बागी आत्मा 4
चार
जब से पुलिस माधव को लेकर गई थी, माधव के पिता मायाराम की तबियत और अधिक खराब हो गई थी। लेकिन भागवती, माधव की चाची की सेवा एवं सान्तवना से उसके स्वास्थ्य में कुछ सुधार हुआ। जब मायाराम घबड़ा जाता तो भागवती मायाराम को सांत्वना देती हुई कहती-
‘अरे लाला ऐसे घबड़ाओगे तो तुम अच्छे ही नहीं हो पाओगे फिर उसके केस की देखभाल कौन करेगा ? उसे कौन बचायेगा।’
यही विचार मायाराम को स्वस्थ बनाने की कोशिश कर रहा था। डॉक्टर भी अपना फर्ज पूरा कर रहा था, फिर भी उसे चलने-फिरने लायक होने में एक माह लग गया। जब वह माधव से मिलने गया, कोर्ट में माधव की तारीख थी। किसी ने उसकी जमानत नहीं दी थी। मायाराम ने जमानत कराने की कोशिश की, लेकिन उस पर तो पक्का अभियोग था। जमानत न हो सकी मुकदमा चला, पैसे की कमी से अच्छा वकीन न मिल पाया।
अन्त में वह दिन आ ही गया जब केस का फैसला होना था। अब तो मायाराम अपने भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि उसे सजा तो होगी ही पर कम से कम हो।
माधव को फैसला सुनाया गया। उसे 6 माह की सजा हुई। माधव का पिता 6 माह की सजा सुनकर बेहोश हो गया।
अब तो उसे राव वीरेन्द्र सिंह पर गुस्सा आ रहा था। वह बड़बड़ाया ‘वाह रे वीरेन्द्र सिंह, क्या अभी भी तेरे दिल में दया नहीं आई। बचपन में ही तूने माधव की मां छीन ली और अब इसे जेल। अरे कुछ बिगाड़ा था तो मैंने ं। सजा देता तो मुझे, इसने क्या बिगाड़ा ? बिगाड़ा भी क्या ? अन्याय के प्रति विद्रोह करना क्या पाप हो गया ? दो-दो बार लगान कोई भी नहीं वसूल करता है। मैंने इसका विरोध किया तो उसकी सजा मुझे दी अब मेरे बच्चे को भी दे रहा है।‘
जब मायाराम गांव आया तो घर-घर में यही चर्चा थी। गांव के अािकांश लोग दुखित थे, पर वीरेन्द्र सिंह से कुछ भी न कह पा रहे थे। सच्चाई सभी जान गये थे। मायाराम का हृदय जल रहा था। क्या करे ? क्या न करे ? इतनी बड़ी हस्ती से टकरा पाना सम्भव भी नहीं था। उसने अपने मन को समझाया। उसे तो 6 माह व्यतीत करने थे।
वह दिन आ ही गया, जब माधव को जेल से मुक्ति मिली। जब वह घर आया उसके पिताजी की तबियत ज्यादा खराब थी। खटिया पर पड़े थे। माधव उनकी हालत देखकर दनके चरणों में गिर पड़ा। शब्द निकले -‘पिताजी मैं पूर्ण निर्दोश हूँ।‘
‘जानता हूँ बेटा। जानता हूँ। मुझे सब मालूम हो गया है। ये राव वीरेन्द्र सिंह है न ं ं ं, खों ं ं ं खों ं ं तेज खांसी आई दम फूल गया। आंखों से आंसू झरने लगे और एक क्षण बाद आंखें खुली की खुली रह गईं। माधव चीखाा, पिताजी-इ-इ-शेश रह गया मृत शरीर।
उस दिन उसने चाचा-चाची एवं आशा के पिताजी के सहयोग से पिताजी का अंतिम संस्कार किया।
माधव को कस्बे का कोई भी व्यक्ति सान्तवना देने न आया। वह अकेला सोचता रहा - कितना डर है लोगों को राव वीरेन्द्र सिंह का। लोग सुख - दुःख की दो बातें भी नहीं कर सकते। चाचा-चाची एवं आशा के पिताजी ही पूरे गांव में ऐसे थे, जो माधव के पास यदाकदा आ जाते।
धीरे-धीरे समय व्यतीत होने लगा। कई प्रश्न, कई उत्तर, पर अधिकांश प्रश्नों का एक ही उत्तर आता था राव वीरेन्द्र सिंह। पर कब तक चलेगा यह क्रम। पुश्तैनी दुश्मनी का अन्त राव वीरेन्द्र सिंह के रहते तो सम्भव नहीं। क्या वह इन सब का बदला ले पायेगा ?
