बागी आत्मा 10 रामगोपाल तिवारी (भावुक) द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बागी आत्मा 10

बागी आत्मा 10

दस

माधव की गैंग की संख्या दस हो गई थी। दो आदमियों को तो उसने ठिये पर छोड़ दिया था बाकी आठ आदमियों को अपने साथ ले जा रहा था। आज घोड़ों की व्यवस्था हो गई थी। आशा ने जब घोड़े देखे तो दंग रह गई। सभी अलग अलग घोड़ों पर सवार थे।

आशा सोचने लगी- आज ये जाने कितनों का सुहाग सूना करेंगे। यह बात वह माधव से कहना चाहती थी पर उसकी यह बात दिल की दिल में रह गयी। सभी लोग चले गये। एक घोड़ा ठिये पर रह गया। बस वहां रखा समान, ढोया जाने लगा। आशा ने वहां ठहरे एक बागी से पूछ लिया -‘क्या नाम है तुम्हारा ?‘

‘तीतुरिया‘

‘तीतुरिया जी यह घोड़ा -

‘ भाभी जी, हम लेगों का स्थान बदला जा रहा है।‘

‘क्यों ?‘

‘आपकी षादी, की व्रूव्स्था दूसरी जगह की गई है।‘

‘कहां ?‘

हम लोग उस स्थान को किसी को नहीं बतलाते हैं। पर आज आपको बतलाये देता हूँ। आगे ऐसा प्रश्न किसी से न करना ?‘

‘क्यों ?‘

‘इससे हम लोगों का विधान भंग होता है।‘

‘अब समझी।‘ वह इतना ही कह पाई थी कि घुड़सवार पुनः उस स्थान पर आ गया। आकर बोला- ‘चलो भाभीजी, आप भी घोड़े पर बैठो।‘

यह बात सुनकर वह उस बदले हुए स्थान पर पहुुंचने के लिये घोड़े पर बैठ गई। वह घुड़सवार घोड़े की बाग लिये आगे-आगे चलने लगा।‘

‘आधा घन्टा चलने के बाद उस स्थान पर पहुंच गये। वहां सभी लोगों को मौजूद पाया। घोड़े से उतरने के लिये एक ने आशा को सहारा दिया। आशा नीचे उतर पड़ी । घोड़े से उतरते ही बोली - ‘क्यों माधव आज एक सुहाग के बदले कितने सुहाग सूनेकर डाले ?‘

‘सुहाग सूने हो गये होते ,पर आज मैं आपने हाथों को खून से रंगना नहीं चाहता था । इन हाथों पर तो आज मेंहदी रची जायेगी और उस जबरदस्ती के दूल्हे राजा को भी पकड़ लाया हूँ।‘

‘उसे क्यों ?‘

‘अरे कन्यादान कौन करेगा ?‘

‘माधव तुम यह क्या कर रहे हो ? जो पति बनना चाहता था। उसे जबरदस्ती पिता बनाया जा रहा है।

‘आशा तुम देखोगी तो कहोगी यह तो पिता ही बनने लायक है।‘

‘तब तो आपने यह अच्छा किया। जिससे ऐसा करने वालों को सबक मिल सकेगा। उनकी शादी के बाद यह खबर जब अखबारों में छपेगी। सारा संसार पढ़ेगा। लोग तुम्हारे इस काम की प्रशंसा किये बिना न रहेंगे।‘

‘अरे अरे इतनी बड़ाई मत करो वरना ं ं ं। उसकी इस चापलूसी बात सुनकर वह शरमा गई। अब दोनों आगे बढ़ गये उस स्थान पर पहुंच गये जहां शादी की व्यवस्था की गई थी। वहां के लिये दो ओर से रास्ता है। माधव ने अपने जवानों को दोनों ओर पहरे पर लगा दिया था। पास में निर्मल जल का झरना बह रहा था। पास में मन्दिर था। वहां एक साधू जी रहते थे। वे साधू जी महाराज भगवान के नहीं बल्कि बागियों के भक्त थे।

