चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा
अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी
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वैसे तो वे बगीचे को सजाने संवारने में कोई हाथ नहीं बंटाते थे, लेकिन फूल उन्हें बहुत पसन्द थे। ड्रॉइंगरूम में एजालेस का गुच्छा वे खुद ही लगाते थे। मुझे लगता है कि फूल की बनावट और उसकी अप्रतिम सुन्दरता, दोनों को वे कई बार गुम्फित कर देते थे। डाइक्लीट्रा के गुलाबी और सफेद रंग के बड़े लटकते फूलों के बारे में तो यही अक्सर होता था। इसी प्रकार नीले रंग के छोटे छोटे फूलों के प्रति भी उन्हें कुछ कलापूर्ण और कुछ वनस्पतिशास्त्रीय लगाव था। फूलों की प्रशंसा में वे धूसर रंग के हाईआर्ट पर हँसते थे और उनकी तुलना प्रकृति के चमकदार रंगों से करते थे। वे जब किसी फूल की प्रशंसा में बातें करते थे तो मैं ज़रूर सुनता था। यह तो एक प्रकार से फूल के प्रति आभार होता था, उसकी नाजुक बनावट और रंग के लिए उनका प्यार था। मुझे याद है कि जिस फूल को देखकर वे प्रमुदित जोते थे उसे बड़े ही हौले से स्पर्श करते थे, उनका यह स्नेह और दुलार ठीक एक बच्चे की तरह निश्छल था।
वे प्राकृतिक घटनाओं का मानवीकरण करने से स्वयं को रोक नहीं पाते थे। यह भावना प्रशंसा और बुराई, दोनों ही स्थितियों में प्रकट हो जाती थी - उदाहरण के लिए नर्सरी के बारे में - ये छोटे छोटे भिखमंगे वही कर रहे हैं जो मैं नहीं चाहता। किसी संवेदनशील पौधे को पानी की जिस चिलमची में लगाते थे, अगर उसकी पत्तियाँ बाहर निकलने लगती थीं तो उन पत्तियों को करीने से सजाते समय भी वे पत्ते की चतुराई की प्रशंसा सम्मिलित भाव से करते थे। सनड्यू,, केंचुओं, आदि के बारे में भी वे इसी प्रकार बोलते रहते थे।
जहाँ तक मुझे याद आता है घूमने फिरने के अलावा घर से बाहर उनका एकमात्र मनोरंजन था - घुड़सवारी। डॉक्टर बेन्स जोन्स के कहने पर उन्होंने घुड़सवारी शुरू की थी। इस मामले में हम भाग्यशाली रहे कि हमें उस समय `टॉमी ' नामक टट्टू मिल गया था, जो सीधा साधा और तेज चाल वाला था। वे इस प्रकार की सैर का खूब आनन्द लेते थे। आसपास के इलाकों का चक्कर लगाकर वे लंच तक आवश्य लौट आते थे। इस प्रयोजन से हमारे आसपास का इलाका बहुत ही रमणीक था। इसका कारण था कि इस इलाके में छोटी छोटी घाटियाँ थीं जो मैदानी इलाके की टेढ़ी मेढ़ी सड़कों की तुलना में कहीं ज्यादा मनोहर नज़ारा पेश करती थीं। मुझे लगता है कि उन्हें अपने ऊपर भी हैरानी होती होगी कि वे कितने अच्छे घुड़सवार थे, लेकिन बुढ़ापे और खराब सेहत ने उनका यह गुण उनसे छीन लिया था। वे कहते थे कि घुड़सवारी करते समय उतना गहराई से नहीं सोच पाते थे, जितना कि पैदल घूमते समय सोचते थे, क्योंकि घोड़े पर ध्यान देने के कारण गहराई से सोचना नहीं हो पाता था।
