेज के बाद त्रिधा ने अपनी परेशानी संध्या और प्रभात को बताई तो संध्या उछल कर बोली " त्रिधा तुम मेरी दोस्त हो यार तुम्हें किसी चीज की जरूरत है तो मुझसे भी तो बोल सकती हो, क्या मैं अपनी दोस्त के लिए इतना भी नहीं कर सकती " यह सुनकर त्रिधा का चेहरा उतर गया जिसे संध्या नहीं देख पाई पर प्रभात ने देख लिया और त्रिधा के गाल खींचते हुए कहा " ऐसे तो यह आलसी और मोटी दोनों हो जाएगी, खुद मेहनत से कमाने दो इसे, पैसे और मेहनत दोनों की कीमत बखूबी समझती है यह, अब थोड़ी बाहर की दुनिया भी समझने दो और तुम कब तक इसकी मदद करोगी.....और वैसे किसी के स्वाभिमान को भी समझो संध्या। तुम्हें - मुझे हमेशा से सबकुछ परोस कर दिया गया है इसलिए खुद हासिल करने की कीमत नहीं जानते हम, पर त्रिधा की ज़िन्दगी हम दोनों से बहुत अलग रही है। इसे सिंपैथी मत दो अप्रिशिएट करो "

" आय एम सॉरी त्रिधु मुझे अंदाजा नहीं था इसका यह मतलब होगा मैं तो बस तुम्हारी मदद करना चाहती थी " संध्या ने अपने कान पकड़कर कहा।

" थैंक्स प्रभात इतने अच्छे से समझने के लिए और तुम्हारी इस अकडू को अक्ल देने के लिए " त्रिधा ने अपनी आंखो के कोर से आंसू पोंछ कर कहा ।

" बेवकूफ.... ये अकडू और मेरी.... नेवर ऐवर " प्रभात ने त्रिधा के सिर पर हल्का सा थप्पड़ लगा दिया।

" त्रिधा मैं तुम्हें जल्द से जल्द कोई न कोई सॉल्यूशन जरूर बताती हूं " कहकर संध्या अपने घर चली गई।

" डोंट वरी त्रिधा मैं भी कुछ देखता हूं " कहकर प्रभात भी अपने घर की तरफ चला गया। आज दोनों को जल्दी जाना था।

त्रिधा का आज हॉस्टल जल्दी जाने का मन नहीं था तो वह वहीं कॉलेज के ग्राउंड में, एक शांति वाली जगह पर पड़ी बेंच पर बहुत देर तक बैठ कर त्रिधा अपने नए सफर के बारे में, नए जीवन के बारे में सोच कर सुकून महसूस कर रही थी कि कम से कम वह अपने चाचा - चाची से दूर रहकर अपना अच्छा भविष्य तो बना पाएगी लेकिन इसके साथ ही उसे चिंता थी कि किसी तरह वह इतना कमा सके कि उसकी सामान्य आवश्यकताएं पूरी हो सकें, आवश्यक खर्चे चल सकें। अभी त्रिधा अपनी सोच में ही थी कि तभी उसका ध्यान कॉलेज में बने मंदिर के पीछे होती हलचल पर पड़ा तो वह जिज्ञासावश वहां जाकर देखने लगी। वहां का नजारा देखकर एक पल के लिए तो वह सन्न रह गई। एक लड़का और एक लड़की एक दूसरे के बहुत करीब थे और एक दूसरे को कसकर पकड़ा हुआ था। जब वे दोनों अलग हुए तब उस लड़की का ध्यान हक्की बक्की सी खड़ी त्रिधा पर गया और वह उसपर चिल्लाते हुए बोली " तुम यहां क्या कर रही हो? इतने भी मैनर्स नहीं कि किसी के पर्सनल मोमेंट्स नहीं देखे जाते " उस लड़की की आवाज़ सुनकर वह लड़का त्रिधा की तरफ पलटा और उसे ही देखता रह गया लेकिन त्रिधा को एक और शॉक लगा। यह वही लड़का था जिसकी आंखों में वह खो जाती थी, आज उसे उसी लड़के से घिन आ रही थी। वह वहां से भागकर दूर जाने लगी और तभी किसी से टकरा गई।

