हरिवंश राय बच्चन की कविता पढ़ते-पढ़ते एक कहानी याद आई ; वही बचपन वाली "खरगोश और कछुआ" की कहानी | मुझे इन से बेहतर कोई नायक नहीं मिला | ज़िंदगी की दौड़ किसी खरगोश और कछुआ की रेस से कम थोड़े ही है, बहुत कुछ समझा जाती है यह रेस | मेरे लिए शायद यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मैंने अपनी पूरी लाइफ में सबसे पहले इसी कहानी से सीखा है जैसे जिंदगी की प्रथम पाठशाला स्कूल होता है ठीक वैसे ही मेरी लाइफ की पहली नैतिक शिक्षा वाली कहानी यही है | इस बार कहानी में थोड़ा परिवर्तन करते हैं और खरगोश और कछुआ को नायक और नायिका बनाते हैं | आप सभी के दिल दिमाग में यह सवाल होगा कि इन दोनों में नायक कौन है और नायिका कौन है? लेकिन एक लेखिका होने के नाते यह बतलाना अभी सही नहीं होगा ।
सो हुआ यूं कि अभी के वक्त में खरगोश और कछुआ दोनों प्रेमी हुए। दोनों के शौक अलग - अलग होते हुए भी एक ही थी। किताबों से लेकर संगीत तक का शौक, कविताओं से लेकर ग़ज़लों तक का शौक लेकिन हर बार की तरह इस दौड़ में भाग तो लेना ही था । दौड़ते- दौड़ते कभी कछुआ खरगोश को कहानी सुनाता और कभी खरगोश कछुआ को । कहानी सुनने - सुनाने में कभी दौड़ आसान सा हो जाता और कभी सुकून सा । लेकिन एक और अजीब बात थी - कछुआ को सारी कहानीयां मुंह जबानी याद होती पर वो कभी सोता नहीं था और वहीं खरगोश कहानी सुनकर मीठे सपनों में खो जाता था और सुकून से सो भी जाता था । कछुए को खरगोश की आवाज बहुत पसंद थी और खरगोश को कछुए से प्रेम था। एक शाम बड़ी सुहानी सी थी, चांदनी रात थी, शीतल हवा चल रही थी, खरगोश ने कछुए से कहा - सुनो ! तुम, तुम ही रहो मैं, मैं ही रहूंगी । नहीं बंधना मुझे 'हम' वाले बंधन में । उड़ना चाहती हूं मैं इश्क के उन्मुक्त आकाश में, जहाँ इश्क का कोई दायरा ना हो । कछुए ने भी खरगोश के सामने एक शर्त रखी कि मुझे कभी कोई बंधन नहीं चाहिए मुझे मैं ही रहने देना, मुझे आजाद रहना है बांधने की कोशिश करोगी तो खो दोगी ।
कुछ एहसास को शब्दों की जरूरत कभी नहीं होती। दोनों आँखों की भाषा जानते थे। दोनों ने बिना बोले "एक दूसरे से कहा-
ज़माना इश्क़ नहीं जानता
वह कौम पहचानता है
और जो कौम नहीं जानता
जिम्मेदारी समझता है। "
आसमान से गुलामी के बादल छठ चुके थे , दोनों स्वतंत्र थे पर एक दूजे के थे। खरगोश हमेशा कछुए को 'अमृता प्रीतम' की कहानियां एवं कविताएं सुनाता बदले में कछुआ उसे जीवन के वास्तविकताओं की बातें बतलाता । एक तरफ से प्रेम में डूब जाने वाली बातें थी और दूसरी ही तरफ सच मगर भयानक कहानियां । अजीब सा मिलाप था उनका। खरगोश सब जानता था पर कछुआ के सामने मानना नहीं चाहता था । सभी दुनियादारी कड़वी सच्चाईयों से परे खरगोश की बस एक ही उम्मीद थी - महसूस करना चाहती थी- जुनून ए इश्क अपने 'स्व' के साथ खुद 'अमृता' बनकर, कभी 'साहिर' कभी 'इमरोज' बनाकर । इसी तरह हुआ यूं की दौड़ कछुआ जीत गया खैर होना भी यही चाहिए था क्योंकि दौड़ तो कछुए ही जीतते आए हैं । वैज्ञानिक तौर पर सही भी है क्योंकि कछुआ का जीवनकाल ज़्यादा होता है खरगोश से कई गुना ज़्यादा।
अगर कोई मुझसे पूछे तो मैं खरगोश को नायिका कहूंगी और यह कहानी कछुए के लिए समर्पित होना चाहिए जो हर रोज जीत जाता है। खरगोश और कछुए को यह बात समझ आ चुकी थी कि दोनों नदी के दो किनारे हैं और आज रफ्तार का कोई भी अस्तित्व नहीं था । किताब के पन्ने कब पलट गए पता ही नहीं चला। जिस पन्ने पर नज़र पड़ी उसमें "आवारा सज़्दे " की कुछ पंक्तियाँ लिखी थी-
"रास्ते घूम के सब जाते हैं मंजिल की तरफ,
हम किसी रुख से चलें साथ ही चलना होगा"
आस्था