नैनी के किनारे Anamika द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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नैनी के किनारे

भीड़ हमेशा विचलित और भ्रमित करती है जबकि शांति में मन अपने गहरे उतरकर कुछ नायाब ढूंढ लाता है। ऐसा ही कुछ अभी मेरे साथ भी हो रहा था। मैं अपने नये उपन्यास का खा़का मन में खींच चुका था,पर उसकी शुरुआत का सिरा ही नहीं मिल रहा था मुझे और अब एक ही राह बची थी मेरे पास, अकेलापन और शांति। मैंने निश्चय किया कि कुछ दिन जॉब से छुट्टी लेकर, मैं इस शहर से दूर कहीं शांत वादियों में अपना ठिकाना बना लूं। मुझे अपने दोस्त के खाली पड़े घर का ख्याल आया,वहां मैं 4 साल पहले भी कुछ समय बिता चुका था।मैंने अपने दोस्त से बात कर ली और घर में मम्मी पापा को भी अपना विचार बता दिया। मम्मी तो खुश हीं रहती थीं मुझसे, जैसा आमतौर पर हर मां रहती है, पर पापा नाराज रहते थे, कहते "शादी की उम्र हो गई, शादी करनी चाहिए, अकेले खानाबदोश की तरह लिखने के पीछे भटकता रहता है।"
लेखन के क्षेत्र में मुझे मिले सम्मानों से उन्हें कोई सरोकार नहीं था, मेरी लगभग 6 अंकों तक पहुंचती कमाई ही उन्हें मेरी उपलब्धि नजर आती थी।

फरवरी अपनी ढलान की ओर थी, मैंने गर्म कपड़े रखे और अपने दोस्त के घर, नैनीताल के लिए निकल गया। ट्रेन से काठगोदाम तक पहुंचा। वहां से टैक्सी बुक की और नैनीताल की ओर चल पड़ा। नैनीताल जाते हुए मैं वहां की सुरम्य वादियों में खो गया था। प्रकृति ने सारा सौंदर्य इन हिमालयीन क्षेत्रों में ही भर दिया है।यदि स्वर्ग की अवधारणा सत्य है, तो स्वर्ग ऐसा ही होता होगा। लेकिन स्वर्ग है तो नर्क भी है,प्राकृतिक आपदाएं भी तो इन्हीं क्षेत्रों में सबसे अधिक आती हैं।खैर इस स्वर्ग को नर्क बनाने में हम इंसानों ने ही कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी है,पृथ्वी के हर कोने में हमारे विकास की धमक जरूरी है, चाहे उससे इस धरा का नाश ही क्यों ना हो।

टैक्सी घर तक पहुंच चुकी थी, घर के केयरटेकर श्याम ने मेरा स्वागत किया।

"आइए क्षितिज बाबू, रास्ते में कोई दिक्कत तो नहीं हुई?"

"यहां तक आने में कोई दिक्कत हुई भी हो, तो उसका जिक्र करना इस स्वर्ग की तौहीन होगी श्याम बाबू।"

श्याम मेरी बात सुनकर हंसने लगा।श्याम ने किचन में सारी व्यवस्था कर दी थी, मेरे लिए खाना भी बना दिया था। उसने कहा कि मैं रोज आकर खाना बना दिया करूंगा पर मैंने उसे मना कर दिया और कहा कि नहीं मैं सब खुद कर लूंगा और जिस दिन यहां से जाऊंगा उस दिन उसे बुला लूंगा। मैं अपने अकेलेपन में श्याम की खलल नहीं चाहता था।श्याम के जाने के बाद मैंने खाना खाया, खाने के बाद सफर की थकान मुझ पर और हावी हो गई, इसलिए मैं सो गया और जब मेरी नींद खुली तो सूर्य पश्चिम दिशा के आखिरी छोर की ओर बढ़ चुका था।

