बागी आत्मा 1 रामगोपाल तिवारी (भावुक) द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बागी आत्मा 1

बागी आत्मा 1

रचना काल-1970-71

उपन्यास

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कोलोनी (डबरा)

भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो09425715707, , 8770554097

एक

सुबह की किरणों ने सारी दुनियाँ को तो रात्री की अचेतन अवस्था से चेतन अवस्था में ला दिया, पर माधव के जीवन का दीपक बुझ चुका है। सुबह के सूर्य की किरणों के साथ तो वह नहीं बल्कि उसकी मृत्यु षैया उठी है। ज्यों ज्यों उसकी अन्तिम यात्रा श्मशान के निकट आती जा रही है त्यों त्यों उदसा अर्थी के पीछे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही थी।

जब उसकी अर्थी मरधट तक पहुँची अच्छी खासी भीड़ थी। सभी दुखित जान पड़ रहे थे। जब उसकी मृत शरीर अग्नि ने भस्म कर डाला तो धीरे- धीरे लोग मरधट से जाने लगे। कुछ ही क्षणों में अधिकांश लोग जा चुके थे। पीछे जाने वालों में थे कुछ पढ़े लिखे नव युवक।

लोग भरधट से लौटते वक्त, उस मानव के अतीत में खोये हुए रहते हैं। इस अन्तिम जत्थे का भी यही हाल था। ज्योज्यों कस्बा पास आता जा रहा था त्यों त्यों भावनाओं का बाँध फूटता जा रहा था। एक कह रहा था-‘

‘अरे! दीन दुखियों की मदद तो कुछ महा पुरुष ही करते हैं।’

दूसरा बोला-‘क्यों जबरदस्ती माधव को महापुरुष बना रहे हो।’

तीसरे ने पहले वाले की बात का समर्थन करते हुए कहा-‘भाई, मैं तो उसे मार्क्स के सिद्धान्तों को मानने वाला सिपाही मानता हूँ।

दूसरे ने फिर बात काटी-‘ तब तो ये डाकू लोग पक्के साम्यवादी होते हैं।’

पहले वाले ने कहा-‘ इस व्यवस्था का विरोध करना दोनों का काम है।

दूसरे ने प्रश्न किया-‘लेकिन?’

उत्तर में तीसरा बोला-‘- कुछ डकैत तो पक्के साम्यवादी होते हैं, अमीरों के उस धन को लूटते हैं, जो मेहनतकश मजदूरों का हिस्सा है जो तिजोरियों में बंद रखा जाता है।

बात पहले ने बढ़ाई-‘ आप क्या सोचते हैं। सेठ साहूकार पूंजीपति लोग डकैत नहीं हैं बोलो?’

पहला बोला-‘ अन्तर है मित्र! ये पूंजीपति लोग गरीबों को लूटते हैं और ये डाकू लोग बस अमीरों को।’

तीसरा बोल पड़ा-‘ माधव तो अमीरो से गरीबों का धन छीन कर गरीबों में ही बाँट देता था। उसने अपने लिये किया ही क्या है?’ अमीरों से धन छीना और गरीबों के लिये अस्पताल बनवा डाला।

अब पहले ने बात पूरी की-‘ इस प्रकार के लोग इस दुनियाँ में थोड़े ही हो जाये ंतो दुनियाँ से गरीबी मिटते देर नहीं लगेगी। इन स्वार्थी पैसे वालों से तो आज किसी बात का डर है ही नहीं।तभी तो पैसये के बल पर और अधिक पैसा तिजोरियों में बन्द करते जा रहे हैं। समाज में अव्यवस्था फैला रहे हैं।

दूसरे ने कहा-‘इन पूंजीपतियों से तो मैं भी इन डकैतों को अच्छा मानता हूँ। अन्तर इतना है कि ये लोग चोर हैं और वे डकैत। ये चोरी को सरकार की निगाह से बचाते हैं, ब्लेकमेल करते हैं और ये सरे आम इस ब्लेकमेल के धन को लूट ले जाते हैं।’

पहला झट से बोला-‘हाँ अब की तुमने मानवता की बात।’

दूसरे ने उत्तर दिया-‘ नहीं, ऐसीं बातें तो तुम्ही कह पाते हो।’

पहला फिर बोला-‘ भैया, जानते तो सभी हैं पर कुछ जाने किस लोभ में फसकर गरीब होकर भी अमीरों का साथ दे रहे हैं।’

तीसरा बोला-‘ चलो ठीक है कस्बा आ गया, उसकी यह बात सुनकर सभी चुप रह गये।

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