बागी आत्मा 6
छः
राव वीरेन्द्र सिंह द्वारा एक सेठ की लड़की सरला के साथ, बलात्कार करने वाली बात, गांव भर में चर्चा का विशय बन चुकी थी। । सभी इस समस्या पर गम्भीर रूप से विचार कर रहे थे।
जब यह बात माधव ने सुनी तो लगा यह सब उसकी आशा के साथ घटित हुआ है। नहीं-नहीं, वह आशा के साथ ऐसा नहीं कर सकता है। क्यों नहीं कर सकता है ? उसकी दाढ़ लपकी हुई है। इस सब के बाद सारा गांव चुप है। सभी कायर हैं किसी में भी साहस नहीं है। सभी जान रहे होंगे आज दूसरे के साथ हुआ है कल वह उनके साथ भी हो सकता है, पर सभी चुप हैं ं ं ं।
इसी क्रम में तीन चार दिन निकल गये। माधव उधेड़-बुन में लगा रहा। सारी रात्री सोचते-सोचते निकल जाती। सुबह देर से उठ पाता। दिन खूब चढ़ आता तब घर से निकलता। माधव दिन चढ़े घर से निकला तो सुखनन्दन चाचा ने उसे बुलाया। बोले-
‘माधव अपने से तो ये सब तुम्हारी हरकतें सुनी नहीं जातीं।‘
‘कैसी हरकतें ?‘ मैं समझा नहीं चाचा !
बेटा, सच सच बतला कि क्या तूने नुन्हारी गांव में डाका नहीं डलवाया है। नुन्हारी गांव का नाम सुनते ही माधव के सामने सारा का सारा राज समझ में आ गया। यह हमारे गांव से दो किलोमीटर की दूरी का गांव है। चाचा की बात का उत्तर देते हुए माधव बोला-
‘मैं समझा नहीं चाचा ं ं ं।‘
‘देख माधव, गांव के सभी लोग कह रहे है कि उस डकैती में तुम थे। इसी बजह से सुबह ही मुझे राव साहब ने बुलाया था। वे कह रहे थे- ‘एक डाकू पकड़ा गया है उसने माधव का नाम ले दिया है। अब पुलिस आयेगी फिर जेल ़ ़ ़।‘
‘चाचा वे और क्या कह रहे थे ?‘
सुखनन्दन ने कहा ‘वे कह रहे थे कि तुम उनसे लडने के लिये उनके घर गये थे, अन्यथा वे तुम्हें बचा लेते पर।‘
‘आपने क्या कहा चाचा ?‘
‘मैं क्या कहता ? मैंने कह दिया उसने जो किया है वही भोगेगा।‘
‘तब तो अब फिर जाल रचा जा चुका है।‘
‘जाल ?‘
‘हां ।‘
‘तो क्या बेटा इसमें तुम्हारा हाथ नहीं है ?‘
‘चाचा जी यदि मैं कहूँ कि इसमें मेरा हाथ नहीं है तो आप कभी विश्वास नहीं करेंगे। इसलिए अब तो उन्होंने जो कुछ कहा है वह सब सच ही है।‘
‘अच्छा बेटा मैं तो अपनी नौकरी पर जा रहा हूँ तुम्हें जो दिखे सो करना ं ं ं। मुझे बतला, मैं क्या करूं ?‘ कहते हुए उनका गला भर आया बिन कुछ बोले अपनी नौकरी पर चले गये।
माधव सारी परिस्थिति समझ चुका था। अब उसे क्या करना चाहिए ? अब वह अपनी चाची के पास गया और उसके चरण छूकर बोला-‘चाची मुझे आज्ञा दो मैं आज से एक काम करने जा रहा हूँ।‘
चाची बोली -‘क्या काम करने जा रहे हो बेटा ?‘
‘यह मत पूछो पर आज्ञा दे दो।‘
‘अच्छा बेटा आज्ञा है पर काम तो बता ं ं ं?‘