जब त्रिधा ने सर उठाकर ऊपर देखा तो वही हुआ जिसका डर था...... सामने सीनियर्स खड़े थे।

" फर्स्ट ईयर ? " उनमें से एक लड़के ने पूछा।

" जी " त्रिधा ने कहा।

" नाम क्या है ? " उस लड़के ने पूछा।

" जी त्रिधा शर्मा " त्रिधा ने घबराते हुए कहा।

" तो चलो फिर त्रिधा शर्मा " रात अकेली है... " पर नाच कर दिखाओ ज़रा " एक लड़की ने त्रिधा को ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा।

गाने का नाम सुनकर ही त्रिधा को और ज्यादा घबराहट होने लगी तो उसपर डांस तो उसके लिए असंभव था।

" इससे कोई कुछ नहीं कहेगा " पीछे से एक भारी आवाज़ आई। जब त्रिधा ने और बाकी सबने उधर देखा तो यह वही लड़का खड़ा था।

" तू रोकेगा हमें " कहते हुए सीनियर्स में से एक उस लड़के को मारने के लिए उसकी तरफ बढ़ा लेकिन वह वहां से हट गया और वह सीनियर मुंह के बल जमीन पर गिरा।

" कोई मेरी तरफ बढ़ेगा तो नुकसान उसका ही होगा मेरा नहीं, इसे जाने दो " उस लड़के ने कहा।

" कौन है तू जिसे सीनियर्स से बात करने की तमीज नहीं उल्टे धमकी दे रहा है ? सीनियर्स में से एक ने गुस्से में कहा।

" भोपाल के सबसे बड़े बिजनेसमैन अजय प्रताप सिंह राठौर का नाम सुना है न उनका बेटा हूं मैं हर्षवर्धन सिंह राठौर, अब इसके आगे किसी को कुछ जानना है ? " उस लड़के यानि हर्षवर्धन ने कहा।

यह सुनकर वहां खड़े सभी सीनियर्स वहां से चले गए और अब वहां केवल त्रिधा, हर्षवर्धन और वह लड़की ( जिसके साथ कुछ वक़्त पहले हर्षवर्धन था ) ही थे।

" हर्ष व्हाय आर यू प्रोटेक्टिंग हर ? " उस लड़की ने हर्षर्धन पर चिल्लाते हुए कहा।

" बी इन यॉर लिमिट्स वर्षा एंड डोंट फील स्पेशल, यू आर जस्ट वन ऑफ दोज़ एट गर्लफ्रेंड्स ऑफ माइन.... जस्ट गो बिफोर आइ लूज माय टेंपर " हर्षवर्धन ने कहा और इतना सुनते ही वर्षा वहां से चली गई।

हर्षवर्धन त्रिधा के पास आया और धीरे से उससे कहा " अब तुम जा सकती हो वरना वे सीनियर्स फिर आ जाएंगे "

" तुमने मुझे क्यों बचाया उनसे ? " त्रिधा ने चिढ़ते हुए कहा, वह कुछ देर पहले की हर्षवर्धन की हरकत भूली नहीं थी और उसे अब भी हर्षवर्धन से घिन आ रही थी।

" इट डसंट मैटर " हर्षवर्धन ने उससे नज़रें चुराते हुए कहा।

" नो इट मैटर्स, मैं तुम्हारी उन आठ गर्लफ्रेंड्स की तरह नहीं हूं जो तुम्हारी इन बातो से इंप्रेस हो जाऊंगी " त्रिधा ने थोड़ी ऊंची आवाज में झल्लाते हुए कहा।