कुछ देर बाद कॉफी, पेन और डायरी तीनों के साथ में टैरेस पर बैठा हुआ था, तभी एक खनकती हंसी मेरे कानों से टकराई।मैंने सर उठा कर देखा तो सामने वाले घर की छत पर एक औरत पौधों में पानी डालते हुए मोबाइल पर बातें करती हंस रही थी। उसने मुझे नहीं देखा पर मैं उसकी हंसी देखता रह गया, ऐसी बेलौस हंसी मैंने पहली मर्तबा देखी थी। उसकी बातें बंद हुई और उसकी नजरें मेरी नजरों से टकराई। मैं घबरा कर परे देखने लगा, और कुछ क्षण बाद जब स्वत: ही मेरी नजरें उसकी ओर उठी, तो पाया कि वह एकटक मुझे ही देख रही थी। कुछ तो था उसकी नजरों में जो मैं समझ ना पाया, वह तुरंत नीचे भाग गई। मेरा यूं उसे देखना शायद पसंद नहीं आया था, उसे।

रात सपने में भी मुझे उसकी हंसी सुनाई देती रही। सुबह होने पर खिड़की से मेरी नजरें उसे ही ढूंढ रही थीं, पर वह ना दिखी।नामालूम मुझ पर मायूसी सी क्यों छा गई। उस अजनबी की ओर मैं इतना खिंचा क्यों चला जा रहा था,यह मेरी समझ के परे था। मेरी नजरें बार-बार उसके घर की ओर ही उठ रही थी। कुछ देर बाद वह घर से बाहर निकली, साथ मेरी उम्र का एक आदमी भी था। वह उसे मुस्कुराकर अलविदा कह रही थी। मैं समझ गया,वह उसका पति था। पर पता नहीं क्यों, पति को अलविदा कहती उसकी मुस्कुराहट, जबरदस्ती होठों पर चस्पा की हुई लगी।
मैं अब फिर से टैरेस पर था, धूप गुनगुनी और अच्छी लग रही थी। मैं लिखने की कोशिश कर रहा था, पर कोशिश सफल नहीं हो रही थी। वह भी अपने टैरेस पर ही थी, बाल भीगे हुए उसके कंधों पर बिखरे थे,धूप में उसके गुलाबी गाल, लाल नजर आ रहे थे। मैं कल तक उसकी हंसी में खोया था आज उसके रूप में खो गया। वह कुछ देर तक झूले पर बैठी रही फिर नीचे चली गई। पूरा दिन बीत गया और शाम हो गई पर वह छत पर नहीं आई।

मैं रात को घर से बाहर लॉन में निकला, तो पाया पूनम का चांद निकला था। आज से पहले जिस लेखक को चांद में रोटी, चांदनी में भूखे पेट की ज्वाला नजर आती थी। आज उसे चांद में उसका चेहरा और चांदनी में उसकी बेलौस हंसी की चमक नजर आ रही थी। मैं खुद पर हैरान था,मैंने अपने अंदर इतना प्रेम तो कभी महसूस नहीं किया था।आखिर वह कौन सा तार है, जो मुझे उससे जोड़े जा रहा था। अभी तक मैंने स्त्री विमर्श, सामाजिक मुद्दों पर लिखा था, परंतु खालिस प्रेम कहानी अभी तक अछूती ही थी। मेरे मन में ख्याल आया क्या वह मुझे पहचानती होगी? लेकिन कैसे? किसी लेखक की पहुंच सब तक तो नहीं होती, शायद वह मुझे नहीं जानती, तभी तो मुझे देखकर भी उसने अनदेखा कर दिया।

अब, जब-तब मेरी नजरें उसे ही ढूंढती थी। मैं इस बात का ख्याल रखता था कि उसे देखती हुई मेरी नजरों को वह न देख पाए। वह अब छत पर कम ही आती थी। उसे मोबाइल पर बात करते,कई बार हंसते देखा था मैंने, पर अपने पति के साथ कभी नहीं। वह छत पर भी हमेशा अकेली ही होती थी। कई बार मेरी तरह, चांद तारों को निहारती अकेली बैठी रहती। कई दिन बीत चुके थे।मेरा उपन्यास का काम बिल्कुल बंद हो चुका था, मैं सोच रहा था कि वापस चला जाऊं पर कोई डोर थी, जो मुझे बांधे हुए थी।

