सियासत के हवाले से Satyadeep Trivedi द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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सियासत के हवाले से

सियासत के हवाले से


जिस प्रकार आत्मा मरती नहीं है, केवल पुराने शरीर को छोड़कर नये शरीर में प्रवेश कर जाती है। ठीक वैसे ही नेता भी नहीं मरता है। वो पुरानी पार्टी को छोड़कर नयी पार्टी में प्रवेश कर जाता है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में, आत्मा बेचारी मर जाती है।

आगे आपको जो कुछ पढ़ने वाले हैं, उसके सम्बन्ध में पहले यह प्राक्क्थन पढ़ना जरुरी है, ताकि आप बेसिर-पैर की इन बातों का सार समझ सकें।

देखिये! जो चोर होते हैं, वो गुंडे नहीं होते। और जो गुंडे होते हैं, वो चोर नहीं हो सकते। गुंडे-बदमाश आपको दिखाकर आपको लूटते हैं। आपकी जानकारी में आपका माल उड़ाया जाता है। कोई गुंडा या मवाली आपको धौंस दिखाके, या तमंचा दिखाके आपकी आँखों के सामने से अमुक सामान उठायेगा, और बड़े अधिकार से अपनी जेब के हवाले कर देगा। लेकिन वो कभी आपके पीठ पीछे नहीं उठायेगा। यह उनका तरीका ही नहीं है। कह सकते हैं कि उन्हें इसमें 'किक' नहीं मिलती।

मगर चोरों के मामले में ऐसा नहीं होता। चोर पहले आकर आपसे जान-पहचान बढ़ायेगा। गाहे-ब- बगाहे गलबहियाँ डाल दिया करेगा। बात करते-करते मुस्किया देगा। आप देखकर गदगद हो जायेंगे। अपने मन में सोचेंगे-"वाह य्यार! क्या आदमी है। कितना हँसमुख, कितना मासूम चेहरा है इसका। इधर वो खुशमिज़ाज आदमी आँखों ही आँखों में आपके माल-असबाब की रेकी करने लगेगा। दिन ऐसे ही बीतने लगेंगे। गुज़रते समय के साथ वो धीरे-धीरे आपका विश्वास जीत लेगा। आप उसकी मौजूदगी के अभ्यस्त होते जायेंगे। और फ़िर किसी दिन अचानक ही, हादसा हो जायेगा। इधर आपकी नज़र फ़िरी-उधर आपका माल गायब। आपको समझने का भी मौका नहीं मिलेगा। यकीन ही नहीं होगा, कि फलाने भाई ऐसा कर सकते हैं। पलटकर पूछें भी तो किस मुँह से।

और फ़िर वो माई का लाल चोरी का माल पचाकर, हाथ जोड़े-मुस्कुराते हुए, पाँच साल बाद फिर आपकी चौखट पर प्रगट हो जायेगा।

हमारे लोकतंत्र में मुख्यतः दो तरह की पार्टियां चलतीं हैं। एक कम्यूनल और एक सेक्यूलर। कम्यूनल बन्दा तो छाती ठोंककर किसी एक कौम या जाति का वोट लेता है। गरीब-गुरबों को, मक्कार-मूर्खों को आँखें दिखाकर हड़काता है;-"हमको वोट न दिया तो देख लेना। वो लोग तुम्हारी जमीनें हड़प लेंगे, घरों में घुसकर लूटपाट करेंगे। मगर हम जीते-जी ऐसा कत्तई होने नहीं देंगे। इसे रोकने के लिए हमारे पास एक शानदार रोडमैप है। हम खुद आकर तुम्हें लूट लेंगे। उन सालों के लिये कुछ छोड़ेंगे ही नहीं। हमारे रहते तुम्हें कोई गैर लूटे यह कैसे हो सकता है? और तुम्हारे अंदर कम से कम इतनी गैरत तो बची ही होगी, कि अपने जात-भाई के रहते किसी विदेशी लुटेरे को मलाई न खाने दो। अपने तो आख़िर अपने होते हैं।