माधव और आशा पहिले मन्दिर में भगवान के दर्शन करने गये। शिवलिंग के सामने अपनी अपनी मनोकामनाओं को लेकर हाथ जोड़े प्रार्थना करते रहे।

अब माधव बोला- ‘चलो आशा तुम्हें साधू जी के दर्शन करा दूं।

वे इस बियाबान जंगल में अकेले पड़े रहते थे। भक्तगणों का आना जाना लगा रहता है।’ बातचीत करते हुए दोनो साधू जी के पास पहुंच गये। माधव के साथ आशा को देखकर समझ गये कौन हो सकती है ? बोले -‘आओ बेटी तुम्हें यहां किसी प्रकार का कश्ट न होगा।‘ आशा ने कुछ नहीं कहा। माधव की तरह उनके चरण आशा ने भी छू लिये। साधूजी ने उसे अखण्ड सौभाग्यवती रहने का आशीर्वाद दे डाला।

आशा ने सोचा -‘यहां तो सौभाग्य की एडवांस बुकिंग होने लगी।‘ अब तक साधू जी साथ चलने के लिए खड़े हो चुके थे।

20-25 मिनट चलने के बाद बातें करते हुए सभी विवाह स्थल पर पहुंच गये। आशा के माता-पिता वहां मौजूद थे। उन्हें देखकर आशा मां से लिपटकर फूट-फूटकर रो पड़ी। मां उससे कुछ कहे बिना सिर पर हाथ फेर फेरकर सांत्वना देने में लगी थी। पिताजी कहने लगे बेटी चिन्ता न कर कोई ऐसा रास्ता निकालेंगे जिससे ं ं ं। माताजी पिताजी के आने से उसका मन कुछ हल्का हो गया था।

आशाबोली -‘मां कुछ खाया-पिया या नहीं।‘

‘अरे बेटी इन जंगलों में खाने-पीने की क्या कमी है ? अभी-अभी खाना खा-पीकर निवटी हूँ। तुम्हारे आने की प्रतीक्षा कर रही थी।

‘कितनी देर हो गई यहां आये ?‘

लगभग एक घण्टा हुआ होगा। अब माधव उनके सामने था। माधव माताजी पिताजी के पैर छूने को हुआ तो उन्होंने उसे गले लगा लिया। मानों वर्शों से बिछुड़ा कोई मिल रहा हो। इसी समय माधव के मिलने जुलने वाले आने लगे। माधव वहां से अलग चला गया। मां आशा से हाल चाल पूछने लग गई। तभी जंगलों में सहनाई की मधुर ध्वनि गूंजने लगी।

दो जगह मण्डप बनाये गये थे।

एक जगह मण्डप उन दोनों प्रेमीजोड़े के विवाह के लिए था। दूसरी जगह माधव और आशा के विवाह के लिए। माधव के तथा अन्य बागी साथियों के मिलने-जुलने वाले आ गये।

जंगलों क बीहड़ में वह सूनसान घाटी गूंज उठी। आठ-दस गड़रियों का यह छोटा सा गांव था। इस तरह का कार्यक्रम यहां पहली बार हो रहा था। गांव के सभी लोग आमन्त्रित किये गये थे। सभी लोग भोजन खा पी रहे थे। पंगत का कार्यक्रम दिन से ही शुरू हो गया था।

गोधूली का समय हो गया शाम के छः बज गये। पण्डित जी आ गये। उन्होंने बेदी का काम संभाल लिया। विधिवत मन्त्रों उच्चारणों के साथ शादी का कार्यक्रम सम्पन्न कराया गया।

दहेज में उस प्रेमी जोड़े को माधव की ओर धन बरतन, इत्यादि दिये गये। और उन्हें उनके घर के लिये विदा कर दिया गया। उनका कन्यादान उन्हीं दूल्हेराजा जो पैसें के बल पर अपनी शादी उससे रचाना चाहते थे, से कराया गया। उन्हें भी विदा कर दिया गया। और कह दिया उस लड़की को वह जिन्दगी भर लड़की तरह मनेगा।

