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सौन्दर्य के उपादान

सौन्दर्य के उपादान
( अ ) विषयगत सौन्दर्य
( ब ) विषयीगत सौन्दर्य
विषयगत सौन्दर्य
' क्षणे - क्षणे यन्नवतामुपैति '
तदैव रूपं रमणीयतायाः ।।
वास्तविक सौन्दर्य वही है जो प्रतिक्षण नया ही लगता है । इस विचारधारा के विद्वान सौन्दर्य को नित्य नवीन तथा विषयगत स्वीकार करते है । उनके अनुसार सौन्दर्य वस्तुपरक गुण है । वास्तव में वस्तु सौन्दर्य ( रूप ) को ही मानव - मन को आकृष्ट करने वाला ( रिझावनहार ) कहा गया है । आचार्य आनन्दवर्धन अपने ध्वन्यालोक में ध्वनि के प्रसंग में कहते है कि ' महाकवियों की वाणी में ध्वनि ऐसी शोभित होती है , जिस प्रकार यह लावण्य जो युवती के अंग , उनको गठन या रूपरंग आदि से सर्वथा भिन्न होता हुआ भी उनमें ऐसा झलकता है जैसे मोती में आभा
रीतिकालीन कवि पद्माकर ने भी सौन्दर्य को नित्य नवीन तथा विषयगत माना है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी वस्तु के रूपरंग को भी बहुत कुछ अंशों तक सौन्दर्य का आधार माना है । वे कहते है कि ' कुछ रूपरंग की वस्तुऐं ऐसी होती है जो हमारे मन में आतेही थोड़ी देर के लिए हमारी सत्ता पर ऐसा अधिकार कर लेती है कि उसका (हमें अपनी सत्ता का) ज्ञान ही हवा हो जाता है और हम उन वस्तुओं की भावना के रूप में परिणत हो जाते है । हमारी अनन्त सत्ता की यही तदाकार परिणति सौन्दर्य की अनुभूति है ...... जिस वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान या भावना से यह तदाकार परिणति जितनी ही अधिक होगी , उतनी ही वह हमारे लिये सुन्दर कही जायेगी ।
सौन्दर्य प्रिय ग्रीस निवासी भी अपनी मूर्तिकला में सौन्दर्य सृजन हेतु अंगों की बनावट नापतौल , गठन तथा सुडौलपन पर ही बल देते थे । आज भी विश्व की सौन्दर्य - प्रतियोगिताओं में विभिन्न अंगों की बनावट तथा नापतौल आदि को ही प्रधानता दी जाती है । संस्कृत साहित्य में शारीरिक गठन को रेखा कहा गया है । संगीत रत्नाकर ने रेखा का लक्षण करते लिखा है कि ' सिर , नेत्र , हाथ आदि के उचित अनुपात में मिलने से शरीर में एक ऐसा सुडौलपन आ जाता है जो आँखों को बड़ा लुभावना प्रतीत होता है , उसे रेखा कहते है ।
कालिदासकृत अभिज्ञान शाकुन्तल में भी आकृति विशेष को सुन्दर कहा गया है । श्री हर्ष भी व्यक्ति - विशेष में ही रूप सौन्दर्य का निवास मानते है । राजा नल हंस से कहते है कि - ‘ सुन्दर रूप में सुन्दर गुणों का निवास होता है , सामुद्रिक शास्त्र के इस निष्कर्ष के उदाहरण तुम ही हो । श्रीमद्रूप गोस्वामी ने भी विभाव के विभिन्न अंगों में ही सौन्दर्य की खोज की है । - भवेत सौन्दर्यमंगानां सन्निवेषोयथोचितम् ' इसी यथोचित सन्निवेष को क्षेमेन्द्र ने अपने औचित्य विचार चर्चा में – ' उचित - स्थान - विन्यास ' कहा है । अतः इस दृष्टि से औचित्य ही सौन्दर्य माना जा सकता है । होगार्थ ने जब रेखा , रूप , रंग , एवं कर्म के सौन्दर्य मीमांषा की भित्ति वस्तु की क्षमता , विचित्रता , सम्मात्रा , स्पष्टता , जटिलता और विशालता पर खड़ी की तो वह भी इस औचित्यवाद की सीमा को लाँघ सके । वस्तुतः अरस्तु द्वारा प्रतिपादित सौन्दर्य के अंग - सम्मात्रा , व्यवस्थित क्रम तथा निश्चित आकार भी इसी औचित्य के अंतर्गत आ जाते है ।
विषयगत सौन्दर्य को मानने वालों में एक समूह उन विद्वानों का भी है जो अपनी मीमांसा में वस्तु - विशेष को महत्व न देकर वस्तु सामान्य अथवा प्रकृति को महत्व प्रदान करते है । उनमें सर्वप्रथम रेनाल्ड्स का नाम उल्लेखनीय है । उनके मतानुसार - प्रत्येक प्राणी और पौधे की प्रकृति उसके पूर्व निर्णीत रूप की ओर लिये जा रही है । और यदि हम उनके रूपों में सौन्दर्य देखते है तो केवल इसलिये कि हम ऐसा करते आये है । हमारी यह आदत उसी प्रकार की है जिस प्रकार हाँ ' से स्वीकृति और ' न ' से निषेध का ज्ञान होना ।
