महाकवि भवभूति 14
भावनाओं पर प्रहार शम्बूकवध
कन्नौज पहंचकर राजकवि वाक्पतिराज ने अगवानी की। वाक्पतिराज तो उम्र में बहुत छोटे थे, पर भवभूति अपने स्वभाव के अनुसार उन्हें मित्र का दर्जा देने लगे थे। धीरे-धीरे उनसे मित्रता का भाव दृढ होता जा रहा था।
भवभूति एक ऐसे पड़ाव पर आकर ठहर गये थे, जहाँ उनका चित्त कहीं भी नहीं टिक रहा था। इन दिनों मन बहलाने के लिये विचारों के गहरे सागर में डुबकियाँ लगाने का प्रयास कर रहे थे।
इसी समय वाक्पतिराज ने दरवाजा खटखटाया। भवभूति ऊँचे स्वर में बोले- ‘चले आओ यहाँ तो हर पल दरवाजें खुले रहते हैं।’
वाक्पतिराज ने कक्ष में प्रवेश किया और अभिवादन पश्चात् आसन ग्रहण करते हुये बोले- ‘उत्तररामचरितम् के लिये पात्रों की व्यवस्था हो गयी है। सारे पात्र पूर्व से ही अभिनय में प्रवीण हैं। उत्तररामचरितम् का प्रदर्शन शीघ्र हो सकेगा।’
भवभूति बोले- ‘आप जैसा भाव मर्मज्ञ मित्र मिल जाये तो कार्य शीघ्र ही पूर्ण हो जायेगा।’
वाक्पतिराज बोले- ‘आज आप चलकर चयनित पात्रों से मिल लें।’ यह सुन महाकवि अविलम्ब उनके साथ चल पड़े।
उत्तररामचरितम् के प्रदर्शन की तैयारी प्रारम्भ कर दी। अभिनय की तैयारी राजकवि वाक्पतिराज के सहयोग से पूरी की जाने लगी। महाराज यशोवर्मा राजकाज में व्यस्त रहते। जब भी समय मिलता राजकवि वाक्पतिराज व महाकवि भवभूति को बुलावा लेते। तीनों कवि मिल बैठकर एक दूसरे की रचनाओं का आनन्द लेने लगे। धीरे-धीरे कन्नौज में भवभूति का मन रमने लगा था।
एक दिन महाराज यशोवर्मा की सभा में राजकवि वाक्पतिराज एवं महाकवि भवभूति विराजमान थे। महाराज यशोवर्मा ने सहज में ही अपने राजकवि से कहा- ‘कोई पद्य रचना प्रस्तुत कीजिये।’ उनकी अपेक्षा को जानकर वाक्पतिराज ने एक पद्य का सस्वर वाचन प्रारंभ किया- भवभूतिजलधि.............(.परिशिष्ट श्लोक-7)
स्पष्ट हैं- भवभूति जलनिधि से निकले काव्य रूपी अमृत कणों के समान हैं, जिनकी रचनाओं में अनेक विशेष गुण आज भी चमक रहे हैं। भवभूति की विभूति रूपी रज संसार में इस प्रकार घुलमिल गयी है कि उसका भान न होते हुये भी विभूति बन कर रह जाती है।
महाराज यशोवर्मा ने वाक्पतिराज द्वारा प्रस्तुत पंक्तियों की प्रशंसा की।
अब सभी भवभूति के काव्यरस पान करने के लिये उनकी ओर ध्यानस्थ हो गये। भवभूति ने मन्वव्य जान अपने मन के विचार व्यक्त करते हुये कहा- ‘उत्तररामचरितम् के बाद रचना लिखने की कोई इच्छा नहीं हैं, इन दिनों कुछ नया लिखा भी नहीं जा रहा है। फिर भी आप लोेगों की इच्छानुरूप एक पद्य प्रस्तुत है। लोगों के मुँह से निकला- स्वागतम्-स्वागतम्।
तपस्वीका गतो .......(.परिशिष्ट श्लोक-8)
इसका भावार्थ यह है गिरिजाशंकर का आश्रय लेने वाले भक्तों का तपोमय जीवन विश्व की विभूति बनकर रहता है। इसलिये गिरजा माँ के उस दूध की वन्दना करता हूँ जिस प्रकार माँ के स्तनों से निकला हुआ दूध बालक का पोषण करता है, उसी प्रकार गिरजा माँ विश्व का पालन करती है।
