अर्थतंत्र rajendra shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अर्थतंत्र

कहानी---

अर्थतंत्र

आर. एन. सुनगरया,

दुर्गा प्रसाद के इर्द-गिर्द फैला सम्‍बन्धित जन समुदाय उसे, भलि-भॉंति जानता, मानता एवं पहचानता था। उनकी अपनी धारणाऍं थीं उसके प्रति, आन्‍तरिक-बाहरी। हाथी के दॉंत दिखाने के और एवं खाने के और!

अतीत को भूलकर, जब कोई व्‍यक्ति अपने वर्तमान को सत्ता तथा आर्थिक सुख के दुष्‍प्रभाववश अहंकार में चूर होकर अपनी-अपनी मूल प्रवृत्ति को नजर अन्‍दाज करके, सर पर सवार अभिमान को अपना लेता है अथवा अंगिकार कर लेता है, तब उसके सम्‍पूर्ण मानवीय सद्गुण विखन्डित हो जाते हैं; उनके स्‍थान पर, आहिस्‍ता-आहिस्‍ता दुर्गुण जमा होने लगते हैं। जो उस व्‍यक्ति को अपने नशे में मदमस्‍त कर देते हैं। जिससे दिमाग विवेक खो देता है। अच्‍छे-बुरे का भेद करना कठिन हो जाता है। बात-व्‍यवहार, सदाचार, शिष्‍टाचार, अपनत्‍व, सहानुभूति, दीन-ईमान, दया-धरम, जहॉं तक कि रिश्‍तों की परिभाषा, उनकी गरिमा, मर्यादा, महत्‍व, रिवाज, परम्‍परा, संस्‍कृति, संस्‍कार सब कुछ, अपना अस्तित्‍व खो देते हैं। उनकी जगह एक नई संस्‍कृति, नई मान्‍यताऍं नई धारणाऍं, भावनाओं के बिना बल्कि विरूद्ध चाल-चलन परिचालन पद्धिति समग्र व्‍यक्तित्‍व में जन्‍म ले लेती हैं। पद एवं आर्थिक शक्ति के तात्‍कालिक प्रभावशाली, एक तरफा आदेशवादी व्‍यवहार का विकास होता है। स्‍वार्थ का आवरण ओढ़े हुये। सम्‍पूर्ण नाते-रिश्‍तों एवं मातहत सदस्‍यों को अपनी मुट्ठी में कैद करके। अपनी स्‍वार्थपरतानुसार, मंशानुसार, धीरे-धीरे अपने कार्य अपने अनुकूल करवाने हेतु विवश करने का जुनून किसी बुरे नशे से कम नहीं। मनुष्‍य द्वारा, मनुष्‍य का शोषण, अत्‍याचार आदि करने की प्रक्रिया भी बहुत आनन्‍द देती है, जो मानसिक विकृति के कारण आदत में तबदील होकर, एक बुरी लत बन जाती है। ऐसा व्‍यक्ति अपनी लत की तलब में जकड़ा हुआ; निरन्‍तर क्रियाशील रहता है, तभी उसे शुकुन प्राप्‍त होता है। इस स्‍वयंसुखान्‍त: प्राप्ति के लिये, वह व्‍यक्ति एक-ना-एक शिकार को सदैव अपने लक्ष्‍य पर रखता है। ताकि अपनी तीव्र तलब पूरी करने में विलम्‍ब ना हो।

‘’ट्रिंग.....ट्रिंग.....ट्रिं......ग.....ट्रिंग।‘’ लगातार मोबाइल की वेल बजने से झुंझलाता हुआ मोबाइल का स्‍क्रीन झांककर, ऑन करता है, ‘’कौन है......।‘’ दुर्गाप्रसाद को जाना पहचाना नाम-नम्‍बर लगा, तुरन्‍त ऑन किया, ‘’हॉं भैया, बोलो।‘’

‘’मैं घर आया था.........।‘’

‘’हॉं तो बैठो वहीं........मैं जरूरी काम निबटा कर आता हॅूं। थोड़ी देर में।‘’

आवास की कॉलवेल पहले ही बजा चुका था। एक युवक बुत्त की तरह खड़ा था, बोला, ‘’नमस्‍ते बड़े पापा।‘’ कुछ कठिनाई हुई बोलने में शायद।