यदि अपने अनुभव के अलावा उनकी कही हुई बातों के आधार पर कहूँ तो मैं उनके खेल प्रेम आदि के बारे में कह सकता हूँ, लेकिन वह सब उन बातों का दोहराव ही होगा, जो उन्होंने अपने संस्मरणों में कही हैं। अपने बचपन से ही वे बन्दूक के शौकीन और पक्के निशानेबाज थे। वे कई बार बता चुके थे कि किस प्रकार से दक्षिण अमरीका में तेईस अबाबील पक्षी मारने के लिए उन्होंने केवल चौबीस गोलियाँ चलायी थीं। यह कहानी बताते समय वे यह भी ज़रूर बताते थे कि वहाँ की अबाबीलें हमारे इंग्लैन्ड के मुकाबले कम जंगली होती थीं।
दोपहर का भ्रमण करने के बाद वे डाउन में लंच करते थे। इस मौके पर मैं उनके भोजन के बारे में एक आध बात कर लेता था। मिठाइयाँ खाने की ललक उनमें बच्चों की तरह थी, पर दुर्भाग्य यह कि उन्हें मिठाई खाने की सख्त मनाही थी। वे अपने इस `दुख' को अधिक समय तक छिपा नहीं पाते थे। यह दुख उन्हें मिठाई न खाने को लेकर होता था, इस दुख को जब तक वे कह नहीं लेते थे, तब तक वे इससे निपट भी नहीं पाते थे।
वे बहुत थोड़ी-सी मदिरा लेते थे, लेकिन ये थोड़ी-सी भी उन्हें काफी फुर्ती देती थी। वे पीने से बहुत डरते थे, और अपने बच्चों को लगातार चेतावनी देते रहते थे कि कोई भी इस लत को अपने पास भी न फटकने देना। मुझे याद है कि एक बार अपने छुटपन में मैंने उनसे पूछा था कि क्या कभी वे मदहोश हुए थे, और बड़ी ही संज़ीदगी से उन्होंने बताया था कि एक बार कैम्ब्रिज में बहुत ही ज्यादा पी गए थे। मैं इससे बहुत प्रभावित हुआ, इतना कि आज भी मुझे वह जगह याद है जहाँ मैंने यह बात पूछी थी।
लंच के बाद वे ड्राइंगरूम में सोफे पर लेटकर अखबार पढ़ते थे। मैं समझता हूँ कि विज्ञान के अलावा अखबार ही पठन-सामग्री थी, जिसे वे खुद पढ़ते थे। इसके अलावा उपन्यास, यात्रा-वृतांत, इतिहास दूसरों से पढ़वा कर सुनते थे। वे जीवन के अन्य पहलुओं पर इतना व्यस्त रहते थे कि अखबार की उसमें कोई जगह नहीं थी, हालांकि वे वाद विवाद की शब्दावली को पढ़कर हँसते ज़रूर थे, मैं समझता हूँ कि केवल ऊपरी मन से। वे राजनीति में रुचि रखते तो थे लेकिन इस बारे में उनकी राय महज एक व्यवस्था के आधार पर थी, वे खुद इस पर गहराई से नहीं सोचते थे।
अखबार पढ़ने के बाद उनका पत्र-लेखन शुरू होता था। साथ ही, वे अपनी पुस्तकों की पाण्डुलिपियाँ भी तैयार करते थे। इसके लिए वे आग के पास अपनी हार्स चेयर रख लेते। कुर्सी के हत्थे पर लगे बोर्ड पर वे अपने कागज रखते थे। यदि खतों की संख्या ज्यादा होती, या खत लम्बे होते तो पहले वे खतों की एक प्रति लिख लेते थे और फिर उसी से बोल बोलकर लिखवाते थे। इन रफ कापियों को वे पाण्डुलिपियों या प्रूफशीट के पीछे लिखते थे। मज़े की बात यह कि कई बार वे अपना लिखा खुद भी नहीं पढ़ पाते थे। उन्हें जितने भी खत मिलते थे, उन सब को सहेज कर रख लेते थे। यह आदत उन्होंने मेरे दादाजी से सीखी थी और वे बताते थे कि यह काफी उपयोगी रहता था।
मूर्ख, उजड्ड लोग भी उन्हें बहुत से खत भेज देते थे, और पिताजी सबका जवाब देते थे। वे कहते थे कि अगर जवाब नहीं दूँगा तो यह बात अवचेतन में तैरती रहेगी। एक बात और कि यह उनकी विनम्रता को भी दर्शाता था। वे बड़ी विनम्रता से सभी का जवाब देते थे, इससे उनकी दयालुता चारों ओर प्रसिद्ध हो गयी, और यह बात उनकी मृत्यु पर जाकर स्पष्ट हुई।