साहचर्य नियम को मानने वाले एलिसन जेफ्रे तथा वेन आदि के मत में भी विषयगत सौन्दर्य को ही प्रधानता दी गई है । क्योंकि उनके मतानुसार जो सुखद अनुभूतियाँ साहचर्य - नियम द्वारा जाग्रत होकर सौन्दर्य का कारण बनती है , वे वस्तुतः और अनिवार्यतः वस्तु को लक्ष्य करके ही उपजती और संचित होती है । पेरवरे महोदय यद्यपि विषयगत सौन्दर्य से हटकर सौन्दर्य का कारण विभिन्न जातियों एवं विभिन्न प्राणिवर्गों के परस्पर भिन्न सौन्दर्य आदर्शों में देखते है । परन्तु उनका यह प्रयत्न भी सफल नहीं कहा जा सकता , क्यों अन्ततोगत्वा ये आदर्श भी विभिन्न भौतिक पदार्थों से चिपके हुये है । अतः प्रथा और आदत को ही सौन्दर्य हेतु मानने वाले लार्ड केमे , विलियम शेस्टन तथा अब्राह्म ट्यूकर की भाँति वफी महोदय भी सौन्दर्य को मानव के भौतिक व्यवहार से सम्बद्ध मानने के कारण विषयगत ही स्वीकार करते है ।
डार्विन भी प्राणियों या पौधे आदि के रूपरंग में ही सौन्दर्य के दर्शन करते है । उनके अनुसार प्राकृतिक वस्तुओं में पाये जाने वाले सौन्दर्य का कारण प्रकृति निर्वाचन और उसका उपयोग मानते है । मानव अपने आदिमकाल से कंद , मूल फल खाते - खाते पेड़ - पौधों के रूपरंग में सौन्दर्य के दर्शन करने लगा । इसी सौन्दर्याकर्षण के कारण उनमें विभिन्न पेड़ - पौधों तथा पशु - पक्षियों में देवत्व की भावना स्थापित कर ली । फूलों का सौन्दर्य मानो उन मधु मक्खियों , तितलियों आदि को रिझाने के लिये है जो अनजाने ही अपनी सौन्दर्य लिप्ला में पड़कर फूल का पराग केसर दूसरे के गर्भ केसर में पहुँचा देते है । तितली का रंग फूलों जैसा रंगबिरंगा इसलिये है कि वह फूलों में छिपकर आत्मरक्षा कर सके ।
आध्यात्मवादी सौन्दर्यशक्तियों के अनुसार विश्व की प्रत्येक वस्तु में दिखने वाला सौन्दर्य , ईश्वरीय सौन्दर्य की ही प्रतिच्छाया मात्र है । वे अपनी धार्मिक श्रद्धा के वशीभूत होकर ईश्वर की सर्वगुण सम्पन्नता में सौन्दर्य को भी स्थान दे देते है । सेण्ट आर्गस्टाइन के अनुसार असीम शिवम् , सत्यम् एवं सौन्दर्य ईश्वर के गुण है और वही सम्पूर्ण वस्तुओं को ये गुण प्रदान करता है । हेगेल भी सौन्दर्य को इन्द्रिय- ग्राहय रूप में मानकर , प्रकृति एवं कलागत सौन्दर्य को भौतिक या विषयगत ही मानते है । प्लेटो का कथन है कि- ' जो भी सौन्दर्य तत्व की यथोचित खोज करने में दत्तचित्त होगा उसे विभिन्न सुन्दर रूप देखते ही यह पता लगेगा कि एक रूप की सुन्दरता दूसरे की सुन्दरता से भिन्न नहीं है और फिर भी यदि यह साधारणतया विभिन्न रूपों मे ही सौन्दर्य दूढ़ता रहा तो उससे बड़ा मूर्ख और कौन होगा , क्योंकि वह यह भी न जान सका कि सब रूपों में सौन्दर्य एक ही है । प्लेटो के अनुसार यह एक आत्यन्तिक सौन्दर्य ही सम्पूर्ण भौतिक पदार्थों को निज गति द्वारा आकृति प्रदान करके सौन्दर्य देता है ।
उपनिषदों में भी इसी बात की पुष्टि की गई है – ' तमेव भान्तमनुभाति सर्व , तस्य भासा सर्वमिद विभाति ' – अर्थात् उस ईश्वरीय प्रकाश ( सौन्दर्य ) से ही सब वस्तुयें प्रकाशित होती है , सभी में उसी का सौन्दर्य प्रतिभासित होता हुआ दिखाई देता है ।