अवगत हो कि ये दुर्गाप्रसाद के अग्रज गरीबाराम हैं। उच्‍चशिक्षित एवं केन्‍द्र सरकार में वरिष्‍ठ अधिकारी रह चुके हैं। फिलहाल हालातों के मारे हैं। एक समय में पिताजी के निधन के बाद उनकी सम्‍पूर्ण जिम्‍मेदारियॉं गरीबाराम ने यथास्थ्‍िाति अपना दायित्‍व स्‍वीकार करके अपने सर अथवा कन्‍धों पर धारण कर लीं। अच्‍छे उत्तराधिकारी एवं कर्त्तव्‍यनिष्‍ठ की भॉंति अपने बलबूते पर सामर्थानुसार निर्वहन किया। खुशी-खुशी। अच्‍छी नौकरी, अच्‍छा वेतन। किसी तरह की कोई तंगी नहीं। सबको अपने-अपने मन मुताबिक, शिक्षा-दिक्षा, लालन-पालन, पोषण, शादी, विवाह इत्‍यादि-इत्‍यादि, सम्‍पन्‍न करते-करते गरीबाराम इतना तल्‍लीन हो गया कि स्‍वयं के लिये, भविष्‍य को सुरक्षित करने की कोई योजना भी नहीं बनाई। जब कभी इसके बारे में सोचता तो, तुरन्‍त ख्‍याल आता कि भाई-बन्‍धु, औलाद, भतीजे, भतीजी, और भी कुछ आश्रित रिश्‍तेदार, सबके सब तो हैं। जिन्‍हें उसने अपने पैरों पर खड़ा करने में प्रमुख्‍य भूमिका निवाही है। आत्‍मनिर्भर बनाया है, तो क्‍या ये लोग मुझे अभावों में रहने हेतु विवश कर देंगे........! नहीं-नहीं इतने एहसान फरामोश नहीं हो सकते। सब संस्‍कारी और समझदार हैं। लोकलाज एवं जगहंसाई से तो बचेंगे ना। समाज क्‍या सोचेगा, क्‍या कहेगा। कुछ तो दिमाग में आयेगा, किसी को तो आत्‍मग्‍लानि होगी। बस इसी विश्‍वास को गूलर की जड़ की तरह पकड़कर बैठ गया, निश्चिन्‍त होकर!

जब आश्रित अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है, तब उसे किसी सहारे की याद नहीं आती। कृतध्‍न बनकर अपना संसार स्‍वयं बुनने लगता है। अपनी योजनाओं के क्रियाम्‍बन में नीति निर्धारण नियतानुसार अपने आपके वास्‍ते, अपने अनुकूल व अपने पक्ष में उपयोग करने की आदत डाल लेता है। सुदृढ़ अर्थनीति के तहत, पैसा फेंको तमाशा देखो, कहावत की तर्ज पर अपने सम्‍पूर्ण कार्यकलाप सम्‍पन्‍न अथवा सम्‍पादित करके समग्र परिस्थितियों को अपने अनुसार ढालने की महारत हासिल कर लेता है। अपने शिकार को ऐसा फंसा लेता है, अपने चंगुल में कि वह चूँ तक नहीं कर पाता है। कठपुतली की भॉंति नाचने, मटकने, ठुमकने का अभिनय करने पर विवश हो जाता है। खून के रिश्‍तों के अदृश्‍य कच्‍चे धागों से बन्‍धा, स्‍वत: ही साजिश के भ्रमजाल में तड़पता हुआ, मुक्ति पाने की जुगत सोचने लगता है।

दुर्गाप्रसाद आ धमका तुफान की तरह पूरा माहौल घर परिवार अपने-अपने तरीके से उसके चारों ओर क्रियाशील हो गया। सन्‍नाटे में अनायास चहल-पहल व्‍याप्‍त हो गई। अनावश्‍यक दिखावा। दुर्गाप्रसाद अपने अभिमान में मस्‍त एवं चूर, अपने बड़े भाई को भी तबज्‍जो नहीं दे रहा है। गरीबाराम सारे तामझाम, ठाठ-बाट, चमक-दमक अपनी सूनी-सूखी ऑंखों से देखे जा रहा है। उठते हुये बोला, ‘’चलता हूँ, दुर्गे तुम आराम करो, बाद में मिलता हॅूं।‘’