ऐसी दूसरी छोटी मोटी बातों का ध्यान वे दूसरे खतों का जवाब देते समय भी रखते थे। उदाहरण के लिए किसी विदेशी को खत लिखवाते समय वे मुझसे यह कहना कभी नहीं भूलते थे, `तुम बेहतर लिख सकते हो इसलिए लिखो क्योंकि यह किसी विदेशी को जाएगा।' वे अपने अधिकांश खत इस प्रत्याशा के साथ लिखते थे कि इन्हें पढ़ने वाला लापरवाही से पढ़ेगा, इसीलिए पत्र लिखवाते समय वह मुझे सावधानी से बहुधा बताते जाते थे कि किसी भी महत्त्वपूर्ण बात से नया पैरा शुरू करो ताकि पाठक का ध्यान खींचा जा सके। प्रश्न पूछ पूछकर वे दूसरों को परेशान करने के बारे में स्वयं भी कितना सोचते रहते थे, यह बात उनके पत्रों से स्पष्ट हो जाएगी।
ऊल जलूल किस्म के खतों का जवाब देने के लिए उन्होंने एक सामान्य प्रकार से लिखा हुआ पत्र छपवा रखा था, लेकिन वह खत उन्होंने शायद ही कभी भेजा हो। मुझे लगता है कि उन्हें ऐसा कोई मौका ही नहीं मिला जिसके लिए वह पत्र भेजा जा सके। मुझे याद है कि एक बार ऐसा मौका आया था जब उन मुद्रित पत्रों का प्रयोग किया जा सकता था। उन्हें एक अजनबी ने लिखा था कि वाद विवाद की एक सभा में `द इनोल्यूशन' पर चर्चा होगी, और बहुत ही व्यस्त होने कारण उसके पास समय बहुत कम है, इसलिए आप अपने दृष्टिकोणों की एक रूपरेखा भिजवा दीजिए। हालांकि, उस नौजवान को काफी शालीनता भरा जवाब मिला था, तथापि उसे अपने भाषण के लिए अधिक सामग्री नहीं मिली। पिताजी का नियम था कि मुफ्त पुस्तक भेजने वाले हर एक को धन्यवाद देते थे, लेकिन पेम्फलेट के बारे में वे ऐसा नहीं करते थे। वे कई बार हैरानगी जाहिर करते थे कि उनकी अपनी किताबों के लिए किसी ने भी कभी भी उन्हें धन्यवाद नहीं दिया। उन्हें जैसे ही कोई पत्र मिलता था तो वे खुश हो जाते थे, क्योंकि उनकी नज़र में उनके सभी लेखन कार्यों का इससे बेहतर मूल्यांकन और कुछ नहीं हो सकता था। उनकी पुस्तकों में दूसरे रुचि लेते थे तो पिताजी भाव विभोर हो उठते थे।
धन और व्यापार के मामले में वे अत्यधिक सतर्क और सटीक रहते थे। वे सावधानीपूर्वक बहीखाता रखते थे, उसे वर्गीकृत करते और साल के अंत में एक व्यापारी की तरह से लेखे-जोखे का चिट्ठा तैयार करते। मुझे याद है कि भुगतान के लिए दिए गए हरेक चेक को वे फौरन से पेशतर बही में दर्ज करते, मानो यदि ऐसा नहीं किया तो भूल जाएंगे। मुझे लगता है कि दादाजी ने उन्हें यह एहसास दिला दिया था कि वे जितना सोचते हैं, उससे कहीं ज्यादा गरीब हैं। क्योंकि इस इलाके में घर खरीदते समय उन्हें दादाजी की ओर से बहुत ही कम धन मिल पाया था। इसके बावजूद वे जानते थे कि आगे चलकर उन्हें तकलीफ नहीं होगी, क्योंकि अपने संस्मरणों में उन्होंने लिखा है कि डाक्टरी पढ़ने में मेहनत करने की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि उन्हें अपनी आजीविका की अधिक चिन्ता नहीं।