ठीक नौ बजे तक सारे कार्यक्रम निपटा दिये गये। यह स्थान भी बदल दिया गया। इस स्थान से दो मील दूर एक जगह ठहरने की व्यवस्था पहले से कर ली गई थी। यह सात मन्जिल का मकान बना हुआ है। पास में ही पानी का कुन्ड भरा हुआ था। यहां भी एक महात्मा जी रहते थे।

अब माधव नीचे से ऊपर की मन्जिलों में आशा को लेकर जाने लगा। आशा के माता-पिता नीचे महात्मा जी के पास ही छोड़ दिये गये। और सभी बागी ऊपर की दूसरी मन्जिल में ठहर गये। माधव और आशा टार्च के प्रकाश के सहारे ऊपर बढ़ते चले गये। छठवीं मन्जिल पर एक खटिया पड़ी थी। कमरा साफ-सुथरा था। यहां ही उसे ठहरना था।

रात्री के 11 बज गये। सब अपने बिस्तरो पर पहुंच गये। माधव भी अपने कमरे में आ गया। आशा बोली और ऊपर क्या है ? यह सुनकर माधव बोला - ‘चलो चलें ऊपर घूम-फिर आते हैं। दोनों ऊपर पहुंच गये।‘

आशा वहां की व्यवस्था देखकर दंग रह गई। विल्डिंग के ऊपर से पहाड़ी पर लांघा जा सकता है। यदि इधर से दबस पड़ जाये तो नीचे से भागा जा सकता है। आशा सोचने लगी- साधू-सन्तों ने यह बिल्डिंग बागियों की सुविधा देखकर बनवाई होगी।

बड़ी देर तक दोनों छत पर टहलते रहे। बातें करते रहे। फिर दोनों अपने कमरे में लौट आये। जैसे ही वे फूलों से सजी सेज पर बैठे संयम का बांध टूट गया। आशा की दबी आवाज में करते बातें, नीचे बागियों के कानों में पड़ी तो सभी का दिल धड़कने लगा। सभी सारी रात्री सो न सके। माधव और आशा सारी रात्री प्रणय की कहानी लिखते रहे।

सुबह के पांच बज गये थे। अभी तक सभी अलसाये पड़े थे। माधव और आशा की अपेक्षा किसी में फुर्ती नहीं दिखती थी। कल के काम-धाम से सभी थके हुए थे। नीचे वाले कमरे से ऊपर अपने की आवाजें अने लगी। दोनों सम्हल गये। आशा बिस्तर से उठकर खड़ी हो गयी। पर बहादुर व्यंग किये बिना न रहा-

‘सरदार अब तो उठो काहे को इतनी लाद रखी है।‘ हाथ में चाय की केतली लिये हुए बहादुर ने कमरे में प्रवेश किया। आशा ने बहादुर के हाथ से चाय ले ली तो वह लौटने लगा। माधव बोला-

‘अरे क्यों भागे जा रहे हो।‘

‘अभी आया‘ कहते हुए चला गया आशा ने चाय दो जगह डाली। और दोनों पीने लगे। थोड़ी देर बाद बहादुर फिर लौट आया और बोला-

सरदार नीचे माताजी पिताजी जाने को तैयार खड़े हैं। आपको बुला रहे हैं। चाय पीकर माधव और आशा दोनों नीचे पहुंच गये। माताजी पिताजी जाने को तैयार खड़े थे। आशा और मां जी गले मिलीं, तो दोनों आंसू भर कर रोने लगीं। माधव बोला- मांजी मुझपर विश्वास रखो। आशा को जीवन भर किसी प्रकार का कश्ट नहीं होगा।’

वीरू बोला- ‘सरदार इन्हें जल्दी भेजिये। देर हो जायेगी। दोनों को अलग घोड़ों पर बिठा दिया गया। कुछ ही देर में दोनों आंखों से ओझिल हो गये।

माधव और आशा अपने कमरे में लौट गये थे। दोनों उदास थे। थोड़ी देर बाद बहादुर आशा के लिये लाये हुये उपहार लेकर कमरे में आया। आशा उपहार देखकर खड़ी हो गई। बड़ी उत्सुकता से उन्हें बहादुर से लेने के लिये आगे बढ़ी। उसने बहादुर से उपहार ले लिये। एक एक करके उन्हें गौर से देखने लगी।

