टूट गई अंधविश्वास की छड़ी... Smita द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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टूट गई अंधविश्वास की छड़ी...


उसका क्या नाम था, कोई नहीं जानता। उसकी बेटी का नाम निर्मला था, यह बात पूरे गांव को पता थी। तभी तो पूरा फर्दपुर उसे निर्मलिया माय कहकर पुकारता था। बिहार के गांवों में नाम के साथ या, , बा लगाकर तथा किसी स्त्री को उसके बेटा या बेटी के नाम के साथ जोड़कर पुकारने का रिवाज आज भी है। निर्मलिया माय के पिता और ससुर तो मरे हुए पशुओं की खाल उतारने का काम करते थे, लेकिन उसका पति पुश्तैनी काम छोड़कर दूसरों के खेतों पर मजदूरी करता था। आज एकाएक गांव के ज्यादातर लोग निर्मलिया माय के घर की तरफ एक-एककर बढ़े जा रहे हैं। यह जानकर कुछ दिनों के लिए नानी के गांव आई निम्मो को थोड़ी शंका हुई कि गांव के बाभन(भूमिहार) टोला, यादव टोला और मंडल टोला के लोग मोची टोला की निर्मलिया माय के घर की तरफ क्यों जा रहे हैं? क्या आज फिर गांव के किसी बच्चे की तबियत खराब हुई है और लोग इसका इल्जाम निर्मलिया माय के सिर मढ़ने जा रहे हैं। बेचारी को आज फिर गालियों की सौगात मिलेगी! निम्मो बुदबुदायी। निम्मो को वह वक्त याद आया जब आज से लगभग एक साल पहले ही निर्मलिया माय के बेटे रामखेलावन ने उसके अपने घर से बाहर आने-जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। गाहे-बगाहे लोग उसे डायन बता देते। निर्मलिया माय का बेटा काम-काज में तो महाआलसी था, लेकिन पिछले कुछ सालों से वह गांव में कबीर पंथी के रूप में जाना जाने लगा। बिहार के कुछ गांवों में मोची, मुसहर आदि जैसी जाति के कुछ लोग अपने समाज के बीच सम्मानित होने के लिए संत कबीर के अनुयायी हो जाते हैं और मांस-मदिरा का सेवन करना छोड़ देते हैं। वे अपनी जाति के लोगों को ईश्वर भक्ति की बातें बताने लग जाते हैं और खाने में प्याज-लहसुन का भी त्याग कर देते हैं। यहां तक कि वे मरे हुए पशुओं को उठाने या उनकी खाल उतारने का काम भी छोड़ देते हैं। रामखेलावन को उसकी जाति-बिरादरी के लोगों ने ही एक दिन यह सूचना दी थी- ‘भगत जी, निर्मलिया माय को अब घर से बाहर निकलने नहीं दीजियेगा। एक तो वह बाभन टोला जाकर कुछ उट्ठा काम करने के बदले में उनका जूठन खा लेती है, वहीं दूसरी ओर, कारू पासवान के घर के पास से जब भी गुजरती है, तो उसके एकलौते पोते की तबियत बिगड़

जाती है। सभी तुम्हारी माँ को ही दोष देते हैं। कहीं वह डायन विद्या तो नहीं सीख रही?’ इतना सुनते ही रामखेलावन का माथा ठनका। उसने तुरंत मन ही मन हिसाब लगाया-माय इसी तरह गांव में बदनाम होती रही, तो सब लोग मेरी भगतई को भी मानना बंद कर देंगे। मां ने उसके पालन-पोषण में कितना कष्ट उठाया-यह सब उसे तनिक भी याद नहीं रहा। उसने तुरंत माय को घुड़की दे दी- ‘कल से तुम अपने दुआर पर चुपचाप बैठी रहना, बाहर कहीं नहीं जाना। टोला के लोग कहते हैं कि करुआ के बेटे को तुमने नजर लगा दी है। यहां तक कि वे तुम्हें डायन भी कहने लगे हैं। तुम यदि गांव में घूमती रहोगी तो मेरी भगतई का क्या होगा?’ बेटे के मुंह से अपने लिए ऐसी बातें सुनकर सन्न रह गई निर्मलिया माय। उसने मुंह से कहा तो कुछ नहीं, लेकिन उसे यह ऐहसास जरूर हुआ कि उसके मन की स्थिति सावन-भादो के महीने में गंगा जी में आने वाली बाढ़ जैसी हो गई है। बाढ़ तो सचमुच गई है, लेकिन वह आई है पुरानी यादों की। अपने द्वारा किए गए अनथक संघर्षों के याद की पोटली उसके सामने एक-एककर खुलती चली गई। कितनी मुश्किल से पाला था उसने बेटे को। वह दो साल का भी नहीं होगा कि उसका बाप किसी काम से शहर जाने के दौरान ट्रक के नीचे गया था। उसका पूरा शरीर लोथड़े में तब्दील हो गया था। जब पहली बार छह साल की निर्मलिया और दो साल के रामखेलावन को साथ लेकर निर्मलिया माय बाभन लोगों के खेत पर काम करने पहुंची थी, तो खेत पर खड़े मालिक लोग बोले-‘तुम दो बच्चों को साथ लेकर गेहूं के फसल की कटाई किस तरह कर पाओगी? हर एक घंटे पर तो तुम बेटे को दूध पिलाती हो। इतना कह कर सभी जोर-से हंस पड़े थे और उसने शर्म से अपने घूंघट को आगे की तरफ और अधिक खींच लिया था। वह खेतों पर काम करती रहती और निर्मलिया अपने भाई को गोद में लेकर एक कोने में बैठी रहती। सुबह ही खेत पर साथ ले जाने वाले कलेऊ के लिए चार मोटी रोटियां वह पका लेती और दोपहर में पकी मिर्च, नमक, तेल के साथ रोटी को मां-बेटी बड़े चाव से खा लेती। बीस-बाईस साल की विधवा पर तो अपनी जाति के टोला वाले की ही गिद्ध नजर लगी रहती, तो मालिक लोगों की कौन कहे। कई बार तो आते-जाते टोले का ही एक लड़का चित्तू, जो पटना में रिक्शा चलाने का काम करता था, उसे कह देता-अरे इन दोनों पिल्लों को छोड़ कर मेरे साथ भाग चलो। सगाई कर हम दोनों आराम से पटना में रहेंगे, मिलकर काम करेंगे और शाम को सिनेमा देखेंगे पर इस तरह की मृगतृष्णा निर्मलिया माय के मन को डिगा नहीं पाती। उसे लगता कि जब भगवान ने उसे पति का सुख देखना नहीं लिखा है, तो फिर वह दूसरी शादी क्यों करे? फिर इन बच्चों को कौन देखेगा? बूढ़ी सास को तो भगवान कभी-भी अपने घर बुला सकते हैं। जब खेतों में काम नहीं रहता, तब निर्मलिया माय को घर चलाने में बड़ी दिक्कत होती। कई बार तो रात में भूख मिटाने के लिए उसे पिसी हुई लाल मिर्च और नमक मिलाकर पानी पीना पड़ता। छूआछूत की वजह से बाभन टोली में वह चाहकर भी चौका-बर्तन का काम नहीं कर पाती थी। वो तो भला हो निम्मो की नानी का, जिन्हाेंने निर्मलिया माय को सहारा दिया था। निम्मो की मां जब बहुत छोटी थीं, तो उनकी मां यानी निम्मो की नानी गांव में आजादपुर वाली दुल्हिन कहलाती थीं(बिहार में बहुओं को उनके जन्म स्थान के नाम से भी पुकारा जाता है) एक बार जब वह गेहूं के बोरे रखने उनके घर गई, तो उन्होंने पूछ लिया, ‘खेतों