यह सुनकर तो महाराज यशोवर्मा उत्तरररामचरितम् के निर्देशन हेतु व्यग्र होते हुये बोले-‘हमारे महाकवि उत्तररामचरितम् की प्रस्तुति कब करा रहे हैं? जिससे आपके निकटस्थ इष्टमित्रों को शीघ्र ही यहाँ आने का निमंत्रण भेजा जा सके।’
भवभूति ने कहा- ‘महाराज इसका प्रदर्शन शीघ्र होगा। पूरी तैयारी कर ली गयी है। रामनवमी का दिन ही इसके लिये उचित रहेगा।’
महाराज यशोवर्मा ने इस पर अपनी स्वीकृति देते हुये कहा- ‘आपने इसके मंचन के लिये उचित दिन चुना है, लेकिन इतनी जल्दी में पद्मावती से कोई यहाँ आ पायेगा।’
यह सुनकर भवभूति बोले- ‘आज ही किसी को भेज कर, आमंत्रण भिजवा दें। महाराज यशोवर्मा ने अपने सचिव को इस कार्य हेतु सूचित कर दिया। सचिव त्वरित गति से निर्देशों के पालन हेतु प्रस्थान कर गये।
प्रदर्शन की तिथि निश्चित होने पर सभा विसर्जित कर दी गयी। यह चर्चा ध्वनि की गति से सारे कन्नौज में फैल गयी। रामनवमी के दिन उत्तररामचरितम् का मंचन किया जाना सुनिश्चित किया गया है।
जब कोई कृति पाठकों के सामने पहली बार पहंँुचती है, तब कृतिकार के मन में अर्न्तद्वन्द्व उपस्थित होना स्वाभाविक हैं। वह पाठकांे के अन्तर्मन को पढ़ने को व्यग्र रहने लगता है। वह सोचता है- जिन तथ्यों के लिये कृति का सृजन हुआ है। वे इसमें कितने सफलतापूर्वक प्रस्तुत हो पाये हैं। रचना अपने उद्देश्य में सार्थक रही है अथवा नहीं। कथ्य कैसा रहा? संवाद आकर्षक रहे अथवा नहीं। काव्यशिल्प की दृष्टि से कितनी गहरी पैठ हो पायी है?
उत्तररामचरितम् के प्रदर्शन के समय ऐसे ही अनेक प्रश्न भवभूति के मन में उठ रहे थे। महाराज यशोवर्मा भी स्वयं एक श्रेष्ठ नाटककार कवि हैं, उनकी दृष्टि में रचना कहाँ तक खरी उतरती है। मैंने कई स्थानों पर परम्परागत कथ्य ही बदल डाले हैं। जनता मेरे अपने सोच में कितना सहमत हो पायेगी। इसी उधेड़बुन में प्रदर्शन का दिन समीप आ गया। मंच सजाया जाने लगा। पद्मावती से कुछ लोगों के आने की पूरी संभावना थी। पुत्र और पुत्रवधू भी आ सकते हैं। दुर्गा मंचन की तैयारी में पूरे उत्साह से मदद कर रही थी।
पद्मावती का मंच नाग राजाओं की धरोहर हैं। यहाँ का मंच अत्याधुनिक है। वह मंच यात्रा उत्सव के समय आम जनता के उपयोग को ध्यान में रखकर बनाया गया है। यहाँ का मंच बुद्धिजीवियों के निमित्त बना है। मंदिर के विशाल कक्ष में मंचन कार्य होने से भवभूति को यह खलने लगा था कि यहाँ आम जनता का प्रवेश संभव नहीं है। इसी कारण यहाँ आम जनता नाटक के प्रति उत्साह दिखाई नहीं पड़ रहा है। यहाँ राज सहयोग के कारण सजावट चमक-दमक की अधिकता अवश्य है।