दुर्गाप्रसाद जैसे गरीबाराम को ऑंखें दिखा रहा हो, बोला, ‘’बैठो।‘’ दुर्गाप्रसाद अपने बेटे की ओर मुखातिब होकर आदेश करने लगा, ‘’पानी लाओ चाय बनबा।‘’ गरीबाराम पुन: बैठ गया, बैचारा।............बैठा ही रहा लम्‍बे समय तक। कोई पूछ-परख नहीं, स्‍वागत-सत्‍कार नहीं, चाय तो चाय पानी तक नहीं। समय-समय की बात है; एक समय था, जब गरीबाराम के आते ही पूरा परिवार चहक उठता था। दुर्गाप्रसाद उसकी, पत्नि विमलेश एवं बच्‍चे; सब के सब बारी-बारी चरण स्‍पर्श करके आशीर्वाद लेना नहीं भूलते थे। मान-सम्‍मान व स्‍वागत-सत्‍कार में रत्तीभर भी कमी नहीं होती थी। चाय-नाश्ता, भोजन, इत्‍यादि वगैर कुछ बोले तत्‍काल हाजिर! उनकी व्‍यवहार-कुशलता से गरीबाराम अभिभूत हो जाया करता था। अनायास ही गरीबाराम को अपनी प्रधानता अथवा प्रमुख्‍यता होने का गौरव महसूस होने के साथ ही पारिवारिक दायित्‍वों का बोझ भी कन्‍धों पर प्रतीत होने लगता ऑंखों में अभिमान अथवा प्रतिष्‍ठा की चमक उभर आती परिवार के दीर्घकालिक सारे मसलों का निर्णय गरीबाराम के परामर्श व सलाह-मस्‍वरे के बिना अनुमति के नहीं लिये जाते। पति-पत्नि के कुछ आन्‍तरिक एवं गोपनीय शिकायत-शिकवे भी, गरीबाराम के सम्‍मुख रखे जाते निबटारे के लिये। वह समुचित निबटारा करता, जो दोनों पक्षों को मान्‍य होता एवं कल्‍याणकारी रहता। यदि डॉंट-डपट की आवश्‍यकता होती तो वह भी निसंकोच करता। उसका निर्णय पत्‍थर की लकीर होता। विमलेश-दुर्गाप्रसाद उन पर अमल करते और अपने-आप को धन्‍य मानते।

विमलेश जानती है, गरीबाराम ने ही उसके पति को बेटे की भॉंति परवरिश की है, उच्‍च शिक्षा, नौकरी वा विवाह घर गृहस्‍थी स्‍थापित करने तक का पूरा दायित्‍व संतोषजनक स्थिति में निर्वहन किया है। इससे बढ़कर और कोई क्‍या करेगा। इसका प्रमाण विमलेश अपनी शादी में देख चुकी है। किस मुस्‍तैदी से हर्षोल्‍लास, उमंग से शादी समारोह की सम्‍पूर्ण रस्‍में, दस्‍तूर एवं अन्‍य औपचारिकताऍं निवाही हैं। इसी कारण विमलेश अपना स्‍थानीय अभिभावक गरीबाराम को ही मानती आई है। गरीबाराम ने भी ज्‍येष्‍ठ होने के साथ-साथ पिता तुल्‍य ससुर की भाँति समग्र मर्यादित जिम्‍मेदारियॉं, विधिवत परम्‍परा अनुसार प्रसन्‍नता पूर्वक उठाते चले आ रहे हैं। सम्‍बन्‍धों के इसी स्‍वरूप के कारण विमलेश को जब भी कभी, गरीबाराम के स्‍तर की शिकायत करनी हो तो अविलम्‍ब उनके संज्ञान में लाते ही, तुरन्‍त उसे अपेक्षानुकूल हल करना, गरीबाराम की प्राथमिकता में प्रथम स्‍थान पर रहती है। विमलेश ने इसी तारतम्‍व में समस्‍या बताई, ‘’ज्‍येष्‍ठ जी।‘’ पूर्ण आदर, मर्यादा और आशापूर्ण विश्‍वास के साथ बताया, ‘’कुछ समय से एक उलझनभरी समस्‍या से पीडि़त हूँ।‘’

‘’कैसी समस्‍याᣛ?’’ गरीबाराम ने पूरे स्‍नेह पूर्वक पूछा, ‘’बोलो बहू, क्‍या बात है!’’ विमलेश खामोश दिखी तो गरीबाराम ने उसे प्रोत्‍साहित किया, ‘’संकोच क्‍यों......मैं तो तुम्‍हारे पिता समान हूँ....।‘’ विमलेश ने साहस जुटाया, ‘’आपकी भी जानकारी में हो शायद।‘’ विमलेश ने ऐसे लहजे में बताया कि गरीबराम को सारी स्थिति स्‍पष्‍ट हो गई, आगे बोली, ‘’चिन्‍टु के पापा, किसी फेमलि के ऊपर मेहरबान हैं; उनकी एक जवान लड़की है। उसे अनेकों शहरों की पर्यटक यात्राऍं करवा चुके हैं।‘’ गरीबाराम आश्‍चर्यचकित मुद्रा में सोचने लगा,……वास्‍तव में इस सिलसिले में उसे तनिक भी भनक नहीं थी। ऐसा चरित्रहीन है तो नहीं दुर्गाप्रसाद, कौन जाने किसके हृदय में क्‍या छुपा है। कब किसका ईमान डोल जाय। अपने-अपने संस्‍कारों और संयमों का दृढ़तापूर्वक पालन करना हर व्‍यक्ति को सभ्‍य बनाता है।