विषयगत सौन्दर्य को स्वीकार करने वाले कुछ विव्दान वस्तुओं के सौन्दर्य को निश्चित वातावरण एवं समूह के अंतर्गत ही सुन्दर मानते है । उन समूहों में से उन्हें निकाल देने पर उनका सौन्दर्य कम हो जाता है । बुलबुल का संगीत , बंसत ऋतु की मदमाती हवाओं और चाँदनी रातों से अलग होकर अपना सौन्दर्य स्थिर नहीं रख सकता । वास्तव में सुन्दर वस्तु की सुन्दरता ही गुण है , जो दर्शक के हृदय में आनन्द की सृष्टि करता है । शारदीय पूर्णिमा की धवल ज्योत्स्ना में जिसने ताजमहल के सौन्दर्य को देखा है वह निःसंकोच होकर कह सकता है कि उसके समीप पहुँचते ही हृदय नाच उठता है , भव्य भावों से भर उठता है और यही जी चाहता है कि सम्पूर्ण जीवन उन्हीं मौलसिरी के वृक्षों के नीचे खड़े होकर काट दें । सामान्यतः यही मंत्र विमुग्धकारी गुण सभी सुन्दर वस्तुओं मे निहित रहता है । आध्यात्मिक विचारधारा वाले भारतीय विद्वान भी प्रत्येक वस्तु एवं आत्मा मे परमात्मा के पुनीत सौन्दर्य के ही दर्शन करते है । जिस प्रकार उस परमात्मा रूपी कलाकार की कलाकृति इस सृष्टि में उसका सौन्दर्य निहित है उसी प्रकार सौन्दर्य ही सामान्य कलाकार की कलाकृतियों को भी आकर्षण प्रदान करता है । ईट गारे के संयोजन मे सौन्दर्यास्वादन एवं गुणों की पुनरावृत्ति करके कलाकार अपनी कलाप्रतिमा द्वारा अट्टालिका में सौन्दर्य का पुननिर्माण करता है । कालिदास भी वस्तु सौन्दर्य या रूप सौन्दर्य को नित्य नवीन देखते है - ' अहो सर्वास्यवस्यासु चारूता शोभान्तर पुष्यति ' तभी तो सौन्दर्य की पूर्णता का प्रतिपादन करने वाले कालिदास की सभी नायिकायें सर्वागीण सुन्दर व नूतन कान्ती सम्पन्न दिखाई देती है । उन्होंने अपने काव्य में अपने स्थानों पर ' रूप ' शब्द का प्रयोग सौन्दर्य अर्थ में किया है । ' कुमार सम्भव ' में मदन दहन के बाद शिव को प्रसन्न करने में असफल पार्वती अपने रूप ( अर्थात् सौन्दर्य ) की निन्दा करती है । इसी प्रकार ' अभिज्ञान शाकुन्तल ' में शकुन्तला के सौन्दर्य का वर्णन करते हुये कहा है कि - मानो विधाता ने विश्व के समस्त रूप ( अर्थात् सौन्दर्य ) के संचय से शकुन्तला की रचना की है । सौन्दर्य के पर्याय के रूप में ' रूप ' शब्द का यह प्रयोग वस्तुगत सौन्दर्य की ओर ही इंगित करता है । संस्कृत जैसी गम्भीर भाषा में शब्दों का प्रयोग आकस्मिक नहीं है , वरन् वे अत्यन्त सार्थक प्रतीक है । कदाचित् ' रूप ' में ' सौन्दर्य ' का गूढ़तम रहस्य निहित है ।
प्रत्येक वस्तु का एक आकार होता है । यह आकार वस्तु की रूपरेखा मात्र है । भौतिक वस्तुओं का रूप वह गुण है जिसका ग्रहण चाक्षुषों द्वारा होता है । अतः वह चाक्षुष है । संगीत का लयात्मकरूप ' श्रव्य ' है । चित्रकला , संगीतकाल आदि कलाओं के रूपों में ऐन्द्रिक पक्ष के अतिरिक्त एक मानसिक पक्ष भी है । चाक्षुष रूपों में मानव देह के समान कुछ रूपों में विशेष रूप से सौन्दर्य की स्थापना की जाती है । इसी विशेष प्रयोग में ' रूप ' शब्द सौन्दर्य का पर्याय बन गया है । संस्कृत में रूप का प्रमुख और प्रसिद्ध अर्थ सौन्दर्य ही है । काव्य और लोक व्यवहार दोनों में ही रूप का प्रयोग सौन्दर्य के अर्थ में ही अधिक होता है । मानव सौन्दर्य के अर्थ में रूप का साधारण प्रयोग तथा चाक्षुष रूप के अर्थ में उसका दार्शनिक प्रयोग ये दोनों ही सीमित होते हुये भी सौन्दर्य के मूल मर्म पर ही अनुलम्बित है ।
सौन्दर्य रूप की अभिव्यक्ति है । विषय की दृष्टि से अभिव्यक्ति विषय की सत्ता और उसके स्वरूप का प्रकाशन है । वस्तुतः व्यक्त रूप के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से विषय की सत्ता और उसके स्वरूप को समझाना कठिन है ।
उपयोगितावादी का मत वस्तुनिष्ठ होने पर भी इसके कुछ भिन्न है । उनके अनुसार उपयोगिता एक तात्विक दृष्टि है । उसका प्रयोजन वस्तु की सत्ता , उसके तत्व और स्वरूप से अधिक होता है । उपयोगिता की दृष्टि से वस्तु के रूप का कोई महत्व नहीं होता है , वरन् उसका सौन्दर्य वस्तु की उपयोगिता है । यथा जीवन का रक्षण जीवन की सबसे अधिक मौलिक उपयोगिता है । भोजन उस रक्षण का साधन है । अतः भोजन का सौन्दर्य रक्षण की उपयोगिता में निहित है ।