इस प्रक्रिया को हम डकैती या हफ़्ता-वसूली की अवधारणा से समझ सकते हैं।

दूसरी होती हैं सेक्यूलर पार्टियाँ अथवा सेक्यूलर प्रत्याशी। ये लोग भी असल में लुटेरे होते हैं, मगर इनके लूटने का तरीका काफ़ी सात्विक होता है। ये शातिर कट्टरपंथी, अपने नाम के साथ सेक्यूलर का टंटा चिपका लेते हैं। पहले हँसते-मुस्कुराते हुए आपके दरवाज़े पर आते हैं। बोलते-बतियाते हैं। जनता को यह भरोसा दिलाते हैं कि हम सबके हैं, हालाँकि ये अपने सगे बाप के भी नहीं होते। ये ऐसे छिछोरे आशिक़ होते हैं जो पहली ही नज़र में सबके हो जाते हैं, और आख़िरकार खुद के भी नहीं होते। बहरहाल, ये लोग दावा करते हैं कि हमारी पार्टी हिंदू-मुसलमान में दुअक्खी अर्थात भेदभाव नहीं करती और सत्ता में आने पर हम सभी वर्गों का सर्वांगीण विकास करेंगे। दलितों-गरीबों और महिलाओं की तो बात छोड़िये, वृद्धों और विधवाओं को भी नहीं बख़्शा जायेगा। हमलोग चुन-चुनकर विकास करने वाली एकमात्र पार्टी हैं। हमें बस एक बार अपना कीमती वोट देकर देखें, रोजगार के इतने अवसर पैदा करेंगे कि गर्भपात कराना पड़ जायेगा। श्रीमान! बस एक मौका देकर देखिये- वो जलवा दिखायेंगे कि आप देखने लायक ही नहीं बचेंगे। आशा है कि आपकी कृपादृष्टि हमें प्राप्त होगी।"

आप इस मक्खनबाजी से अभिभूत हो उठेंगे। रोम-रोम खड़ा हो जायेगा। हाथ जोड़कर कहेंगे-"अहोभाग्य हमारे, जो आप यहाँ पधारे! निश्चिंत रहिये, हमारे समूचे खर-खानदान का वोट आपको ही समर्पित है।"

इतना सुनते ही वो हँसेगा, झेंपेगा और फिर चुपके से एक रोज़ आपका वोट लेकर रफूचक्कर हो जायेगा।

काम पूरा हुआ। लूट सम्पन्न हुई। दोनों ही सूरतों में पगलैट पब्लिक को लुटना ही होता है, मगर तरीके अलग होते हैं। वोट चोरी चला जाये तो खुजली मचती है। तकलीफ़ होती है। चोरी हो जाने के बाद वोटर गला फाड़कर(गला फाड़कर ही समझा जाये) चोर को गालियाँ बकता है। श्राप देता है।

- "आने दो बच्चा को अबकी बार, बताते हैं साले को।"


लेकिन डकैती वाले केस में तो पब्लिक को भनक ही नहीं लगती कि ससुर को लूटा भी गया है। वो तो इसी ख़ुशी में लोटता रहता है कि कैसे-कैसे करके तो यार जान बची। भईया जी ने मरते हुए को जिला दिया। आप श्रीमान अगर सही समय पर न आते तो कौन जाने क्या हो जाता। जान बची तो लाखों पाये।

नासमझ वोटर यह जान भी नहीं पाता कि नेता जी ने जान-जान कहकर बस जान ही नहीं मारी, बाकी सब मार गए। वोटर गधा होता है। आजीवन नेताजी के एहसान का बोझ ढोता रहता है। नेताजी हर मर्तबा उसकी धौंस-उसी हनक के साथ वापस आते हैं, एक विशिष्ट जाति या धर्म का वोट उठाकर अपनी जेब में डालते हैं और वोटर के ऊपर उड़ती हुई नज़र डालकर, अंतर्धान हो जाते हैं। इस समूची लूट के दौरान पीड़ित वोटर, हाथ जोड़े चुपचाप खड़ा रहता है। नेता जी के नाम की माला जपा करता है और जाते समय उनकी जय-जयकार भी करता है।

नेताजी जिसके ऊपर हाथ रखदें उसका कल्याण निश्चित है। लेकिन हाथ वो कहाँ पर रखेंगे यह फ़रियादी के लिंग पर निर्भर करता है। ध्यान दें कि यहाँ हम हिंदी वाले लिंग अर्थात जेंडर की बात कर रहे हैं।