वे कागज का इस्तेमाल बहुत किफायती ढंग से करते थे, लेकिन वास्तव में ये बचत कम और आदत ज्यादा थी। जितने भी खत मिलते उनके साथ मिले खाली कागजों को वे सहेज कर रख लेते थे; कागज का वे इतना आदर करते थे कि खुद अपनी ही किताबों की पाण्डुलिपियों के पीछे लिख डालते थे, दुर्भाग्यवश इस आदत के चलते किताबों की मूल पांडुलिपियाँ भी खराब हो गईं। कागज के बारे में उनकी यह भावना रद्दी कागजों के लिए भी थी, और कई बार तो मज़ाक में कहते कि मोमबत्ती जलाने के बाद बचे छोटे कागज़ के टुकड़े को भी आग में मत फेंको।
वे विशुद्ध बनियागिरी का भी पूरा आदर करते थे और अपने एक रिश्तेदार की प्रशंसा में कह उठते थे कि उसने अपना भविष्य संवार लिया। अपने बारे में तो वे इतना ही कहते कि जितना धन उन्होंने बचाया उसका उन्हें गर्व है। अपनी किताबों के जरिए प्राप्त धन का भी उन्हें संतोष था। धन की बचत वे इस चिन्ता से भी करते थे कि उनकी संतानों की सेहत ऐसी नहीं कि वे अपना जीवन यापन कर सकें। यह एक ऐसी बात थी जिससे वे कई बरस तक परेशान रहे। मुझे उनकी बातों में से एक अभी भी थोड़ी बहुत याद है। वे कहा करते थे,`भगवान का शुक्र है कि उसने तुम्हें दाल रोटी का सिलसिला दे रखा है'। बचपन में मैं इस बात का मतलब केवल शब्दों के रूप में ही समझता था।
खतों का काम निपटाने के बाद दोपहर करीब तीन बजे वे बेडरूम में आराम करते थे। एक सोफे पर लेट जाते, सिगरेट पीते हुए कोई उपन्यास या विज्ञान के अलावा कुछ और पढ़वा कर सुनते थे। वे केवल आराम करते समय ही धूम्रपान करते थे, जबकि नौसादर उन्हें तरोताज़ा कर देती थी। नौसादर वे केवल काम करते समय ही लेते थे। अपने जीवनकाल में उन्होंने नौसादर का काफी सेवन किया। यह लत उन्हें विद्यार्थी जीवन के दौरान ही एडिनबर्ग में लग गयी। नौसादर रखने के लिए उनके पास चाँदी की सुन्दर डिबिया थी, जो उन्हें मायेर में मिसेज वुडहाउस ने दी थी। इस डिबिया को बहुत प्यार करते थे, लेकिन कभी भी अपने साथ बाहर नहीं ले जाते थे, क्योंकि इससे नौसादर की सुघनी ज्यादा हो जाती थी। अपने किसी पुराने पत्र में उन्होंने लिखा था कि कई माह से उन्होंने नौसादर बन्द कर रखी है, और इस दौरान उनकी हालत एकदम अहदी, आलसी, और बौड़म जैसी हो गयी। हमारे पुराने पड़ोसी और पादरी मुझे बताते थे,`एक बार तुम्हारे पिताजी ने यह संकल्प कर लिया कि घर के बाहर रहेंगे तो ही नौसादर की सुंघनी लेंगे, यह तो उनके लिए बड़ा ही संतोषप्रद इंतजाम था, क्योंकि मैं अपनी डिबिया अध्ययनकक्ष में रखता था और बगीचे से वहाँ आने का काम नौकरों को बिना बुलाए किया जा सकता था, और इसी बहाने मैं अपने प्यारे दोस्त के पास कुछ अधिक समय गुजार लेता था, दूसरे हालात में शायद यह नामुमकिन होता।' वे बड़े दालान में रखी मेज पर रखे मर्तबान में से नौसादर निकालते थे, नौसादर की एक चुटकी के लिए इतनी दूर जाना कोई बड़ी बाधा नहीं थी, नौसादर के मर्तबान के ढक्कन की खनक अलग ही