" हां तुम उनके जैसी नहीं हो, उन सबसे बहुत अलग हो, तभी तो तुम्हें बचाया, उन सबको बचाने की जरूरत भी नहीं थी, खुशी खुशी मान जाती सभी " अब हर्षवर्धन के चेहरे पर एक मुस्कुराहट थी।

" तुम एक राजपूत हो लेकिन तुम्हारा रहन सहन और यह सब हरकतें एकदम उलट हैं, एकदम बिगडै़ल हो तुम, कम से कम इंसानों की छवि तो खराब मत करो। तुम्हें अपनी संस्कृति और मान मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए न कि यह सब करना चाहिए और कॉलेज में तो बिल्कुल नहीं....... कुछ नहीं तो एक अच्छा इंसान ही बन जाओ, वही मुश्किल है आज के समय में। " त्रिधा ने फिर चिढ़ते हुए लेकिन समझाने के लहजे़ में कहा।

" हाए..... हमें तो पहली नज़र का प्यार ही हुआ, तुम्हारी बातों में तो इकरार भी हुआ " हर्षवर्धन ने चेहरे पर बड़ी सी मुस्कुराहट के साथ कहा जिसे सुनकर त्रिधा को खुशी हुई लेकिन अगले ही पल उसे मंदिर के पीछे का वह नज़ारा याद आ गया और वह एक बार फिर गुस्से से भर गई।

" देखो ऐसा कुछ भी नहीं है किसी गलतफहमी में मत रहो " कहकर त्रिधा ने अपना बैग उठाया और हर्षवर्धन को वहीं खड़ा छोड़ आगे बढ़ गई। वह कॉलेज से बाहर निकल रही थी कि तभी हर्षवर्धन वहां आ गया और उससे बोला " वैसे मुझे हर्षवर्धन सिंह राठौर कहते हैं, तुम्हारा क्या नाम है ? "

" तुम्हें इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए " त्रिधा ने कहा और कॉलेज से बाहर निकल गई और हर्षवर्धन उसे तब तक देखता रहा जब तक वह आंखों से ओझल न हो गई।

जब त्रिधा हॉस्टल के अपने कमरे में पहुंची तो देखा माया आज पहले ही आ चुकी थी और किसी से फोन पर धीरे धीरे बातें कर रही थी। त्रिधा बस उसे देखकर मुस्कुराई और अपने बेड पर चली गई, वह इतनी थक चुकी थी कि अब उसमें माया से सिर खपाने की हिम्मत नहीं थी। थकान की वजह से त्रिधा बेड पर लेटते ही सो गई।

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दूसरी ओर हर्षवर्धन के दिमाग से त्रिधा का खयाल निकल ही नहीं रहा था। उसके दिमाग में बार बार त्रिधा की कही बातें घूम रही थीं.... तुम्हें यह सब शोभा नहीं देता..... तुम्हें अपनी संस्कृति और मान मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए.... ।

शाम को जब वह अपने घर पहुंचा तब भी गुनगुनाता जा रहा था " सूरज हुआ मद्धम... चांद जलने लगा... आसमां ये हाय क्यूं पिघलने लगा... मैं ठहरा रहा ज़मीं चलने लगी... धड़का ये दिल सांस थमने लगी... क्या ये मेरा पहला पहला प्यार है... " उसे गुनगुनाता देख उसके माता पिता दोनों ही मुस्कुराते हुए एक दूसरे को देख रहे थे जैसे कह रहे हों कि इसे तो प्यार हो गया।

जब हर्षवर्धन अपने कमरे में गया तो जल्दी से अपने रंग लेकर एक कैनवास के सामने आ खड़ा हुआ। आज पहली बार उसने अपने पहले प्यार को इतने पास से देखा था और अब वह उसे अपने कैनवास पर उतारकर हर वक़्त अपनी आंखों के सामने रखना चाहता था।