हर उपहार देखने के बाद उसकी दृश्टि बदल जाती। चेहरे के विभिन्न उतार-चढ़ाव देखकर बहादुर तो चला गया। माधव उसके चहरे पर के उतार चढ़ाव देखने में व्यस्त हो गया। कुछ क्षणों के सन्नाटे के बाद आशा बोली-

‘माधव ये मेरे लिये उपहार हैं।‘

‘जी।‘

‘आप क्या लाये हैं ? मेरे लिये।‘

सुनकर माधव ने अपने गले से एक सोने की जंजीर उतारी और बोला- ‘यह मेरी ओर से।‘

‘ इसका मैं क्या करूंगी।‘

‘क्यों उपहार का क्या किया जाता है ?‘

‘पर उपहार, उपहार सा होना चाहिए।‘

‘इसमें क्या कमी है ?‘

‘यह उपहार किसी की गरदन काट कर लाया गया होगा।

माधव झुंझलाते हुए बोला -‘देख नहीं रही हो, तुम्हारे लिये ये नया खरीद कर लाया गया है।

जब मैं नीति की बात पूछने लगी तो आप झुंझला उठे। अरे यह उस धन के बदले में है जो जाने कितनों के गले काट कर लाया गया होगा।‘ बात सुनकर माधव को याद हो आया वह दृश्य, जब उसने सेठजी की हत्या कर दी थी किशन और मजबूत सिंह बागी ने उसके गले की जंजीर खींच ली थी। बटवारे में मेरे हिस्से मंे पड़ गयी। यह वही जंजीर है।

‘ आपने जवाब नहीं दिया।‘

‘यह सच भी हो तो यह जिनका गला काट कर लायी गयी है वे रोज किसी न किसी का ऐसा गला काटते हैं कि उसकी तीन तीन पीढयिां़ तड़-फड़ाती रहतीं हैं।

‘वे किसका गला काटते हैं, आदमी अपनी स्वेच्छा से उनके पास जाता है। जैसे मैं तुम्हारे पास आई हूँ।‘

‘तुम्हारा कौन गला काट रहा है ?‘

‘ मैंने तो एक बागी से स्वेच्छा से व्याह किया है। मैं तो स्वयम् ही समर्पित हो गई हूँ।‘

‘चाहो तो वापिस जा सकती हो।‘

‘माधव मैं वापिस जाने के लिये नहीं, तुम्हें समाज में वापिस लाने के लिए आई हूँ। माधव इस धन पर न मेरा अधिकार है न तुम्हारा। यह तो गरीबों का है। इस धन को उन्हीं के पास पहुंचा देना चाहिए।‘

‘पर अपने लिए।‘

‘मुझे अपने लिए कितना चाहिए ?‘ रोटी, कपड़ा और मकान ! उसकी कौन कमी है। गरीबों को यह भी नसीब नहीं होता।‘

‘तो तुम ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं।‘

‘हां माधव तुम पर जितना धन हो वह सब मेरे साथ भिजवाने का कश्ट करेंगे। शादी के उपलक्ष में।‘

‘तो गरीबों की सेविका बनोगी।‘

‘नहीं।‘

‘उनकी तो वस्तु उन्हीं में बांटने का प्रयास करूंगी।‘

‘वाह आशा ! मैं धन्य हो गया। जिसे इतने ऊंचे विचारों वाली पत्नी मिले उसका कभी अमंगल नहीं हो सकता।‘

‘अब छोड़ो मुझे घर कब भेजोगे।‘

‘घर में क्या है ? अभी माताजी पिताजी गये हैं।‘ तुम अभी ही जाने की बातें करने लगी। क्या मुझसे उक्ता गई ?जब तक मन नहीं भरता, जाने न दूंगा।

‘आपसे उक्ताहट तो जिन्दगी भर नहीं हो सकती। लेकिन पुलिस तो परेशान करेगी ही।‘

‘क्यों करेगी ? कह देना माधव पकड़ कर ले गया था जंगल मंे। उसने विवाह कर लिया तो मैं क्या करूं ? वे कुछ न कहेंगे। फिर भी उनसे बातें करने का साहस तो जुटाना ही पड़ेगा।