एक होता है नेता, और एक होता है युवा नेता। हर नेता युवा हो ऐसा ज़रूरी नहीं-मगर हर युवा को जीवन में एक बार नेता बनने की चुल्ल अवश्य काटती है। युवा नेता बनने के लिए किसी विशेष योग्यता की जरुरत नहीं होती। जिस बन्दे को मोहल्ले के आठ-दस लोग सलाम कर देते हैं, वही युवा नेता बन जाता है। और जिस किसी महानुभाव को अगल-बगल के गली- मोहल्ले वाले, चौक, चौराहे वाले सौ-दो सौ लोग सलाम ठोंकने लगें- वो महापुरुष किसी न किसी त्यौहार में चुनावी खम ठोंक ही देता है। तत्पश्चात यह अतिउत्साही पुरूष अपनी दो कट्ठा जमीन बेचकर पर्चा भरता है, और भावी वोटरों की सेवा हेतु दारू-मुर्गे का समुचित प्रबंध करता है। 'इस बार निकाल ले जायेंगे'- इसी ग़फ़लत ने जनता के कई ईमानदार, सुयोग्य एवं कर्मठ प्रत्याशियों की ज़मानत जब्त करा दी है। आज किसी न्यूज़ चैनल पर पढ़ा- कि एक अवसरवादी ने पंचायत चुनावों की तारीखी घोषणा होते ही ब्याह कर डाला। विवाह एक साल बाद होना था, आदमी ने सोचा जब करनी ही है तो अभी कर डालो। आप समझने वाले समझेंगे कि अगले का पुरुषार्थ हिलोरे मार रहा था, रात करवटों में कटती होगी लेकिन नहीं- ऐसा नहीं है। उक्त व्यक्ति काफ़ी दिनों से परधानी लड़ने की उम्मीदें बाँधकर बैठा था, लेकिन ऐन वक्त पर आयोग वालों ने यहाँ से महिला सीट घोषित कर दी। अब क्या करे बेचारा! चुनाव तो लड़ना ही है, ग्रामीणों की सेवा तो करनी ही है। तो युक्ति लगायी और ब्याह रचा डाला। काल करै सो आज कर। अब पोस्टर बनवा के गली-मोहल्लों में चस्पा कर देगा। ऊपर पत्नी हाथ जोड़े खड़ी होंगी- नीचे रामपियारे। पोस्टर का मज़मून होगा-चौमुखा से ग्राम प्रधान पद के लिए ईमानदार कर्मठ और सुयोग्य प्रत्याशी, भयानक समाजसेवी, हमारे-आपके सगे रामपियारे भइया की सगी पत्नी, कल्याणी देवी। हालाँकि कल्याणी नाम नहीं है इनका, मैंने अंदाजे से लिख दिया है। इनके पदार्पण से ही तो भईया जी का कल्याण होगा आखिर। कल्याणी देवी जी के सन्दर्भ में कुछ खास नहीं लिखा होगा, रामपियारे जी की पत्नी हैं यही इनकी योग्यता है। यही बहुत है। इसके आगे, इसके बाद जो होगा वही ख़ालिस तमाशा है, जिसे लोकतंत्र के महापर्व के नाम से खेला जाता है। गाजे-बाजे के साथ पर्चा दाख़िला की सवारी निकलती है। भाभीजी अपना नौलखा पहनकर अपनी नौलखी गाड़ी में स्थान ले चुकी हैं। भईया जी के बैठते ही काफ़िला निकल पड़ता है। गाँव के खलिहर नौजवान अपनी-अपनी बाइकों में मुफ़्त का तेल भराकर जयघोष करते हुए निकलने लगते हैं।

अगले सीन में उस ब्लॉक को दर्शाया जायेगा, जहाँ पर्चा दाखिला किया जाना है। बीसियों गाड़ियाँ धड़धड़ाती हुई आकर गेट पर रुकती हैं। कल्याणकारी दंपति अपनी स्कोर्पियो से निकलकर, अपने समर्थकों को लक्ष्य करके हाथ हिलाते हैं और फ़िर रौबीले कदमों से अंदर की तरफ़ प्रस्थान कर जाते हैं। इनके कुछ खासमखास भी इनके पीछे-पीछे चल देते हैं। इस दरम्यान बाकी के खलिहर नौजवान अपनी सुकुमारी भाभी को दसवीं पास भईया जी के भरोसे छोड़कर, भईया जी को दो-चार निरुत्साहित सिपाहियों के भरोसे छोड़कर, सिपाहियों को एक अफ़सोसनाक अफ़सर के भरोसे छोड़कर तथा अफ़सर को सत्यानाशी सिस्टम के भरोसे छोड़कर अगली गली का रुख़ कर लेते हैं- जहाँ हमारे भावी प्रधान द्वारा शराब और कबाब की बेहतरीन व्यवस्था की गई होती है। आधे घंटे की माथापच्ची के बाद पर्चा दाखिला की प्रक्रिया विधिवत सम्पन्न होती है। इसकी सूचना पाते ही भईया जी के जुझारू समर्थक; धरती को अबीर-गुलाल से पाट देते हैं। यह भारतीय लोकतंत्र की होली है, जिसमें अबीर के दाम में कबीर बिकता है, और गुलाल के दाम में जमाल।