मंदिर के बाहर कड़ी सुरक्षा व्यवस्था कर दी गयी। भवभूति थे कि उनका चित्त पद्मावती से आने वाले स्वजनों की याद कर रहा था। एक-एक करके सभी याद आ रहे थे। आज रामनवमी पर्व है। राम मंदिरों की सजावट की जा रही है। आज ठीक मध्याह्न में रामजन्म का उत्सव मनाया जायेगा। सभी लोग आ जाते तो यहाँ के रामजन्मोत्सव में सम्मिलित हो जाते। दुर्गा कई बार पूछ चुकी है, दिन ढल गया, कोई नहीं आया। भवभूति उसे साँत्वना देने के लिये कह देते- ‘आ जायेंगे, पद्मावती कौन थोड़ी दूर है! यहाँ आने में पाँच-सात दिन लगते हैं।’
इसी समय एक सहयोगी ने आकर सूचना दी पद्मावती से कुछ लोग आये हैं। कौन-कौन आये हैं? यह जानने को मन बेचैन हो उठा। थोड़ी देर बाद सभी घर में आ गये। भरत-मिलाप का प्रसंग उपस्थित हो गया। गणेश और ऋचा साथ आये थे। पार्वतीनन्दन जी साथ थे। आचार्य शर्मा और महाशिल्पी वेदराम से मिलते वक्त तो लग रहा था, सारा का सारा पद्मावती नगर ही आ गया है, कुशलक्षेम के बाद घर में हर्ष की लहर दौड़ गयी। इसी समय महाराज यशोवर्मा ने राजरसोइये को भेजकर भोजन की व्यवस्था करा दी।
मन्दिर के सभागार में महाराज यशोवर्मा अपने आसन पर आ विराजे। पद्मावती नगरी के अतिथियों के लिये महाराज यशोवर्मा के पास ही बैठने की व्यवस्था की गयी। महाराज यशोवर्मा समझ रहे थे, पद्मावती से नाटक के पारखी लोग यहाँ आये हैं। इसी समय वाद्ययंत्रों से नाटक प्रारम्भ होने की ध्वनि निकलने लगी।
उत्तररामचरितम् का मंचन शुरू हो गया। दर्शक आनन्द विभोर होेने लगे। महाराज यशोवर्मा इसके संवादों की सरसता देखकर मन ही मन आश्चर्य कर रहे हैं।
राजकवि वाक्पतिराज सोच रहे हैं- पश्चाताप की अग्नि में राम तो जलते ही हैं, साथ-साथ समस्त अयोध्यावासी भी उसी ताप में जल रहे हैं।
महाकवि का पुत्र स्वयं आज समीक्षक बनकर सोच रहा था- नाटक के अंत में राम और सीता का मिलन परम्परागत कथ्यों को दर किनार कर किया गया है। यह भावुक मन का नवसृजन बहुत ही श्रेष्ठ लगा है। इसे हृदयांगम करने से बड़ी आत्मिक शांति का अनुभव कर रहा हूँ। यों सभी दर्शक मंचन का आनन्द लेते रहे।
दूसरे दिन भवभूति के घर में बैठक जमीं थी। आचार्य शर्मा, महाशिल्पी वेदराम, पुत्र गणेश, पुत्रवधु ऋचा एवं पार्वतीनन्दन जी के कार्य की प्रशंसा करते हुये भवभूति बोले- सुना है, विद्याविहार की कमान आचार्य शर्मा और महाशिल्पी वेदराम ने सँभाल ली है। अब तो पद्मावती के राजा वसुभूति पार्वतीनन्दन जी को परामर्श के लिये बुलवा लेते हैं। नगर में जितना मानसम्मान मुझे प्राप्त था, उतना ही पार्वतीनन्दन जी को प्राप्त हो रहा है।
पार्वतीनन्दन अपने लम्बे मौन को तोड़ते हुये बोले- ‘यह सब हमारे महाकवि के सानिध्य का ही प्रभाव है। आपने मेरा यश लौटाकर जो उपकार किया है, उसे भूल नहीं पा रहा हूँ। सुमंगला बहन भी आपकी बहुत याद करती है।’
आचार्य शर्मा ने कहा- ‘विद्याविहार में परीक्षाएँ होना है, इसलिये पाँचवे दिन ही यहाँ से हमारे जाने का विचार हैं।’