बात सुनकर वह चुप रही। कुछ न बोली। सोचने लगी- अब तो जिन्दगी इसी तरह गुजरेगी। मेरा घर तो जंगल के पेड़-पौधे ही हैं। पति का सुख इन्हीं की छत्रछाया में ही मिल सकेगा। आशा को चुप देखकर माधव पूछ बैठा-

‘चुप क्यों रह गईं साहस ही हमारा जीवन है। और डरना ही मृत्यु है।‘

‘मैं मृत्यु से नहीं डरती।‘

‘आखिर बागी की पत्नी होकर मृत्यु से क्यों डरोगी।‘

‘तभी नीचे बागियों में जोर-जोर से हंसने की आवाज सुनाई पड़ी।’

आज 10 दिन बाद आशा घर जा रही थी सभी आवश्यक बातें माधव उसे पहिले ही समझा चुका था। जाते वक्त सभी बागी वहां आ गये। आशा उससे बोली- आप एक काम कर सकेंगे ?‘

सभी के मुंह से निकला - कहें , कहं भाभी जी हमारे लिये क्या आज्ञा है?‘

‘मैं यह जानती हूँ ,आप लोग अपना धन्धा बन्द नहीं करेंगे। यदि धन्धा बन्द कर देंगे तो उसी वक्त मारे भी जायेंगे। यहां जीवन ही पैसा है, यहां का भगवान पैसा है। बिना पैसे के पैर भी नहीं रखा जा सकता है। आप सब लोगों से अपने व्याह के उपलक्ष में बस एक ही उपहार मांगती हूँ।‘

‘क्या उपहार ?‘ वीरू के मुंह से निकल गया।

उसने उत्तर दिया -‘आपके धन्धे में कहीं कोई निर्दोश व्यक्ति न मारा जाये।‘

‘बात सुनकर माधव बोला- ‘पर आत्म-रक्षा के लिये।‘

‘मजबूरी की बात ही अलग है।’

‘आशाजी, हमारा दल आपकी इस आज्ञा का पालन जरूर करेगा।‘

यह बात माधव की सुनकर वह आगे बढ़ी। सभी बागी वहीं रुक गये। माधव उसका साथ देने आगेे बढ़ा। किशन उसे भेजने साथ जा रहा था। थोड़ी दूर चलने के बाद माधव ने मौन तोड़ा-‘अच्छा आशा, यहां से आगे मेरा चलना ठीक नहीं है दिन निकलने वाला है। मुझे लौट जाना चाहिए।’

आशा बोली- ‘घर कब आओगे ?‘

जब समय पहंुचाये। वैसे जल्दी कोशिश करूंगा। तुम्हारे बिना यहां मन भी तो नहीं लगेगा।‘

‘अच्छा किशन आप ले जायें इन्हें, देर न करें।‘ बात सुनकर किशन घोड़े की लगाम पकड़े आगे बढ़ गया।

माधव खड़ा-खड़ा उन्हें जाते हुए, तब तक देखता रहा जब तक वे दूर निकल गये।

जिस दिन से माधव बागी बना था। उस दिन से उसकी आत्मा बहुत निश्ठुर सी बन गई थी। माधव अपने आप में बदला-बदला सा लग रहा था। आज उसका अर्न्तद्वन्द चल रहा था। सभी खुश दिखाई दे रहे थे, पर माधव के चेहरे से पीड़ा साफ-साफ झलक रही थी।

वह विचारों के गहरे सागर में तैर रहा था, उन्हीं विचारों के सहारे वह उस बेगवती नदी को तैर कर पार करना चाहता था। अब वह ऐसे दलदल में आकर फंस गया था, जिसमें से निकलने के लिये हाथ पैर चलाये तो और अधिक फंस जायेगा। इससे निकल पाना असम्भव सा लगने लगा।

उसके मुंह से शब्द निकले-‘‘मैं अब बागी नहीं रह सकता।‘ यह बात उसके सभी साथियों ने सुनी तो वे उसे घेर कर समझाने बैठ गये।

