नई चेतना - 26 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नई चेतना - 26

धनिया धीरे धीरे चलती हुयी कक्ष के बाहर दालान में आ गयी । बाबू उसे सहारा देने के लिए उसके साथ ही चल रहा था । लेकिन धनिया को शायद उसके सहारे की जरुरत नहीं थी । धनिया और बाबू चहलकदमी करते हुए दालान के दुसरे कोने तक चले आये ।

इधर अमर पहले से ही दालान में एक खम्बे की ओट में अपने आपको छिपाके खड़ा था । धनिया बाबू के संग चलते हुए उसी खम्बे के नजदीक से होकर दालान के दूसरी तरफ चली गयी ।

अमर उसके जाने के बाद खम्बे की ओट से निकलकर बाहर आ गया और धनिया की तरफ देखने लगा । उसका जी चाह रहा था की अभी जाकर धनिया के सामने खड़े हो जाये और उससे पूछ ले कि उसने आखिर उससे मिलने से इंकार क्यों किया था ?

लेकिन धनिया को देखकर उसे अहसास हो गया था कि शायद धनिया ने हालात से समझौता कर लीया है । अमर के बिछड़ने का उसे कोई गम नहीं था शायद अमर ने यही अंदाजा लगाया । अब जब धनिया ने खुश रहना सीख लिया है तो फिर उसे बेवजह परेशान नहीं किया जाना चाहिए ।

धनिया के थोड़ी दूर चले जाने के बाद अमर एक झटके से मुड़ा और पीछे ही स्थित सीढियों से निचे उतरता चला गया ।

शाम के धुंधलके ने गहरा कर अब अँधेरे की शक्ल अख्तियार कर ली थी । लेकिन इंसान कहाँ कम है ?

अँधेरे का मुकाबला करने के लिए जगह जगह बिजली के खम्भों पर लगे बिजली के बल्ब रोशन होकर बखूबी अपना दायित्व निभा रहे थे । नतीजतन अस्पताल के बाहर सडकों पर घनघोर अँधेरे में भी बिजली के बल्ब पथिकों को राह दिखाने का काम कर रहे थे ।

इन्हीं सबके बिच सड़क पर चलते हुए अमर अपने जीवन में अचानक घिर आये अँधेरे से लापरवाह बिना कुछ सोचे बस चलते जा रहा था ।

थोड़ी ही दूर चलकर वह फुटपाथ पर बैठ गया । उसे अब कमजोरी का अहसास हो रहा था । मन से वह बुरी तरह टूट चुका था और अब तन भी थकान और कमजोरी से टूट रहा था ।

दोपहर धनिया की दवाई लाने के चक्कर में देर हो जाने की वजह से भूखा रह गया था सो अब भूख भी सता रही थी लेकिन उसके मन को भूख की भी परवाह कहाँ थी ?

बड़े ठन्डे दिमाग से अमर कल घर छोड़ने से अब तक घटी सभी घटनाओं पर गौर कर उनकी समीक्षा करने लगा ।

यूँही बैठे बैठे काफी देर तक सोचने के बाद भी अमर किसी नतीजे तक नहीं पहुंचा था । उसकी सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो गयी थी । अब उसे घर की ‘ अपने माँ की याद आने लगी थी ।

दिमाग के किसी कोने से आवाज आई ‘ ” अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है । चल घर लौट चलें । अब यहाँ किसके लिए रुकना है ? जिसके लिए घर छोड़कर आया था वो तो किसी और की होने जा रही है । फिर अब और यहाँ रूककर क्या फायदा ? ”

तभी उसका आत्मसम्मान जाग उठा ” नहीं अमर ! इनकी बातों में नहीं आना । आखिर इज्जत भी कोई चीज है । लोग क्या कहेंगे ? गए तो थे बड़े ताव से अब दो दिन के फांके से ही अकल ठिकाने आ आ गयी ? किस किसको हकीकत समझाते फिरेगा । लोग तो देखते ही ताने मारना शुरू कर देंगे । क्या तू बर्दाश्त कर पायेगा यह सब ? ”

घबरा कर अमर ने कानों पर हाथ रख लिया । मन में चल रहे अंतर्द्वंद से तंग अमर ने आखिर अपने आपको हालात के सहारे छोड़कर जीवन के लिए एक संघर्ष का रास्ता अख्तियार करने का फैसला कर लिया ।

इरादा पक्का होते ही उसे अपने अन्दर एक अतिरिक्त उर्जा का संचार होता सा प्रतीत होने लगा और वह उठ खड़ा हुआ । चलने लगा एक बार फिर एक अनजान मंजिल की ओर । उसे कुछ नहीं पता कि वह कहाँ जा रहा है और क्यों जा रहा है । बस चलता रहा । उसका रुख अस्पताल से शहर की ओर जानेवाली सड़क की तरफ था लेकिन उसे भान कहाँ था कि वह कहाँ जा रहा है ?