एक सुबह मेरे दरवाजे की घंटी बजी, जब मैंने दरवाजा खोला तो आठवां अजूबा मेरे सामने था, वह मेरे सामने खड़ी थी, बिल्कुल मेरे करीब।
"कैसे हैं आप क्षितिज जी।"

यह मेरे लिए नौवां अजूबा था, वह मुझे जानती थी।मेरी नजरों के जवाब में उसने मेरे हाथों में,अपने साथ लाई हुईं,मेरी किताबें रख दीं।

"अब तो आप सब समझ ही गए होंगे।मैंने आपके लिखे को जिया है। जितना आप खुद को जानते होंगे,उतना ही मैं भी जानती हूं आपको।"

"तुम दरवाजे पर क्यों खड़ी हो अंदर आओ न।" मैने उसे तुम कहा, मैं अपनी बेतकल्लुफी पर हैरान रह गया।

"मैं खुद आपसे लंबी बातें करना चाहती हूं, अगर आपको ऐतराज ना हो तो आज की शाम हम साथ बिता सकते हैं।"

मैंने सहमति में अपना सिर हिला दिया।वह हवा के झोंके की तरह आई थी और उसी तरह दरवाजे से ही वापस लौट गई। मैं उसका नाम तक नहीं पूछ पाया। अब मुझे इंतजार उस वक्त का था, जब हम दोनों साथ होते।

दोपहर के खाने के बाद मैं उसकी कार में था।

"तो कहां जाना चाहेंगे आप?"

"जहां तुम ले चलो...।

"आस्था, आस्था नाम है मेरा!"वह मुस्कुराई, ये मुस्कुराहट जबरदस्ती उसके होठों पर चस्पा की हुई नहीं, बल्कि उसके अंतस् की मुस्कुराहट थी।

हम दोनों एक साथ ही बोल उठे, नैनी झील चलें...।

"तुम चार साल पहले तो यहां नहीं थी।"

"पिछले तीन सालों से यहां हूं, शादी के बाद से।"

"आपको यह सब कुछ अजीब लग रहा होगा न।"

"सब कुछ तो नहीं, पर मुझ पर यूं तुम्हारा भरोसा करना अजीब लग रहा है।"

"पिछले सात दिनों से आपकी नजरों को देख रही हूं, इतनी काबिलियत तो है ही कि किसी की नजरों को पहचान सकूं, मैंने तो पहले ही दिन छत पर देखते ही आपको पहचान लिया था, और फिर मैंने कहा न कि मैं आपको उतना ही जानती हूं, जितना खुद को आप जानते हैं, दो साल हो गए आपको पढ़ते, एक रिश्ता तो आप से जुड़ ही गया है!"

"पता है, आपकी किताबों ने कितनी रातों को मुझे सुलाया,तो कितनी ही जागती रातों की साथी बनी।"

वह बोल रही थी मैं सुन रहा था मुझे नहीं पता था उसने, मुझसे कहने को इतनी बातें संजोकर रखी हैं, अपने दिल में।

********
पहाड़ियों से घिरी झील उन पहाड़ियों के रंग में रंग कर हरी दिख रही थी। झील के दोनों ओर बाजार सजे हुए थे। मैं और आस्था झील के किनारे सीढ़ी पर खाली जगह देख कर बैठ गए।
"आज मैं सोच रही हूं क्षितिज, अगर उस दिन भगवान से मैंने कुछ ज्यादा मांग लिया होता तो वह भी मिल जाता।"
"मैं कुछ समझा नहीं।"
"ऐसे ही किसी दिन मैंने आपसे एक बार मिलने की प्रार्थना की थी।"
"अच्छा तो सारी साजिशें तुम्हारी थीं और मैं खुद को दोष देता रहा।" वह अर्थपूर्ण नजरों से मेरी ओर देखने लगी।