अब यह जनसैलाब वापस घर की तरफ़ कूच करेगा। वापसी का बिगुल बजते ही वे सभी नौजवान जो बगल वाली गली में मौजूद देसी मधुशाला में बैठकर ग्राम विकास अधिकारी की हैसियत से, गाँव के सम्यक विकास पर सार्थक बहस कर रहे होते हैं, एक जबर्दस्त डकार लेते हैं। इस भीषण गर्जना से सत्ता के गलियारे काँप उठते हैं, दमन की सीढियाँ भरभराकर ढह जाती हैं और अधर्मी का सिंहासन डोलने लगता है। इसके बाद ये थके-हारे अर्थशास्त्री मदमस्त चाल से चलते हुए आकर अपने-अपने वाहनों पर सीटारूढ़ हो जाते हैं और चूँकि इन्होंने लोकतंत्र के महापर्व में ही यह स्वर्गिक-सुख भोगा है अतएव भारत में लोकतंत्र की महत्ता पर चर्चा करते हुए अंततोगत्वा अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं। इनमें से अधिकांश युवाओं की या तो बोर्ड परीक्षाएँ चल रही होती हैं, या शुरू होने वाली होती हैं। मगर ये निश्चिंत इसलिये हैं क्योंकि अब ये नौनिहाल 'राजतांत्रिक व्यवस्था के बनिस्बत लोकतांत्रिक व्यवस्था के लाभ', और 'निष्पक्ष चुनावों की आवश्यकता' पर कॉपी के आठ-दस पन्ने तो आराम से भर सकते हैं।

पर्चा दाखिला तो हो चुका, अब गाँवभर में घूमकर वोट माँगना होगा। यह सचुमच एक कष्टसाध्य प्रक्रिया है। प्रत्याशियों को चुनाव जीतने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना होता है। पैरों का पसीना नाक से चूने लगता है। कितनी कठिन साधना करनी पड़ती है। कैसे मुश्किल हालातों से जूझना पड़ता है। मजबूरी में जा-जाकर किस किस को भईया कहना पड़ता है। किस किस के चरण पखारने पड़ते हैं। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं कि काम पड़ने पर बाप को गधा बनाने वाली कहावत किसी पंचायत चुनाव के दौरान ही गढ़ी गई होगी।