चम्बल के बीहड़ों में इस प्रकार के बदला लेने के जाने कितने क्रम चलते रहते हैं। कितने लोग प्रतिदिन बागी बनते हैं, जिससे सारा क्षेत्र आतंकित रहता है।
माधव के कस्बे से कुछ दूरी पर एक देवी का मन्दिर है। गर्मियों के दिनों में चैत्रमास के नव दुर्गाओं के दिनों में सप्तमी के दिन मेला लगा करता है। मेले का आनन्द दोपहर के बाद आता है। सुबह के समय से देवी के दर्शन करने वालों की भीड़ लग जाती है। दूर-दूर के लोग यहां अपनी अपनी अभिलाशाएं लेकर आते हैं।
मन्दिर के पास पहाड़ियों के बीच एक पानी का कुन्ड है। नीला स्वच्छ जल देखकर लोग उसके आस-पास झाड़ियों में बैठने आ जाते हैं। माधव भी मन बहलाने के लिए देवी दर्शन करने गांव से चल पड़ा। उसके वस्त्र उतने साफ सुथरे तो न थे वह सोचते हुए चला जा रहा था -
‘मैं चाहे जितने अच्छे वस्त्र पहन कर जाऊं लोग तो मुझे डाकुओं का यहयोगी ही समझेंगे। वस्त्रों से आदमी का आचरण नहीं बदला जा सकता है।‘
रास्ते में ही दोपहर हो चुकी थी। कस्बे के अधिकांश लोग मेले में जा चुके थे। कुछ लोग अभी भी मेले में जा रहे थे। वह भी एक टोली के साथ हो लिया। लेकिन माधव ने महसूस किया कि लोगों को उसका साथ खल रहा है तो उसने लोगों को आगे निकल जाने दिया और स्वयं पीछे-पीछे चलने लगा। चलते-चलते वह सोचने लगा- आज मैं देवी से क्या मांगूगां ?
क्यों न देवी से यह मांग ़लियो जाये कि हे देवी ! मेरे अन्तर में छिपी दया छीन ले और मुझे बागी की आत्मा दे दें। यह सोचते में उसका हृदय कांप गया। मैं इतने दिनों से मेले में जाता रहा हूँ। कभी कुछ मांगने को मन भी नहीं हुआ। आज मेरी इस हृदय की बात को देवी ने सुन तो नहीं लिया। उसे साथी कैदी की बात याद हो आई। वह कहा करता था -
‘यार माधव मैं ईश्वर पर कभी विश्वास नहीं करता था। मेरे गांव के किनारे पर नदी थी। नदी के ऊपर महादेव जी का एक मन्दिर था। मैं स्नान करने नदी पर जाया करता था लौटते वक्त मन्दिर के पीछे से निकल आता था।‘
एक दिन मैं स्नान कर मन्दिर के पिछवाड़े वाले रास्ते से निकल कर घर जा रहा था। सामने नदी की ओर स्नान करने आते हुए एक महात्मा जी दिखे। हमें आते देख बोले-‘ ‘तुम मन्दिर में होकर जाते हो न !‘
‘नहीं तो मैं ईश्वर पर विश्वास नहीं करता।‘ यही तो कहता था वह कैदी।
‘ठीक है तुम ईश्वर पर विश्वास करो, चाहे न करो पर मैं एक बात कहता हूँ।‘
‘क्या ?‘
‘स्नान करने के बाद भगवान के सामने से निकलकर जाया करो।‘
‘उनके कहे अनुसार मैं स्नान करने के बाद, मन्दिर के सामने से निकल कर जाने लगा। एक दिन मन में आया कि आज मूर्ति के दर्शन करता चलूं। यह सोचकर मैं शंकर जी के शिवलिंग के सामने पहुंच गया। मन में आया ‘तू कैसा भगवान है ? मैं अपने शत्रु से बदला ही नहीं ले पा रहा हूँ और सच मानिये, ऐसा संयोग बना कि मैंने उसी दिन अपने शत्रु से बदला ले लिया और उसके बाद यहां कैद खाने में हूँ।