‘मैं जेल चला जाऊंगा।‘

डसकी यह बात सुनकर बागी मजबूत सिंह बोला -‘फांसी के फन्दे से न बचोगे।‘

अब वीरू बोल़ा- ‘फांसी पर चढ़ना ही था तो आशा भाभी से व्याह क्यों किया ?‘

‘मजबूत सिंह फिर बोले बिना न रहा -‘अब तो सरदार इसी में सार है, जिन्दगी के जितने दिन गुजरे, इन्हीं जंगलों में गुजारंे।‘

माधव चेतन अवस्था में लौट आया इन सभी बातों को सुनकर बोला, ‘ठीक है आप लोगों के साथ ही जीवन गुजारना है फिर जीवन के लिये कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं है।

उसकी यह बात सुनकर वीरू फिर बोला -‘आज सरदार आप कैसी बहकी-बहकी बातें करके हमें डरा रहे हैं। आप ही इस तरह सोचने लगे तो कल हम सबका क्या होगा ?‘

माधव बोला- ‘अभी मेरे रहते हुए तुम्हें किसी तरह की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। अब इन बातों को छोड़ो, उठो चलो, अब यह स्थान बदलना जरूरी हो गया है।‘ आदेश सुनकर सभी उठ खड़े हुए।

आशा और किशन कस्बे के निकट पहुंचे। शाम हो चुकी थी। किशन ईश्वर को बार-बार धन्यवाद दे रहा था कि रास्ते में उन्हें किसी ने नहीं टोका। किशन यदि अपनी बन्दूक डाले होता तो यहां तक आना और भी मुश्किल हो जाता। उसने यह अच्छा किया बीहड़ से निकलकर अपनी बन्दूक को घोड़े के काठी में छिपा ली थी। जब कस्बे के निकट पहुंच गये तो आशा बोली -

‘दादा, अब यहीं रूक जावें। घर रात में चलेंगे।’

किशन भी यही चाहता था ,इस लिए एक नाले की तरफ बढ़ गये। खन्दक में जाकर दोनों ठहर गये। रात्री होने का तीव्रता से इन्तजार करने लगे।

जैसे अन्धेरा छाया आकाश में एक दो तारे दिखे। यह सोचकर खन्दक से निकले कि कस्बे में पहुंचते-पहुंचते गहरा अन्धेरा हो जायेगा। घोड़ा वहीं छोड़ दिया गया। किशन ने आशा का सामान अपने साथ ले लिया।

आशा उसके पीछे-पीछे चलने लगी। मानो कोई वधु अपनी ससुराल से लौटकर आ रही हो। पहली-पहली बार ससुराल से लौटने पर जैसे शर्मांती है वैसे ही आशा शर्माते हुए चली जा रही थी। बार-बार साड़ी को सम्हालती, पर अन्धेरे मे किसे दिख रही थी साड़ी। रात में कौन आया ? कौन गया ? किसी को मतलब न था।

जब वह घर पहुंची। मां आंगन में मौजूद थी। रात्री के भोजन की तैयारी कर रही थी। बेटी मां को देखकर उससे लिपट गई। बड़ी देर तक मां बेटी रोती रही। आशा के पिताजी अपलक दृश्टि से बड़ी देर तक देखते रहे। उनकी आंखों में भी आंसू आ गये। उन्हें पोछने लगे।

आशा ने देख लिया तो बोली - ‘पिताजी इतने दिन मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। ये लोग जंगलों में भी मौज करते हैं।‘

‘वह तो ठीक है बेटी, पर जंगज जंगल ही है।‘ बात पर दोनांे कुछ न बोले। मौन हो गये। दोनों को ही जंगल का अस्तित्व स्वीकार था।

अब आशा के मां-बाप किशन के पास आ गये। आशा किशन के लिये खाना ले आई और बोली -‘दादा, बातें फिर करना, पहले आप खाना खा लें। किशन खाना खाने बैठ गया। सभी बातें करने के मूड मंे थे तो खाना खाने में बातें होने लगीं।