गरीबाराम की खामोशी, विमलेश समझ नहीं पा रही थी; फिर भी उसने आगे बताया, ‘’घर में आये दिन झड़प, वाद-विवाद, झंझट, किच-किच, आपत्तिजनक नोक-झोंक, यहॉं तक कि अब हिन्‍सा पर भी उतर आये हैं। डर है कहीं कुछ अप्रिय अथवा आपराधिक घटना ना हो जाये, क्रोध में, वैसे ही तो शराब के नशे में रहते हैं।‘’

‘’देखता हूँ।‘’ गरीबाराम ने विमलेश को आस्‍वस्‍त किया, ‘’वाक्‍यी, मेरी जानकारी में ये प्रकरण नहीं था।‘’ विमलेश तो चुप ही रही, गरीबाराम ही बोला, ‘’डॉंटता, फटकारता, समझाता हूँ।‘’

गरीबाराम की गम्‍भीरता, खामोशी उदासी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही थी, लगभग रूऑंसा होकर अपने आप में फुसफुसाने लगा, ‘’उसकी अनेकों पारिवारिक, आफिसियल एवं अन्‍य क्षेत्रों में भी उलझी से उलझी स्थितियों को सुलझाने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी तन-मन-धन से फिर भी आज इतनी उपेक्षा .......असहनीय दुत्तकार......खजेले कुत्ते की तरह हकाल दिया......भिखारी को भी सहानुभूति एवं दयापूर्वक, बोल देते हैं, ‘’जाओ बाबा आगे देख लो........।‘’

दुर्गाप्रसाद नहीं समझ पाया, अपने अहंकार में, …..गरीबाराम को त्‍याग कर, क्‍या खो दिया है। उसकी बौद्धिक सम्‍पदा तथा भौतिक अनुभव दुनियादारी जो अभी तक दुर्गाप्रसाद को सहज ही उपलब्‍ध था, सदैव, जब्कि गरीबाराम अपनी विलक्षण तर्क व विवेकी प्रवृति से जान चुका है कि दुर्गाप्रसाद सम्‍पूर्ण मौर्चों पर पतन की कगार तक बढ़ चुका है। निकट भविष्‍य में वह जीवन के यथार्थ के चर्कव्‍यू में तड़पता जायेगा, अपने आपको।

......उठ खड़ा हुआ गरीबाराम!

दुर्गाप्रसाद की आने की आहट आई, पलक झपकते वह गरीबाराम के निकट आ खड़ा हुआ, ‘’ये, नाश्‍ता पानी, चाय वगैरा...।’’

ताज्‍जुब! व्‍यंग्‍य में बोला, ‘’हॉं सब हो गया, चलता हॅूं.......अब......।‘’ बोलते-बोलते गेट तक पहुँच गया।

दुर्गाप्रसाद ने रोकने की कोशिश नहीं की, अच्‍छा ही है, चला जाये। किस काम का सर पर बोझ!

.......अतीत में गोते खाता गरीबाराम को अपने ऊपर तरस नहीं आ रहा है, बल्कि दुर्गाप्रसाद पर ही दया आ रही है..........दुर्गाप्रसाद कितना विपन्‍न प्रतीत हो रहा है, बौद्धिक, चारित्रिक एवं विवेकी स्‍तर पर, उसका अन्‍त:करण यह भी महसूस नहीं कर पा रहा है कि उसने क्‍या खो दिया जिसे पाने के लिये लोगों को वर्षों लग जाते हैं। उसने एक पल में नजर अन्‍दाज कर दिया। पतन के गर्त में जाने से उसे कोई रोक नहीं सकता।

जिस वृक्ष ने शरण दी, शुद्ध हवा और शीतल छाया दी, वर्षा के पानी से बचाया, ऑंधी-तूफान से सुरक्षा दी, उस विशाल वृक्ष का प्रभाव, सामर्थ, महिमा को भुलाकर, उसी आश्रय प्रतीक को जड़ सहित उखाड़कर फेंक दिया। जिसने उसे विकसित किया, आत्‍मनिर्भर बनाया अपने पैरों पर खड़े होना सिखाया। उसकी अमूल्‍य सीख को विस्‍मृत कर दिया अर्थतंत्र के घमण्‍ड में।

♥♥♥ इति ♥♥♥

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