इस सोचने में माधव का रास्ता कट गया। उसका दिल कांप गया कहीं देवी ने उसकी प्रार्थना सुन तो नहीं ली। अब उसे सुन पड़ रहा था- आज हो रही देवी के आंगन में भक्तों की भरमार रे।
अब वह भीड़ को चीरता हुआ दुकानों का दृश्य देखता हुआ, मन्दिर के दरवाजे पर पहुंच गया। घन्टों के बजने की झन्कार उसके कांनों में गूंजने लगी। अब वह दर्शन करने और आगे बढ़ गया। भीड़ की वजह से क्या मांगूंगा ? वाली बात भूल गया। पर जब माधव देवी के सामनें पहुंचा तो उसके हृदय में एक बात गूंज गई ं ं ं मां मुझे बागी की आत्मा दे दे जिससे मैं ं ं ं ‘ सोचते ही कांप गया। इतने में लोगों का पीछे से धक्का पड़ा तो वह देवी के सामने से हट गया। तब वह परिक्रमा देने में लग गया।
माधव वहां से निवृत्त होकर कुन्ड की ओर चला गया जहां पानी पीने वालोंका तांता लगा हुआ था। माधव ने उस कुन्ड का जल ग्रहण किया। एक पेड़ की घनी छाया देखकर बैठ गया।
देवी ने मेरी आत्मा की बात सुन ली हो, तो मां मेरी यह बात और सुन ले कि ‘मैं गरीबों को सताया न करूं। दीन-दुखियों की मदद किया करूं।‘
आज मैंने भी मांगा तो क्या मांगा ? रावण की अमरता की तरह कुम्भकरण की नींद की तरह ये क्या मांग बैठा ? क्यों नहीं विभीशण की तरह राम की सेवा, पर ं ं ं। पर शब्द जोर से निकल गया तो वह समझ गया। किसी ने सुन तो नहीं लिया। इसी समय एक नारी की आवाज उसके कानों में पड़ी- पर क्या माधव ?‘
वह सम्हलते हुए आशा की ओर देखने लगा। एक सुन्दर सी प्रतिमा, यौवन की महक लिये मुस्कराहट बिखरती कोई अप्सरा धरती पर विचरण करने आई हो। कई मनचलों की निगाह उस ओर उठी हुई थी, उत्तर में देर न हो जाये, सम्हलते हुए माधव बोला- मेरे साथ तुम होती पर ं ं ं । तुम नहीं थीं।‘
‘झूठ बोल रहे हो माधव ?‘
‘झूठ बोलना तो अब मेरा पेशा हो गया ?‘
‘सच ?‘
‘सच ही समझो ं ं ं। मेरा सच झूठ है और लोगों का झूठ सच।‘
‘तो क्या ?‘
‘देखा तुम्हें भी मेरी बातों पर यकीन नहीं आ रहा है। डाकुओं का सहयोगी हूँ।‘
‘माधव मैं तो यह नहीं मानती हूँ।‘
‘सच कहती हो।‘
‘हां ।‘
‘तब तो मैं बहुत बड़ा भाग्यवान हूँ। कि इस संसार में ऐसा भी कोई है जो मुझे शरीफ समझता है। आशा ऽ ऽ ऽ, मैं अपने जीवन से तंग आ गया हूँ। कहीं ! मेरे चाचा-चाची न होते तो ं ं ं तो भूख से तड़प-तड़प कर मर जाता।‘
‘तो क्या तुम्हें सारी जिन्दगी चाची ही खिलाती रहेगी। कुछ काम किया करो बैठे-बैठे।’
‘मेरा तो किसी काम में चित्त नहीं लगता है। फिर इस कस्बे में मेरे से कौन काम करायेगा ? चोर डकैतों से तो सभी डरते हैं।
तो क्या ? डाकू बनकर ही तुम्हारा काम चलेगा।‘
‘क्यों व्यंग्य कसती हो आशा ! पर इस व्यंग्य में भी कितनी सच्चाई है ?‘