आवाज़ करती थी। कई बार जब वे ड्राइंगरूम में होते थे, तो उन्हें अचानक ही इलहाम होता था कि अध्ययन कक्ष में जल रही आग धीमी पड़ गयी लगती है, और जब हम में से कोई एक कहता कि चलो देख कर आते हैं, तो पता चलता कि नौसादर की चुटकी भी आ गयी है। सिगरेट पीने की आदत उन्हें बाद के वर्षों में पक्की सी हो गई, हालांकि पम्पास की सैर के दौरान उन्होंने गाउकोस के साथ सिगरेट पीने की आदत पड़ गयी थी। मैंने उन्हें यह कहते सुना था कि मेट के प्याले के साथ सिगरेट का कश सारे सफर की थकान और भूख दोनों को दूर कर देता था।
दिन में चार बजे के करीब वे सैर के लिए कपड़े पहनने के लिए नीचे आते और इस काम में इतने पक्के थे कि सीढ़ियाँ उतरते हुए उनके कदमों की आवाज़ सुनकर कोई भी कह सकता था कि अब चार बजे के आस पास का समय है।
दिन में लगभग साढ़े चार बजे से साढ़े पाँच बजे तक वे काम करते और फिर ड्राइंगरूम में आ जाते थे, और फिर उपन्यास पढ़वाने तथ सिगरेट पीते हुए आराम करने (लगभग छह बजे) तक वे खाली बैठे रहते थे।
आगे चलकर उन्होंने देर से डिनर करना छोड़ ही दिया था, और साढ़े सात बजे चाय (हम सब डिनर करते थे) और साथ में एक अण्डा या गोश्त का छोटा-सा टुकड़ा ले लिया करते थे। डिनर के बाद वे कभी भी कमरे में नहीं रुकते थे और यह कहते हुए माफी माँगते कि जिसकी घोड़ी बूढ़ी हो उसे अपना सफर जल्दी शुरू कर देना चाहिए। यह भी उन संकेतों में से एक था कि उनकी कमज़ोरी बढ़ती जा रही थी। आधा घंटे भी कम या ज्यादा बातचीत की तो सारी रात की नींद का कबाड़ा और अगले दिन का आधा काम तो बिगड़ ही जाता था।
डिनर के बाद वे मेरी माँ के साथ बैकगेमोन नामक खेल खेलते थे। हर रात दो बाजियाँ होती थीं। कई बरस से खेल में हार जीत का रिकार्ड भी रखा जा रहा था, और इसके स्कोर में उन्हें बहुत रुचि थी। इन बाजियों में वे दिलो जान से जुट जाते थे। खेल में अपनी बदनसीबी को कोसते और मेरी माँ की खुशनसीबी पर बनावटी गुस्सा जाहिर करते हुए बिफरने का नाटक करते।
बैकगेमोन खेलने के बाद वे कोई वैज्ञानिक किताब खुद ही पढ़ने बैठ जाते। अगर ठीक हुआ तो ड्राइंगरूम में ही और अगर वहाँ शोरगुल हुआ तो अपने अध्ययन कक्ष में।
शाम को - वे इस समय तक अपनी ताकत के मुताबिक पढ़ चुके होते थे, और कोई पढ़कर सुनाए इससे पहले ही - बहुधा वे सोफे पर लेट जाते और मेरी माँ उन्हें पियानो पर धुनें सुनाती। हालांकि उन्हें संगीत की बारीकियाँ नहीं मालूम थीं, लेकिन उन्हें अच्छे संगीत से बहुत प्यार था। वे इस बात पर खेद जाहिर करते थे कि उम्र बढ़ने के साथ साथ वे संगीत में खुशी पाना भूलते जा रहे हैं। तो भी जहाँ तक मुझे याद है कि अच्छी धुनों को अभी भी पसन्द करते थे। मैंने उन्हें एक ही धुन गुनगुनाते सुना था - और वह थी वेल्श गीत की धुन `Ar hydy nos', यह धुन वे एकदम सही तरीके से गुनगुनाते थे; वे कभी कभी ओटाह्वाइटियन गीत भी गुनगुना लेते थे। संगीत की समझ न होने के कारण वे किसी भी धुन को दुबारा समझने में नाकाम