में काम नहीं रहने पर घर कैसे चलता है? इसके जवाब में जब निर्मलिया माय ने बताया कि कई रात तो बच्चों और सास के साथ भूखे ही सोना पड़ता है, तो उन्होंने दूसरे दिन से ही उनके घर पर रोज काम करने आने को कह दिया। घर में झाड़ू-पोंछा, बर्तन धोने और गाय-बछड़े को सानी-पानी देने के एवज में दो समय भोजन के साथ-साथ अनाज और पैसे भी मिला करेंगे, यह जानकर तो उसका दिल झूम उठा। हर जरूरत के समय दरियादिल मालकिन की मदद पाकर तो वह निहाल हो गई। शुरुआत में तो छूआछूत के कारण गांववालों ने मालकिन का खूब विरोध किया था, लेकिन उनका समझदारी भरा जवाब सुनकर उनके टोले वालों ने अपना मुंह बंद रखना ही मुनासिब समझा। उधर उसके अपने टोले में उसे जली-कटी सुनाकर खूब तंग किया जाता था, लेकिन निर्मलिया माय किसी की भी बातों पर ध्यान देकर चुपचाप अपने बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने में लगी रही। रामखेलावन को उसने पढ़ाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उसे पढ़ने में जरा भी मन नहीं लगता। समय के साथ मालकिन की मदद से निर्मलिया की शादी तो हो गई, लेकिन रामखेलावन ने कभी पढ़ने की कोशिश की और ही उसके साथ खेतों पर काम करने की। गांव वालों की सलाह पर निर्मलिया माय ने उसकी शादी कर दी, ताकि पत्नी की जरूरतें पूरी करने के लिए कम से कम वह खेतों या भट्ठे पर मजदूरी करने तो निकलेगा। पर पत्नी और दो बेटियां होने के बावजूद वह निकम्मा ही घर पर बैठा रहता और मांं के कमाए पैसों से ही जरूरतें पूरी होतीं। कुछ दिनों पहले वह पंजाब गया और जाने किस भगत का चेला बनकर वह कबीर पंथी बन कर गांव आया। गांव लौटने पर वह स्वयं को भगत जी कहने लगा और कबीर की सुनी-सुनाई उपदेशों को अपने टोले के लोगों के बीच बांचने लगा। अब तो टाेले वाले कभी-कभार उसे दक्षिणा भी देने लगे थे। अपने नए उभरे स्वरूप को वह खत्म नहीं होने देना चाहता था। इसलिए गांव वालों की बातों में आकर आज उसने मां को वह सब कह दिया, जो उसे नहीं कहना चाहिए था। वह तो अब निम्मो की नानी के यहां भी उसे जाने नहीं देता। रामखेलावन के मुंह से अपने लिए ऐसे शब्द सुनकर निर्मलिया माय घर के पिछवाड़े जाकर खूब रोई थी। उसे उन दिनों की वह सभी दिलासा आज झूठी लग रही था, जब टोले की औरतें कहा करती कि रामखेलावन के बड़े होने पर तुम्हें तुम्हारे परिश्रम का मीठा फल मिल जाएगा। इधर कुछ महीनों से वह अनदेखे राक्षस कोरोना (कोरोना को वह मायावी राक्षस कहती है) की वजह से घर से निकल कर दरवाजे पर भी नहीं बैठती थी। कौन जाने उस मायावी राक्षस से यदि किसी की तबियत खराब हो जाएगी, तो इसके लिए उसे ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाएगा। ईश्वर अलग-अलग आदमी की सोच को बिल्कुल अलग बनाता है। पुराने दिनों में आजादपुर वाली दुल्हिन मेरी गोद में अपने स्वस्थ सुंदर बड़े बेटे को डाल देती थीं। वहीं उनके छोटे बेटे ने तो