किशन बोला-‘अभी गांव में शादी वादी की बात नहीं करना है। कोई पूछे तो कह देना आशा मामा के यहां गई थी।‘ आशा की मां बोली -‘अरे जो होना है हो गया। सरकार जो करे कर ले। बात छिपाने में भी फायदा नहीं है।‘ किशन आशा की मां की दूरदृश्टि भांप गया। बोला -‘आप चिन्ता न करें मांजी। समय आने पर सब बातें कह दी जायेंगी। लेकिन अभी गर्म आग है। ठीक नहीं है।‘

तभी आशा के पिताजी बोले -‘भईया, एक रोटी और ले लो।‘

‘अरे दादा, घर आकर भूखा रहूँगा? हम लोग जंगलों में भूखे नहीं रहते। और हां.... उस दिन आप लोग सकुशल तो लौट आये थे ना।‘

आशा की मां बोली -‘ हां भईया, हमारे बारे में किसी को कुछ भी शक नहीं है। अब चाहे जो शक करें।‘

‘फिर तो ठीक है कोई कुछ न जान पायेगा। मां जी हम लोगों के जीवन की यही समस्या है। हम करते तो ऐसे-ऐसे काम हैं जो कोई नहीं कर पाता, पर हम लोग अपने मुंह से कह नहीं पाते।

‘हमें भी ये बातें क्यों कहना है?

‘ बात सुनकर किशन बोला-‘आप चिन्ता न करें हम लोग यहां के दरोगा की व्यवस्था कर देंगे। वह कुछ न कहेगा। अरे मां जी पैसों में तो वह ताकत होती है कि ये तो दरोगा है, आज के जमाने में चाहे जिस मिनिस्टर को खरीद लो। न्यायाधीश खरीद लिये जाते हैं।‘

किशन की बातें सुनकर सभी अश्चर्य चकित थे। इन बातों ने तो सभी के दिल का डर निकाल दिया था।

खाना खा-पीकर समझा-बुझाकर किशन चला गया। किशन के जाते ही सभी को खूब जोर की रूलाई आई पर सभी शांत रह गये। पड़ोसी सुनेंगे तो सब जान जायेंगे।

सुबह जब उठी। उसकी निगाहें मां पर पड़ गईं। मां उपहारों की गठरी को खोलकर देख रही थी। वह तुरन्त उठ बैठी और बोली -मां इन्हें क्या देख रही है ? इनमें मेरा क्या है ?‘

‘तो ये किसके लिये हैं बेटी ? अरे इतने सारे गहने, इन्हें सम्हाल कर रख दे। इनके बिना भी काम नहीं चलता।‘

‘लेकिन मां मैंने कहा ना इसमें मेरा क्या है ?‘

‘क्यों नहीं है इसमें तेरा ? फिर वही बातें, इतने सारे गहने तो इस कस्बे में किसी के पास न होंगे। अरे कोई समझदार औरत हो तो इन्हीं में सारी जिन्दगी कट सकती है।‘

‘मां यह सब गरीबों का है। उनकी चीज उन तक पहुंच जाये। बस मुझे और क्या ?‘

‘पागलों जैसी बातें मत कर।’

मं, ऐसी बातें तो मैं उनसे ही सीखकर आई हूँ।

‘बेटी बागी के जीवन का कोई विश्वास नहीं होता। उसके जीवन के बाद तूं क्या करेगी ? इसलिए इस धन का दुरूपयोग न कर, उसे भविश्य के लिये रख ले। अन्यथा भूखों मरना पड़ेगा।‘

‘मां तू ऐसे न कह। ईश्वर न करे मां मुझे वे दिन देखना पड़े। और यदि ऐसा भी हो गया तो मां मैं मेहनत-मजदूरी करके पेट भर लूंगी।‘

‘फिर भी इसको बर्बाद करना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है।‘

‘मां ये गरीबों की आहें हैं, जो सेठ साहूकारों की तिजोरियों में बन्द थीं। माधव ने इसे निकाल फेंका है। इसका मतलब यह नहीं है मां कि इस धन का दुरूपयोग करूं। मैं चाहती हूँ ं ं ं ।‘ बात अधूरी छोड़ दी।