शाम से रात हो गई पर न तो हर्षवर्धन का गुनगुनाना रुका और न ही कैनवास पर चलते उसके हाथ। रात के खाने का वक़्त भी हो गया था तब उसकी मां उसके कमरे में आईं और उसके कमरे को देख कर आश्चर्यचित रह गईं। कमरे में चारों ओर किसी लड़की की पेंटिंग्स बनी हुई रखी थीं, किसी में बाल सहलाते हुए, किसी में खिलखिलाते हुए, किसी में कहीं खोई खोई सी अपनी सोच में मग्न, तो किसी में चेहरे पर मासूमियत लिए हर्षवर्धन को देखती हुई।

" यह सब क्या है बेटा ? " हर्षवर्धन की मां दीया जी ने पूछा।

" आपकी होने वाली बहू है मॉम बस थोड़ी अलग है.... और यह देखिए मेरा मास्टरपीस " हर्षवर्धन ने अपनी कुछ देर पहले ही पूरी हुई पेंटिंग की तरफ इशारा करते हुए कहा। जब दीया जी ने उसे देखा तो देखती ही रह गईं। गोरा रंग, गोल चेहरा, बड़ी बड़ी भूरी आंखें, लंबी घनी पलकें, गहरी काली भवें, तीखी नाक, खूबसूरत होंठ, आंखों के पास एक छोटा सा चोट का निशान, होठों से ठीक ऊपर एक छोटा सा तिल और साथ ही होंठों पर भी एक हल्का भूरा तिल। कानों में बड़े बड़े एंटीक झुमके, गले में नीला कढ़ाई का दुपट्टा और हल्का गुलाबी सूट, एक हाथ में घड़ी और चूड़ियों से भरा दूसरा हाथ स्लिंग बैग पर, पैरों में कोल्हापुरी जूतियां। इतने गौर से तो शायद त्रिधा ने भी खुदको नहीं देखा था जितनी बारीकी और खूबसूरती से हर्षवर्धन ने त्रिधा को अपने कैनवास पर उतारा था।

" वाह.... " सिर्फ इतना ही कह पाईं दीया जी।

" और पता है मॉम यह एकदम अलग है सबसे, शांत स्वभाव की, मृदुभाषी, मर्यादित और बहुत सीधी है मॉम। पता है मॉम वह और लड़कियों की तरह न ही रुपयों पर मरती है और न ही मेकअप पर, आपको पता है जब उसे पता चला कि मैं भोपाल के सबसे बड़े बिजनेसमैन अजय प्रताप सिंह राठौर का बेटा हूं, तब भी उसने मुझमें कोई इंटरेस्ट नहीं दिखाया। मैं जानता हूं वह भी मुझे पसंद करती है पर फिर भी पता नहीं क्यों मॉम उसने मुझसे कुछ नहीं कहा " हर्षवर्धन ने मुंह लटकाए हुए कहा।

" बेटा जब तुम अपनी हरकतें सुधारोगे तभी तो हां बोलेगी न वो " पीछे से अजय जी ने कहा।

" डैड प्लीज़ मॉम के सामने नहीं प्लीज़ डैड " हर्षवर्धन ने सकपकाते हुए कहा।

" क्या नहीं मॉम के सामने? " दीया जी ने हर्षवर्धन का कान मरोड़ते हुए पूछा।

" अरे दीया जी आपके सुपुत्र की आठ आठ गर्लफ्रेंड्स हैं, अब ऐसे में कोई अच्छी लड़की इन्हे कैसे भाव देगी भला?" अजय जी ने ठहाका लगाते हुए कहा।

" दिस इज नॉट फनी डैड, आपने मॉम को क्यों बताया अपना सीक्रेट ? " हर्षवर्धन ने कहा।

" चलो ठीक है माफ किया लेकिन अब सुधर जाओ हर्ष वरना मेरी बहू कैसे आएगी ? " दिया जी ने हर्षवर्धन के सर पर हाथ फेरते हुए कहा।