‘सच्चाई है, तो क्या सच में डाकू बनोगे ?‘
‘मुझे तो लगता है, बिना बागी बने कुछ न हो पायेगा।‘
‘तुम कुछ नहीं कर सकते इस दुनिया का। क्लाश में जिन सिद्धांतों पर लड़ जाते थे वे शायद छोड़ देने पड़ेंगे।‘
यह बात सुनकर तो उसे चेतना हो आई। चेहरे पर चमक आ गई। इस एक वाक्य ने उसे नई दिशा प्रदान कर दी, वह बोला-‘ठीक कहती हो आशा, शायद मुझे अपने सिद्धांत छोड़ने पड़ेंगे पर बागी बन कर भी तो गरीब और असहयोग की सेवा की जा सकती है।
‘तुम्हारी बातों से तो ऐसा लगता है कि तुमने बागी बनने का इरादा पक्का बना लिया है।
‘इरादा पक्का होता जा रहा है। इस विकल्प के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं दिख रहा है।‘
‘विकल्प ढूंढने पर अनेकों निकल सकते हैं। तुम्हें तो मेरी जिंदगी से खिलवाड़ करने की पड़ी है।
‘कैसे ? कैसे ? समझा नहीं ?‘
‘तुम्हें इतनी समझ होती तो बागी बनने की बात न सोचते।‘
‘यानी तुम चाहती हो अत्याचारी का विरोध न करूं।‘
‘विरोध करने का क्या मात्र यही तरीका है।‘
‘मुझे कुछ और नहीं दिखता ?‘
‘मेरे मां बाप तुमसे, फिर मेरी शादी न कर सकेंगे। चाहे उन्हें बचन से मुकर जाना पड़े। ये चिर-मिलन की आशायें चिर-जुदाई में बदल जायेंगी।
‘आशा मैं कोशिश करूंगा कि राव वीरेन्द्र सिंह के अत्याचार सहन करता रहूँ।‘
‘अच्छा ये बातेें फिर कभी हांेगी। अभी मैं चलती हूँ। मम्मी बाट देख रही होगी।‘ कहते हुए वह वहां से चली गई और भीड़ में अदृश्य हो गई।‘
‘माधव सोचता रहता- अब तो ऐसा मौका आ जाये, जिससे अपने पिता का बदला ले सकूं। मेरा यह जीवन भी क्या, मृत जैसा ही है। जिसमें न चैन है न आत्म सम्मान है। भोजन की समस्या सामने खड़ी है। इस गांव में काम भी नहीं मिलता। ?
वीरेन्द्र सिंह के घण्टों ने आठ घन्टे बजाये। माधव के चाचा ने खना खाने के लिये बुलाया। माधव को लगा- आज चाचा खाने पर बुला रहे हैं, आश्चर्य, चाचाजी मुझ से कभी बात ही नहीं करते, चाची जी ही मेरे खाने पीने का ध्यान रखतीं हैं। चांद कहीं पश्चिम से तो नहीं निकला। माधव ने अवसर नहीं खोया। वह खाना खाने रयोईघर में पहुया।
दोनों खाना खाने लगे। चाचा सुखनन्दन बोले - ‘हमारे सिंचाई विभाग में एक नौकरी की जगह खाली है। ईमानदारी का काम है। तुम चाहो तो चलना। मैं साहब से कह दूंगा। शायद काम हो जाये।‘
दूसरे दिन माधव चाचा के साथ गया था। माधव को लेकर सुखनन्दन साहब से मिला। साहब ने पूछताछ की। उन्हें पता चल गया कि माधव सजा काटकर आया है तो उसने उस नौकरी देने से इंकार कर दिया। बेचारा माधव निरोश होकर घर लौट आया। घर आकर सोचता रहा। काश ! ये राव वीरेन्द्र सिंह पीछे न पड़ता तो आज ं ं ं। इस बात के मन में आते ही उसके दिल में राव वीरेन्द्र सिंह के प्रति क्रोध की ज्वाला सी जलने लगी। जो तन, मन दोनों को झुलसा कर राख बनाने लगी।