विद्युत ठगा हुआ सा उसे अपलक निहारे जा रहा था। वह उसे जितनी ही मासूमियत और प्यार से देख रहा था वह उसे उतनी ही नाराज़गी से देख रही थी , जैसे विद्युत् ने कोई जुर्म कर दिया हो।
आखिरकार उसने अपने कोमल सुर्ख होंठ खोले- " तुम पुनः इस वन में प्रवेश कर गए.. " वह नज़दीक आती हुयी नाराज़गी से बोली।
उसने क्या बोला? किससे बोला? अरे मारो गोली! विद्युत् को तो उसकी तीखी ,तेज नाराजगी भरी आवाज़ भी मिठाई का स्वाद दे रही थी। ऊपर से उसके नज़दीक आने पर आ रही चंदन की लुभावनी खुशबू मिठाई के ऊपर लगी चांदी की परत जैसी थी।
" उत्तर दो!! " उसने लगभग आदेश दिया।
" हं.. म..मैं..सॉरी.. " उसे होश आया।
" हाँ तुम! तुमसे ही प्रश्न किया हमने.. तुम पुनः.. यहाँ.. क्यूँ? " उसने पूरे अधिकार से पूँछा।
" व..व्वो..मैं..
वह विद्युत के कुछ कहने से पहले ही एक बार फिर अचानक पीछे की ओर घबरायी हुई सी पलटी ही थी.. कि उफ्फ! इस बार उस 'बिजली' ने विद्युत पर असली बिजली गिरा ही दी.. उसके खुले बार उसके इस तरह पलटने से विद्युत के चेहरे से होकर गुजरे और वह जड़ हो गया।
" अभी.. इसी छण यहाँ से जाओ! " वह इधर उधर नज़र फेरती हुयी चिंता से बोली।
" लेकिन क्यूँ?? "
उसने विद्युत की ओर आंखें तरेरी।
" अच्छा.. अच्छा.. ठीक है.." विद्युत ने अपने हाँथ ऐसे आगे किये जैसे वह कभी भी उसे मार देगी- " लेकिन मुझे रास्ता नहीं याद है.." वह साफ झूँठ बोल गया भला उसे कब से रास्ते भूलने लगे थे।
" तो इस मार्ग में आने की आवश्यकता क्या थी। " वह एक एक शब्द चबाते हुए बोली।
" तुम.. " वह बहकते हुए बोला फिर संभला-"..म्म.. मेरा मतलब तुम्हे..तुम्हे तो पता होगा न.. यहां का रास्ता! " विद्युत ने तुरंत अपने जज़्बात काबू में किये।
" हम्म! " वह गुर्राते हुए बोली।उसने एक नज़र विद्युत पर तो दूसरी इधर उधर फेरी- " ..हमारा अनुसरण करो... मात्र अनुसरण.. " वह चेतावनी भरे अंदाज़ में उंगली दिखाते हुए बोली और आगे बढ़ गयी। विद्युत ने उसके कदम बढ़ाते हुए एक मधुर ध्वनि सुनी.. वह उसके पायल का स्वर था जो पिछली बार भी उसने सुना था लेकिन तब वह अचेत था। अब तक तो वह समझ गया था कि जिस लड़की ने उसकी मदद की थी, वह उसके सामने ही थी पर समझ के परे! उसकी भाषा, कपड़े और खासकर इस तरह अकेले इस सून सान जंगल में मौजूद होना वो भी एक लड़की होकर उसके असामान्य होने की चुगली कर रहे थे। पर विद्युत इस वक्त किसी और ही सोच में मशरूफ था। उसे तो कुछ समय ' अनुसरण ' का मतलब समझने में ही लगा फिर वह उसके पीछे पीछे चल पड़ा।
वह चलते चलते एक नज़र अपने पीछे चल रहे विद्युत पर डालती फिर आगे बढ़ जाती और आख़िरकार उसने विद्युत को उस जुगनुओं से भरी जगह पर वापस पहुँचा ही दिया।
" उचित?? " वह विद्युत की ओर पलटी- " अब तुम प्रस्थान कर सकते हो! "