‘कल तुम्हें खुद ही पता चल जायेगा। कहते हैं चाची शुभ कार्य को कहने से ं ं ं?‘
जब वह आशा के घर पहुंचा, आशा के पिताजी गंगाराम जी घर पर ही थे। आशा की माता जी शांन्ति ने माधव का मुस्कराकर स्वागत किया। बोली- ‘आज इधर कैसे चले आये बेटा।‘
‘आप लोगों से बातें करने।‘
‘क्या बातें बेटा ?‘ माधव को आया देख आशा भी बैठक के अन्दर के दरवाजे के कोनें से आ खड़ी हुई। माधव ने मां की बात का उत्तर दिया- ‘मुझे लगता है दुबारा जेल की हवा किस्मत में लिखी है।‘ आशा की आवज अन्दर से गूंजी- ‘बुरे कर्मों की सजा तो मिलेगी ही।‘
‘मंा तुम्हें ये विश्वास है कि मैं कोई ऐसा काम कर सकता हूँ और आप लोगों से उसे छिपाकर रख सकता हूँ।’
शान्ति बोली - ‘हां यह तो है। अरे हमारे भी कौन हैं जो ?‘
‘मां जी मुझे दुवारा राव वीरेन्द्र सिंह द्वारा झूठा फंसाया जा रहा है।‘
‘ऐसे कैसे ?‘
‘मन्दिर की तरह।‘
मन्दिर वाली बात सुनते ही उसका चेहरा पीला पड़ गया। उसके सामने राव वीरेन्द्र सिंह का चेहरा आ गया। दोनों चुप रह गईं।
यह देख माधव बोला- ‘चुप क्यों रह गईं ?‘
‘सोच रही हूँ इसका इलाज क्या है ?‘ आशा कह गई।
‘इलाज तो है।‘ माधव ने उत्तर दिया।
‘क्या इलाज है ?‘शान्ति ने पूछा।
अब जेल के डर से मैं भागना नहीं चाहता।‘
‘कैसे बचा जा सकता है ?‘
माता जी बच तो सकता हूँ।
शान्ति ने पूछा - ‘कैसे ?‘
‘यह बाद में बताऊंगा।‘
शान्ति पुनः बोली- ‘बेटा मुझे तो लगता है अबकी बार तो हमारी बजह से तुम्हें फंसाया जा रहा है। सो हम भी बेटा तुम्हें धोखा नहीं देंगे।
‘बस मां मुझे यही आशीर्वाद की जरूरत थी।‘ कहते हुए माधव चला गया।
मां और बेटी उसे जाते हुए देखती रहीं।
माधव यहां से अपने घर पहुंचा। बिस्तर पर लेट गया। उसे लगने लगा आज के बाद यह बिस्तर उसे फिर कभी नसीब न होगा। इसी उधेड़-बुन में शाम 5 बज गये। पशुओं के लौटने का समय हो गया। इसी समय गांव के चौकीदार रनधीरा ने दरवाजे पर दस्तक दी।
‘ओ माधव ।‘ माधव दरवाजे पर आ गया। बोला-
‘कहो, क्या हुक्म लाये हो ?‘
‘कल सुबह सात बजे, तुम्हें दरोगा जी ने थाने बुलाया है।‘ माधव सब बातें समझ गया। बोला- ‘ठीक है हुक्म की तामील तो करनी ही पड़ेगी।‘ यह सुनकर रनधीरा चौकीदार तो चला गया।
माधव दरवाजे पर खड़े-खड़े सोचने में लग गया। अच्छा हुआ चौकीदार के हाथ बुलवाया है। दरोगा जी आते तो साथ लेकर ही जाते। यह सोचकर वह अन्दर गया और दैनिक जीवन के उपयोग के सामान की एक गठरी बना डाली। अब वह अन्धेरा होने की प्रतीक्षा करने लगा।