कुछ अन्य सौन्दर्यप्रेमी विचारक विश्व अथवा प्राकृतिक वस्तुओं में रूप की अतिशयता को उपभोग या उपयोगिता से भिन्न करके देखते है । उनका कहना है कि जबतक हम प्रकृति के रूपों को उपयोगिता से दूर रखते है । तभी तक हमें उनका सौन्दर्य दिखाई देता है । उपयोगिता का तात्विक दृष्टिकोण आते ही रूप के अतिशय का आगाज़ नष्ट हो जाता है । और सौन्दर्यानुभूति मन्द हो जाती है । प्राकृतिक सौन्दर्य के आकर्षण का रहस्य निरूपयोगी रूप के अतिशय में निहित है । जीवन के नागरिक उपकरणों की तुलना में वन्य प्रकृति के उपकरण हमें अधिक निरूपयोगी प्रतीत होते है । इसीलिये हमें उनमें सौन्दर्य अधिक दिखाई पड़ता है । श्रीमैथलीशरण गुप्त ने भी शायद इसी कारण पंचवटी के ओस कणों के सौन्दर्य को अधिक श्रेष्ठ ठहराया है । उन वन्य प्रदेशों के निवासी उपयोगिता का दृष्टिकोण रखने के कारण प्रकृति में वह सौन्दर्य नहीं देखते जो हमें दिखाई देता है ।
निरूपयोगी दृष्टिकोण के कारण ही दर्शकों के लिये वे पर्वतीय और ग्रामीण स्थल सुन्दर वन जाते है जो वहाँ के निवासियों के लिये अभिशाप होते है । कांति और वर्ण सौन्दर्य के अतिरिक्त निरूपयोगी रूप का सौन्दर्य ही प्रमुख होता है । अतः सौन्दर्य अनुभूति का नहीं वरन् वस्तु का गुण है । उसकी अनुभूति को हम आनन्द की संज्ञा दे सकते है ।
प्लेटोनस के अनुसार भी सौन्दर्य पूर्णतः रूपात्मक है । वह रूप में निहित रहता है तत्व में नहीं । जो वस्तु स्वरूपतः सुन्दर नहीं है , उसे अभिव्यक्ति के द्वारा भी सुन्दर नहीं बनाया जा सकता । वह अभिव्यक्ति और चित्रण से सुन्दर और सुखद नहीं बन सकता जैसाकि ऐरिस्टोटिल और वर्क भी मानते है ।
कविवर पंत ने सुन्दरता को समस्त ऐश्वर्यों की खान माना है और सौष्ठक्युक्त अंगों वाली अपनी सुन्दरी प्रिया को कल्याणी कहकर संबोधन किया है । वस्तुतः सृष्टि के कण - कण में सौन्दर्य के आलोक - स्रोत के प्रस्रवण का अनुभव करने वाले विषयगत मतानुयायी सौन्दर्य - शास्त्रियों का विचार सौन्दर्य जगत के आँगन में सदैव ही प्रभातकालीन प्रभाकिरण बिखेरता रहेगा ।
सुन्दर माने जाने वाला पदार्थ हमें इसलिये आन्दोलित , चालित और हिल्लोतित करता है कि सुन्दर वस्तुओं में कुछ ऐसी शक्ति या धर्म है जो ऐसा करने में स्वयं समर्थ है । वस्तुतः सौन्दर्य , विषयनिष्ठ धर्म है । दृष्टव्य वस्तु में सौन्दर्य ऐसा धर्म है जो किसी भी दृष्टा को आन्दोलित और हिल्लोलित कर सकता है । कालिदास के मेघदूत में यक्ष भी अपनी यक्षणी के सौन्दर्य का वर्णन करते हुये मेघ से कहता है कि ' यौवन सम्पन्ना , हीरे सी दन्तावलि से शोभित , हरी हुई हरिणी के सी चंचल नेत्रों वाली उस मेरी प्रिया को देखते ही तुम कह दोगे कि विधाता की नारी सृष्टि में उसके साम्य की दूसरी नहीं हो सकती । अर्थात् यक्षणी का सौन्दर्य यक्ष के समान ही मेघ को भी आकृष्ट करने वाला है । चूंकि सुन्दर वस्तु सभी को एक समान ही आकृष्ट करने वाली होती है ।
सौन्दर्य सदैव ही मनोज्ञ , रमणीय एवं सुन्दर होता है तभी तो शैवाल से युक्त होने पर भी कमलिनी आकर्षक प्रतीत होती है और कवि की शकुन्तला वल्कल वस्त्रों में भी सभी के चित्त का हरण करने वाली बन जाती है ।
कालिदास की यह भी मान्यता रही है कि सौनदर्यानुभूति में आत्मा को विकल बना देने की भी क्षमता विद्यमान रहती है । सौन्दर्य को देखकर सुखी प्राणों भी उत्सुक हो जाते है । तभी तो सर्वसुख सम्पन्न दुष्यंत को शकुन्तला का सौन्दर्य ' कुसुमिव लोभनीयम् ' बनकर अपनी ओर आकृष्ट कर सका । इसी तत्व को पुरूरवा की उक्ति में भी ढूढ़ा जा सकता है ।
साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में भी भामह से कुन्तक तक के दण्डी , वामन रूद्रट प्रभूति सभी आचार्य देहवादी है । वे शब्द और अर्थ से निर्मित काव्य - शरीर में ही सौन्दर्य के दर्शन करते है । वे शब्द और अर्थ के साहित्य को काव्य का शरीर मानते है तथा वक्रता , गुण , अलंकार आदि को काव्य – वैषिष्ट्य या काव्य सौन्दर्य मानते है । इन सौन्दर्य तत्वों का सम्बन्ध प्रधानतः काव्य के शरीर अथवा रूप से होने के कारण विषयगत ही सिद्ध होता है ।
विषयीगत सौन्दर्य
अतीतकाल से अनेक विद्वानों ने सौन्दर्य तत्व का निरूपण किया है किन्तु विपुल विचार - विमर्श के पश्चात् भी सौन्दर्य लक्षण के बारे में एक निर्णय पर नहीं पहुँच सके है सौन्दर्य को विषयगत अथवा विषयिगत मानने के सम्बंध में सभी विद्वानों में मतैक्य नहीं है । कुछ की दृष्टि में सौन्दर्य का लक्षण उसी प्रकार दुर्लभ है जिस प्रकार , मृग द्वारा झाड़ियों में कस्तूरी की खोज । क्योंकि उन विद्वानों की - दृष्टि में सौन्दर्य विषयगत न होकर विषयिगत है । अतः उसका लक्षण निश्चित करना असंभव है । सृष्टि के प्रत्येक प्राणी की रूचि के अनुसार सौन्दर्य का एक दृष्टिकोण भिन्न प्रकार का हो सकता है । समय - समय पर सभी पदार्थ सुन्दर या असुन्दर हो जाते है । स्वभाव से कुछ भी सुरूप या कुरूप नही होता । देखने वाले की रूचि ही उसका कारण है ।
संस्कृत में भी एक कवि द्वारा इसका समर्थन इस प्रकार किया गया है कि ' दही मीठा है , शहद मीठा है , अंगूर मीठा है और मिश्री तो मीठी है ही । जिसका मन जिससे जा लगता है उसके लिये वही मीठा हो जाता है ।
सूर की गोपियाँ भी अपने रूचि तर्क के आधार पर ही उद्धव के ब्रह्म ज्ञान का खण्डन कर देती है । वे कहती है जिसका मन जिसमें रम गया है ,उसे वही अच्छा लगता है सौन्दर्य तो मनमाने की बात है । ' अर्थात् सुन्दरता का निर्णय तो मन को इच्छानुसार ही होता है तभी तो विष कीड़ा अंगूर को छोड़कर विष को ही पसंद करता है ।
रूप सौन्दर्य को समझने के लिए भी दृष्टि चाहिए । वे आँखें भी कम नही , जो रूप पर रीझना जानती है और यह रूप सौन्दर्य की ग्राहक दृष्टि सरस हृदय तथा सुसंस्कृत मन से ही प्राप्त हो सकती है । सरस हृदय कालिदास भी इस मत से सहमत प्रतीत होते है तभी तो अभिज्ञान - शाकुन्तल नाटक में भानुमति द्वारा विदूषक के लिए कहलवाया गया है कि यह मूर्ख शकुन्तला के सौन्दर्य को भला क्या समझ सकता है , क्योंकि यहाँ तो इसकी आँखें ही बेकार है । अत्यन्त उच्च कोटि का सौन्दर्य उन आँखों को चौंथिया देता है जिनके पीछे पारखी मन नही , ये उनकी बारिकियों का अनुभव नहीं कर सकती । तभी तो संस्कृत के एक कवि ने लिखा है कि – ' वह सुन्दरी कैसी हे , यह तो पता ही नहीं चलता । हमें तो वहाँ केवल एक सरल आभा जगमगाती दिखती है इसका आधार नहीं । एक वेन्दाती विद्वान किसी वस्तु के प्रिय लगने का कारण सौन्दर्य को नहीं किन्तु दृष्टा के मोहमय स्नेह को मानते है । तभी तो ' अत्यंत सुन्दर युवती का रूप भी बालक को वैसा आकृष्ट नहीं करता जैसा युवक को । उसी प्रकार किसी अन्य व्यक्ति से प्रेम करने वाली स्त्री का रूप उस प्रेमी को सुन्दर नहीं लगता । जिसका हृदय उसकी बेवफाई के कारण घृणा से भर जाता है इसी प्रकार चंचल चित्त वाली बेवफा सुन्दरियों से खिन्न सर टोमस रिचर्डसन् कहते है कि ' हसीन नाजनियों की ओर अधिक ताक - झाक नहीं करनी चाहिए , क्योंकि गुलाब की सुन्दर घनी झाडियों में प्रायः साँप झुपा रहता है । इसलिये तुम बाहरी रूप रंग पर विश्वास न करना और होशियार रहना कि सुन्दर चेहरे के पीछे हृदय भी सुन्दर नही होता । इसी प्रकार प्रेम की प्यास से रहित युवक को तथा अन्य किसी कारण से खिन्न चित्त वाले युवकों को नारी का रूप सौन्दर्य प्रभावित नहीं कर सकता । महाकविभारवि गुणों का निवास वस्तु में न मानकर प्रेमी के हृदय में मानते है ।