मां को समझाना पड़ा-‘एक ओर बागी से शादी, दूसरी ओर गरीबों पर दया। मेरे तो यह बात समझ में ही नहीं आती। बेटी तुझे ये क्या हो गया है !‘ तू जो करना चाहती है कर। मैं और तेरे पिताजी तो बस तेरी स्वेच्छा चाहते हैं। समझदार है जैसा चाहे कर। हां इतना अवश्य चाहते हैं, जीवन में तुझे कोई कश्ट न हो।

‘आप चाहती हैं मां मुझे कोई कश्ट न हो, पर मैंने तो कन्टकों की राह पर चलना ही स्वीकार किया है।’

मां बात बदलने के लिये बोली-‘‘यह बता बेटी, माधव कब आयेगा ?‘

‘मां वो कब आयेंगे कह नहीं सकती ? शायद कभी न आयें।

‘अरे हट पगली ऐसी अशुभ बातें नहीं कहते।

‘मां जो दूसरों को अशुभ करते हैं उनसे कितने लोग रोजाना अशुभ नहीं कहते।‘

‘पर बेटी तुझे तो।‘

‘जब इतने लोगों के कहने का असर नहीं होगा तो मेरे कहने, से भी नहीं होगा।‘

‘अच्छा-अच्छा चल उठ। बहुत बातें करने लगी है।‘

‘अभी तक बिस्तर पर पड़ी है,।ै हाथ मुंह धोने भी नहीं गई है।‘ मां की यह बात सुनकर वह हाथ-मुंह धोने के लिये घर से बाहर निकलना चाही। ठिठक कर रह गई। अपने बिस्तरे पर पुनः जा गिरी और सिसक-सिसक कर रोने लगी। एकदम ये क्या हो गया जो ?‘

सिसकियों की आवाज सुनकर मां उसके पास आ गई और पूंछने लगी-एकदम तुझे ये क्या हो गया जो ?

‘कुछ नहीं मां।‘

‘कुछ तो हुआ है, नहीं तो क्यों रोने लगी ?‘

मां मैं घर से बाहर निकलने को थी कि उनकी यह बात याद हो आई कि शादी वाली बात किसी से मत कहना। मां तूं ही बता कोई नारी व्याह की बाते छुपा सकेगी। ये व्याह का सुहाग, उतार कर ही, कुछ दिनों के लिये छुपाया जा सकता है और यह मंगलसूत्र तो उस समय उतारा जाता जब ।

‘वाह रे भाग्य जिसका पति जीवित है, अभी व्याह हुये कुछ ही दिन नहीं गुजरे हैं और ये मंगलसूत्र उतारना पड़ रहा है । ये सुहाग की निशानी मिटानी पड़ रही है। मां तू ही बता मै क्या करूं ?

मां यह सब सुनती रही। जब कोई उत्तर न सूझा तो वह कमरे से बाहर आंसू पोंछते हुए निकल गई। आशा ने रोना बंद कर दिया कुछ सोचने लगी। सोचते-सोचते वह उठी। उठकर पूजा के घर में गई। वहां राधा कृश्ण की छोटी-छोटी मूर्तियां रखीे थीं। उसने उनके सामने हाथ जोड़े। आंखें बन्द कर लीं। एक क्षण बाद आंखें खुलीं। अब आंखों में सोच की जगह चमक थी।

उसने अपने गले से मंगलसूत्र उतारा और राधा जी के गले में पहिना दिया। सुहाग की सारी चीजें उतार डालीं। एक-एक करके राधा जी को पहिना दीं। हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी। राधा जी सम्हालना ये सुहाग की मेरी निशानी। इनकी लाज रखना। कहीं ऐसा न हो कि ये मंगलसूत्र आपके गले से उतारना पड़े। यह कहते हुए रोती पड़ी।

मां भी उसे देखने उस कमरे में पहुंच गई थी उसकी ये बातें सुनकर हिचकियां भर भर कर रोने लगी। रोने की आवाजें सुन पिताजी भी उस कमरे में आ गये। मंगलसूत्र राधा जी के गले में पड़ा देख, वे सब समझ गये और वेे भी रोने लगे ?‘