कई बार मेरा दूध पिया था। आज के लोग नए जमाने के होकर भी मेरे प्रति कितनी गंदी सोच रखते हैं। तभी उसे लगा कि कारू के घर के पास शोरगुल हो रहा है। पहले स्वयं को उसने बहुत रोका, लेकिन शोर सुनकर उसके घर की तरफ दौड़ गई। घर के बाहर ही किसी से पूछने पर उसे पता चला कि कारू की बेटी गले में दर्द की शिकायत कर रही है और उसे बुखार भी है। आस-पास खड़े लोग उसके कोरोना से संक्रमित होने की आशंका जता रहे हैं, लेकिन कोई भी डॉक्टर के पास जाने की हिम्मत नहीं कर रहा। घरवाले के साथ-साथ बाहरवाले लोग भी इस बात पर विश्वास नहीं कर पा रहे कि उनके गांव में भी कोई कोरोना पीड़ित हो सकता है। भीड़ में से एक महिला ने फुसफुसाते हुए कहा, ‘सुना है बच्ची को दो-तीन दिन से बुखार रहा था। घर वाले उसे लगातार बुखार उतारने की दवा दे रहे थे। अभी कुछ दिन पहले ही तो उसका एक भाई दिल्ली से गांव लौटा है।’ दूसरी ने कहा, ‘क्या पता पूरे गांव को ही सील कर दिया जाए।’ निर्मलिया माय चुपचाप किसी को बिना बताए वहां से निकल गई और तुरंत गांव के प्राथमिक चिकित्सा केंद्र चली गई। थोड़ी देर में ही निर्मलिया माय के साथ कोरोना जांच दल के सदस्य आए और तुरंत बच्ची को चिकित्सा केंद्र ले जाया गया। इतने में ही निर्मलिया माय अपने घर की ओर चल पड़ी। उसे इस बात का डर भी सता रहा था कि कहीं रामखेलावन ने उसे देख लिया तो उसकी तो आज शामत जाएगी। घर आकर उसने खूब अच्छे-से नहाया-धोया। प्राथमिक चेकअप के आधार पर डॉक्टर ने बच्ची को कोरोना की आशंका जताई और तुरंत उसे शहर ले जाकर सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। कुछ ही दिनों बाद वहां डॉक्टर ने बताया कि सही समय पर ईलाज हो जाने के कारण बच्ची की जान को अब खतरा नहीं है। आज पंद्रह-सोलह दिन बाद बच्ची की कोरोना रिपोर्ट निगेटिव आई है। चिकित्सा केंद्र की सलाह के अनुसार, अपने-आप को घर में बंद किए हुए उसके परिवार वाले भी आज दरवाजे पर नजर रहे हैं। वे सिर्फ निर्मलिया माय का गुणगान कर रहे हैं, बल्कि बेटी की जान बचाने के एवज में उसे धन्यवाद भी दे रहे हैं। उन लोगों की आंखों में पश्चाताप के आंसू हैं कि उन लोगों ने उसे डायन कहा और बदले में उसने उसकी बेटी की जान बचाने में सहायता की। उसकी होशियारी के बारे में जानकर गांव के दूसरे टोला के लोग भी उसे धन्यवाद देने के लिए उसके घर के पास एक-एककर जा रहे हैं। लोगों को अपने घर की तरफ आते हुए देखकर निर्मलिया माय ईश्वर से प्रार्थना कर रही है कि उसके साथ कुछ गलत हो। सहमते हुए जब उसने किसी से पूछा तो पता चला कि उसकी वजह से ही कारू की बेटी का सही समय पर इलाज हो पाया और उसकी जान बच पाई। निम्मो को जब यह बात मालूम हुई, तो उसने मन ही मन कहा- वाह रे संसार में कोहराम मचाने वाले कोरोना, तुम्हारी वजह से एक काम तो पॉजिटिव हुआ। अंधविश्वास और ऊंच-नीच की अदृश्य छड़ी को तुम तोड़ने में सफल रहे...

स्मिता