" और तुम!!? "
" हम यहीं उचित हैं। "
" इस जंगल में! वो भी अकेले.. तुम्हे ऐसे कैसे यहां छोड़ सकता हूँ.. अभी तुमने देखा नहीं? वहां पीछे क्या था? वो जो भी था.. समथिंग भूत टाइप बिल्कुल मेरे सा..म..ने... एक मिनट.. " बोलते-बोलते वह ठिठका जब उसे याद आया की आंखें बंद करने से पहले उसने क्या भयावह दृश्य देखा था और आँखें खोलने के बाद तो उसने कुछ और ही देखा।
वह विद्युत से नज़र चुराने लगी।
" कौन हो तुम?? " विद्युत ने आंखें सिकोड़ते हुए पूँछा।
" क्या तात्पर्य हम कौन है?? हम.. हम हैं! "
" तो मैंने कब कहा कि आप यम हैं। देखिए मोहतरमा! वहाँ अभी जो कुछ भी हुआ मैंने देखा नहीं.. लेकिन वो किसी चुड़ैल या आत्मा टाइप थी जो तुम्हारे आने से गायब हो गया.. तो.. कहीं तुम भी.. " विद्युत ने अर्थपूर्ण लहज़े में बात छोड़ी और उसे शक की निगाहों से देखा।
" हे ईश्वर! कैसी अनुचित बातें कर रहे हो.. हम तुम्हे किस दृष्टिकोण से प्रेत प्रतीत हो रहे हैं? " वह पुनः अपने रौब में आई।
" क्यूँ नहीं.. मैंने पढ़ा था कि भूत अपना रूप चेंज कर सकते हैं। और वैसे भी तुम इतनी रात को इस जंगल में क्या कर रही हो?? कौन सी खूबसूरत लड़की ऐसे जंगल में घूमती है? " वह एक बार फिर उसकी बड़ी बड़ी आँखों में डूबता हुआ बोला।
" तुम अपनी सीमा लाँघ रहे हो... कदाचित तुम्हे भान नहीं कि हम कौन हैं?? " उसने लगभग खा जाने वाली नज़रों से उसे घूरा।
" हाँ तो बताओ! कौन हो तुम?? और क्यों नहीं चलोगी यहां से बाहर?? "
" क्योंकि हम इस वन में रहने के लिए बाध्य हैं.. " उसकी आवाज़ में दर्द साफ दिख रहा था।
" मतलब!!? "
वह चुप ही रही।
" तुम सच में भ..भू..त.. हो?? " विद्युत के चेहरे पर एक पल के लिए डर और अफसोस के भाव एक साथ प्रकट हुए ही थे कि..
" हम 'कुमारी प्रियम विधा' हैं... प्रियम गढ़ की राजकुमारी.. " वह अचानक बोल पड़ी।
" क्या?? " विद्युत तो जैसे 20 फ़ीट गहरे गढ्डे में गिर गया।
" हाँ! हम प्रियंगढ़ की राजकुमारी हैं। "
"हैं!! क्या क्या?? देखो मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा प्लीज अगर ये कोई मज़ाक है तो इसे बंद कर दो!!" विद्युत बिल्कुल उलझा हुआ था।" सच बताओ कौन हो?? और उस दिन भी तुम ही थी न? जिसने मुझे बचाया था?? "
" हाँ वो हम ही थे! और यह अट्ठास का विषय नहीं है.. हम सत्य कह रहे हैं अपितु यह प्रश्न हमें तुमसे करना चाहिए की तुम कौन हो?? "
" क्या मतलब?? "
" अर्थात हम तुम्हारी दृष्टि में प्रकट हैं! यह कोई सामान्य विषय नहीं हैं!!यहाँ तक कि तुम्हारा हमें और हमारा तुम्हे स्पर्श कर पाना भी संभव है! कैसे??... अन्यथा हमारी अनुमति के बिना कोई हमारे होने का आभास भी कर सके.. यह संभव नहीं है।"
" देखो मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा! सब साफ साफ बोलो!"
