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जिंदगी - 1

जीवन की परिभाषा प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि में भिन्न होती है। आज के परिवेश में हम दौड़भाग में इतने व्यस्त हैं की स्वयं के लिए समय ही नहीं है। अर्थात हम स्वयं से कभी ये भी नहीं पूछ पाते की हम कहाँ जा रहे हैं? क्यों जा रहे हैं? कहाँ तक हमें ऐसे ही चले जाना है? हमने पाना क्या है? क्यूंकि

“मृत्यु एक अटल सत्य है, जो हम सब का अंतिम पड़ाव है”।

और वहां पर जा कर मृत व्यक्ति के लिए ये यात्रा, ये दौड़भाग, ये मौज मस्ती सब रुक जाता है, समय भी। मैं जीवन को समझने के लिए कुछ विचारों का सहारा लूंगा।

कुछ कहते है की जीवन में सफल हो गए तो आप जीवन जी गए । लेकिन सफल होने का तात्पर्य क्या है? क्या बड़ा घर होना? बहुत सारा पैसा होना? या अपने किसी बड़ी इच्छा को पा लेना?

अगर जीवन में यही सब सफल होना है तो ये तो कुछ ही व्यक्ति हो पाएंगे?

क्या बड़ा घर पा कर, बहुत सारा पैसा पाकर या किसी बड़ी इच्छा को पूरा कर के हम सुकून में जी सकते हैं? क्या हमें शांति मिल सकती है? क्या हमारी और अधिक पाने की इच्छा समाप्त हो सकती है? शायद नहीं।

अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन को इस तरह से जीता है की वह खुद को

१. ईमानदार बनाये,

२. समयनिष्ठ बनाये,

३. मेहनती बनाये ,

४. कर्त्तव्य निष्ठ बनाये ,

५. निडर बनाये,

तो प्रत्येक व्यक्ति सफल हो सकता है और समाज के लिए आदर्श स्थापित कर सकता है। मुझे लगता है की न्यूनतम ये ५ बिंदु को पा लेना ही जीवन की सार्थकता है।
जिंदगी का सही मतलब है मै को पहचानना कि मै कोन हूँ, क्या हूँ और क्यों हूँ । जब हम अपने आप को पहचान लेंगे तो ही हमारा ध्यान अपने आप से हटकर समाज की भलाई में लगेगा । अन्यथा हम अपनी ही समस्याओं में उलझे रहेंगे ना तो जिंदगी का आनन्द ले पाएँगे ना ही समाज को कुछ दे पाएँगे।
जिंदगी की सायरी।

“ज़िन्दगी का फलसफा भी कितना अजीब है,

शामें कटती नहीं, और साल गुज़रते चले जा रहे है… ”

***

ज़रूरी तो नहीं के शायरी वो ही करे जो इश्क में हो,

ज़िन्दगी भी कुछ ज़ख्म बेमिसाल दिया करती है।

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अकेले ही गुज़रती है ज़िन्दगी…

लोग तसल्लियां तो देते हैं , पर साथ नहीं…!!

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जीवन की सुबह में कभी सांझ न हो

जो मिल न सके रब से वो मांग न हो

खूब चमकें सितारे खुशियों के

ज़िन्दगी कभी अमावस का चाँद न हो

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सही वक़्त पर पिए गए “कड़वे घूंट”

अक़्सर ज़िन्दगी “मीठी” कर दिया करते है”

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रास्ता तू ही और मंज़िल तू ही, चाहे जितने भी चलूँ मैं कदम,

… … तुझसे ही तो मुस्कुराहटें मेरी, तुझ बिन ज़िन्दगी भी है सूनी..!!

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तकदीरें बदल जाती हैं, जब ज़िन्दगी का कोई मकसद हो;

वर्ना ज़िन्दगी कट ही जाती है ‘तकदीर’ को इल्ज़ाम देते देते….
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ये ज़िन्दगी जो मुझे कर्ज़दार करती रही,
कभी अकेले में मिले तो हिसाब करूँ
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धीरे धीरे उम्र कट जाती है, जीवन यादों की पुस्तक बन जाती है, कभी किसी की याद बहुत तड़पाती है और कभी यादों के सहारे ज़िन्दगी कट जाती है..
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दो रोज़ तुम मेरे पास रहो.. दो रोज़ मैं तुम्हारे पास रहुं.. चार दिन की ज़िन्दगी है.. ना तुम उदास रहो.. ना मैं उदास रहुं….
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“दहशत” सी होने लगी है इस सफ़र से अब तो…

Mr. Jay Khavda

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