मई-जून की तपती दुपहरी हो या दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंड, प्रत्याशी बेचारा घूम-घूमकर एक बार सेवा का मौका देने की याचना करता है। कभी जिस गली से होकर गुज़रने में भी उसे पातक लगता था, जिनकी सूरत देखने भर से बदन का ताप चढ़ जाता था, अब ऐसे घरों की न केवल दहलीज़ लाँघनी पड़ती है बल्कि घर के बड़े-बुजुर्गों की टाँग में झूले भी डालने पड़ते हैं। गाँवभर में घूम-घूमकर लड़कियों की चाल से उनका चरित्र बताने वाले लंपट भी ऐसे निष्कामी हो जाते हैं, कि घूँघट में अगर खुद की बीवी लाकर खड़ी कर दो तो चाची कहकर चरणों में लोट जायेंगे। इस दौरान हालाँकि वोटरों की मौज हो जाती है। चुनाव प्रचार के दिनों में ही जनता को अपने जनार्दन होने का अहसास होता है। एक परधानी के चुनाव में लोग पुश्तों की दुश्मनी निकालते हैं। बख़्शा किसी को नहीं जाता। बेचारा प्रत्याशी दरवाज़े पर पहुँचा नहीं कि ताने मिलने लगते हैं- "तोहरे बाबा एक बेर बेटा हमरी बकरी मुआए देले रहलें। बताव हम का करीं?" तीन दशक पहले दिवंगत दादा द्वारा एक बकरी को दिवंगत कर देने पर पोते का फ़र्ज़ क्या बनता है? पहली बार में देखने पर मामला आईपीसी अथवा एनिमल क्रुऐलिटी का लगता है, बावजूद इसके स्वयं अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय भी इस मामले में सटीक फ़ैसला नहीं कर सकता। मगर हमारा बुद्धिमान प्रत्याशी तुरंत इसका मतलब समझ जाता है, और पाँच हजार रुपये बतौर हर्जाना चच्चा के चरणों में डालकर लोट जाता है। इतना ही नहीं, भविष्य में भी मुर्गा और दारु से यथासम्भव मदद करने का आश्वासन दिया जाता है। इस दंडराशि से आश्वस्त होकर मतदाता मुस्कुराते हुए प्रत्याशी को उठाता है, उसके धूल से सने कुर्ते को झाड़ता-पोंछता है और 'देख लेने' का भरोसा देकर उसे विदा कर देता है, तदुपरांत बाबा और बकरी वाली यही कहानी अगले प्रत्याशी को सुनाने के लिए, उसका इंतज़ार करने लगता है। एक ही वोटर अपने इकलौते वोट की क़ीमत हर प्रत्याशी से वसूल कर सकता है। परिवार में वोटरों की कुल संख्या के हिसाब से रेट तय किये जाते हैं, वोटों की खुलेआम सेल लगती है। इतनी तिकड़मों के बावजूद कोई यह शर्तिया नहीं कह सकता कि जीत हमारी ही पक्की है। लेकिन कर्म अकारथ नहीं जाता। मेहनत का फ़ल तो मिलता ही है। हारने वाले का चाहे दिवाला पिट जाता हो, मगर जीतने वाले के घर में फिर कुबेर वास कर जाते हैं। तुम्हें एक लाख देकर वो दस लाख भुनाता है। खटारा स्प्लेंडर से चलने वाले के दरवाजे पर रात की रात में चमचमाती फॉर्च्यूनर खड़ी हो जाती है। जनता को अपने दिये गये आशीर्वाद पर खुद भरोसा नहीं होता। बुड्ढों को यही बात हजम नहीं होती कि आखिर सुर्ती खाके दिया गया वरदान फलीभूत कैसे हो सकता है? बेचारे शाम के समय खटिया पर लेटे-लेटे मंथन करते रहते हैं,-'बानी पर एतने सुरसती बिराजी थीं तो अपने ख़ातिर भी माँग लेते- लखनवा को बर दिये, बिधायक हो गया।' सबके भाग्य लेकिन ऐसे ही नहीं सँवर जाते। गिरने पर धूल झाड़कर फ़िरसे खड़े हो जाने और बेहयाई से दाँत फाड़ने की कला ही राजनीति है। मतदाता की टाँग से चिपटकर दूर तक घसीटे जाने की सहनशक्ति ही राजनीति है। गरीबों की सेवा करते-करते रातोंरात अमीर बन जाने का कौशल ही राजनीति है। पाँच महीने जनता के पीछे घूमकर, फ़िर पाँच सालों तक जनता को अपने पीछे घुमाने का हुनर राजनीति है। तप-त्याग और आस्था का नाम ही राजनीति है।

राजनीति बहुत ऊँची चिड़िया का नाम है। जिनका रॉकेट साइंस में ही दम फ़ूलने लगता हो, ऐसे अल्पज्ञानी पॉलिटिकल साइंस को कभी समझ नहीं पायेंगे। इसका सिलेबस अथाह है, अनंत है। एक नेता वैज्ञानिक तो बन सकता है, मगर एक वैज्ञानिक कभी नेता नहीं बन सकता। आप सोच रहे होंगे कि यह कैसे हो सकता है? नेता तो अँगूठाटेक भी हो सकता है, पर विज्ञानी बनने के लिए तो ज्ञान के साथ-साथ प्रतिभा लगन और देशसेवा की भावना भी तो ज़रूरी है। क्या ये संभव है कि कोई नौवीं फ़ेल किसी वैज्ञानिक की जगह ले सके? अजी मैंने कहा बिलकुल संभव है। नेता क्या करता है, वादे ही तो करता है। जो काम राजनीति के क्षेत्र में कर रहा है, वही काम शोध और अनुसन्धान के क्षेत्र में कर देगा। कौन सी बड़ी बात है। जब देश को किसी नई तकनीक की ज़रूरत पड़ेगी, झट से कह देगा-" श्रीमन! अभी बनाकर देता हूँ। इस क़ायदे से एकाध महीने तो काट ही देगा। फ़िर रिपोर्ट लगेगी, नेता जी को लाइनहाजिर किया जायेगा। जवाबतलब होगा-"क्यों भई? नई अदृश्य पनडुब्बी का काम कहाँ तक पहुँचा? प्रोग्रेस रिपोर्ट में तो य्यार स्टार्ट भी नहीं दिख रहा?"