" वैसे हमारी बहू का नाम क्या है ? " अजय जी ने पूछा।

" पता नहीं डैड पर आप दोनों को पसंद है तो मैं अब पूरी कोशिश करूंगा और एक दिन इसका प्यार पाकर ही दम लूंगा " हर्षवर्धन ने कहा।

" चलो ठीक है..... लेकिन अगर पढ़ाई में कम मार्क्स आए तब देखना। खैर अभी तो चलो और चलकर खाना खाओ " कहते हुए दीया जी नीचे चली गईं।

" ओह कमौन मॉम आपका बेटा टॉपर है टॉपर डोंट वरी " कहते हुए हर्षवर्धन भी अपनी मां के साथ चल दिया।

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उधर त्रिधा भी हर्षवर्धन के बारे में सोच रही थी कि शायद वह इतना भी बुरा नहीं लेकिन फिर उसे वही घटना याद आ गई, साथ ही अब त्रिधा जान चुकी थी कि हर्षवर्धन भोपाल के सबसे बड़े बिजनेसमैन का बेटा है तो उन दोनों का कहीं कोई मेल ही नहीं और इसीलिए अब त्रिधा ने तय किया कि वह हर्षवर्धन से कोई बात नहीं करेगी और अपने फैसले पर कायम रहेगी।

जब आप किसी को पसंद करने लगें और साथ ही उसे भुलाने की कोशिश भी करें तो आपके आसपास की हर चीज़ आपको उसकी ही याद दिलाने लगती है, आप चाहें या न चाहें। यही त्रिधा के साथ भी हो रहा था। उसने अभी ही तो फैसला किया था कि वह हर्षवर्धन के बारे में नहीं सोचेगी कि तभी माया ने अपने फोन में गाना चला दिया -

लेके पहला पहला प्यार, भरके आँखो मे खुमार
जादू नगरी से आया है कोई जादूगर

लेके पहला पहला प्यार, भरके आँखो मे खुमार
जादू नगरी से आया है कोई जादूगर

ओ, लेके पहला पहला प्यार, भरके आँखो मे खुमार
जादू नगरी से आया है कोई जादूगर

ओ, लेके पहला पहला प्यार....

उसकी दीवानी हे, कहु कैसे हो गयी
जादूगर चला गया मै तो यहा खो गयी

उसकी दीवानी हे कहु कैसे हो गयी
जादूगर चला गया मै तो यहा खो गयी

नैना जैसे हुवे चार, गया दिल का करार
जादू नगरी से आया है कोई जादूगर

ओ, लेके पहला पहला प्यार, भरके आँखो मे खुमार
जादू नगरी से आया है कोई जादूगर

ओ, लेके पहला पहला प्यार...

तुमने तो देखा होगा उसको सितारो
आओ ज़रा मेरे संग मिलके पुकारो

तुमने तो देखा होगा उसको सितारो
आओ ज़रा मेरे संग मिलके पुकारो

दोनो होके बेकरार, ढूँढे तुझको मेरा प्यार
जादू नगरी से आया है कोई जादूगर

ओ, लेके पहला पहला प्यार, भरके आँखो मे खुमार.......

गाने के बोल त्रिधा को हर्षवर्धन की और ज्यादा याद दिलाने लगे अब उसके दिमाग के साथ साथ उसके दिल पर भी उसका कोई ज़ोर न था। वह परेशान सी एक बार हर्षवर्धन को देखने के लिए बेचैन हो उठी और माया उसके बेचैन चेहरे को देखकर मुस्कुरा पड़ी।

" माया प्लीज़ यह गाना बन्द कर दो " त्रिधा ने परेशान होकर कहा।

" लगता है त्रिधा को इश्क़ हो गया है " माया ने मुस्कुराते हुए कहा तो त्रिधा ने कहा " मुझे पढ़ना है माया " और चुपचाप पढ़ने बैठ गई।

क्रमशः