उत्तररामचरितम् के मंचन के बाद से महाशिल्पी को याद आता रहा शम्बूक वध वाला प्रसंग। यह परम्परागत कथ्य महाकवि भवभूति से न लिखते ही बना है न छोड़ते ही। लेखन में प्रसंगों का तारतम्य तो रखना ही पड़ता है। तपस्या के दरवाजे तो सभी के लिये खुले रहना चाहिए। तप के कारण ब्राह्मण बालक की मृत्यु। राम के द्वारा शम्बूक का वध। लगता है ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के ही इसे बाद में जोड़ दिया है। शम्बूक वध का प्रायश्चित उसकी मुक्ति दिलाकर ही किया जा सकता था। वह तप तो मुक्ति के लिये ही कर रहा था। उसे मुक्ति देना ही राम के जीवन का प्रायश्चित है, जिससे आने वाले समय में लोग तप से विमुख न हों।
कन्नोज में मंचित उत्तररामचरितम् से उभरे सोच की गहरी तहें छू रहेे थे। पुत्रवधू ऋचा वोली-‘ इस समय याद आ रहा है, कथित ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये मर्यादा पुरूषोतम श्रीराम का चरित ही दाव पर लगा दिया।’
आचार्य शर्मा बोले-‘ इस सम्बन्ध में मैं आप सब का ध्यान वाल्मीकि रामायण के तिहत्तर से छिहत्तर सर्ग में राम राज्य के जनपद में रहने वाला एक ब्राह्मण अपने मरे हुये बालक का शब लेकर राजद्वार में आया और कहने लगा-‘‘यह राजाराम का कोई महान दुर्ष्कम है जिससे इनके राज्य में रहने वाले बालकों की मृृत्यु होने लगी हूँ।
(वाल्मीकि रामायण सर्ग 73 श्लोक 10)
यहाँ अन्य बालकों की मृृत्यु को प्रमाण के लिये प्रस्तुत किया जाना चाहिये था।
महाशिल्पी बोले- ‘उस ब्राह्मण ने राम को यह धोंस दे डाली कि मैं अपनी स्त्री के साथ आपके राजद्वार पर प्राण दे दंूूूँगा। फिर ब्रह्महत्या का पाप लेकर तुम सुखी होना। यों सारा दोष राम के मत्थे मढ़ दिया गया।
आचार्य शर्मा बोले- ‘इस समस्या के समाधान के लिये राजसभा बुलायी गयी। नारद जैसे दिव्य दृष्टि वाले मुनि का यह कथन- ‘सतयुग में ब्राह्मणों को तप करने का अधिकार था। त्रेता युग में क्षत्रियों को तप करने का अधिकार हो गया। क्रम से द्वापर में वैश्य भी तप का अधिकार प्राप्त कर लेंगे। किन्तु शूद्रों को कलियुग में तपस्या करने की प्रवृति होगी और वे यह अधिकार प्राप्त कर लेंगे। (वाल्मीकि रामायण सर्ग 74 श्लोक 27)’
गणेश ने अपनी बात रखी- ‘त्रेतायुग में वैश्य और शूद्रों को तप करने का अधिकार नहीं था। इस परम्परा को शम्बूक ने तोड़ने का प्रयास किया तो ब्राह्मणों को अपना वर्चस्व खतरे में पड़ता दिखा। वे अपने पेट पर हाथ फेरने लगे। यहाँ उन्होंने अपना वर्चस्व बनाये रखने एवं लोगों को भ्रम में डालने के लिये मुझे तो लगता है यह कथा गढ़ डाली और उसे वाल्मीकि रामायण में जोड़ दिया।’