"अरे सर, क्या बतावें। बस उसी पे लगे थे। आइडिया बनाके रेडी कर दिया है। दरअसल वो बीच में सर्दियों की छुट्टियाँ पड़ गयीं तो काम ठप्प था। आप तो जानते ही हैं। बस ये अभी शीतकालीन सत्र शुरू होने वाला है। फिर देखिये आप काम की तेजी। भारत माता की कसम वो चीज़ तैयार कर देंगे कि दुश्मनों के छक्के छूट जायेंगे। बस आप हमारे रेलवे पास का थोड़ा बंदोबस्त करवा दीजियेगा।"

-"अरे उसके लिए भई आप निश्चिंत रहिये। बस आप जल्द से जल्द पनडुब्बी तैयार कर दीजिये।"

ऐसे ही तीन महीने फिर गुज़रेंगे। फिर हाई लेवल बैठक होगी। भेड़ की खाल में घुसे भेड़िया जी फिर दाँत चमकाते प्रगट होंगे।

हॉल में मौजूद सभी लोगों को देखकर सलाम बंदगी करेंगे। हेड साहब गुस्से में तमतमा रहे हैं- सलाम नमस्ते से काम नही चलने वाला। नेता जी जाकर सीधे चरणों में लोट जायेंगे। साक्षात दण्डवत।

-"अरे-रे। अरे उठिए भाई। ये क्या बात हुई?"

-"नहीं साहब! अब बर्दाश्त नहीं होता।"

इतना कहकर नेता जी अपनी झक सुफेद रुमाल निकाल लेंगे और अपने नयन नीर पोंछते हुए अपनी व्यथा कहने लग जायेंगे।

-"बात तो हुई है। बात तो होनी ही चाहिए। आज जब (सुबुक) देश को (सुबुक) हमारी सबसे ज्यादा ज़रूरत है सर, तो ये स्साला, क्षमा करें! ये विपक्ष हमको काम ही नहीं करने दे रहा सर।

-"क्या? विपक्ष काम नहीं करने दे रहा? अरे, लेकिन हमने तो आपको पूरी पॉवर्स दे रक्खी हैं। आपके हाथ में तो फुल कमांड है। तब ये विपक्ष का क्या लोचा है?

हेड साहब ने कंधे पर हाथ रख दिया है। बाकी लोग भी अचरज में पड़ गए हैं। बताइये। क्या बदतमीजी है। अगला काम कर रहा तो विपक्ष काम ही नहीं करने दे रहा। ये तो सीधा देशद्रोह का मामला है। इस देश में विपक्ष होना ही नहीं चाहिए।

गोटियाँ सेट हो चुकीं हैं। तमाशबीन दम साधे खड़े हैं। नेता जी माजरा समझाते हैं।

`"बात सर ये है कि पॉवर तो मेरे हाथ में है, पर उसको लागू करने का काम तो इसी विपक्ष का है। मैं डिजाइन तैयार करके देता हूँ, ये ससुरा भरी संसद में फाड़कर फेंक देता है। बोलता है, दिस इज शिट! माने यह टट्टी है।''

-"ब-अब नहीं-नहीं जी। वो शिट माने बकवास भी होता है।

-"होता होगा सर्। देशहित के काम में रोड़ा अटका रहा है यह विपक्ष। इसका कोई ठोस समाधान नहीं निकला तो हम आमरण अनशन कर देंगे। बताइये भला, कोई बात हुई। हम तो यहाँ रात-रात भर आँखें फोड़के डिजाइन पे डिजाइन दिये जा रहे हैं और ये, ये विपक्ष एक झटके में उसको बकवास बता के फाड़ देता है।

-"अच्छा, अच्छा! आप चुप हो जाइये। हम इस विपक्ष का कुछ बंदोबस्त करते हैं। राज्यपाल बदलके देखें?