प्रत्येक मानव की रूचि भेद से सौन्दर्य - भावना में भी अंतर पाया जाता है । तभी तो विभिन्न देशों तथा विभिन्न जातियों की सौन्दर्य भावना में भी भिन्नता दिखाई देती है । कहीं गौर वर्ण , नुकीली नाक और पतले होठ सौन्दर्य के प्रतीक समझे जाते है । तो कहीं पर काला रंग चपटी नांक और मोटे होठ । चीन में स्त्रियों के छोटे पैर ही सौन्दर्य के परिचायक समझे जाते है । इस सौन्दर्य भिन्नता का कारण उन जातियों तथा देशवासियों की रूचि ही है जिसका विकास उनकी अपने विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार धीरे - धीरे हुआ करता है । सम्भव है एक आदर्श काय सुन्दरी चीन या अफ्रीका के निवासियों की दृष्टि में सुन्दर प्रतीत न हो , क्योंकि यह तो महात्मा सूरदास के अनुसार मनमाने की बात ही तो है ।
सौन्दर्य एक ऐसा धर्म है जो दृष्टा के जातीय संस्कारों तथा वैयक्तिक रूचियों के भेद के कारण किसी वस्तु में प्रतिभासित होकर उसे सुन्दर और प्रिय बना देता है । रच्या भेद का यह आरोप अनजाने और स्वतः ही हो जाता है । भवभूति ने भी इसे अकारण ही माना है । किन्तु यह प्रतिबिम्ब दर्पण , मणि आदि निर्मल वस्तुओं पर ही पड़ता हैं लकड़ी या पत्थर पर नहीं । जिस प्रकार लाल फूल सब के लिए लाल है पर सबके लिये सुन्दर नही । कोई भी चित्र जो एक को सुन्दर लगता है , आवश्यक नहीं कि वह दूसरे को भी सुन्दर लगे । इसी प्रकार रूप सौन्दर्य भी सब को एक ही प्रकार का सुन्दर नहीं लगता । यदि सौन्दर्य केवल विषयगत होता और रूचि भेद का कोई महत्व नहीं होता तो जातीय संस्कार तथा वैयक्तिक रच्यानुसार सौन्दर्य - भेद नहीं पाया जाता । इसलिये सौन्दर्य का कोई ऐसा चित्रण सम्भव नहीं जो सभी व्यक्तियों को रूचि के अनुकूल हो और उन सभी के हृदय को समान रूपेण आकृष्ट कर सके ।
वास्तव में बाहृय जगत के साथ सम्पर्क होने पर हमारी जातीय संस्कार तथा वैयक्तिक रूचियों , अनजाने में ही अपनी मधुकरी वृत्ति ' से कण - कण एकत्रित कर अनेक वस्तुओं की आदर्श प्रतिमायें हमारे मानस में बना लेती है और तब जो बाह्य वस्तु हमारी उस मानस प्रतिमा से जितना अधिक सादृश्य रखती है बाह्य वस्तु हमें उतनी ही सुन्दर तथा प्रिय लगती है ।
एडमण्ड स्पेन्सर महोदय भी सौन्दर्य को , वस्तुओं के रूप से भिन्न मानते है । वे लिखते है कि वे लोग भी कितने अन्जान है जो कहते है कि सौन्दर्य
तो एक जगह गौर वर्ण और गुलावी आभा के उस सुन्दर मिश्रण के सिवाय कुछ नहीं , जो ग्रीष्म की कमनीय कांति के समान देखते - देखते अदृश्य हो जाता है । ( वे अन्जान लोग ) यह भी कहते है कि सौन्दर्य तो विशेष नाप - तौल वाले सुडोल अंगों का संतुलित विन्यास मात्र है । पर क्या श्वेत और गुलाबी रंगों में ऐसी आश्चर्यजनक शक्ति हो सकती है कि वे आँखों की राह धुलकर हृदय पर जादू कर दें और उसमें ऐसी हलचल मचा दें कि उनकी बैचेनी को मृत्यु के सिवाये कोई शांत ही न कर सके । क्या बाह्य अंगों का संतुलन प्रेमी के अंतःकरण में ऐसा प्रेम उत्पन्न कर सकता है जिससे प्रेमी की चेतना और विवके भी अंधे हो जाऐ । यदि यह सत्य है तो उद्यानों में खिलने वाले वे फूल जिनके रंग और भी अधिक उज्ज्वल है और जिनकी महक अत्यन्त मोहक है , वैसा प्रभाव क्यों नहीं उत्पन्न कर सकते ? और वे सुन्दर चित्र जिनमें हम कला की प्रकृति से कहीं बढ़ी चढ़ी देखते है , हम पर वैसा चमत्कार क्यों नहीं करते ? इसलिये मेरे इस कथन पर विश्वास करो कि सौन्दर्य इनसे कुछ भिन्न ही वस्तु है जो मानव मन पर विलक्षण प्रभाव डाल देता है । मैंने इसे खूब परख लिया है , और जान लिया है । यदि कोई अन्य भी यत्न करेगा तो वह इसी परिणाम पर पहुँचेगा कि सौन्दर्य इन वस्तुओं का बाह्य प्रकाशन मात्र नहीं जैसा कि वे अनजान समझते है ।