महाशिल्पी झट से बोले- ‘जरा सोचिये, किसी शूद्र की तपस्या से ब्राह्मण बालक की मृत्यु हुई! राजसभा के माध्यम से राम जैसे व्यक्तित्व द्वारा तपस्वी का वध करने की कहानी इसमें जोड़ना। जिससे लोग राम की तरह ब्राह्मणों से डरकर रहें। उनके झूठे कथनों पर आँखें बन्द करके विश्वास करते रहें और उनकी सोने की झोली में भीख डालते रहें। इनको राम पर ऐसा नीच आक्रमण करने में जरा भी संकोच नहीं लगा और यह कहानी गढ़कर वाल्मीकि रामायण में जोड़ दी।’
भवभूति ने स्वीकार किया- ‘यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या राम जैसा व्यक्तित्व इतना कमजोर था कि ऐसी झूठी बातों में आ गया! तपस्या से ब्राह्मण बालक की मृत्यु जैसी बात पर किसी तपस्वी को मारना मुझे भी न्याय संगत नहीं लगा है। इसी कारण उसका वध करते समय मेरे राम का हाथ काँपता है।’
महाशिल्पी ने पुनः अपने मन की बात कही-‘ इसी प्रसंग में आश्चर्य यह भी है कि नारद जैसा तपस्वी ऋषि यह तो बतला देता है कि कहीं शम्बूक शूद्र तप कर रहा है। किन्तु वे यह नहीं बतला पाते कि वह कहाँ तप कर रहा है! राम उसे मारने देश में चारों तरफ खोजते फिरते हैं। (वाल्मीकि रामायण सर्ग 75 श्लोक10से 14)’
आचार्य शर्मा पुनः बोले- ‘शम्बूक एक सरोवर के निकट वृक्ष से उलटा लटका तप कर रहा था। राम उससे पूछते हैं- ‘‘तुम कौन हो और तप क्यों कर रहे हो?’
’वह बोला-‘‘मैं शम्बूक नाम का शूद्र हूँ। इन्द्रासन प्राप्त करने (उच्च पद प्राप्त करने) के लिये तप कर रहा हूँ। ’’शम्बूक की बात सुनकर उत्तर दिये बिना राम तलवार से उसका वध कर देते हैं। यहाँ हमारे मन में यह प्रश्न उठता है, कि केवल शम्बूक का वध करने के लिये राम तलवार लेकर भी चले थे किन्तु वे तो धनुषधारी थे।
महाशिल्पी ने कहा- ‘आश्चर्य तो देखिये, शम्बूक के वध के बाद वह ब्राह्मण बालक जी जाता है और अपने बन्धु-बान्धवों से जा मिलता है। कथा में फिर उस बालक के माता-पिता कहीं दिखाई नहीं देते। राम का उपकार मानने भी नहीं आते। अरे! किसी का मृत पुत्र जीवित हो जाये और वह जीवित करने वाले का उपकार भी न माने। यहाँ कथा गढ़ने वाले यह भूल गये कि इससे उनकी कृतघ्नता ही प्रदर्शित होगी। यों वाल्मीकीय रामायण में यह वृतान्त ही गढ़ा हुआ प्रतीत होता है।’
महाकवि भवभूति बोले-‘मैं राम कथा लिखते समय परम्परागत प्रसंगों को नहीं छोड़ पाया हूँ। सीता के अग्नि परीक्षा वाले प्रसंग से व्यथित हूँ।....और इसी व्यथा मुझे उत्तर रामचरितम् लिखने के लिये विवश किया है। मैं इस कृति के माध्यम से इसी समस्या का समाधान प्रस्तुत करना चाहता हूँ। उत्तररामचरितम् की सीता वाल्मीकि रामायण की तरह धरती में नहीं समाती वल्कि उनका मिलन होता है।’
महाशिल्पी अपने विषय पर आते हुये बोले- ‘पौराणिक परम्परा के मोह में पड़कर आप शम्बूक का राम के द्वारा वध कराते हैं किन्तु यहीं राम का अपनी बाहु से यह कथन- ‘‘हे दक्षिण वाहु, ब्राह्मण के मरे हुये शिशु के जीवन के लिये शूद्र मुनि के ऊपर कृपाण चलाओ। परिपूर्ण गर्भ से खिन्न सीता के निष्कासन में निपुण तुम राम की वाहु हो। तुम्हें भला दया कहाँ?’’