-"सर-सर! आप राज्यपाल बदलिये चाहिए लोकपाल बदलिये। कुछ न कुछ तो करिये इसका।

-"ठीक है-ठीक है। हम विपक्ष को सँभाल लेंगे, लेकिन आप जल्द से जल्द इसको फ़ायनल करके दीजिये। हमारे इंटेलिजेंस की रिपोर्ट है कि रुस भी इसपे काम कर रहा है। हमलोगों ने अगर जल्दी बनाकर लॉन्च कर दिया तो विदेशों में एक्सपोर्ट करने का भी ऑफ़र है। तो जरा जल्दी रहे।"

-"बस सर अब आप एकदम निश्चिंत रहिये। आधा काम तो हो ही चुका, आधा और हुआ समझिये। दिनरात एक कर देंगे। जी जान लड़ा देंगे। आज इसी धरती पर खड़े होकर, सीना ठोंककर शपथ....

-"अरे, नेता जी। रहने दीजिये। ये शपथ वगैरा की ज़रूरत नहीं है। आप बस काम पर ध्यान दीजिये।

-"जो आज्ञा सर। चलते हैं सर।"


फिर दो महीने गुज़र गए।

और नेताजी? अब तो बन गयी होगी भई? पूरा साल निकाल दिया आपने धीरे-धीरे।

-"बिलकुल रेडी है सर। बनके तैयार खड़ी है अपने यार्ड में।"

-"तो चलिये फिर, दर्शन कराइये।"

-"अभी कैसे सर।"

-"क्यों भई, बन गयी है तो देखने में क्या हर्ज है?"

-"अरे सर! अदृश्य पनडुब्बी है न। बिना पासकोड डाले दिखेगी कैसे महाराज!"

-"तो पासकोड डालिये फिर।"

-"पासकोड हमारे पास है कहाँ सर। पासकोड बहुत सीक्रेट चीज़ होती है ना। तो उसमें जबरदस्त लॉक लगवाने के लिए हाई सेक्युरिटी की ज़रूरत थी। कोई ऐसी एजेंसी चाहिए थी इस पूरी योजना को गुप्त रखकर काम करे। मुझे कुछ ऐसे लोगों की ज़रूरत थी जो अपने काम के प्रति पूरी तरह से समर्पित हों। काम में इतना डूब जाते हों कि दीन-दुनिया से बेखबर हो जायें। सिर पर चाहे भयंकर प्रेशर हो, चीखते-चिल्लाते पागलों की टोली से घिरें हुए हों मगर कान पे जूँ तक रेंगनी नहीं चाहिए। और सर! तब जाकर मुझे एसबीआई वालों का ख़्याल आया। कितनी संजीदगी-कितनी तल्लीनता से ये लोग अपना काम करते हैं। कीबोर्ड के एक-एक बटन को इतने इत्मीनान से टीपते हैं-जैसे एटम बम का बटन दबा रहे हों। लाइन में खड़ा कस्टमर कष्ट से जबतक मर नहीं जाता, तबतक पट्ठे का नंबर नहीं आने देते हैं। निकासी का पैसा लेते हुए ससुर ऐसा नतमस्तक हो जाता है मानो लोन का पैसा ले रहा हो। हम समझ गए हमारा काम तो यहीं बन सकता है, तो सर- पासकोड तैयार करने का ठेका हमने एसबीआई वालों को दे रक्खा था।"

-"तो अब मँगवा लीजिये।

-"आयेगा सर। सुबह बोलके आये थे मैनेजर को। बोला कि सीधे-सीधे नहीं बता सकते। एन्क्रिप्टेड मैसेज जायेगा अभी ओटीपी के रूप में। बस उसी ओटीपी का इंतजार है बस। अब आया कि तब आया।"

गुप्त सूत्रों से खबर मिली है कि इस घटना को तीन दिन बीत चुके हैं, पर सर्वर की गड़बड़ी होने की वजह से अभीतक एसबीआई की तरफ़ से ओटीपी नहीं आ सका है।


समाप्त