रीड के अनुसार ज्ञान शक्ति तथा इच्छा शक्ति जो हमारे मन में है , वे वस्तुतः ईश्वरीय शक्तियाँ है और तत्वतः एवं मूलतः सौन्दर्य है । जो वस्तुएँ सुन्दर कही जाती है , उनमें इन्हीं ईश्वरीय शक्तियों की अभिव्यक्ति है । जिस वस्तु में यह अभिव्यक्ति जितनी अधिक होती है , वह उतनी ही अधिक सुन्दर होती है । अतः रीड के अनुसार सौन्दर्य कोई वस्तुओं का गुण नहीं अपितु वह ईश्वरीय शक्ति है जो अंतःकरणगम्य है । लोत्से के अनुसार सौन्दर्य सुख का ही एक विकसित रूप है । सुख इन्द्रिय गोचर है तथा वह हमारी वैयक्तिक आत्मा को आनन्दित करता है जबकि सौन्दर्य अंतःकरण गम्य है और हमारी व्यापक आत्मा को मुदित करता है । विक्टर का डसिन के अनुसार भी भौतिक सौन्दर्य वास्तव में कुछ नहीं , वह तो किसी आभ्यान्तरिक सौन्दर्य की भौतिक अभिव्यक्ति मात्र है , और इसके मूल में मानसिक सौन्दर्य ही शुद्ध आत्यन्तिक सौन्दर्य है । सौन्दर्य से शुद्ध एवं निस्वार्य आनन्द की प्राप्ति होती है । काण्ट महोदय भी सौन्दर्य बोध को रूचि में मीमांसा के अंतर्गत ही मानते हैं तथा सौन्दर्यगत आनन्द को सार्वभौमिक स्वीकार करते है ।
वस्तुतः सौन्दर्य किसी वस्तु का धर्म नही है । उसकी प्राप्ति प्रमाता के अंतर्जगत में ही हो सकती है । पण्डितराज जगन्नाथ के — ' लोकोतराल्हादजनकामनगोचरता ' में भी यही सत्यनिहित है । उनके अनुसार रमणीयता अथवा सुन्दरता लोकोत्तर आल्हाद को उत्पन्न करती है और इसी आल्हाद के प्रत्यक्ष होने को सौन्दर्य कहते हैं । समझने की अपेक्षा सौन्दर्य आस्वादन की वस्तु अधिक है । सौन्दर्य का सम्मोहन मानव मात्र के मन को प्रभावित किए हुए है । दूसरों को कुरूप लगने वाला भी अपना बालक माता - पिता को सुन्दर प्रतीत होता है । अपनी जिस सूनी कुटिया के प्रति मानव - हृदय उदासीन सा रहता है , कुछ स्नेही सम्बंधियों के आ जाने पर मन की प्रसन्नता के कारण वही कुटिया अभिनव सौन्दर्य से खिल उठती है । किसी भी प्रकार से आत्मीयता का भाव उदित होते ही ऐन्द्रिक संवेदना से युक्त वस्तु ही हमें सुन्दर प्रतीत होने लगती है । सौन्दर्य का भाव उदित होने पर प्रियता का भाव भी उत्पन्न हो जाता है । सौन्दर्य और प्रियता का अन्योन्याकित सम्बन्ध है । जहाँ ऐन्द्रिक सम्वेदना अथवा रूप योजना प्रियता के अनुरूप होती है वहाँ यही प्रियता सौन्दर्य भावना की जननी बन जाती है । हम प्रिय को सुन्दर कहने लगते है ।
सौन्दर्य का मूल्य जीवन के लिये है सौन्दर्य के बिना जीवन का मूल्यस सम्पन्न नहीं हो सकता । कैरिट के शब्दों में सौनदर्य जीवन का लवण है । जिस प्रकार उत्तम भोजन भी लवण के बिना नीरस और निस्वाद हो जाता है , उसी प्रकार जीवन भी हृदयगत सौन्दर्य तथा आनन्दानुभूति के अभाव में नीरस एवं बोझिल हो जाता है । आधुनिक सौन्दर्यशास्त्रियों के मतानुसार सौन्दर्य की कल्पना में वस्तुगत रूपों और गुणों का कोई महत्व नहीं है । आन्तरिक सौन्दर्य की बाह्य अभिव्यक्ति भी उनकी दृष्टि मे गौण है । डॉ . हरिद्वारीलाल शर्मा ने भी अनुभूति के आनन्द को सौन्दर्य का स्वरूप माना है । सांस्कृतिक जीवन में भी आंतरिक सौन्दर्य की अभिव्यक्ति निरंतर होती रहती है । इसी आत्मगत आनन्द से उत्पन्न सौन्दर्यानुभूति के कारण मानव जीवन , उत्साह और उल्लास के सुमन सौरंभ से सुरभित होता रहता है ।