"जानती हो आस्था इस झील का इतिहास, पुराणों में यह कहा गया है कि अत्रि, पुलस्त्य और पुलह ऋषि को प्यास लगी और जब इस क्षेत्र में उन्हें जल नहीं मिला तो, उन्होंने एक गड्ढा बनाकर मानसरोवर से जल लाकर भरा था, वही यह नैनी झील है।"

"काश मन की प्यास बुझाने वाली भी कोई झील बनी होती।"

"मन की प्यास तो मन का मीत ही बुझा सकता है और तुम्हारे मन का मीत तो तुम्हारे साथ ही है।"

"कभी-कभी किसी के साथ रहकर भी मन नहीं जोड़ पाता खुद को और कभी किसी से दूर रहकर भी जुड़ जाता है।"

मैंने मुस्कुराकर कहा "मैं तुम्हारे पति की बात नहीं कर रहा, मैं तो अपनी बात कर रहा था। दोस्त भी तो मन के मीत होते हैं।"

आस्था झेंप गई, बात टालने के लिए उसने कहा "यहां आकर आपको अच्छा लगा?मुझे तो इस झील के किनारे समय बिताना बहुत अच्छा लगता है, मैं ज्यादातर यहां आती रहती हूं।"

"अपने पति के साथ?"

"नहीं अमर को ये सब पसंद नहीं" कहती हुई आस्था का चेहरा मुरझा गया।
डूबते सूरज ने अपनी लालिमा बिखेर दी थी। मैं आस्था के चेहरे को देख रहा था, मैंने उसके चेहरे पर मुस्कुराहट वापस लाने के लिए कहा-
"मैंने आज जाना कि सूरज यह लालिमा तुम्हारे गुलाबी गालों से उधार लेता है।"
"बस-बस आप अपने लेखन का हुनर मुझ पर मत आजमाइए" फिर वह हंसने लगी, वही हंसी जिसे मैंने पहली बार देखा था।
"अब हमें घर चलना चाहिए अमर तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे।"
"वे दो दिनों के लिए ऑफिस के काम से शहर से बाहर हैं,
हम कुछ देर और यहां बैठ सकते हैं।"

अंधेरा हो चुका था, लाइटें जल चुकी थीं, झील का पानी उनके प्रकाश से झिलमिला रहा था। हम वहां बैठे रहे। आस्था झील के ठहरे हुए पानी को देख रही थी।

ठंड बढ़ गई थी, मैंने कहा "अब चलना चाहिए आस्था।" घर की ओर लौटते हुए, हमने रेस्टोरेंट में खाना खाया और वापस आ गए।
मैंने कहा "हम कल की शाम भी साथ बिता सकते हैं?"

आस्था ने कहा- "जरूर।"
उस रात मुझे देर तक नींद नहीं आई। मैं खिड़की से देख रहा था, आस्था के कमरे की भी लाइट देर रात तक जलती रही थी। मेरा मन अजीब ऊहापोह में फंसा हुआ था। हम दोनों बिल्कुल एक जैसे ही थे, एक जैसे मन, क्या जुड़वा मन भी होते हैं।
*********
"आज कहीं और जाना चाहेंगे आप?" आस्था ने पूछा।

"नहीं, वहीं चलते हैं, नैनी के किनारे।"

आज झील के किनारे बैठी आस्था उदास सी थी।

"आपका यूं यहां आना कैसे हुआ?"

"तुम्हारी प्रार्थनाओं ने ही तो बुलाया है....मजाक कर रहा हूं,एक उपन्यास लिखने के सिलसिले में यहां आया था, और तुम मिल गई।"

आस्था थोड़ी देर मुस्कुराती रही, फिर अचानक कहा "आज से पहले यह शहर इतना अपना कभी नहीं लगा मुझे।"

"तुम चाहो तो यह अपनेपन का एहसास हमेशा तुम्हारे साथ बना रह सकता है।"
वह मुझे चौंककर देखने लगी।
" कुछ सपनों की जमीन नहीं होती क्षितिज, वो टूटने के लिए ही होते हैं।"

" तुम कोशिश तो करो..."