" बैठो!! हम सब स्पष्ट करते हैं.. " वह उसे वहीं के एक पत्थर पर बैठने का इशारा करती हुई बोली। विद्युत समय की नज़ाकत को समझते हुए बिना किसी न-नुकुर के बैठ गया। बचपन से ही वह किसी भी असंभव घटना के होने पर यकीन रखता था। उसका मानना था कि इस दुनिया में वो सब भी घटित होता है जिसका औरों को भान भी नहीं, शायद इसीलिए जुगनुओं का उसके प्रति असामान्य व्यवहार भी उसे कभी खटकता न था। वह हमेशा जुगनुओं को अपनी जिंदगी का एक हिस्सा ही समझता था।
उसके सामने बैठ गयी ' प्रियमविधा '। उसके बैठते ही जुगनुओं ने उसे कुछ इस प्रकार घेरा जैसे उसी का इंतज़ार कर रहे हों। विद्युत ने पहली बार अपने अलावा किसी और को जुगनुओं के इतने करीब देखा था । वे जुगनू प्रियमविधा के पास उतने ही अपनेपन से मंडरा रहे थे जितने अपनेपन से वे उसके जार में घुस उसके साथ चल देते हैं।
"आज से चार सौ वर्ष पूर्व.. हम एक राज परिवार में जन्मे थे... हमारी भी एक अलग दुनिया- बस्ती थी.. जिसमें प्रकाश ही प्रकाश था... परंतु हमारे पैदा होने के साथ ही हमारी बाँह पर एक मंत्र गुदा हुआ था," उसने अपना हाँथ दिखाते हुए कहा। विद्युत ने पाया वह मंत्र ठीक उसी स्थान पर था जहां अक्सर महिलाएं बाजूबंद पहनती हैं पर उसे कुछ साफ नहीं दिखाई दिया वह मंत्र..
" विद्युत विधा संभवे! " वह अचानक बोल पड़ी।
" यही मंत्र लिखित है।हमारे कुल पुरोहित ने बताया की ईश्वर ने हमें एक विचित्र शक्ति प्रदान की थी... जादुई शक्ति... अर्थात इस मंत्र का उच्चारण कर, हम कभी भी किसी भी प्रकार का जादू कर सकते थे... इसी कारण हमें विचित्र प्रकार के शौक और शक्तियां प्राप्त थीं... जैसे अन्य पशुओं से लगाव, वृक्षों से लगाव... हम उनकी भाषाओं का आंकलन भी कर पाने में संभव थे... विशेषतः जुगनुओं से हमें बहुत लगाव था, हमारे दिन की शुरुआत से लेकर रात के पहर तक ये हमारे इर्द गिर्द मंडराते। " उसने हवा में मंडराते जुगनुओं के बीच अपना हाँथ लहराया और अब तक में जाकर वह पहली बार मुस्कुराई। विद्युत ने उसके गुलाबी गालों पर मुस्कुराते वक़्त पड़ने वाले गढ्ढे देखे जो अगले ही पल गायब भी हो गए।
" यहां तक की किसी की मृत्यु भी हमारे हांथों में थी। परंतु इसके संग भी एक रहस्य जुड़ा हुआ था! "
" रहस्य?.. कैसा रहस्य!!? "
" यही कि यदि हमने उस मंत्र का प्रयोग स्वयं की रक्षा के लिए किया तो मनुष्य जीवन से वंचित होकर हम सदैव के लिए इस वन में कैद हो जाएंगे। अतः हमने कभी भी इस मंत्र का प्रयोग अपनी रक्षा या अपने स्वार्थ के लिए नहीं किया था। "
" तो फिर तुम यहाँ क्यों कैद हो?? " विद्युत को बाध्य होने वाली बात याद आयी।