प्रायोगिक सौन्दर्यशास्त्र के अनुसार भी सौन्दर्य की परख मानव की रूचि परिवेश पर ही निर्भर करती है । विभिन्न वातावरण , संगति और अभ्यास और संस्कारों में पले हुए व्यक्तियों की रूचियाँ भी भिन्न हो जाया करती है । अतः सौन्दर्य निर्णय भी रूच्यानुसार व्यक्ति सापेक्ष ही होता है । सौन्दर्य के प्रति यह व्यक्ति सापेक्षता मानव में ही नहीं अपितु मानवेतर प्राणियों में भी देखी जा सकती है । यदि ऐसा न होता तो क्यों उन्मत सलमि दीपक की ज्योति पर आकृष्ट हो अपनी प्राणाहुति देता ? क्यों प्रेमी चातक रजत सी शुभ्र चन्द्र ज्योत्स्ना की ओर उन्मुख रहता है ? अन्धकार प्रिय उलूक को रवि - रश्मि क्यों नहीं आकृष्ट कर पाती ? क्यों चकोर श्रृंगार श्रवण करता है ? इन विविध प्रश्नों का उत्तर एक ही है - रूचि वैभिन्य । यदि रूचि का कुछ महत्व न होता तो यह उपर्युक्त भेद भी न होता । कविवर प्रसाद भी इसी मत के समर्थक है- उनके अनुसार रूचिभिन्नता के कारण ही विश्व की अनेक मधुर वस्तुओं को छोड़कर चकोर अंगारों का भक्षण करता है । संतकवि तुलसीदास भी सौन्दर्य वैभिन्य का कारण हृदय की भावना को ही मानते हैं ।
साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में भी काव्य को आंतरिक पद ध्वनि या रस को ही प्राण तत्व माना गया है । साहित्य शास्त्र की यह धारणा भी विषयिगत ही कही जा सकती है । रस की इस अनूठी आभा से सम्पन्न होने के कारण काव्य को- ' कान्तासम्मित ' एवं उससे प्राप्त आनन्द को ' ब्रह्मानन्द सहोदर ' की संज्ञा दी गई है । प्रत्येक व्यक्ति को काव्य - सौन्दर्य आकृष्ट नहीं कर सकात । सहृदय रसिक ही काव्य के वास्तविक रस का रसास्वादन कर सकता है और तब उस रसानुभूति द्वारा वह उस परमानन्द को प्राप्त करता है । जो ब्रह्मानन्द से किन्हीं भी अर्थों में कम नहीं कहा जा सकता । वस्तुतः हमारे हृदय का आनन्दांश ही सौन्दर्य है , जो किसी वस्तु के साक्षात् दर्शन तथा स्मरण द्वारा हमें तन्मय कर देता है और उस वस्तु पर दृष्टि पड़कर उसे सुन्दर तथा प्रिय बना देता है । कुमार सम्भव में पार्वती की उक्ति में इस भार्वेक रस सौन्दर्य के दर्शन होते है । ब्रह्मचारी द्वारा शिव की निंदा किये जाने पर वे कहती है कि ' विवाद से क्या लाभ ? आपने उन्हें जैसा सुना है , वैसे ही सही , पर मेरा मन तो उन्ही में रम गया है । जब मन किसी पर आ जाता है तो आ ही जाता है , वह किसी के कहने सुनने की अपेक्षा थोड़े ही रखता है ।
उभयगत सौन्दर्य को न तो पूर्णतः विषयंगत ही कहा जा सकता है ओर न विषयीगत ही । यदि सौन्दर्य विषयगत होता तो सुन्दर वस्तुएं सभी को सुन्दर प्रतीत होना चाहिए । उनको देखकर सबको एक समान ही आनन्दानुभूति होना चाहिए और यदि सौन्दर्य को केवल विषयीगत अर्थात् देखने वाले के हृदय की सृष्टि मान लिया जाये तो उस हृदय को सभी रूप रंग अच्छे लगना चाहिए तथा सभी को देखकर आनन्द प्राप्त होना चाहिए । परन्तु ऐसा होता नहीं है । वस्तुतः सौन्दर्य उभयगत है । वह वस्तुओं के रूप वर्णादि मे ऐसी शक्ति है , जो मानव हृदय को अनुपम रूपेण सौन्दर्याभिभूत कर देती है , तो दूसरी ओर मानव हृदय में भी ऐसी संवेदना है जिसके स्पर्श से वस्तु सौन्दर्यमान प्रतीत होने लगती है । कविवर प्रसाद कामायनी में श्रद्धा सौन्दर्य वर्णन में उसके सुकुमार शरीर की लावण्यपर , मन के शुभ्र भावना को प्रतिबिम्बित कर उसके सौन्दर्य को काव्य - जगत की अनूठी कृति बना दिया है।
रूप सौन्दर्य को समझने के लिए भी दृष्टि चाहिये । वे आँखें भी कम नहीं , जो रूप पर रीझना जानती है । रूप सौन्दर्य में तो रिझाने का गुण है ही , साथ ही सहृदय की वे आँखें भी कम नहीं , जो उस रूप पर रीझना जानती हैं । अतः सौन्दर्य को उभयगत स्वीकार कर लेना अनुचित न होगा।

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