"आपने असंभव शब्द नहीं सुना, कुछ कोशिशें इस शब्द के साथ ही खत्म हो जाती हैं।"

"असंभव तो धरती और आकाश का मिलना भी है, लेकिन क्षितिज पर वे मिल ही जाते हैं, असंभव को संभव करता वही क्षितिज तो हूं मैं।"

"आप यह बखूबी जानते हैं क्षितिज, कि जितना धरती और आकाश का मिलना झूठ है,उतना ही सच यह, कि मैं किसी और की ब्याहता हूं।"

"और उस सच का क्या? जो तुम्हारा मन चाहता है!"

"इस झील को देख रहे हैं, मैं जब भी इसे देखती हूं, तो लगता है इसके चारों ओर, इन सात पहाड़ियों ने इसे शादी के सात वचनों की तरह बांध रखा है। मैं भी तो वैसे ही बंधी हूं।"

यह कहते हुए उस झील का पानी उसकी आंखों में भी भर आया था।

मैंने उसके हाथों की ओर बढ़ते हुए अपने हाथों को रोक लिया, लेकिन आस्था ने मेरे हाथों को अपने दोनों हाथों में भर लिया और कहा "जिंदगी की आखरी शाम तक नैनी के किनारे बिताई गई यह शाम, मेरे जीने का सहारा है क्षितिज। कुछ रिश्तो के नाम नहीं होते, पर वह रिश्ते अनमोल होते हैं। हमारे रिश्ते का यही खूबसूरत मोड़ है, जहां से हमें पहले की तरह अपने अपने रास्ते पर चले जाना है।"

"जैसी तुम्हारी इच्छा, मुझे तुमने ही बुलाया और अब वापस भेजने का अधिकार भी तुम्हारा ही है।"

आस्था ने मेरे कंधे पर अपना सिर टिका दिया था, हम बहुत देर तक वैसे ही बैठे हुए, झील के पानी को देखते रहे।मैं देख रहा था, झील का हरा पानी जिसमें हम दोनों के ही मन डूबते जा रहे थे, तल से पर आने का कोई रास्ता नहीं था।

वापस लौटते समय मैंने आस्था से कहा "धन्यवाद मेरी जिंदगी में सुनहरे, यादगार पल देने के लिए।"

आस्था ने कहा "केवल धन्यवाद से काम नहीं चलेगा, बदले में आप की नई किताब चाहिए मुझे।"

रात को मैं देख रहा था, आस्था के कमरे की लाइट जल रही थी।मैं जानता था, वह अपनी साड़ी तह करके अलमारी में रख रही होगी संजोकर, जिसमें मेरी खुशबू है।
मैं जानता हूं, औरतें हर चीज संजो कर रखती हैं, उनकी आदत होती है संजोने की, ठीक उसी तरह संजोती हैं सपने और इच्छाएं भी, लेकिन उसे न जाने कितने दरवाजों के पीछे बंद कर देती हैं, और जीती रहतीं हैं, दूसरों की इच्छाओं और सपनों को।
मैं सोने की कोशिश करने लगा सुबह मुझे वापस घर जाना था।नई किताब लिखनी थी, जो यहां नहीं हो पाया, आखिर मेरी किताबों को अभी आस्था के कितने आंसू और होठों की छुअन जज्ब जो करने थे।

सुबह मैंने श्याम को बुलाया घर की चाबी दी और टैक्सी बुक करके काठगोदाम के लिए निकल गया।घर से निकलते समय आस्था छत पर खड़ी थी, वह मुस्कुरा कर मुझे अलविदा कह रही थी। मुझे अलविदा कहती,उसकी मुस्कुराहट उसके दिल से निकली थी, जबरदस्ती उसके होठों पर आकर नहीं बैठी थी।

समाप्त।।