आचार्य शर्मा बोले-‘शम्बूक वध से पूर्व राम का ऐसा चिन्तन! इस तरह मनोबैज्ञानिक दृष्टि से सोचने वाला व्यक्ति किसी की हत्या कर पायेगा। वे करुणा से परिपूर्ण हो अपनी भुजा को धिक्कारते हैं। शम्बूक वध के समय निर्वासित सीता की स्मृति करके वे अनुभव करते हैं उनके हाथ से दूसरा यह अशोभनीय कार्य भी हो रहा है। यह कथन कितना स्वाभाविक बन गया है।’
महाशिल्पी फिर बोले बिना न रहे- ‘जो प्रसंग बाद में जोड़़े हुये होते हैं उनमें कहीं न कहीं भूल छूट जाती है। यों हमारे महाकवि भवभूति और बाल्मीकि की कथा में बहुत अन्तर है। वाल्मीकि की अपेक्षा हमारे महाकवि ने मनोबैज्ञानिकता का पूरा ध्यान रखा है। मृत बालक के शव को पिता के द्वारा न भेजकर माता के द्वारा राज दरवार में भेजते हैं।’
पार्वतीनन्दन इतनी देर से इनकी बातें सुन रहे थे, बोले- ‘शम्बूक वध के बाद दिव्य पुरूष की उपस्थिति वाल्मीकि की अपेक्षा नया प्रयोग है। उस दिव्य पुरुष के शब्दों पर ध्यान दें -‘‘यमराज से भी निर्भय करने वाले, दण्ड धारण करने वाले तुम्हारे कारण यह शिशु जीवित हो गया। यह मेरी समुन्नति है। यह शम्बूक तुम्हारे चरणों में सिर से नमस्कार करता है। ’’ राम शम्बूक को तप का फल प्रदान करते हैं, उसे अणिमा लघुमा जैसी सिध्दियाँ प्रदान कर बैराज नाम के लोक में निवास करने का वरदान देते हैं।
शम्बूक कहता है-‘‘स्वामी आपके प्रसाद का यह महत्व है। तपस्या से भला क्या! अर्थात् तपस्या ने वहुत बड़ा उपकार किया है। संसार में अन्वेषण करने योग्य लोकनाथ, शरणागत की रक्षा करने वाले मुझ शूद्र को ढ़ूढते हुये सेकड़ों योजन लँाघकर यहाँ आये। यह तपस्या ही का फल है।’’
महाशिल्पी बोले-‘शम्बूक मरने के बाद भी राम की सेवा में उपस्थित रहकर उन्हें दण्डकारण्य से परिचित कराता है। यों राम शम्बूक वध के बाद प्रसंग में शम्बूक को संन्तुष्ट करने का प्रयास करते दिखाई देते हैं। यहाँ विचार करें-आपको किसी ने दण्डित कर दिया। फिर भी आप उस दण्डित करने वाले की मदद करने में लग सकेंगे! यह सम्भव नहीं लगता। यहाँ शम्बूक राम केा दण्डकारण्य में मार्ग दिखाता है। राम उसकी बात मानकर आगे बढ़ते हैं। मुझे तो यह सब हास्यप्रद और अमनोवैज्ञानिक सा प्रतीत होता है। इसका अर्थ है सम्पूर्ण वृतान्त ही झूठ का पुलन्दा है। वाल्मीकि जैसे महाकवि से ऐसे अस्वाभाविक वृतान्त की रचना की कल्पना नहीं की जा सकती।’
पार्वतीनन्दन बात का लगभग समापन करते हुये बोले- ‘हमारे महाकवि भवभूति परम्परागत पौराणिक प्रसंग में पड़कर शम्बूक का वध तो करा देते हैं। किन्तु वध कराते समय उनके राम का हाथ काँपता है। यदि यह वाल्मीकि रामायण का वास्तविक प्रसंग होता तो स्वाभाविक रूप से लिखा जाता। महाकवि भवभूति अपने लेखन के प्रति सजग हैं। उनकी सीता वाल्मीकि की सीता की तरह धरती में नहीं समाती किन्तु मिलन होता है। ऐसे ही भवभूति ने राम का पश्चाताप शम्बूक वध का प्रायश्चित ही तो है। ऐसे प्रसंग सन्देह के घेरे में आते हैं।’