" हमारे पड़ोसी राज्य का राजकुमार महेंद्र हमें पसंद करता था.. उसने विवाह का प्रस्ताव भी भिजवाया था... परंतु हमें वह बिल्कुल भी नहीं पसंद था, कारण था उसकी क्रूरता । वह निर्दयी प्रवृत्ति का था इसी लिए हमने उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया। वह अपना अपमान सहन नहीं कर पाया और हमसे प्रतिशोध लेने की सोची। एक दिन जब हम यूँही बैठे थे, वन से हमें एक ध्वनि सुनाई दी । हम उस ओर बढ़े पर कुछ दूर जाकर हमें ज्ञात हुआ की वह एक छलावा था हमें भटकाने का.. वह महेंद्र की चाल थी। उसने हमसे जबरदस्ती करने की कोशिश की थी.. " उसकी आँखों से न चाहते हुए भी एक आँसू गालों पर लुढ़क आया।
विद्युत का मन किसी ज्वालामुखी की भांति धधक उठा, वह सुन तो केवल प्रियमविधा के भूत काल की कहानी रहा था पर उसका हर एक शब्द उसे महसूस हो रहा था और जबरदस्ती वाली बात सुन कर ही उसने अपनी मुठ्ठियाँ कुछ इस प्रकार बाँधी की वह उस समय में पहुंच कर ही उस 'महेंद्र' का कचूमर बना दे।
" हमने हर संभव प्रयास किया.. परंतु हम उसके सामने कमजोर थे क्योंकि वह पूर्ण तैयारी से आया था और हम तो अपना खंजर तक अपने साथ नहीं लेकर आये थे.. "
" तो तुम्हारा जादू किस काम का!!?" विद्युत ने खुद के गुस्से पर काबू पाते हुए उससे नरमी से पूँछा।
" हमने कहा न! हम किसी भी प्रकार से अपने स्वार्थ के लिए अपना मंत्र प्रयोग नहीं कर सकते थे यहां तक की अपने बचाव के लिए भी.. इसी बात का वह फायदा उठा रहा था.. परंतु हमारे पास कोई विकल्प ही न बचा और.. अंततः हमने उस मंत्र का उच्चारण कर ही लिया..
" फिर?? "
"वह तुरंत मृत्यु को प्राप्त हो गया और हम.. कैद हो गए.. इस वीरान जंगल में.. हमेशा के लिए। तीन सौ अठहत्तर वर्षों से कैद है हम यहाँ, संसार की नज़रों में केवल एक जुगनू बन कर.. "
" लेकिन मैं तो तुम्हे देख सकता हूँ... " वह अपनी जगह पर खड़े होते हुए बोला।
" इसी बात से तो हम भी अनिभिज्ञ है.. भला तुम हमें देख व स्पर्श कर पाने में संभव कै...न..नहीं.. "कहते हुए वह उसकी ओर लपकी और खींचकर अपने साथ उसी पत्थर की ओट में बैठ गयी। विद्युत कुछ समझ व बोल पाता की उसने अपनी मखमली गुलाबी हथेलियों से उसका मुंह दबाते हुए आंखें तरेरी और अपना सिर हिलाया इस इशारे से कि इस समय कुछ मत कहना।
विद्युत उसकी इस हरकत के बाद तो चाहकर भी कुछ कह पाने की हालत में नहीं था। फिलहाल उसके मस्तिष्क में केवल एक संगीत उधम मचाये था..
लग गए चार सौ चालीस वोल्ट, छूने से तेरे...
उसने अपना हाँथ उठाया और अपना सिर ठोंका.. शुक्र है!! उसके दिमाग का रेडियो बन्द हो गया। विद्युत के रेडियो से अनजान प्रियमविधा ने पत्थर की ओट से ही पी्छे झांका और राहत की सांस लेते हुए खड़ी हुई.. विद्युत भी खड़ा हो गया।
" अब क्या हुआ?? "
" तुम इसी छण यहाँ से जाओ!! "
" लेकि..
" जाओ..¶..¶.. " वह क्रोध से कांपते हुए बोली।
विद्युत ने अपना जार उठाया और बाहर की ओर जाने लगा। उसमे उस समय दोबारा प्रियमविधा से कुछ पूंछने की हिम्मत ही नहीं थी...
आगे जानने के लिए अगले भाग का इंतज़ार करें...