रहते थे, लेकिन उन्होंने अपनी पसन्द में निरन्तरता बनायी हुई थी। जब कभी भी उनकी पसंदीदा पुरानी धुन बजायी जाती तो वे पुलक उठते और कहते,`यह इतनी मधुर धुन कौन-सी थी?' वे बीथोवन की सिम्फनी के कुछ अंशों और हेन्डेल की कुछ धुनों को भी पसन्द करते थे। वे शैली में विभिन्नता के प्रति भी संवेदनशील थे। वे मिसेज वर्नन लशिन्गटन को भावोत्पादक रूप से संगीत बजाते सुनते थे। यही नहीं जून 1881 में हेन्स रिचर जब डाउन आए थे, तो पियानो पर उनके संगीत को सुन वे विमुग्ध हो गए थे। वे अच्छी गायकी का भी लुत्फ उठाते थे और संगीत की अन्तिम गत या करुणामय धुन को सुनकर लगभग रो पड़ते थे। उनकी भतीजी लेडी फेरेर जब सुलिवन के गीत `Will he come' पर साज छेड़ती थीं तो वह उनके लिए सुख की पराकाष्ठा होती थी। वे अपनी रुचि के लिए अत्यधिक भावविभोर रहते थे, और यदि कोई दूसरा भी उनसे सहमत होता था तो वे उसके सामने प्रमुदित हो उठते थे।
वे शाम को बहुत थक जाते थे, और जीवन के आखिरी वर्षों में तो यह थकान बहुत बढ़ गई थी। वे रात में लगभग दस बजे के करीब ड्राइंगरूम से निकल जाते थे और साढ़े दस के करीब सोने चले जाते। उनकी रातें बहुत कष्टप्रद होती थीं। वे घंटों जागते रहते या बिस्तर पर बैठे रहते थे, और बेचैनी में पहलू बदलते। रातों में वे अपने विचारों की ऊहापोह में अधिक परेशान होते थे, और कई बार उनका दिमाग किसी ऐसी समस्या में उलझ जाता था जिसे वे लगभग नकार चुके होते थे। रात में भी अक्सर ऐसा होता कि दिन में परेशान करने वाली कोई समस्या फिर से उन्हें परेशान करने लगती थी, मैं समझता हूं यह तब ज्यादा होता था जब वे किसी झंझटी खत का जवाब नहीं दे पाते थे।
इस प्रकार की यह लगातार पढ़ाई, जिसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूँ, कई बरस तक चलती रही, और इसी वजह से वे साहित्य के विनोदपरक पहलू को समझ पाए। उन्हें उपन्यासों का चस्का-सा लग गया था और मुझे याद है कि उन्हें इस बात पर कितना आनन्द आता था कि वे लेटे हुए सिगरेट के कश ले रहे हैं और कोई उपन्यास पढ़कर उन्हें सुना रहा हो। वे उपन्यास की कथा वस्तु और चरित्र चित्रण, दोनों में गहरी रुचि लेते थे, और कथा समाप्त होने तक वे उसके अन्त का अंदाज़ा नहीं लगा पाते थे। वे यह मानते थे कि उपन्यास का अन्त स्त्रैण कुटेव की तरह होता है। दुखान्त कथाओं को वे पसन्द नहीं कर पाते थे। इसी वजह से वे जार्ज ईलियट की प्रशंसा नहीं कर पाते थे, जबकि वे सिलास मार्नर की यदा कदा प्रशंसा करते थे। वाल्टर स्कॉट, मिस ऑस्टेन और मिसेज गास्केल की कृतियाँ तो बार बार पढ़वाते थे, इतना पढ़वाते कि पढ़ते पढ़ते उनमें नीरसता आ जाती थी। वे एक बार में दो या तीन किताबें उठा लेते थे - एक उपन्यास और शायद एक जीवनी तथा एक पुस्तक यात्रा वृत्तान्त के बारे में। वे ऐसे ही या पुरानी पद्धति की किताबों को पढ़ना शुरू नहीं कर देते थे, बल्कि वे नवीनतम पुस्तकों को पसद करते थे। ये पुस्तकें वे पुस्तकालय से लाते थे।