कन्नौज भ्रमण में पता ही नहीं चला कि ये चार दिन कब निकल गये और कब पाँचवा दिन आ गया। सभी शीघ्र निकलने के लिये सुबह से ही तैयार हो गये। अश्रुपूरित नेत्रों से विदा ली। सभी ने भवभूति से एक बार पद्मावती आकर अपने विद्याविहार को देखने की इच्छा व्यक्त की। भवभूति ने केवल इतना ही कहा- प्रभू की इच्छा हुई तो अवश्य ही आऊँगा।
भाद्रपद मास प्रारम्भ हो गया। इन दिनों सम्पूर्ण सूर्यग्रहण की चर्चा चलने लगी। उस दिन, दिन में तारे दिखायी देंगे। यह आश्चर्यजनक बात एक दूसरे से कह-सुन कर अपना विचार व्यक्त करने लगे। कहते हैं, ग्रहणकाल में की गई साधना अधिक फलदायी होती है। भवभूति इस सूर्यग्रहण काल में पूरे समय साधना में लगे रहना चाहते थे। भाद्रपद की अमावस्या का दिन आ गया। सूर्यग्रहण की लोग उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगे। ग्रहण के कष्ट से निवृत्ति पाने के लिये नगर भर से जगह-जगह रामध्वनि की जाने लगी। भवभूति और दुर्गा ग्रहण शुरू होने से पूर्व ही अपने पूजा कक्ष में सिद्धासन जमा कर बैठ गये। आज्ञाचक्र में दीपक की ज्योति की कल्पना करने लगे। धीरे-धीरे दोनों का चित शांत हो गया। शुरू-शुरू में सविकल्प समाधि का अनुभव रहा। बाद में कुछ क्षणों के लिये निर्विकल्प समाधि की स्थिति में स्थिर हो गये। यह अभ्यास पद्मावती के समय से ही चल रहा था। वहाँ उतना समय नहीं दे पाते थे। यहाँ इस कार्य के अलावा और कोई कार्य ही नहीं रहा। वे जान गये थे कि बिना ध्यान और साधना के परमात्मा से साक्षात्कार संभव नहीं है।
ग्रहणकाल गुजर गया। लोगों के पूजापाठ को विराम मिला। शाम होते-होते यह बात पूरे कन्नौज नगर में फैल गई कि कश्मीर के राजा ललितादित्य ने कन्नौज पर चढ़ाई कर दी है। कन्नौज की सेना भी पूरी तैयारी के साथ मैदान पर जा डटी।
दूसरे दिन (15 अगस्त, 733 ई.) को युद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। कन्नौज नरेश महाराज यशोवर्मा युद्ध में हार गये। राजाधिराज ललितादित्य के सलाहकार मित्रशर्मा नामक व्यक्ति के सहयोग से दोनों में संधि हो गई। राजाधिराज ललितादित्य ने यशोवर्मा से संधि के बाद मित्रशर्मा को पंच महा उपाधि से विभूषित किया।
मित्रशर्मा को याद था कि महाकवि भवभूति कश्यप गोत्रीय हैं, उसने महाराजा ललितादित्य के साथ चलने के लिये कहा। भवभूति ने पद्मावती नगरी के लिये जाना चाहा। मित्रशर्मा ने उन्हें कश्यप ऋषि की तपोभूमि जो श्रीनगर कश्मीर के मध्य स्थित है, उसके दर्शन करने का प्रस्ताव रखा। भवभूति के मन में उस स्थान को देखने की उत्कण्ठा जाग गयी और महाराज ललितादित्य के साथ कलिंग (उड़ीसा) विजय से वापस आने पर कश्मीर के लिये चल दिये। पत्नी दुर्गा की सलाह से कश्मीर जाते समय भवभूति ने पद्मावती के लिये एक संदेश भेज दिया जिससे पद्मावती में यह ज्ञात रहे कि हम कश्मीर में पहँुच गये हैं।
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