जैसे ही आकाश में अन्धेरा छाया, माधव घर से निकल गया। एक झाड़ी में अपनी गठरी छिपाई। अब वह पुनः कस्बे की ओर लौट पड़ा। सोचते-सोचते वह स्थान आ गया था जहां डांकुओं ने उसे पैसे दिये थे। वह हड़बड़ाया- ‘यही वह जगह है जहां पहली बार बागियों से मुलाकात हुई थी।‘ कुछ क्षण के लिए वहां खड़ा हुआ, फिर वह सीधा चल दिया।
अब वह राव वीरेन्द्र सिंह के घर पर पहुंच चुका था। दरवाजे पर बैठक जमीं थी। उसने अन्धेरे का लाभ उठाया और वीरेन्द्र सिंह के मकान के पिछवाड़े पहुंच गया। वहां स्थिति का अध्ययन करने लगा। गन्दे पानी का पाइप दूसरी मन्जिल से नीचे तक जाता था। उसे पकड़कर ऊपर चढ़ने लगा। थोड़े से परिश्रम के बाद वह छत के ऊपर पहंुच गया। अब वह जाने किस सोच में डूब गया। उसे लगा वह ऐसा क्यों करना चाहता है। अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर। क्या मेरे हृदय कितना निश्ठुर हो गया है। इतनी सोचने के बाद तक वह नीचे मन्जिल पर आने के लिए सीढ़ियों से उतरने लगा।
इस दो मन्जिल वाले मकान मंे वह ऊपर वाली मन्जिल पर ही रह गया। उसने एक खिड़की के कमरे के अन्दर झांका। कमरा खाली था उसमें राव वीरेन्द्र सिंह की ऑटोमेटिक बन्दूक खुटी से लटकी हुई थी। वह कमरे में दाखिल हो गया। माऊजर बन्दूक उठाली। राउंडों वाला पट्टा उठाकर कमर में बांध लिया और बन्दूक को चैक करने लगा तभी राव वीरेन्द्र सिंह की छोटी बच्ची चिल्लाने लगी। चोर ं ं ं चोर ं ं ं चोर ।
कुछ लोगों की पदचापें उस ओर आती सुनाई देने लगीं। वह बालिका दरवाजे में खड़ी-खड़ी चिल्ला रही थी। दरवाजे पर राव वीरेन्द्र सिंह आ गया। माधव के हाथ में बन्दूक थी। उसी वक्त माधव की उंगली ने हरकत की। बन्दूक ने गोली उंगली। धड़ाम-सा शब्द हुआ। राव वीरेन्द्र सिंह के सीने में गोली लगी। वह वहीं गिर पड़ा। बालिका जोर से चिल्लाई। आने वालों में भग-दौड़ मच गई। माधव रूका नहीं।
वीरेन्द्र सिंह के मृतक शरीर के पास से निकलकर सीढ़ियों के सहारे उतर गया। चौक सूना था। कोई सामने पड़ने वाला न था। अब वह मुख्य दरबाजे से बाहर निकलकर सड़क पर आ गया। गांव से बाहर निकलने के लिए जल्दी जल्दी चलने लगा। कस्बे के बाहर जाकर उसने अपना सामान झाड़ियों में से उठाया और रात फिर अन्धेरे में खोने के लिये अज्ञात पथ पर चल दिया। कस्बे में अभी भी चीखने चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं। इन सब बातों की परवाह किये बगैर आगे बढ़ने लगा।
वह सोचता भी जा रहा था-यह सब क्या हो गया ? मैं तो उसकी केवल बन्दूक ही उठाना चाहता था पर ं ं ं भाग्य ने यह क्या कर दिया ? अन्दर की दया कहां चली गई। हृदय में निश्ठुरता कहां से समां गई। नहीं नहीं यह ठीक नहीं हुआ। यह सोचते हुए भी इसके कदम जंगल की ओर बढ़ते ही चले जा रहे थे।