रात के आठ बज रहे थे ।

लाला धनीराम की गाड़ी सड़क पर बियाबान अँधेरे में सन्नाटे को चीरती तीव्र गति से विलासपुर की तरफ अग्रसर हो रही थी ।

समय गुजरने के साथ ही सुशिलाजी की व्यग्रता बढ़ती जा रही थी । दूर सामने शहर की कुछ ऊँची इमारतें अब दिखाई पड़ने लगी थीं । इसका मतलब स्पष्ट था कि अब वे मंजिल के करीब थे ।

सुशिलाजी तो अमर को देखने के लिए, उससे मिलने ,उससे बात करने के लिए बेताब थीं ही लालाजी भी कम उत्सुक नहीं थे और मन ही मन चौधरी रामलालजी को धन्यवाद अदा कर रहे थे जिनकी वजह से आज वह अमर से मिलने की उम्मीद कर रहे थे ।

लालाजी अपने विचारों में ही खोये रहते कि तेज चलती कार अचानक ब्रेक की चिंघाड़ के साथ एक झटके से रुक गयी । लालाजी ने पहले खिड़की से बाहर झांक कर देखा । कार शहर में ही एक चौराहे से पहले रुकी हुयी थी । सदर अस्पताल कौनसी सड़क जाएगी यह रमेश को पता नहीं था और न ही सड़क पर कोई सूचनापट लगा था । अभी लालाजी कुछ बोलते उससे पहले ही रमेश ने पास से गुजर रहे एक पैदल यात्री से सदर अस्पताल का पता पूछ कर गाड़ी उसी मार्ग पर बढ़ा दिया ।

गाड़ी एक बार फिर हवा से बातें करने लगी । चन्द मिनटों बाद गाड़ी अस्पताल के कंपाउंड में खड़ी हुयी । गाड़ी रुकने के साथ ही सुशिलाजी की व्याकुल निगाहें अस्पताल के हरसंभव कोने में अमर को तलाश कर चुकी थीं । लालाजी भी भावुक से नजर आ रहे थे और गाड़ी से उतरकर सीधे मुख्य चिकित्सक डॉक्टर माथुर के कक्ष की ओर बढे । उनके कदमों में गजब की तेजी थी ।

सुशिलाजी को उनके साथ चलने के लिए दौड़ना पड़ रहा था लेकिन उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी । आखिर वो भी तो अति शीघ्र अमर के बारे में जानना चाहती थीं ।

इसी शीघ्रता के चक्कर में लालाजी सामान्य शिष्टाचार भी भूल गए या यूँ कह सकते हैं उन्हें इसका भी ध्यान नहीं रहा । धडधडाते हुए सीधे माथुरजी के कक्ष में घुस गए ।

लालाजी का यूँ सीधे कक्ष में घुसना माथुर को नागवार गुजरा लेकिन उन्हें यह अंदाजा लगाने में कोई दिक्कत नहीं हुयी कि यही लाला धनीराम हैं अमर के बाबूजी ! जैसा कि चौधरी रामलालजी ने उन्हें पहले ही बता दिया था । उनकी मनोदशा का उन्हें बखूबी अंदाजा था सो अगले ही पल डॉक्टर माथुर ने मुस्कराकर लालाजी और सुशिलाजी से बैठने का आग्रह किया ।

लालाजी ने अपना परिचय दिया और अमर के बारे में पूछा ” अब अमर कैसा है ? ”

माथुरजी ने शांत स्वर में जवाब दिया ” अमर अब बिलकुल ठीक है लालाजी ! उसे सर पर चोट लगी है । उपचार करके दवाई वगैरह दे दी है । तीन चार दिन में ही जख्म पूरी तरह भर जायेगा । ”

” आपका बहुत बहुत शुक्रिया डॉक्टर साहब और चौधरीजी तो हमारे लिए भगवान बनकर ही मिले हैं । आप लोगों का यह उपकार मैं जीवन भर नहीं भूल सकता । ” लालाजी ने कृतज्ञता व्यक्त की थी ।

अगले ही पल सुशीलादेवी के प्रश्न से डॉक्टर माथुर हैरान रह गए थे ” अब धनिया कैसी है डॉक्टर साहब ?”
माथुर जी को यह उम्मीद लालाजी या सुशिलाजी से नहीं थी ।

क्रमशः